मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

स्वदेशी, विदेशी गौवंश का अन्तर



विदेशी गौवंश ‘ए-1’

अनेक खोजो से साबित हुआ है कि अधिकांश विदेशी गौवंश विषाक्त है। आॅकलैण्ड की ‘ए-2, कार्पोरेशन तथा प्रसिद्ध खोजी विद्वान ‘डा. कोरिन लेक् मैकने’ की खोजों के अनुसार ‘ए-1’ प्रकार की गौ के दूध में ‘बीटा कैसीन ए-1, पाया गया है जिससे हमारे शरीर में ‘आई जी एफ-१, इन्सुलिन ग्रोथ हार्मोन-१० तरह अधिक निर्माण होने लगता है। यह पहले ही बताया जा चुका है कि ‘आई जीएफ-1’ से कई प्रकार के कैंसर होने के प्रमाण मिल चुके हैं।

इसके ईलावा-

‘ हैल्थ जनरल’ न्यूजीलैण्ड के अनुसार ‘ए-1’ दूध से हृदय रोग मानसिक रोग, मधुमेह, गठिया, आॅटिज्म (शरीर के अंगो पर नियंत्रण न रहना) आदि रोग होते हैं। सन् 2003 में ‘ए-2’ ‘कार्पोरेशन’ द्वारा किए सर्वेक्षण से पता चला है कि इन गऊओं के दूध् से स्वीडन, यूके, आस्ट्रेलिया, न्यूजिलेंड में हृदय रोग, मधुमेह रोगों में वृद्धि हुई है। फ्रांस तथा जापान में ‘ए-2’ दूध् से इन रोगों में कमी दर्ज की गई है। प्रशन है कि हानिकारक ‘ए-1’ तथा लाभदायक ए-2 दूध् किन गऊओं में है ?

पश्चिमी वैज्ञानिकों के अनुसार ७०% हालिस्टीन, रेड डैनिश और फ्रिजियन गऊएं हानिकारक ‘ए-1’ प्रोटीन वाली है। जर्सी की अनेक जातियां भी इसी प्रकार की है। पर यह स्पष्ट रूप से कोई नहीं बतला रहा कि लाभदायक ‘ए-2’ प्रोटीन वाली गऊएं कौन सी है, कहां है स्वयं जरा ढूंढ़ें। विचार करें!!

ब्राजील में लगभग 40 लाख भारतीय गौवंश तैयार किया गया हैं और पूरे यूरोप में उसका निर्यात हो रहा है।

इनमें अधिकांश गऊएं भारतीय गीर नस्ल और शेष रैड सिंधी तथा सहिवाल हैं। क्या अब बताने की जरूरत है पड़ेगा कि उपयोगी ‘ए-2’ प्रोटीन वाली गऊएं भारतीय है ?

क्या पशुपालन विभाग का दुरूपयोग करके, करोड़ रु. अनुदान देकर, पशु कल्याण के नाम पर भारतीय गौवंश को नष्ट करने की गुप्त योजना पश्चिमी ताकतें चला रही हैं. भोले भारतीयों को उनका आभास तक नहीं है। दूध् बढ़ाने और वंश सुधार के नाम पर भारतीय गौवंश का बीज नाश ‘कृत्रिम गर्भाधन’ करके कत्लखानों से कई गुणा अधिक भारतीय गौवंश का विनाश आपकी सहमति, सहयोग से, आपके अपने द्वारा हो रह है। गौवंश विनाश यानी भारत का विनाश। धन व्यय करके कृत्रिम गर्भाधन से अपने अमूल्य ‘ए-2’ गौवंश को हम स्वयं नष्ट कर रहें हैं।

विषाक्त विदेशी गौवंश से बने संकर भारतीय गौवंश से प्राप्त किया घी, दूध्, दही ही नही, गोबर, गौमुत्रा, स्पर्श और निश्वास भी विषाक्त होगा न? दुग्ध् पदार्थो से हमारा स्वास्थ्य बरबाद नही हो रहा क्या? इनके गोबर, गौमूत्रा से बनी खाद और पंचगव्य औषधिया भी परम हानिकारक प्रभाव वाली होगी। हमारी खेती नष्ट होने, पंचगव्य औषधियों के असफल होने, घी, दूध्, दहीं खाने-पीने पर भी स्वास्थय में सुधार होने की बजाए बिगाड़ का बड़ा कारण यह संकर गौवंश हो सकता है।

समाधान सरल है:

वर्तमान संकर नस का गौवंश ‘ए-1’ तथा ‘ए-2’ के संयुक्त गुणों वाला है। इनमें ५०% से ६०% दोनो गुण हों तो स्वदेशी गर्भधन की व्यवस्था से अगली पीढ़ी में ‘ए-1’ २५% दूसरी बार १२% तथा तीसरी बार ६% रह जाएगा। बिगाड़ने वालों ने सन् 1700 से आज तक 300 साल धैर्य से काम किया, हम 10-12 सा प्रयास क्यों नही कर सकते? करने में काफी सरल है।

स्वदेशी विदेशी का अन्तर- विदेशी गौवंश तथा भारतीय गौवंश में कुछ मौलिक अंतर हमने जो जाने हैं वे निम्न है। पर यह सूचि अन्तिम नही, विद्वान और अनुभवी महानुभव इसमें संशोधन-संर्वधन करने की कृपा करें।

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

है को मित्र बना लो नहीं को शत्रु

संसार में दो मुख्य तथ्य हैं- है या नहीं।
इसको आप यूं भी कह सकते हैं कि आपके पास है या आपके पास नहीं है।
है को धनात्मक और नहीं को ऋणात्मक कह सकते हैं। है के पार्श्व में आशा छिपी है और नहीं के पार्श्व में निराशा छिपी है।
प्रायः मनुष्य जो वस्तुएं उसके पास है उसको देखें तो वह सुखी रहता है और जो वस्तुएं उसके पास नहीं है उसके लिए दुःखी रहता है और रोता है।
है और नहीं, धनात्मक और ऋणात्मक, आशा और निराशा आदि के विषय में विद्धानों एवं महापुरुषों ने अनेक सूक्ति लिखी हैं।
हम तो आपसे यही कहेंगे कि है को जानो नहीं को मत जानो। है में सफलता और सुख व प्रसन्नता परिणाम के रूप में मिलेगी जबकि नहीं को जानने में दुःख एवं अप्रसन्नता ही हाथ में लगेगी।
एक बार की बात है कि एक व्यक्ति रोता हुआ चला जा रहा था। उसके साथ एक व्यक्ति और भी चल रहा था। जो व्यक्ति रो रहा था वह थोड़ी देर में हंसने लगा। उसे हंसता देखकर जो व्यक्ति उसके साथ जा रहा था उसने सोचा ऐसा क्या हो गया जो रोता हुआ व्यक्ति अचानक हंसने लगा। न उसको कोई मिला और न उसने किसी से कुछ पूछा। उसके मन में उठने वाली जिज्ञासा ने उसे उससे पूछने के लिए प्रेरित किया तो वह उस व्यक्ति से बोला-'तुमने एकदम रोते-रोते हंसना क्यों प्रारम्भ कर दिया?' उसकी बात सुनकर वह व्यक्ति बोला-'मैं अपने नंगे पांव को देखकर रो रहा था कि भगवान्‌ ने सभी को अच्छे-अच्छे जूते, चप्पल पहनने के लिए दिए हैं और मेरे लिए जूता खरीदने के लिए भी धन नहीं है। यह सोचकर मन बोझिल हो रहा था और तरह-तरह के विचार आ रहे थे। मन दुःखी होकर रोने लगा तो मैं भी अचानक रोने लगा।'

'लेकिन फिर हंसने क्यों लगे?'-उस व्यक्ति ने फिर पूछा।

बात यह है कि जब मैंने सामने वाले व्यक्ति को देखा जिसके पैर नहीं हैं तो मन में सोचा कि मेरे तो पैर हैं और कभी न कभी तो जूते आ ही जाएंगे। पर उसके तो पैर ही नहीं हैं और पैर तो आएंगे नहीं। यह सोचकर मैंने ईश्वर को धन्यवाद दिया कि तूने मेरे पैर तो सही रखे उसके तो हैं ही नहीं। यह सोचकर हंसने लगा था।'-उसकी बात सुनकर रोने वाले व्यक्ति ने कहा।

जो है उसके लिए ईश्वर को सदैव धन्यवाद देना चाहिए। जो आपके पास नहीं है उसके लिए परेशान नहीं होना चाहिए। कर्मशील रहकर अधिकाधिक करके पाने का प्रयास करना चाहिए। सदैव आशावान्‌ रहना चाहिए। निराशा का दामन कदापि नहीं पकड़ना चाहिए। आशा में पाने की संभावना छिपी रहती है। आशा ही कुछ करने के लिए प्रेरित करती है। धनात्मक सोचना चाहिए नाकि ऋणात्मक। धनात्मक पथ पर चलने वाले सदैव उन्नति करते हैं और आगे ही बढ़ते रहते हैं। इसके विपरीत ऋणात्मक पथ पर चलने वाले सदैव अवनति ही पाते हैं और कई काल का ग्रास बन जाते हैं जिसके लिए वे आत्महत्या तक को अपना लेते हैं।

है के लिए प्रसन्न होना चाहिए और नहीं के लिए अप्रसन्न नहीं होना चाहिए। न होने पर जिसके पास है उससे ईर्ष्या भी नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह भी आपके लिए तनाव और कुपथ पर चलने के लिए एक सड़क बना देगी जिस पर चलकर या तो आप अपराधी बन जाएंगे अथवा तनाव से ग्रस्त होकर रोगी या आत्महत्यारे बन जाएंगे।

है को जानो जिसके पीछे आशा और धनात्मक सोच छिपी है। आशा ही आपको स्वप्न दिखाती है। स्वप्न देखते हैं तो पूरे भी अवश्य होंगे। पूरे करने के लिए आपको कुछ नहीं करना है बस प्रयास भर करना है। है के लिए प्रभु का सदैव धन्यवाद अदा करें।

नहीं के पीछे निराशा छिपी है, वह तुरन्त आपको अपने अधिकार में ले लेगी और आपका निर्बल मन तुरन्त निराश होकर दुःखी हो जाएगा। जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा। कुछ भी करने का मन नहीं करेगा। सबकुछ के पीछे नहीं जो आ गया है। नहीं ने आपके अन्दर ऋणात्मकता कूट-कूट कर भर दी है। इसी ऋणात्मकता के बल पर आप सबकुछ उल्टा-पुल्टा करने लगते हैं तो फलस्वरूप असफलता और हानि ही हाथ में लगती है।

मन में ठान लो कि आशा से परिचय बढ़ाना है। आशा ही धनात्मकता की संगत करेगी। धनात्मकता की संगत में सफलता मिलने की सम्भावना शत-प्रतिशत हो जाती है।

कुछ न करने से कुछ करना बेहतर है। बहुत से कार्य तो ऋणात्मकता के कारण कर्त्ता को निराश कर देते हैं और हानि के भय से वह उस कार्य को प्रारम्भ ही नहीं कर पाता है और कार्य प्रारम्भ होने से पूर्व ही असफलता के दर्शन करा देता है।

आपको असफलता से घबराना नहीं चाहिए। आपको आशा और धनात्मकता का कवच ओढ़ना है। असफलता की कोख से सफलता का सूत्र उत्पन्न होता है। इसी सूत्र के बल पर सफलता को अपनी दासी बनाया जा सकता है।

नहीं को कदापि मत पहचानो। अपनी मित्रता है से रखो।

है ही आपको आगे ले जाएगा और धनात्मक सोच के बल पर ही आप आशा को वर लेंगे। आशा ही आपके स्वप्नों के पूर्ण होने की प्रेरणा बनेगी जिसके बल पर आप सफलता को पा ही लेंगे और आपकी मनोकांक्षाएं पूर्ण हो जाने से सब आपके उदाहरण का अनुसरण करने के लिए लालायित होने लगेंगे।

तब उनके लिए यह रहस्य होगा कि आपने यह सब कैसे किया तो आप गर्व से बता सकेंगे कि हमने तो मात्र है को जाना है और नहीं को तो पहचानते भी नहीं हैं। है कि मित्रता ने और नहीं से की गई शत्रुता ने सफलता का सूत्र दे दिया जिससे समस्त भौतिक सुख थोड़े प्रयास के बल पर मिल गए।

आप भी है से मित्रता करके देखें और नहीं को शत्रु बना लें, फिर सफलता आपके साथ ही होगी।

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

सत्कर्म करो

महाभारत के युद्ध की एक घटना है। भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं-
"हे युधिष्ठिर ! अब तुम विजेता हुए हो तो अब राजतिलक का दिन निश्चित कर तुम राज्य भोगो।"
तब युधिष्ठिर कहते हैं- "मुझसे अब राज्य नहीं भोगा जाएगा। मैं अब तप करना चाहता हूँ। मुझे राज्यसुख की आकांक्षा नहीं है। तप करके फिर आकर राज्य सँभालूँगा।"
तब भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
"नहीं, तुमसे फिर राज्य नहीं होगा क्योंकि अब कलियुग का प्रभाव शुरू हो चुका है। इसलिए तुम थोड़े समय राज्य करो, फिर तप करना।"
युधिष्ठिर को यह बात समझ में नहीं आयी। वे कहने लगेः "पहले तप करूँगा, बाद में राज्य करूँगा।"
तब श्रीकृष्ण पुनः बोलेः "फिर राज्य नहीं हो सकेगा।"
युधिष्ठिर के चित्त में राज्य करने की रूचि न थी। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- "तुम पाँचों भाई वन में जाओ और जो कुछ भी दिखे वह आकर मुझे बताओ। मैं तुम्हें उसका प्रभाव बताऊँगा।"
पाँचों भाई वन में गये।

युधिष्ठिर महाराज ने देखा कि किसी हाथी की दो सूँड है। यह देखकर आश्चर्य का पार न रहा।
अर्जुन दूसरी दिशा में गये। वहाँ उन्होंने देखा कि कोई पक्षी है, उसके पंखों पर वेद की ऋचाएँ लिखी हुई हैं पर वह पक्षी मुर्दे का मांस खा रहा है। यह भी आश्चर्य है !
भीम ने तीसरा आश्चर्य देखा कि गाय ने बछड़े को जन्म दिया है और बछड़े को इतना चाट रही है कि बछड़ा लहुलुहान हो जाता है।
सहदेव ने चौथा आश्चर्य देखा कि छः सात कुएँ हैं और आसपास के कुओं में पानी है किन्तु बीच का कुआँ खाली है। बीच का कुआँ गहरा है फिर भी पानी नहीं है।
पाँचवे भाई नकुल ने भी एक अदभुत आश्चर्य देखा कि एक पहाड़ के ऊपर से एक बड़ी शिला लुढ़कती-लुढ़कती आती और कितने ही वृक्षों से टकराई पर उन वृक्षों के तने उसे रोक न सके। कितनी ही अन्य शिलाओं के साथ टकराई पर वह रुक न सकीं। अंत में एक अत्यंत छोटे पौधे का स्पर्श होते ही वह स्थिर हो गई।

पाँचों भाईयों के आश्चर्यों का कोई पार नहीं ! शाम को वे श्रीकृष्ण के पास गये और अपने अलग-अलग दृश्यों का वर्णन किया।

1 :-- युधिष्ठिर कहते हैं- "मैंने दो सूँडवाला हाथी देखा तो मेरे आश्चर्य का कोई पार न रहा।"

तब श्री कृष्ण कहते हैं-
"कलियुग में ऐसे लोगों का राज्य होगा जो दोनों ओर से शोषण करेंगे। बोलेंगे कुछ और करेंगे कुछ। ऐसे लोगों का राज्य होगा। इससे तुम पहले राज्य कर लो।

2 :-- अर्जुन ने आश्चर्य देखा कि पक्षी के पंखों पर वेद की ऋचाएँ लिखी हुई हैं और पक्षी मुर्दे का मांस खा रहा है। इसी प्रकार कलियुग में ऐसे लोग रहेंगे जो बड़े-बड़े कहलायेंगे। बड़े पंडित और विद्वान कहलायेंगे किन्तु वे यही देखते रहेंगे कि कौन-सा मनुष्य मरे और हमारे नाम से संपत्ति कर जाये। संस्था के व्यक्ति विचारेंगे कि कौन सा मनुष्य मरे और संस्था हमारे नाम से हो जाये। पंडित विचार करेंगे कि कब किसका श्राद्ध है ? चाहे कितने भी बड़े लोग होंगे किन्तु उनकी दृष्टि तो धन के ऊपर (मांस के ऊपर) ही रहेगी।

"परधन परमन हरन को वैश्या बड़ी चतुर।"

ऐसे लोगों की बहुतायत होगी, कोई कोई विरला ही संत पुरूष होगा।

3 :-- भीम ने तीसरा आश्चर्य देखा कि गाय अपने बछड़े को इतना चाटती है कि बछड़ा लहुलुहान हो जाता है। कलियुग का आदमी शिशुपाल हो जायेगा। बालकों के लिए ममता के कारण इतना तो करेगा कि उन्हें अपने विकास का अवसर ही नहीं मिलेगा। किसी का बेटा घर छोड़कर साधु बनेगा तो हजारों व्यक्ति दर्शन करेंगे किन्तु यदि अपना बेटा साधु बनता होगा तो रोयेंगे कि मेरे बेटे का क्या होगा ? इतनी सारी ममता होगी कि उसे मोहमाया और परिवार में ही बाँधकर रखेंगे और उसका जीवन वहीं खत्म हो जाएगा। अंत में बिचारा अनाथ होकर मरेगा। वास्तव में लड़के तुम्हारे नहीं हैं, वे तो बहुओं की अमानत हैं, लड़कियाँ जमाइयों की अमानत हैं और तुम्हारा यह शरीर मृत्यु की अमानत है। तुम्हारी आत्मा-परमात्मा की अमानत हैं। तुम अपने शाश्वत संबंध को जान लो बस !

4 :-- सहदेव ने चौथा आश्चर्य यह देखा कि पाँच सात भरे कुएँ के बीच का कुआँ एक दम खाली ! कलियुग में धनाढय लोग लड़के-लड़की के विवाह में, मकान के उत्सव में, छोटे-बड़े उत्सवों में तो लाखों रूपये खर्च कर देंगे परन्तु पड़ोस में ही यदि कोई भूखा प्यासा होगा तो यह नहीं देखेंगे कि उसका पेट भरा है या नहीं। दूसरी और मौज-मौज में, शराब, कबाब, फैशन और व्यसन में पैसे उड़ा देंगे। किन्तु किसी के दो आँसूँ पोंछने में उनकी रूचि न होगी और जिनकी रूचि होगी उन पर कलियुग का प्रभाव नहीं होगा, उन पर भगवान का प्रभाव होगा।

5 :-- पाँचवा आश्चर्य यह था कि एक बड़ी चट्टान पहाड़ पर से लुढ़की, वृक्षों के तने और चट्टाने उसे रोक न पाये किन्तु एक छोटे से पौधे से टकराते ही वह चट्टान रूक गई। कलियुग में मानव का मन नीचे गिरेगा, उसका जीवन पतित होगा। यह पतित जीवन धन की शिलाओं से नहीं रूकेगा न ही सत्ता के वृक्षों से रूकेगा। किन्तु हरिनाम के एक छोटे से पौधे से, हरि कीर्तन के एक छोटे से पौधे मनुष्य जीवन का पतन होना रूक जायेगा।

इसलिए पांडवो ! तुम पहले थोड़े समय के लिए राज्य कर लो। कलियुग का प्रभाव बढ़ेगा तो तुम्हारे जैसे सज्जनों के लिए राज्य करना मुश्किल हो जाएगा। फिर तप करते-करते सीधे स्वर्ग में जाना, स्वर्गारोहण करना।"

"अभी पवित्र पुरूषों के लिए भगवन्नाम कीर्तन, सत्संग ध्यान, निर्भयता और नारायण की प्रसन्नता के कार्यों को करते-करते स्वर्गारोहण करना जरूरी है। जुल्म करना तो पाप है किन्तु जुल्म सहना दुगना पाप है। पाप करना तो पाप है किन्तु पापी और हिंसकों से घबराकर उन्हें छूट देना महापाप है।"
हरि ॐ

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

मूर्तिपूजा - भगवद्भाव जगाने का प्रभावी रास्ता...

नास्तिक सुधारक के घर में पनपी हुई एक फैशनेबल लड़की हार-शृंगार से देह को सजाकर मंदिर में गई। मंदिर का द्वार आते ही वह चीखी।
"मैं मर गई रे... मुझे बचाओ.... बचाओ... बड़ा डर लगता है !"
सास ने पूछाः "आखिर क्या हुआ ?"
"मुझे बहुत डर लगता है। मैं अंदर नहीं आ सकती। मुझे घर ले चलो। मेरा दिल धड़कता है... मेरा तन काँपता है।"
"अरे ! बोल तो सही, है क्या ?"
"वह देखो, मंदिर के द्वार पर दो-दो शेर मुँह फाड़कर खड़े हैं। मैं कैसे अंदर जाऊँगी ?"
सास ने कहाः "बेटी ! ये दो शेर हैं, लेकिन पत्थर के हैं। ये काटेंगे नहीं... कुछ नहीं करेंगे।"
वह लड़की अकड़कर बोलीः "जब पत्थर के शेर कुछ नहीं करेंगे तो मंदिर में तुम्हारा पत्थर का भगवान भी क्या करेगा ?"

उस पढ़ी लिखी मूर्ख स्त्री ने तर्क तो दे दिया और भोले-भाले लोगों को लगेगा कि बात तो सच्ची है। पत्थर के सिंह काटते नहीं, कुछ करते नहीं तो पत्थर के भगवान क्या देंगे ? जब ये मारेंगे नहीं तो वे भगवान सँवारेंगे भी नहीं। उस कुतर्क करने वाली लड़की को पता नहीं कि पत्थर के सिंह बिठाने की और भगवान की मूर्ति प्रतिष्ठित करने की प्रेरणा जिन ऋषियों ने दी है, वे ऋषि-महर्षि-मनीषियों की दृष्टि कितनी महान और वैज्ञानिक थी ! पत्थर की प्रतिमा में हम भगवद् भाव करते हैं तो हमारा चित्त भगवदाकार होता है। पत्थर की प्रतिमा में भगवद भाव हमारे चित्त का निर्माण करता है, चैतन्य के प्रसाद में जागने का रास्ता बनाता है।

मूर्तिपूजा करते-करते, परमात्मा के गीत गाते-गाते मीरा परम चैतन्य में जाग गई थी। आखिर उस मूर्ति में समा गई थी। गौरांग समा गये थे जगन्नाथजी के श्रीविग्रह में। एक किसान की लड़की नरो श्रीनाथ जी के आगे दूध धरती थी। श्रीनाथ जी उसके हाथ से दूध लेकर पीते थे। थी तो वह भी मूर्ति।

तुम्हारे अन्तःकरण में कितनी शक्ति छिपी हुई है ! मूर्ति भी तुमसे बोल सकती है। इतनी तो तुम्हारे चित्त में शक्ति है और चित्त के अधिष्ठान में तो अनंत-अनंत ब्रह्माण्ड विलसित हो रहे हैं। यह ज्ञान जगाने के लिए मंदिर का देवदर्शन प्रारंभिक कक्षा है। भले बाल मंदिर है, फिर भी अच्छा ही है।

उस मूर्ख लड़की से कहना चाहिएः "जब तू चलचित्र देखकर हँसती है, नाचती है, रोती है, हालाँकि प्लास्टिक की पट्टी के सिवाय कुछ भी नहीं है, फिर भी ‘आहा..... अदभुत...’ कहकर तू उछलती रहती है। परदे पर तो कुछ नहीं, सचमुच में गुन्डा नहीं, पुलिस नहीं... पुलिस के कपड़े पहन कर अभिनय किया है। रिवोल्वर भी सच्ची नहीं होती। फिर भी गोली मारते हैं, किसी को हथकड़ियाँ लगती हैं, डाकू डाका डालकर भागता है, उसके पीछे पुलिस की गाड़ियाँ दौड़ती हैं। ड्रायवर स्टीयरिंग घुमाते हैं..... ॐऽऽऽऽ.....ॐ, तब तुम सीट पर बैठे-बैठे घूमते हो कि नहीं घूमते हो ?जबकि पर्दे पर प्रकाश के चित्रों के अलावा कुछ नहीं है।

ऐसा झूठा चलचित्र का माहौल भी तुम्हारे दिल को और बदन को घुमा देता है तो ऋषियों के ज्ञान और उनके द्वारा प्रचलित मूर्तिपूजा भक्तों के हृदयों को भाव से, प्रार्थना से, परमात्म-प्रेम से भर इसमें क्या आश्चर्य है ?

ब्रह्मवेत्ता ऋषि-महर्षियों द्वारा रचित शास्त्रों के अनुसार मंत्रानुष्ठान पूर्वक विधि सहित मंदिर में भगवान की मूर्ति स्थापित की जाती है। फिर वेदोक्त-शास्त्रोक्त विधि के अनुसार प्राण-प्रतिष्ठा होती है। वहाँ साधु-संत-महात्मा आते जाते हैं। मूर्ति में भगवदभाव के संकल्प को दुहराते हैं।
हजारों-हजारों भक्त अपनी भक्ति-भावना का अभिषेक उस देव मूर्ति में करते हैं ।ऐसी मूर्ति से भाविक भक्तों को अमूर्त तत्त्व का आनन्द मिल जाय, तो इसमें क्या सन्देह है ?

बड़े बड़े मकानों में रहने वाले सभी लोग सही माने में बड़े नहीं होते। बड़ी-बड़ी कब्रों के अन्दर सड़ा गला मांस और बदबू होती है, बिच्छू और बैक्टीरिया ही होते हैं। बड़ी गाड़ियों में घूमने आदमी बड़ा नहीं होता, बड़ी कुर्सी पर पहुँचने से भी वह बड़ा नहीं होता। अगर बड़े से बड़े परमात्मा के नाते वह सेवा करता है, उसके नाते ही अगर बंगले में प्रारब्ध वेग से रहता है तो कोई आपत्ति नहीं। लेकिन इन चीजों के द्वारा जो परमेश्वर का घात करके अपने अहं को पोसता है, वह बड़ा नहीं कहा जाता।

-परम पूज्य संत श्री आसाराम जी "बापू" की "योगयात्रा" पुस्तिका से

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

अब कब तक उन गंदी नालियों से गुजरते रहोगे ?

हरी ॐ,
शुकदेव जी का जन्म हुआ तब वे सोलह वर्ष के थे। जन्मते ही वे घर छोड़कर जंगल की ओर जाने लगे। पिता वेदव्यासजी उनके पीछे पीछे जा रहे हैं, पुकार रहे हैं-

"पुत्र ! पुत्र !! सुनो। कहाँ जाते हो ? रूको... रूको.... मैं तुम्हारा पिता हूँ। मेरी बात सुनो।"

पुत्र ने सोचा कि, 'आखिर पिता भी जैसे तैसे नहीं हैं। वन में जाना है तो उनकी आशिष लेकर ही जाना उचित है। उनको प्रार्थना कर देता हूँ।"

शुकदेवजी ने पिता से कहाः "मैं आपको एक कथा सुनाता हूँ। फिर मुझे वापस बुलाना उचित समझें तो बुलाइये। पिताजी ! सुनिये।

किसी गाँव के बाहर नदी किनारे एक ब्रह्मचारी युवक प्रातःकाल उठकर हररोज सन्ध्या-वन्दन, उपासना, योगाभ्यास आदि करता था। जप-ध्यानादि के बाद जब उसे भूख लगती तो वह एक समय भिक्षापात्र लेकर नगर में मधुकरी करता था। उस ब्रह्मचारी का संयम, साधना, ओज, तेज बढ़ता चला गया। उसी गाँव में एक कुलटा स्त्री नववधु होकर आयी थी। दो मंजिल वाला उसका मकान था। ब्रह्मचारी जब भिक्षा लेने नगर में निकलता तो वह कुलटा खिड़की से उसे निहारती।
एक दिन उस युवती का पति बाहर जाने को निकल गया तब युवती ने ब्रह्मचारी को खिड़की से झाँककर बुलाया और कहाः
"इधर आओ। मैं तुम्हें भिक्षा देती हूँ।"
वह निर्दोष ब्रह्मचारी युवक सहज स्वभाव से भिक्षा लेने ऊपर पहुँच गया। युवक के अंदर आते ही उस कुलटा ने दरवाजा बन्द कर दिया। युवक से अनधिकार चेष्टा करने की कोशिश की। ब्रह्मचारी घबराया। मन ही मन भगवान से प्रार्थना कीः
"हे प्रभु ! मेरी साधना अधूरी न रह जाय। हे मेरे मालिक ! तू ही मेरा रक्षक है। काम तो वैसे ही तीर लिये खड़ा होता है। फिर यह कामिनी अपना प्रयास कर रही है।
हे राम ! तू कृपा कर। मैं मारा जा रहा हूँ। तू कृपा करेगा तो ही बच पाऊँगा। हे
प्रभु कृपा कर...... कृपा कर.....।"
उस ब्रह्मचारी की भीतरी प्रार्थना अन्तर्यामी परमात्मा ने सुन ली। उस युवती का पति बाहर जाने को घर से निकला था। संयोगवश उसे पेट में गड़बड़ी महसूस हुई और संडास जाने के लिए घर वापस लौट आया। घर का दरवाजा खटखटाया और पत्नी को पुकारा।
पत्नी ने पति की आवाज पहचानी और वह घबराई। अब इस युवक साधु का क्या किया जाय ?उसने तुरन्त निर्णय कर लिया और युवक को संडास की मोरी में दबा दिया। पत्नी ने दरवाजा खोला। पति को संडास जाना था तो वह संडास गया। मल-मूत्र-विष्टा का त्याग किया। फिर नहाधोकर अपनी पत्नी को भी साथ लेकर बाहर चला गया।

वह नवयुवक ब्रह्मचारी बेचारा उस संडास की मोरी में सरकता सरकता एक दिन के बाद नीचे आया। उस कुलटा ने अपनी इज्जत बचाने के लिए उस बेचारे को मोरी में उलटा धकेल दिया था। सिर नीचे और पाँव ऊपर, जैसे माता के गर्भ में बच्चा उल्टा होकर पड़ा रहता है। इस प्रकार वह धीरे धीरे सरकते हुए एक दिन के बाद जब नीचे उतरा तब भंगी को उसके सिर के बाल दिखाई दिये। उसको बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने युवक को बाहर खींच लिया। युवक तो बेहोश हो गया था। भंगी को संतान नहीं थी। वह उसे अपने घर में ले गया। मूर्छित ब्रह्मचारी का इलाज किया। काफी कोशिशों के बाद युवक होश में आया। होश में आया तो वह भागकर अपनी झोंपड़ी में आया। नदी में अच्छी तरह स्नान किया। फिर आसन, प्राणायाम, ध्यान, जपादि करके स्वस्थ हुआ।
पिता जी ! उस युवक को फिर से भूख लगी। दो चार दिन के बाद भिक्षा हेतु उसे नगर में आना ही पड़ा। तब तक वह कुलटा स्त्री भी अपने घर वापस लौट आयी थी।
पिताजी ! वह युवक उस मोहल्ले में से अब गुजरेगा ही नहीं लेकिन अगर वह अनजाने में उस मोहल्ले से गुजरे और वह कुलटा स्त्री उसे पूरी पकवान खिलाने को बुलाय तो वह वहाँ जायगा क्या ? वह स्त्री उसे बार-बार अनुनय विनय करे, अच्छे अच्छे कपड़े देने का, सुन्दर वस्त्राभूषण देने का प्रलोभन दे तो वह जायेगा क्या ? नहीं, वह युवक ब्रह्मचारी उस कुलटा के पास कदापि नहीं जाएगा। क्योंकि उसे एक बार संडास की मोरी का अनुभव याद है, नाली से गुजरने की पीड़ा की स्मृति है।

पिताजी ! उस ब्रह्मचारी की तो एक ही बार मोरी से गुजरने का अनुभव याद है इससे हजारों हजारों प्रलोभनों के बावजूद भी वह कुलटा के पास नहीं जाता जबकि मैं तो हजारों हजारों नालियों से, माताओं के गर्भों में घूमता घूमता आया हूँ।
पिताजी !मुझे क्षमा कीजिए, मुझे जाने दीजिए, संसार के कीचड़ से मुझे बचने दीजिए। मुझे कई जन्मों से स्मरण है कि माता की गर्भरूपी मोरी कैसी गन्दी होती है।
उस कुलटा स्त्री के संडास की मोरी तो एक दिन की थी लेकिन यहाँ माता के गर्भरूपी मोरी में तो नौ महीने और तेरह दिन तक उल्टा होकर लटकना पड़ता है। वहाँ मल-मूत्र-विष्टा सतत बनी रहती है। माँ तीखा पदार्थ खाती है तो बच्चे की कोमल चमड़ी पर जलन होती है। उसकी पीड़ा तो बच्चा ही जानता है। माँ की गन्दी योनि के मार्ग से बाहर निकलते समय बच्चे को जो पीड़ा होती है उसका क्या बयान किया जाय ? माँ की अपेक्षा दस गुना अधिक पीड़ा बच्चे की होती है। बच्चा बेचारा बेहोश का हो जाता है।

हे पिता जी ! ऐसी पीड़ाओं से मैं केवल एक ही बार नहीं गुजरा हूँ लेकिन हजारों, लाखों, करोड़ों, अरबों बार गुजरा हूँ। अब आप मुझे क्षमा करो। मुझे उस गन्दी नालियों में ले जाने वाले संसार की ओर न घसीटो।"
संसार और चित्तवृत्तियों का बहुत पसारा मत करो। बहुत पसारा करने से फिर गंदी मोरियों से पसार होना पड़ेगा, नालियों से पसार होना पड़ेगा। कभी दो पैरवाली माँ की नाली से पसार होंगे कभी चार पैरवाली माँ की नाली से पसार होंगे, कभी आठ पैरवाली माँ की नाली से, कभी सौ पैरवाली माँ की नाली से। आज तक ऐसी कई प्रकार की माँ की नालियों से पसार होते आये हैं युगों से। अब कब तक उन नालियों से गुजरते रहोगे ? अब उन नालियों से उपराम हो जाओ। अब तो उस परमात्मा से मिलो, फिर कभी किसी नाली से गुजरना न पड़े।

-परम पूज्य संत श्री आसाराम जी "बापू" के 'निश्चिंत जीवन' पुस्तिका से,

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

तीन प्रकार के अहंकार

तीन प्रकार के अहंकार हैं-

पहलाः 'मैं शरीर हूँ... शरीर के मुताबिक जाति वाला, धर्मवाला, काला, गोरा, धनवान, गरीब इत्यादि हूँ....' ऐसा अहंकार नर्क में ले जाने वाला है। देह को मैं मानकर, देह के सम्बन्धियों को मेरे मानकर, देह से सम्बन्धित वस्तुओं को मेरी मानकर जो अहंकार होता है वह क्षुद्र अहंकार है। क्षुद्र चीजों में अहंकार अटक गया है। यह अहंकार नर्क में ले जाता है।

दूसराः "मैं भगवान का हूँ.... भगवान मेरे हैं.....' यह अहंकार उद्धार करने वाला है। भगवान का हो जाय तो जीव का बेड़ा पार है।

तीसराः 'मैं शुद्ध बुद्ध चिदाकाश, मायामल से रहित आकाशरूप, व्यापक, निर्लेप, असंग आत्मा, ब्रह्म हूँ।' यह अहंकार भी बेड़ा पार करने वाला है।'

प्रह्लाद ने किसी कुम्हार को देखा कि वह भट्ठे को आग लगाने के बाद रो रहा है। वह आकाश की ओर हाथ उठा-उठाकर प्रार्थनाएँ किये जा रहा है.... आँसू बहा रहा है।

प्रह्लाद ने पूछाः "क्यों रोते हो भाई ? क्यों प्रार्थनाएँ करते हो ?"

कुम्हार ने कहाः "मेरे भट्ठे (पजावे) के बीच के एक मटके में बिल्ली ने अपने बच्चे रखे थे। मैं उन्हें निकालना भूल गया और अब चारों और आग लग चुकी है। अब बच्चों को उबारना मेरे बस की बात नहीं है। आग बुझाना भी संभव नहीं है। मेरे बस में नहीं है कि उन मासूम कोमल बच्चों को जिला दूँ लेकिन वह परमात्मा चाहे तो उन्हें जिन्दा रख सकता है। इसलिए अपनी गलती का पश्चाताप भी किये जा रहा हूँ और बच्चों को बचा लेने के लिए प्रार्थना भी किये जा रहा हूँ किः
"हे प्रभु ! मेरी बेवकूफी को, मेरी नादानी को नहीं देखना... तू अपनी उदारता को देखना। मेरे अपराध को न निहारना..... अपनी करूणा को निहारना नाथ ! उन बच्चों को बचा लेना। तू चाहे तो उन्हें बचा सकता है। तेरे लिए कुछ असम्भव नहीं। हे करूणासिंधो ! इतनी हम पर करूणा बरसा देना।'

कुम्हार का हृदय प्रार्थना से भर गया। अनजाने में उसका देहाध्यास खो गया। अस्तित्व ने अपनी लीला खेल ली। भट्ठे में मटके पक गये। जिस मटके में बच्चे बैठे थे वह मटका भी पक गया लेकिन बच्चे कच्चे के कच्चे..... जिन्दे के जिन्दे रहे।

*मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्।*

वह ईश्वर चाहे तो क्या नहीं कर सकता ? वह तो सतत करता ही है।

परमात्मा तो चाहता है, अस्तित्व तो चाहता है कि आप सदा के लिए सुखी हो जाओ। इसीलिए तो सत्संग में आने की आपको प्रेरणा देता है। अपनी अक्ल और होशियारी से तो कर-कर के सब लोग थक गये हैं। परमात्मा की बार-बार करूणा हुई है और हम लोग बार-बार उसे ठुकराते हैं फिर भी वह थकता नहीं है। हमारे पीछे लगा रहता है हमें जगाने के लिए। कई योजनाएँ बनाता है, कई तकलीफें देता है, कई सुख देता है, कई प्रलोभन देता है, संतों के द्वारा दिलाता है।

वह करूणासागर परमात्मा इतना इतना करता है, तुम्हारा इतना ख्याल रखता है। बिल्ली के बच्चों को भट्ठे में बचाया ! बिल्ली के बच्चों को जलते भट्ठे में बचा सकता है तो अपने बच्चों को संसार की भट्ठी से बचा ले और अपने आपमें मिला ले तो उसके लिए कोई कठिन बात नहीं है।

अस्तित्व चाहता है कि तुम अपने घर लौट आओ.... संसार की भट्ठी में मत जलो। मेरे आनन्द-सागर में आओ.... हिलोरें ले रहा हूँ। तुम भी मुझमें मिल जाओ।

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

जीवन की संपत्तिः संयम - चैतन्य महाप्रभु (गौरांग) प्रसंग

एक बार चैतन्य महाप्रभु (गौरांग) अपने प्रांगण में शिष्यों के साथ श्रीकृष्ण-चर्चा कर रहे थे और चर्चा करते-करते भाव-विभोर हो रहे थे। पास में एक बड़ा वटवृक्ष था.... घटादार छाया.... मनमोहक वातावरण.. इतने में एक डोली उस वटवृक्ष के नीचे उतरी। उसमें से एक दूल्हा बाहर निकला और विश्राम के लिए वहीं बैठ गया। डोली के साथ बाराती भी थे, वे भी वहीं विश्राम करने लगे। दूल्हे का सुन्दर रूप, उसकी विशाल एवं सुडौल काया, बड़ी-बड़ी आँखें एवं आजानुबाहू.... देखते ही गौरांग बोल उठेः "अरे, यह कितना सुंदर है ! कितना बढ़िया लगता है !लेकिन यह शादी करके आया है। अब यह संसार की चक्की में पिसेगा, भोग विलास से इसका शरीर क्षीण होगा, दुर्बलकाय बनेगा, विषय-विकारों में खपेगा। संसार की चिन्ताओं में अपना जीवन बिताने की इसकी शुरुआत हो रही है। हे कृष्ण ! यह तेरा भक्त हो जाय तो कितना अच्छा हो !" वह दूल्हा कोई साधारण आदमी नहीं था वरन् वे बड़े विद्वान एवं कवि थे। वे कविराज रामचंद्र पण्डित स्वयं थे। उन्होंने गौरांग के ये वचन सुने तो उनके हृदय में तीर की तरह चुभ गये किः 'बात तो सच है।'

वे घर गये। दो दिन घर में रहे तो उन्हें लगा किः 'यह तो सचमुच अपने को खपाने-सताने जैसा है।' तीसरे ही दिन वे गौरांग के पास आये एवं उनके चरणों में गिरकर बोलेः 'हे संतप्रवर ! मुझे बचाइये। ऐसी सुडौल काया है, कुशाग्र बुद्धि है फिर भी यह जीवन विषय विलास में ही खपकर बरबाद हो रहा है। अब मेरी जीवन-गाड़ी की बागडोर आप ही सँभालिये।"

गौरांग का हृदय पिघल गया। उन्होंने कविराज रामचंद्र पंडित को गले से लगा लिया। उन्हें गुरुमंत्र की दीक्षा देकर प्राणायाम-ध्यान की विधि बता दी। थोड़े दिन तक वे गौरांग के साथ रहे एवं उनके अंतरंग शिष्य बन गये। ऐसे अंतरंग शिष्य बने कि गौरांग के मन के भाव जानकर अपने-आप ही तत्परता से उनकी सेवा कर लेते थे। गौरांग को इशारा भी नहीं करना पड़ता था। मानों, वे गौरांग की छायारूप हो गये।

एक बार गौरांग कीर्तन करते-करते ऐसी समधि में चले गये कि एक-दो दिन तो क्या, पूरे सात दिन हो गये, फिर भी उनकी समाधि न टूटी। सब शिष्य एवं विष्णुप्रिया देवी भी चिंतित हो उठी। आखिर इस सत्शिष्य रामचंद्र से कहा गयाः "अब आप ही कुछ करिये।"

उस वक्त गौरांग भाव-भाव में कृष्णलीला में चले गये थे। विहार करते-करते राधाजी का कुंडल यमुना के किनारे गहरे जल में कहीं खो गया था और गौरांग उसे खोजने गये थे। कविराज रामचन्द्र गुरु जी का त्राटक करते हुए उनके ध्यान में तल्लीन हो गये। ध्यान में वे वहीं पहुँच गये जहाँ गौरांग का अंतवाहक शरीर था। अब दोनों मिलकर खोजने लगे। कविराज ने देखा कि राधा जी का कर्णकुंडल किसी लता में फँस गया था। रामचन्द्र पंडित ने खोजा एवं दोनों ने राधाजी को अर्पण किया। राधाजी ने अपना चबाया हुआ तांबूल उनको प्रसाद में दिया वह प्रसाद चबाते ही उनकी आँखें खुली तो उसकी सुगंध चिंता में बैठे हुए समस्त भक्तों तक पहुँच गयी।

भक्त दंग रह गये कि जो आनंद एवं सुगन्ध देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, वह राधाजी के प्रसाद की सुवास में है ! यह कितनी सुखदायी, शांतिदायी है !

संत-सान्निध्य एवं संयम में बड़ी शक्ति होती है। रामचन्द्र जा तो रहे थे भोग की खाई में किन्तु गौरांग के वचन सुनकर उनके सान्निध्य में आ गये तो ऐसे महान हो गये कि राधाजी के कर्णकुण्डल खोजने में अंतवाहक शरीर (सूक्ष्म शरीर) से गौरांग के भी सहायक हो गये ! यौवन, धन एवं सौन्दर्य आदि भोग के सभी साधन एकत्रित थे फिर भी गौरांग की कृपादृष्टि को अपना लिया तो भोग छोड़कर योग के रास्ते चल पड़े रामचन्द्र।

श्रद्धा-भक्ति-समर्पण

श्रद्धावान ही शास्त्र और गुरू की बात सुनने को तत्पर होता है। श्रद्धावान ही नेत्र, कर्ण, वाचा, रसना आदि इन्द्रियों को संयम में रखता है, वश में रखता है। इसलिए श्रद्धावान ही ज्ञान को उपलब्ध होता है। उस ज्ञान के द्वारा ही उसके भय, शोक, चिन्ता, अशांति, दुःख सदा के लिए नष्ट होते हैं। श्रद्धा ऐसी चीज है जिससे सब अवगुण ढक जाते हैं। कुतर्क और वितण्डावाद ऐसा अवगुण है कि अन्य सब योग्यताओं को ढक देता है। विनम्र और श्रद्धायुक्त लोगों पर सन्त की करूणा कुछ देने को जल्दी उमड़ पड़ती है।

भक्ति करे कोई सूरमा जाति वरण कुल खोय..... इसीलिए भक्तों के जीवन कष्ट से भरपूर बन जाते हैं। एक भक्त का जीवन ही स्वयं भक्ति शास्त्र बन जाता है। ईश्वर के प्रादुर्भाव के लिए भक्त अपना अहं हटा लेता है, मान्यताओँ का डेरा-तम्बू उठा लेता है।

आज हम लोग भक्तों की जय जयकार करते हैं लेकिन उनके जीवन के क्षण क्षण कैसे बीत गये यह हम नहीं जानते, चुभे हुए कण्टकों को मधुरता से कैसे झेले यह हम नहीं जानते।

संसार के भोग वैभव छोड़कर यदि प्रभु के प्रति जाने की वृत्ति होने लगे तो समझना कि वह तुम्हारे पूर्वकाल के शुभ संस्कारों का फल है। ईमानदारी से किया हुआ व्यवहार भक्ति बन जाता है और बेईमानी से की हुई भक्ति भी व्यवहार बन जाती है।

भगवान का सच्चा भक्त मिलना कठिन है। एक हाथ कान पर रखकर दूसरा हाथ लम्बा करके अपने साढ़े तीन इंच का मुँह खोलकर 'आ....आ....' आलाप करने वाले तो बहुत मिल जाते हैं, लेकिन सच्चे भक्त नहीं मिलते। परमात्मा से मिलने की प्रबल हृदय में होनी चाहिए। ढोलक हारमोनियम की आवाज वहाँ नहीं पहुँच सकती है लेकिन पवित्र हृदय की प्रबल इच्छा की आवाज वहाँ तुरन्त पहुँच जाती है।

ऐसी अक्ल किस काम की जो ईश्वर से दूर ले जाये ? ऐसा धन किस काम का जो लुटते हुए आत्मधन को न बचा सके ? ऐसी प्रतिष्ठा किस काम की जो अपनी ईश्वरीय महिमा में प्रतिष्ठित न होने दे ? परन्तु तथाकथित सयाने लोग उन नश्वर खिलौनों को इकट्ठे करने में अपनी चतुराई लगाते हैं। उनके लिए ईश्वर का बलिदान दे देते हैं पर भक्त ईश्वर के लिए नश्वर खिलौनों का बलिदान दे देता है।

आत्मशान्ति की प्राप्ति के लिए समय अल्प है, मार्ग अटपटा है। खुद को समझदार माननेवाले बड़े बड़े तीसमारखाँ भी इस मार्ग की भूलभूलैया से बाहर नहीं निकल पाये। वे जिज्ञासु धन्य हैं जिन्होंने सच्चे तत्त्ववेत्ताओं की छत्रछाया में पहुँच कर साहसपूर्वक आत्मशांति को पाने के लिए कमर कसी है।

दुःख से आत्यान्तिक मुक्ति पानी हो तो संत का सान्निध्य प्राप्त कर आत्मदेव को जानो। महापुरुषों के चरणों में निष्काम भाव से रहकर उनके द्वारा निर्दिष्ट साधना में लग जाने से लक्ष्यसिद्धि दूर नहीं रहती।

रविवार, 5 सितंबर 2010

अपने को तोलें - " परमपूज्य संत श्री आसारामजी बापू "

सहज जीवन तो महापुरुषों का होता है, जिनके मन और बुद्धि अपने अधिकार में होते हैं, जिनको अब संसार में अपने लिये पाने को कुछ भी शेष नहीं बचा है, जिन्हें मान-अपमान की चिन्ता नहीं होती है | वे उस आत्मतत्त्व में स्थित हो जाते हैं जहाँ न पतन है न उत्थान | उनको सदैव मिलते रहने वाले आनन्द में अब संसार के विषय न तो वृद्धि कर सकते हैं न अभाव | विषय-भोग उन महान् पुरुषों को आकर्षित करके अब बहका या भटका नहीं सकते | इसलिए अब उनके सम्मुख भले ही विषय-सामग्रियों का ढ़ेर लग जाये किन्तु उनकी चेतना इतनी जागृत होती है कि वे चाहें तो उनका उपयोग करें और चाहें तो ठुकरा दें, बाहरी विषयों की बात छोड़ो, अपने शरीर से भी उनका ममत्व टूट चुका होता है | शरीर रहे अथवा न रहे- इसमें भी उनका आग्रह नहीं रहता | ऐसे आनन्दस्वरूप में वे अपने-आपको हर समय अनुभव करते रहते हैं | ऐसी अवस्थावालों के लिये कबीर जी ने कहा है :

साधो, सहज समाधि भली |

हम यदि ऐसी अवस्था में हैं तब तो ठीक है | अन्यथा ध्यान रहे, ऐसे तर्क की आड़ में हम अपने को धोखा देकर अपना ही पतन कर डालेंगे | जरा, अपनी अवस्था की तुलना उनकी अवस्था से करें | हम तो, कोई हमारा अपमान कर दे तो क्रोधित हो उठते हैं, बदला तक लेने को तैयार हो जाते हैं | हम लाभ-हानि में सम नहीं रहते हैं | राग-द्वेष हमारा जीवन है | ‘मेरा-तेरा’ भी वैसा ही बना हुआ है | ‘मेरा धन … मेरा मकान … मेरी पत्नी … मेरा पैसा … मेरा मित्र … मेरा बेटा … मेरी इज्जत … मेरा पद …’ ये सब सत्य भासते हैं कि नहीं ? यही तो देहभाव है, जीवभाव है | हम इससे ऊपर उठ कर व्यवहार कर सकते हैं क्या ? यह जरा सोचें |

कई साधु लोग भी इस देहभाव से छुटकारा नहीं पा सके, सामान्य जन की तो बात ही क्या ? कई साधु भी ‘मैं स्त्रियों की तरफ देखता ही नहीं हूँ … मैं पैसे को छूता ही नहीं हूँ …’ इस प्रकार की अपनी-अपनी मन और बुद्धि की पकड़ों में उलझे हुए हैं | वे भी अपना जीवन अभी सहज नहीं कर पाए हैं और हम … ?

हम अपने साधारण जीवन को ही सहज जीवन का नाम देकर विषयों में पड़े रहना चाहते हैं | कहीं मिठाई देखी तो मुँह में पानी भर आया | अपने संबंधी और रिश्तेदारों को कोई दुःख हुआ तो भीतर से हम भी दुःखी होने लग गये | व्यापार में घाटा हुआ तो मुँह छोटा हो गया | कहीं अपने घर से ज्यादा दिन दूर रहे तो बार-बार अपने घरवालों की, पत्नी और पुत्रों की याद सताने लगी | ये कोई सहज जीवन के लक्षण हैं, जिसकी ओर ज्ञानी महापुरुषों का संकेत है ? नहीं |

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

श्रीकृष्ण की गुरूसेवा

गुरू की महिमा अमाप है,अपार है। भगवान स्वयं भी लोक कल्याणार्थ जब मानवरूप में अवतरित होते हैं तो गुरूद्वार पर जाते हैं।
राम कृष्ण से कौन बड़ा, तिन्ह ने भी गुरू कीन्ह।
तीन लोक के हैं धनी, गुरू आगे आधीन।।
द्वापर युग में जब भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए और कंस का विनाश हो चुका, तब श्रीकृष्ण शास्त्रोक्त विधि से हाथ में समिधा लेकर और इन्द्रियों को वश में रखकर गुरूवर सांदीपनी के आश्रम में गये। वहाँ वे भक्तिपूर्वक गुरू की सेवा करने लगे। गुरू आश्रम में सेवा करते हुए, गुरू सांदीपनी से भगवान श्रीकृष्ण ने वेद-वेदांग, उपनिषद, मीमांसादि षड्दर्शन, अस्त्र-शस्त्रविद्या, धर्मशास्त्र और राजनीति आदि की शिक्षा प्राप्त की। प्रखर बुद्धि के कारण उन्होंने गुरू के एक बार कहने मात्र से ही सब सीख लिया। विष्णुपुराण के मत से 64 दिन में ही श्रीकृष्ण ने सभी 64 कलाएँ सीख लीं।
जब अध्ययन पूर्ण हुआ, तब श्रीकृष्ण ने गुरू से दक्षिणा के लिए प्रार्थना की।
"गुरूदेव ! आज्ञा कीजिए, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?"
गुरूः "कोई आवश्यकता नहीं है।"
श्रीकृष्णः "आपको तो कुछ नहीं चाहिए, किंतु हमें दिये बिना चैन नहीं पड़ेगा। कुछ तो आज्ञा करें !"
गुरूः "अच्छा....जाओ, अपनी माता से पूछ लो।"
श्रीकृष्ण गुरूपत्नी के पास गये और बोलेः "माँ ! कोई सेवा हो तो बताइये।"
गुरूपत्नी जानती थीं कि श्रीकृष्ण कोई साधारण मानव नहीं बल्कि स्वयं भगवान हैं, अतः वे बोलीः "मेरा पुत्र प्रभास क्षेत्र में मर गया है। उसे लाकर दे दो ताकि मैं उसे पयः पान करा सकूँ।"
श्रीकृष्णः "जो आज्ञा।"
श्रीकृष्ण रथ पर सवार होकर प्रभास क्षेत्र पहुँचे और वहाँ समुद्र तट पर कुछ देर ठहरे। समुद्र ने उन्हें परमेश्वर जानकर उनकी यथायोग्य पूजा की। श्रीकृष्ण बोलेः "तुमने अपनी बड़ी बड़ी लहरों से हमारे गुरूपुत्र को हर लिया था। अब उसे शीघ्र लौटा दो।"
समुद्रः "मैंने बालक को नहीं हरा है, मेरे भीतर पंचजन नामक एक बड़ा दैत्य शंखरूप से रहता है, निसंदेह उसी ने आपके गुरूपुत्र का हरण किया है।"
श्रीकृष्ण ने तत्काल जल के भीतर घुसकर उस दैत्य को मार डाला, पर उसके पेट में गुरूपुत्र नहीं मिला। तब उसके शरीर का पांचजन्य शंख लेकर श्रीकृष्ण जल से बाहर आये और यमराज की संयमनी पुरी में गये। वहाँ भगवान ने उस शंख को बजाया। कहते हैं कि उस ध्वनि को सुनकर नारकीय जीवों के पाप नष्ट हो जाने से वे सब वैकुंठ पहुँच गये। यमराज ने बड़ी भक्ति के साथ श्रीकृष्ण की पूजा की और प्रार्थना करते हुए कहाः "हे लीलापुरूषोत्तम ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?"
श्रीकृष्णः "तुम तो नहीं, पर तुम्हारे दूत कर्मबंधन के अनुसार हमारे गुरूपुत्र को यहाँ ले आये हैं। उसे मेरी आज्ञा से वापस दे दो।"
'जो आज्ञा' कहकर यमराज उस बालक को ले आये।
श्रीकृष्ण ने गुरूपुत्र को, जैसा वह मरा था वैसा ही उसका शरीर बनाकर, समुद्र से लाये हुए रत्नादि के साथ गुरूचरणों में अर्पित करके कहाः
"गुरूदेव ! और जो कुछ भी आप चाहें, आज्ञा करें।"
गुरूदेवः "वत्स ! तुमने गुरूदक्षिणा भली प्रकार से संपन्न कर दी। तुम्हारे जैसे शिष्य से गुरू की कौन-सी कामना अवशेष रह सकती है ? वीर ! अब तुम अपने घर जाओ। तुम्हारी कीर्ति श्रोताओं को पवित्र करे और तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या नित्य उपस्थित और नित्य नवीन बनी रहकर इस लोक तथा परलोक में तुम्हारे अभीष्ट फल को देने में समर्थ हों।"
गुरूसेवा का कैसा सुंदर आदर्श प्रस्तुत किया है श्रीकृष्ण ने ! थे तो भगवान, फिर भी गुरू की सेवा उन्होंने स्वयं की है।
सत्शिष्यों को पता होता है कि गुरू की एक छोटी सी सेवा करने से सकामता निष्कामता में बदलने लगती है, खिन्न हृदय आनंदित हो उठता है, सूखा हृदय भक्तिरस से सराबोर हो उठता है। गुरूसेवा में क्या आनंद आता है, यह तो किसी सत्शिष्य से ही पूछकर देखें।
गुरू की सेवा साधु जाने, गुरूसेवा कहाँ मूढ़ पिछानै।
गुरूसेवा सबहुन पर भारी, समझ करो सोई नरनारी।।
गुरूसेवा सों विघ्न विनाशे, दुर्मति भाजै पातक नाशै।
गुरूसेवा चौरासी छूटै, आवागमन का डोरा टूटै।।
गुरूसेवा यम दंड न लागै, ममता मरै भक्ति में जागे।
गुरूसेवा सूं प्रेम प्रकाशे, उनमत होय मिटै जग आशै।।
गुरूसेवा परमातम दरशै, त्रैगुण तजि चौथा पद परशै।
श्री शुकदेव बतायो भेदा, चरनदास कर गुरू की सेवा।।
हरि सेवा कृत सौ बरस, गुरू सेवा पल चार।
तो भी नहीं बराबरी, बेदन कियो विचार।।

**** आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तक "श्रीकृष्ण-जन्माष्टमी" से लिया गया प्रसंग *****

बुधवार, 14 जुलाई 2010

मौनः शक्तिसंचय का महान स्रोत

मौन शब्द की संधि विच्छेद की जाय तो म+उ+न होता है। म = मन, उ = उत्कृष्ट और न = नकार। मन को संसार की ओर उत्कृष्ट न होने देना और परमात्मा के स्वरूप में लीन करना ही वास्तविक अर्थ में मौन कहा जाता है। वाणी के संयम हेतु मौन अनिवार्य साधन है। मनु्ष्य अन्य इन्द्रियों के उपयोग से जैसे अपनी शक्ति खर्च करता है ऐसे ही बोलकर भी वह अपनी शक्ति का बहुत व्यय करता है। मनुष्य वाणी के संयम द्वारा अपनी शक्तियों को विकसित कर सकता है। मौन से आंतरिक शक्तियों का बहुत विकास होता है। अपनी शक्ति को अपने भीतर संचित करने के लिए मौन धारण करने की आवश्यकता है।


कहावत है कि न बोलने में नौ गुण। ये नौ गुण इस प्रकार हैं।
1. किसी की निंदा नहीं होगी।
2. असत्य बोलने से बचेंगे।
3. किसी से वैर नहीं होगा।
4. किसी से क्षमा नहीं माँगनी पड़ेगी।
5. बाद में आपको पछताना नहीं पड़ेगा।
6. समय का दुरूपयोग नहीं होगा।
7. किसी कार्य का बंधन नहीं रहेगा।
8. अपने वास्तविक ज्ञान की रक्षा होगी। अपना अज्ञान मिटेगा।
9. अंतःकरण की शाँति भंग नहीं होगी।


मौन के विषय में महापुरूष कहते हैं।


सुषुप्त शक्तियों को विकसित करने का अमोघ साधन है मौन। योग्यता विकसित करने के लिए मौन जैसा सुगम साधन मैंने दूसरा कोई नहीं देखा। - परम पूज्य संत श्री आसारामजी बापू


ज्ञानियों की सभा में अज्ञानियों का भूषण मौन है। - भर्तृहरि


बोलना एक सुंदर कला है। मौन उससे भी ऊँची कला है। कभी-कभी मौन कितने ही अनर्थों को रोकने का उपाय बन जाता है। क्रोध को जीतने में मौन जितना मददरूप है उतना मददरूप और कोई उपाय नहीं। अतः हो सके तब तक मौन ही रहना चाहिए। - महात्मा गाँधी

सोमवार, 12 जुलाई 2010

५ प्रकार के स्वप्न

लोग सत्संग के अभाव में ऐसे जीते है जैसे सोये हुये हों, मानो निन्द्राचारी हों। केवल चर्मचक्षुओं के खुले होने से ही आदमी जागा हुआ नही माना जायेगा। आँख खुली तो बोले कि मैं जाग गया नही-नही, हर कदम जागरुपता से आगे बढाया जायें वही व्यक्ति वास्तव में जागा हुआ हैं। ऐसी जाग्रति सत्संग से ही आती हैं। सत्संग के अभाव से, गुरुदीक्षा के अभाव में सारा दिन तेरा-मेरा करते बीत जाता है तो फिर रात को स्वप्न भी ऐसे ही देखते रहते हैं। ५ प्रकार के स्वप्न होते हैं।

१. मात्र कूडा-कर्कट कचरा स्वप्न - दिन में बाजार जाते है लोग कुछ खरीददारी करने तो वहाँ से भी बहुत कुछ कचरा ले आते है किसी से मिले, किसी से बात की, किसी पर दृष्टि पडी या किसी से परिचय हो गया फ़ोन किया, किसी को मैसेज किया या किसी का मैसेज आया ये सब कचरा ही तो है। ये सब कचरा दिन भर में लोग इकट्ठा कर लेते है और फिर रात को स्वप्न में इन्ही को देखते रहते है। धूल बहुत जम जाती है दिन भर में, सत्संग के बिना सिवाय जो भी बात करते है न, समझो कि वो धूल जमा कर रहे हैं। मिट्टी जम रही है, मैल जम रहा हैं। दिन भर हम लोग बाजार जाते है आफ़िस जाते है तो हमारे कपडों में धूल जम जाती है हम कपडे बदल देते है धो देते है साबुन लगाकर हम स्नान करते है शरीर के स्नान की अवश्यकता तो है पर अन्तःकरण की शुद्धता की आवश्यकता महसूस क्यों नही होती ? सत्संग के अभाव के कारण।

२. दूसरे प्रकार के सपने वो होते है बहुत सी आवश्यकताओं के बारे में। दिन भर में मनुष्य को बहुत सी चीजो की आवश्यकता पडती हैं जैसे मुझे ठंडा पानी मिल जाता या ठंडी लस्सी मिल जाती तो कितना मजा आता, तो ये आवश्यकतायें दिन भर में होती है और उनमें से कई आवश्यकतायें पूरी नही होती है तो भूखी आवश्यकताएं परिपूर्ती की मांग करती हैं। फिर स्वप्न में वो प्रकट हो जाती है। जैसे दिन भर किसी ने उपवास किया हो तो रात में स्वप्न देख रहा है कि में आलू की सब्जी खा रहा हूँ, परवल की सब्जी खा रहा हूँ, और रोटी खा रहा हूँ। आलू और गोभी के पराठे खा रहा हूँ दही के साथ और मजा आ रहा है वाह-वाह....। स्वप्न वही देखेगा।

३. तीसरे प्रकार के सपने होते है कुछ ईश्वरीय संकेत के, कुछ गुरु के संकेत के होते हैं कि ऐसा करों, वैसा करों। जैसे त्रिजटा को सपना आया था। जैसे अप्ने एक साधक रहते है अमदावाद में उसको बापू ने कहा कि क्या तु सो रहा है घर में, उठ जल्दी जा अपने होटल में और जो दूध आया है उसको फिकवा दे गटर में। वो जल्दी से गया और उसने दूध को छाना तो उसने देखा कि एक बडी सी मरी हुई छिपकली पडी हुई हैं। तो उसने सोचा कि बापूजी ने मुझे प्रेरणा दी अगर मैं ये दूध ग्राहकों कों दे देता और उनको कुछ हो जाता तो क्या होता ? तो कुछ सपने ईश्वरीय संकेत के होते है और वो बडे गहरे मार्गदर्शक होते हैं। हो सकता है कि आप लोगों को भी ये संकेत मिले हों लेकिन सबको नही मिल पाते हैं क्योंकि लोगों ने उसके साथ अपना संपर्क खो दिया हैं। इसलिये उसके संकेत मिल नही पाते हैं और फिर जीवन में कई प्रश्न बने रहते हैं। संसारी लोगों को भी और कई भक्ति करने वालों को भी कि क्या करुँ मेरा मन नही लगता जप में, मेरा अनुष्ठान पूरा नही हो पाता इसका क्या करुँ तो ये कई प्रश्न बने रहते हैं। तो अगर व्यक्ति शांत रहना सीखे, राग-द्वेष से रहित होना सीखें, आकर्षण-विकर्षण से रहित होना सीखे तो हम उस संकेत को पा सक्ते हैं।

४ चौथे प्रकार के सपने होते है कुछ पिछ्ले जन्मों से भी संबन्ध रखते है जैसे कभी-कभी दिखा कि हम आकाश में उड रहे हैं। अब क्या आदमी कभी आकाश में उड सकता हैं क्या ? संभव ही नही है। लेकिन किसी जन्म में पक्षी बना था उसके संसकार थे चित्त में और स्वप्न में उभरा कि मैं आकाश में उड रहा हूँ। पानी की गहराई में तैर रहा हूँ। तो पिछ्ले जन्मों से ये संबन्ध रखते हैं।

५ पाँचवें प्रकार के सपने होते है जो कि भविष्य से संबन्ध रखते हैं। कभी-कभी स्वप्न में होने वाली घटना आपको स्वप्न में पता चल जाये कि ऐसा होने वाला है। जैसे त्रिजटा को पता चल गया कि हनुमान जी लंका में आग लगाने वाले हैं। कोई पवित्र आत्मा हो या जिनका हृदय शुद्ध हो उसको कई बार बाद में होने वाली घटनायें पहले ही पता चल जाती हैं। हृदय शुद्ध होता हैं तो संकेत मिल जाते हैं। हृदय शुद्ध हो तो अकस्मात ही द्वार खुल जाता है। भविष्य के बारे में संप्रेक्षण हो जाता हैं।

परन्तु ज्युँ-ज्युँ सदगुरु की उपासना होगी भक्ति होगी त्युँ-त्य़ुँ पता चलता है विवेक जगता है कि वास्तव में ये सब स्वप्न हैं। जैसे ५ प्रकार के स्वप्न है न वैसे ही येह जो हम देख रहे है दिन में वो भी एक स्वप्न ही हैं। ये अलग प्रकार का स्वप्न है पर है, यह भी स्वप्न। पर सत्संग और भक्ति के अभाव में यह सत्य प्रतीत होता हैं। तो हमको यह सोचना चाहिये कि रात को स्वप्न में सुख भी होता है और दुख भी होता है परन्तु जब आँख खुली तो न सुख हैं, न दुख हैं और न उसकी असर हैं। तो ज्युँ-ज्युँ हम लोगों की उपासना, भक्ति बढेगी सत्संग सुनेंगे आदरपूर्वक, प्रीतीपूर्वक गुरुदेव का त्युँ-त्य़ुँ आन्तरिक स्थिति भी ऊँची होती जायेगी।

स्रोत :- हरिद्वार कुम्भ - १२ अप्रैल २०१० शाम के सत्र में स्वामी सुरेशानन्द जी (12 APR 0556PM.mp3)

रविवार, 11 जुलाई 2010

आपके पास कल्पवृक्ष है

एक ऐसा भगतड़ा था, धार्मिक था। शरीर से हट्टा-कट्टा था। कभी शिवजी की पूजा करता तो कभी राम जी की, कभी कन्हैया को रिझाता तो कभी जगदम्बा को, कभी गायत्री की उपासना करता है तो कभी दुर्गा की। कभी-कभी हनुमानजी को भी रिझाने का लगता था ताकि और कोई देवी-देवता संकट के समय में न आवें भी पवनसुत हनुमानजी जम्प मारकर आ सकते हैं। अपने पूजा के कमरे में वह भगत कई देवी-देवता के चित्र रखता था, मानो कोई छोटी-मोटी प्रदर्शनी हो।
शरीर से पहलवान जैसा वह भगतड़ा बैलगाड़ी चलाने का धंधा करता था। एक बार उसकी बैलगाड़ी फँस गई। वह नर्वस हो गया। आकाश की ओर निहार कर गिड़गिड़ाने लगाः "हे मेरे रामजी, आप दया करो। हे ठाकुरजी, आप आओ। हे कन्हैया, तू सहायता कर। हे भोलेनाथ, आप पधारो। मेरी बैलगाड़ी फँस गई है, आप निकाल दो।"
भगतड़ा एक के बाद एक करके तमाम देवी-देवताओं को बुला चुका। कोई आया नहीं। शाम ढलने लगी। सूर्य डूबने की तैयारी में था। गाँव काफी दूर था। गाड़ी में माल भरा था। लुटेरों का भय था। वह रोया। आखिर हनुमानजी को याद किया, गिड़गिड़ाया। पवनसुत जी भी नहीं आये तो वह रोते-रोते सुन्न हो गया, अनजाने में शांत हो गया। चित्त शांत हुआ तो जिससे हनुमान जी हनुमान जी हैं, जिससे गुरु गुरु हैं, शिष्य शिष्य है, जिससे सृष्टि सृष्टि है उस चैतन्य तत्त्व के साथ एकता हो गई क्षणभर। हनुमान जी के दिल में स्फुरित हुआ कि मेरा भक्त विह्वल है, मुझे याद कर रहा है।
कहानी कहती है कि वहाँ हनुमानजी प्रकट हो गये। भगत से बोलेः
"अरे ! रो क्यो रहा है ? क्या बात है ?"
"मेरी गाड़ी फँस गई है कीचड़ में। अब आपके सिवाय मेरा कोई सहारा नहीं। कृपा करके आप मेरी बैलगाड़ी निकलवा दो।"
हनुमानजी ने कहाः "अरे पराश्रित प्राणी ! यही अर्थ करता है तू भगवान को रिझाने का ? ऐसे छोटे-छोटे कार्य करवाने के लिए भगवान की पूजा करता था ? ऐसा ताजा तगड़ा है.... तेरे हृदय में भगवान का अथाह बल छुपा है उस पर तूने भरोसा छोड़ दिया ? उतर नीचे। साँस फुला। जोर लगा। पहिये को धक्का मार और बैल को चला। गाड़ी निकल जायेगी। गाड़ी पर बैठा बैठा रो रहा है कायर ! बोल, नीचे उतरता है कि नहीं ? जोर लगाता है कि गदा मारूँ ?"
आदमी अपने शौक से दौड़ता है लेकिन कोई डण्डा लेकर मारने के लिए पीछे पड़ता है तो भागने की अजीब शक्ति अपने आप आ जाती है। छुपी हुई, दबी हुई शांति प्रकट हो जाती है।
भगतड़े में आ गया जोर। नीचे उतरा, पहिये को धक्का लगाया, बैल को प्रोत्साहित किया। गाड़ी निकल गई।
"हे प्रभु ! आपकी दया गई।"
"हमारी दया नहीं, तुमने अभी अपनी शक्ति का उपयोग किया।"
हम लोग दर्शन शास्त्र का अनादर करते हैं, उससे अनभिज्ञ रहते हैं और तथाकथित भगतड़े हो जाते हैं तो हिन्दू धर्म की मजाक उड़ती है। हमारा हिन्दू धर्म, सनातन धर्म अपने पूर्व गौरव को खो बैठा है, हम लोगों के कारण। धर्म के नाम पर हम लोग पलायनवादी बन जाते हैं। व्यवहार में अकुशल और राग-द्वेष के गुलाम बनने से हमारी शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं। परब्रह्म परमात्मा का एक नाम 'उदासीन' भी है। उसमें तुम्हारी वृत्ति को आसीन करो।

आपके पास कल्पवृक्ष है। आप जो चाहें उससे पा सकते हैं। उसके सहारे आपका जीवन जहाँ जाना चाहता है, जा सकता है, जहाँ पहुँचना चाहता है, जो बनना चाहता है बन सकता है। ऐसा कल्पवृक्ष हर किसी के पास है।
सुंञा सखणा कोई नहीं सबके भीतर लाल। मूरख ग्रंथि खोले नहीं करमी भयो कंगाल।।

सोमवार, 5 जुलाई 2010

आप चाकलेट खा रहे हैं या निर्दोष बछड़ों का मांस?

चाकलेट का नाम सुनते ही बच्चों में गुदगुदी न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। बच्चों को खुश करने का प्रचलित साधन है चाकलेट। बच्चों में ही नहीं, वरन् किशोरों तथा युवा वर्ग में भी चाकलेट ने अपना विशेष स्थान बना रखा है। पिछले कुछ समय से टॉफियों तथा चाकलेटों का निर्माण करने वाली अनेक कंपनियों द्वारा अपने उत्पादों में आपत्तिजनक अखाद्य पदार्थ मिलाये जाने की खबरे सामने आ रही हैं। कई कंपनियों के उत्पादों में तो हानिकारक रसायनों के साथ-साथ गायों की चर्बी मिलाने तक की बात का रहस्योदघाटन हुआ है।

गुजरात के समाचार पत्र गुजरात समाचार में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार नेस्ले यू.के.लिमिटेड द्वारा निर्मित किटकेट नामक चाकलेट में कोमल बछड़ों के रेनेट (मांस) का उपयोग किया जाता है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि किटकेट बच्चों में खूब लोकप्रिय है। अधिकतर शाकाहारी परिवारों में भी इसे खाया जाता है। नेस्ले यू.के.लिमिटेड की न्यूट्रिशन आफिसर श्रीमति वाल एन्डर्सन ने अपने एक पत्र में बतायाः “ किटकेट के निर्माण में कोमल बछड़ों के रेनेट का उपयोग किया जाता है। फलतः किटकेट शाकाहारियों के खाने योग्य नहीं है। “ इस पत्र को अन्तर्राष्टीय पत्रिका यंग जैन्स में प्रकाशित किया गया था। सावधान रहो, ऐसी कंपनियों के कुचक्रों से! टेलिविज़न पर अपने उत्पादों को शुद्ध दूध से बनते हुए दिखाने वाली नेस्ले लिमिटेड के इस उत्पाद में दूध तो नहीं परन्तु दूध पीने वाले अनेक कोमल बछड़ों के मांस की प्रचुर मात्रा अवश्य होती है। हमारे धन को अपने देशों में ले जाने वाली ऐसी अनेक विदेशी कंपनियाँ हमारे सिद्धान्तों तथा परम्पराओं को तोड़ने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं। व्यापार तथा उदारीकरण की आड़ में भारतवासियों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ हो रहा है।

हालैण्ड की एक कंपनी वैनेमैली पूरे देश में धड़ल्ले से फ्रूटेला टॉफी बेच रही। इस टॉफी में गाय की हड्डियों का चूरा मिला होता है, जो कि इस टॉफी के डिब्बे पर स्पष्ट रूप से अंकित होता है। इस टॉफी में हड्डियों के चूर्ण के अलावा डालडा, गोंद, एसिटिक एसिड तथा चीनी का मिश्रण है, ऐसा डिब्बे पर फार्मूले (सूत्र) के रूप में अंकित है। फ्रूटेला टॉफी ब्राजील में बनाई जा रही है तथा इस कंपनी का मुख्यालय हालैण्ड के जुडिआई शहर में है। आपत्तिजनक पदार्थों से निर्मित यह टॉफी भारत सहित संसार के अनेक अन्य देशों में भी धड़ल्ले से बेची जा रही है।

चीनी की अधिक मात्रा होने के कारण इन टॉफियों को खाने से बचपन में ही दाँतों का सड़ना प्रारंभ हो जाता है तथा डायबिटीज़ एवं गले की अन्य बीमारियों के पैदा होने की संभावना रहती है। हड्डियों के मिश्रण एवं एसिटिक एसिड से कैंसर जैसे भयानक रोग भी हो सकते हैं।

सन् 1847 में अंग्रजों ने कारतूसों में गायों की चर्बी का प्रयोग करके सनातन संस्कृति को खण्डित करने की साजिश की थी, परन्तु मंगल पाण्डेय जैसे वीरों ने अपनी जान पर खेलकर उनकी इस चाल को असफल कर दिया। अभी फिर यह नेस्ले कंपनी चालें चल रही है। अभी मंगल पाण्डेय जैसे वीरों की ज़रूरत है। ऐसे वीरों को आगे आना चाहिए। लेखकों, पत्रकारों को सामने आना चाहिए। देशभक्तों को सामने आना चाहिए। देश को खण्ड-खण्ड करने के मलिन मुरादेवालों और हमारी संस्कृति पर कुठाराघात करने वालों के सबक सिखाना चाहिए। देव संस्कृति भारतीय समाज की सेवा में सज्जनों को साहसी बनना चाहिए। इस ओर सरकार का भी ध्यान खिंचना चाहिए।

ऐसे हानिकारक उत्पादों के उपभोग को बंद करके ही हम अपनी संस्कृति की रक्षा कर सकते हैं। इसलिए हमारी संस्कृति को तोड़नेवाली ऐसी कंपनियों के उत्पादों के बहिष्कार का संकल्प लेकर आज और अभी से भारतीय संस्कृति की रक्षा में हम सबको कंधे-से-कंधा मिलाकर आगे आना चाहिए।

रविवार, 4 जुलाई 2010

भारतीय सिद्धान्त के अनुसार जन्मदिन कैसे मनायें?

बच्चों को अपना जन्मदिन मनाने का बड़ा शौक होता है और उनमें उस दिन बड़ा उत्साह होता है लेकिन अपनी परतंत्र मानसिकता के कारण हम उस दिन भी बच्चे के दिमाग पर अंग्रजियत की छाप छोड़कर अपने साथ, उनके साथ व देश तथा संस्कृति के साथ बड़ा अन्याय कर रहे हैं. बच्चों के जन्मदिन पर हम केक बनवाते हैं तथा बच्चे को जितने वर्ष हुए हों उतनी मोमबत्तियाँ केक पर लगवाते हैं। उनको जलाकर फिर फूँक मारकर बुझा देते हैं। ज़रा विचार तो कीजिए के हम कैसी उल्टी गंगा बहा रहे हैं! जहाँ दीये जलाने चाहिए वहाँ बुझा रहे हैं। जहाँ शुद्ध चीज़ खानी चाहिए वहीं फूँक मारकर उड़े हुए थूक से जूठे बने हुए केक को हम बड़े चाव से खाते हैं! जहाँ हमें गरीबों को अन्न खिलाना चाहिए वहीं हम बड़ी पार्टियों का आयोजन कर व्यर्थ पैसा उड़ा रहे हैं! कैसा विचित्र है आज का हमारा समाज? हमें चाहिए कि हम बच्चों को उनके जन्मदिन पर भारतीय संस्कार व पद्धति के अनुसार ही कार्य करना सिखाएँ ताकि इन मासूम को हम अंग्रेज न बनाकर सम्माननीय भारतीय नागरिक बनायें।

1। मान लो, किसी बच्चे का 11 वाँ जन्मदिन है तो थोड़े-से अक्षत् (चावल) लेकर उन्हें हल्दी, कुंकुम, गुलाल, सिंदूर आदि मांगलिक द्रव्यों से रंग ले एवं उनसे स्वस्तिक बना लें। उस स्वस्तिक पर 11 छोटे-छोटे दीये रख दें और 12 वें वर्ष की शुरूआत के प्रतीकरूप एक बड़ा दीया रख दें। फिर घर के बड़े सदस्यों से सब दीये जलवायें एवं बड़ों को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद ग्रहण करें।

2। पार्टियों में फालतू का खर्च करने के बजाए बच्चों के हाथों से गरीबों में, अनाथालयों में भोजन, वस्त्रादि का वितरण करवाकर अपने धन को सत्कर्म में लगाने के सुसंस्कार सुदृढ़ करें।

3। लोगों के पास से चीज-वस्तुएँ लेने के बजाए हम अपने बच्चों के हाथों दान करवाना सिखाएँ ताकि उनमें लेने की वृत्ति नहीं अपितु देने की वृत्ति को बल मिले।

4। हमें बच्चों से नये कार्य करवाकर उनमें देशहित की भावना का संचार करना चाहिए। जैसे, पेड़-पौधे लगवाना इत्यादि।

5। बच्चों को इस दिन अपने गत वर्ष का हिसाब करना चाहिए यानि कि उन्होंने वर्ष भर में क्या-क्या अच्छे काम किये? क्या-क्या बुरे काम किये? जो अच्छे कार्य किये उन्हें भगवान के चरणों में अर्पण करना चाहिए एवं जो बुरे कार्य हुए उनको भूलकर आगे उसे न दोहराने व सन्मार्ग पर चलने का संकल्प करना चाहिए।

6। उनसे संकल्प करवाना चाहिए कि वे नए वर्ष में पढ़ाई, साधना, सत्कर्म, सच्चाई तथा ईमानदारी में आगे बढ़कर अपने माता-पिता व देश के गौरव को बढ़ायेंगे।

उपरोक्त सिद्धान्तों के अनुसार अगर हम बच्चों के जन्मदिन को मनाते हैं तो जरूर समझ लें कि हम कदाचित् उन्हें भौतिक रूप से भले ही कुछ न दे पायें लेकिन इन संस्कारों से ही हम उन्हें महान बना सकते हैं। उन्हें ऐसे महकते फूल बना सकते हैं कि अपनी सुवास से वे केवल अपना घर, पड़ोस, शहर, राज्य व देश ही नहीं बल्कि पूरे विश्व को सुवासित कर सकेंगे।

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

द्वेष की गाँठ मत बाँधो

मुझे एक महात्मा बताया करते थेः "हमारे गुरुजी मुझसे कहते थे कि बेटा ! मन में आये तो किसी को दो गाली दे देना लेकिन मन में गाँठ मत बाँधना। ऐसी कुछ बात हो जाय तो ठपका दे देना, तमाचा मार देना लेकिन किसी भी व्यक्ति के प्रति चित्त में द्वेष की गाँठ मत बाँधना।"

द्वेष की गाँठ अपने चित्त को मलिन कर देती है। जो कलह, झगड़े, परेशानियाँ होती हैं वे द्वेष की आग के कारण ही होती हैं। ऐसा नहीं कि परेशान करने वाला व्यक्ति दूसरे को ही परेशान करता है। नहीं.... वह बेचारा स्वयं भी परेशान होता है। जहर तो जो पीता है उसका खाना खराब करता है, जिस बोतल में पड़ा है उस बोतल का पहले सत्यानाश करता है और फिर जिस पर उड़ेला जाता है उसका सत्यानाश करता है। दोनों पक्षों की हानि होती है, फिर चाहे पति-पत्नी का द्वेष हो, राजा-राजा का द्वेष हो, व्यापारी-व्यापारी का द्वेष हो, साधक-साधक का द्वेष हो चाहे सुर-असुर का द्वेष हो। द्वेष सात्त्विक प्रकृति के व्यक्तियों के बीच का हो चाहे राजसिक-तामसिक प्रकृति के व्यक्तियों के बीच का हो, वह खाना खराबी करता है, कोई फायदा नहीं करता।

ब्रह्माजी इन्द्र और विरोचन से कहते हैं- "अगर तुममें द्वेष न होगा तो तुम मेरा थोड़ा-सा उपदेश भी समझ जाओगे। आँखों में जो दिखता है वह परब्रह्म है।" ब्रह्माजी ने सोचा कि ब्रह्मभाव में आकर मैंने ये वचन कहे हैं। मेरे इन वचनों को ही याद करेंगे, दोहरायेंगे, मनन करेंगे तो इनकी बुद्धि प्रकाशित हो जायेगी लेकिन विरोचन तो विरोचन ही था, मोटी बुद्धि का। जाकर पानी में देखा तो अपनी परछाई दिखी। किसी की आँख में देखा तो अपना प्रतिबिम्ब दिखा। आँखों में जो दिखता है वह ब्रह्म है। एक-दूसरे की आँखों में हम ही दिख रहे हैं तो हम ही ब्रह्म हैं। देहो ब्रह्मः। दिल में द्वेष की आग के कारण बुद्धि खुली नहीं थी। वह देह को ब्रह्म मानकर उलझ गया और अपनी प्रजा को भी उलझा दिया। शरीर को ही ब्रह्म मानकर अपने राज्य में जाकर प्रचार कर दिया। खाओ, पियो और मौज से जियो। मरने के बाद किसने क्या देखा है?

यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।

विरोचन का यह सिद्धान्त विदेशों में देखा जाता है। सुबह से शाम तक, जन्म से मौत तक जीवन का पूरा आयोजन, विकास और वैज्ञानिक आविष्कार, बुद्धिमानों की पूरी अक्ल होशियारी शरीर को सुख देने के लिए ही लगायी जा रही है। उनमें असुरों का सिद्धान्त फूला-फला है।
देवताओं का राजा इन्द्र सात्त्विक था। उसने सोचाः 'दिखता तो देह है, क्या देह ब्रह्म है?' जाकर ब्रह्माजी से पूछा तो वे खुश हुए कि इसने विचार का सहारा लिया है। बोलेः "अब इस देह को नहलाकर, सुन्दर वस्त्रालंकार पहनाकर आओ।"
इन्द्र वैसा होकर गया। ब्रह्माजी ने कहाः "अब अपना प्रतिबिम्ब पानी में देखो। क्या दिखता है?"
"अब मैं सजा-धजा, आभूषणों से विभूषित दिखता हूँ। पहले बिना आभूषण का था।"
"आभूषणवाला और बिना आभूषण का, इन दोनों को जो जानता है वह ब्रह्म् है। एकान्त में जाकर चिन्तन करो।" चिन्तन व खोजबीन में समय बिताकर इन्द्र फिर ब्रह्माजी के पास आया। बोलाः "इन दोनों को देखता है मन।" "मन को भी जो देखता है वह ब्रह्म है।"
सोचते-सोचते, खोज करते-करते विश्रांति नहीं मिली, साक्षात्कार नहीं हुआ। फिर वापस आकर बोलाः "हे भन्ते ! कृपानाथ ! कृपा करें। मुझे ब्रह्म-साक्षात्कार करा दीजिए, परमात्मा में विश्रांति प्राप्त करा दीजिए। इसके बिना जीव अभागा है। जब तक आत्म-साक्षात्कार नहीं होता तब तक मेरी इन्द्र पदवी भी तुच्छ है ऐसा मैंने समझा है। अब आपके शरण हूँ। कैसे भी हो, मुझे परमात्मतत्त्व का बोध करा दीजिए प्रभो !"
ब्रह्माजी के हृदय में प्रसन्नता हुई कि शिष्य अधिकारी है, ब्रह्मज्ञान का मूल्य समझता है। अपने जीवन व आत्मबोध का मूल्य समझता है। बोलेः "मन को जो देखता है वह ब्रह्म है। फिर से जा एकान्त में और खोज कर, चिन्तन कर।"
एकान्त में जाकर इन्द्र विचार करने लगा, देखने लगा कि कौन मन को देखता है। वह समाहित होने लगा। धीरे-धीरे इन्द्रियाँ मन में आ गईं। मन को कौन देखता है – यह प्रश्न करते-करते मन के संकल्प – विकल्प कम हो गये। इन्द्रियों का संयम हो गया, मन एकाग्र हो गया। मन संयत हुआ तो बुद्धि का प्रकाश होने लगा। मन की हरकतों को देखते-देखते उसका मन अमनीभाव को प्राप्त होने लगा। ऐसे गहरे चिन्तन में उतरते-उतरते इन्द्र इन्द्र न बचा। इन्द्र वही हो गया जिससे ब्रह्माजी ब्रह्माजी हैं।
ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर कार्य रहे न शेष।
मोह कभी न ठग सके इच्छा नहीं लवलेश।।
पूर्ण गुरु कृपा मिली पूर्ण गुरु का ज्ञान।
सुरपति इन्द्र हो गये स्वयं ब्रह्मप्रतिरूप।।

मंगलवार, 29 जून 2010

मनुष्य स्वभाव में पशुता का प्रभाव

इस संसार में मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई पशु-पक्षी खतरनाक नही। मनुष्य की हानि जितनी मनुष्य के हाथों हुई है उतनी पशुओं के हाथों नही हुई हैं। कोई भी पशु-पक्षी इतना भयानक नही है जितना की मनुष्य भयानक है खूंखार है। कारण एक पशु सिर्फ़ एक पशु की ही बराबरी रखता है और मनुष्य अनेक पशु की बराबरी रखता है। इसीलिये मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई भी खतरनाक नही हैं। इसीलिये जितनी बंदिश मनुष्य के लिये रखनी पडती है उतनी किसी पशु-पक्षी के लिये नही रखनी पड़ती हैं। ये जो बम, बन्दूक, तोप, टैंक, परमाणु बम बनाये गये है ये किसी पशु-पक्षी को मारने के लिये नही बनाये गये हैं, ये मनुष्य को मारने के लिये ही हैं। क्योकि जैसे-जैसे मनुष्य खतरनाक होता गया हथियार भी खतरनाक होते गये। जब मनुष्य सहज और सरल जी रहा था। तब उसका सबसे बडा हथियार लाठी थी। जब उसकी शान्ति थोडी भंग हुई तो लाठी ने बरछे का रूप ले लिया। जो थोडा और शान्ति भंग हुई तो तीर-कमान बन गये। फिर बन्दूक आयी, फिर तोपें आई, फिर टैंक आये। अब आज मनुष्य इतना खतरनाक हो गया है कि उसको काबू में रखने के लिये हाईड्रोजन बम बन गये हैं। अनगिनत ऐसे उदाहरण मिलते है कि मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई भी पशु खतरनाक नही हैं। रात के समय तकरीबन-तकरीबन सारे बाजार बंद हो जाते हैं दुकानों में बडे-बडें ताले लग जाते हैं एक नही कई-कई ताले लगाये जाते हैं। दुकानदार से कोई पूछे कि जो तुने ये ५-१० ताले लगाये हैं वो किस लिये ? पशु से डर है, पक्षी से डर हैं, कीडीयों का डर है, मकोंडों का डर हैं, बैलों का डर हैं, आखिर तुझें किसका डर हैं ? तब वह एक ही जवाब देता है कि किसी पशु का डर नही है सिर्फ़ मनुष्य का ही डर हैं कही कुछ चुराकर न ले जाये। आदमी आदमी से जितना परेशान है उतना किसी से भी परेशान नही हैं। इससे इतना तो पता चलता है कि मनुष्य जितना खतरनाक है उतना कोई भी खतरनाक नही हैं। किसी पशु में जब खूँखारीपना आता है तो वो ज्यादा से ज्यादा १-२-३ के ऊपर हमला करके उनको मौत के घाट उतारता हैं लेकिन जब मनुष्य में पशु वृत्तियाँ प्रधान रूप लेती हैं, जब खूँखारीपना आता है तो वो बस्ती की बस्तियाँ उजाड़ देता हैं। शहरों के शहर खाख में मिला देता हैं। कई बार तो देश के देश बरबाद कर देता हैं। मनुष्य के अन्दर इतनी पशु वृत्तियाँ पैदा हो गयी हैं। आज कल सुनने में आया है कि देश-विदेशों में चर्चा हो रही है कि पशुओं की नस्ले खत्म हो रही हैं इनको कैसे बचाया जाये उनका उपाय ढूँढा जा रहा हैं। कही ऐसा ना हो कि वो जानवर बिलकुल ही खत्म ना हो जायें, परन्तु मैं तो सोचता हूँ कि उन जानवरों की तो हमको जरुरत ही नही हैं। क्युँ जब मनुष्य ही जानवरों की तरह जीने लगा हैं तो फिर जानवरों की जरुरत ही नही हैं। जो मनुष्य शहरों को ही जंगल बना ले तो फिर जंगल की भी जरुरत नही हैं क्योंकि जंगलों के अन्दर भी पशु इतने नही लडते हैं जितने शहरों में मनुष्य में लडते हैं। घोसलों में भी पक्षी इतने नही लडते है जितने अपने घर के अन्दर मनुष्य ने क्लेश, अनर्थ मचाया हुआ हैं। लडाई-झगडे की अगर परकाष्ठा देखनी है तो मनुष्यों के बीच देखने को मिलती है, पशुओं की दुनियाँ में इतनी नही। पक्षीयों की दुनियाँ में इतनी नही।
मनुष्य चिडियाघर में जाता हैं पशु-पक्षीयों को देखने के लिये और वहाँ बहुत से पशु-पक्षीयों को देखता हैं, अगर वो कभी अपनी सूरत को अपनी अंतराआत्मा में ले जाये तो उसे पशुओं की अनेक वृत्तियाँ अपने अन्दर नजर आयेगी। आकार या स्वरूप से पशु अन्दर नही बैठे हैं परन्तु सूरत करके, संस्कार करके, स्वभाव करके ये सारे पशु मनुष्य के अन्दर बैठे हैं। कौन-कौन से पशु इनमें प्रमुख हैं
उदयान बसनम संसारं सन बन्दी स्वान, स्याल, खरें ।
ऐं मनुष्य जो तेरे संबन्धी है वो है स्वान माने कुत्ता, सियाल माने गीदड़ और खरे मतलब गधा। ये तेरे रिश्तेदार हैं
अब ये पढों तो आपको क्रोध आयेगा कि मनुष्य के सम्बन्धी कुत्ते, सियाल और गधे हैं। हकीकत ये है कि मनुष्य का असली संबधी या रिश्तेदार तो उसका स्वभाव ही होता है और उसके स्वभाव में ही ये तीनों बैठें है।
सियाल की बात करे तो उसके रोम रोम में आलस्य भरा पडा हैं और डर हैं। तो जो बन्दा आठों पहर डरा ही हुआ हैं कि मौत का डर है, मुझे लूट लेगा, मुझसे मेरा सब कुछ छीन लेगा, बिमारी का डर, मान-सम्मान का डर और आलसी हैं वो चाहता है कि वो कुछ ना करे लेकिन उसको सब कुछ मिल जायें फिर उसके लिये चाहे कुछ भी करना पडे झूठ, फरेब, एक दूसरे को लडायें कैसे भी करें लेकिन मुझे सब कुछ मिले ये वृत्ति जिसके अन्दर है वो मनुष्य होते हुए भी सियाल रूप है।
कबीरदास जी का कहना हैं कि
कहत कबीर राम गुण गाओं, आप न डरों औरों न डराओं ।
राम के गुण गाते-गाते मैं इस हालत में पहुँच गया कि न किसी से डरता हूँ और ना किसी को डराता हूँ।
गुरु तेगबहादुर जी कहते हैं कि
भय काहू को देत है, न भय मानत को आन, कह नानक सुन रे मना, ज्ञानी ते बखान
मनुष्य के अन्दर कुत्ता भी हैं, कुत्ते की फितरत क्या हैं ? कि कुत्ता कुत्ते को पसन्द नही करता हैं। कुत्ता कुत्ते पर भोंकता हैं। कुत्ता कुत्ते पर टूट पडता हैं। हम देख रहे है कि कुत्ता कुत्ते का बैरी है। पर जो मनुष्य भी मनुष्य का बैरी होये तो, जब मनुष्य को मनुष्य ही अच्छे न लगें और मनुष्य मनुष्यों पर ही आवाजें करें तो मनुष्य और कुत्ते में क्या फर्क रह गया। ये वृत्ति कूकर वृत्ति हैं जो आज के मनुष्य में विशेष रूप में दिख रही हैं और आज एक बात और आश्चर्य की है कि मनुष्य मनुष्य को अपने पास बैठाने से कतराता हैं लेकिन कुत्ते को अपनी गोद में बडे प्यार से बैठाता है अपने साथ सुलाता है और अपने साथ घुमाता भी हैं। ऐसा क्युँ हैं लगता है कि अन्दर भी स्वभाव कुत्ते का और बाहर भी कुत्ते का संग दोनो का साथ हो गया हैं। वरना अगर मनुष्य के अन्दर मनुष्यता होती तो उसको मनुष्य के साथ भी प्यार होना चाहिये था, उसके साथ भी सहानुभूति होनी चाहिये थी, लेकिन नही है इससे साफ़ जाहिर होता है कि मनुष्य के अन्दर पशु वृतियाँ बहुत बढ़ गयी हैं। मनुष्य मनुष्य को गलत बोले, मनुष्य मनुष्य को बिना सोचे समझे दोष लगाये वह भी कूकर वृति हैं और मनुष्य मनुष्य को जख्मी कर जाये तो वो भी कूकर वृति हैं।
एक बार एक गरीब लकडहारा लकडी काट कर बाजार गया तो उसको रास्ते में एक कुत्ते ने काट लिया जब वह घर आया तो उसकी बच्ची ने कुत्ते के काटे का जख्म देख कर रोना शुरु कर दिया और पूछा कि अब्बा ! यह क्या हुआ तो उसने बोला कि बेटा कुत्ते ने काट लिया तो उसकी बेटी ने कहा कि जब उसने काटा तो फिर आपने उसको क्यों नही काटा क्या आपके पास तेज दाँत नही हैं। तब उसका पिता बोला कि बेटा ये काम तो कुत्ते का हैं किसी मनुष्य का नही अगर मनुष्य भी यह काम करने लगा तो फिर मनुष्य और कुत्ते में क्या फ़र्क रह जायेगा।
लेकिन आज यह अक्सर देखा गया हैं कि कोई किसी पर बिना किसी बात के चिल्लाता हैं, बिना सोचे समझे दोष लगाता हैं, उसे नफ़रत भरी निगाहों से देखता हैं और दूसरों को भी यह करने को बोलता है यह सब कूकर वृत्ति हैं
मनुष्य के अन्दर गधा भी हैं। गधा भारत के अन्दर बवकूफ़ का चिन्ह माना जाता हैं। ये धोबी का गधा या कुम्हार का गधा ये गधे असली गधे नही है असली गधा तो कोई और हैं। इस पर नानक जी कहते हैं।
नानक ते नर असल खर, जो बिन गुण गर्व करें
बिना गुण के आठों पहर मान को लिये जो नर फूला रहता हैं अहंकार को लिये फूला रहता है नानक जी उसके लिये कहते है कि वो असल में गधा हैं। क्योंकि इसको पता ही नही है कि तेरे आसरे पर जग नही खडा है बल्कि तु खुद किसी के आसरे पर खडा हैं। तू कृत है कर्ता नही । पर मनुष्य ने अहंकार की इतनी वृद्धि कर ली है कि उसका कोई मुआवजा ही नही हैं। ये गधे की वृत्ति हैं।
कबीरदास जी कहते है कि मनुष्य के अन्दर भैसे की भी वृत्ति भी होती है। भैसे की वृत्ति ये होती है कि वो अमोड चलता है मतलब कि उसको किसी दिशा में मोडों तो मुडता नही। वो अपनी धुन पर चलता हैं। वो अपनी ही चाल पर चलता है फिर चाहे वो चाल गलत हो या मार्ग गलत हो पर वो रुकता नही है कोई उसको रोके पर वो रुकता नही। ये देखा गया है कि जब किसी मनुष्य को २-४ लोग समझा रहे हो कि यह गलत है शास्त्र, गुरु या महापुरुष इसकी इजाजत नही देते, समाज भी इसको ठीक नजर से नही देखता हैं। तो भी वो मनुष्य उनकी नही सुनता है और इस पर तर्क करता है कि तुम कौन होते हो मुझे बताने वाले या समझाने वाले, मैं तो जिस रास्ते चलुंगा जैसी मेरी मर्जी, तो कबीरदास जी कहते हैं कि ये भैसे की वृत्ति हैं। कि समझाने पर भी न समझना, मोडने पर भी न मुडना, और अपनी हठधर्मी कायम रखनी और उस हठधर्मी के मुताबिक चलते जाना ये भैसे की वृत्ति हैं। गलती पे गलती करते जाना, कोई रोके तो रुके ना कबीरदास जी कहते है कि ये अमोड वृत्ति भैसा हैं।
माता भैसा अमुआ जाये, कुद कुद चरे रसातल पाये
धर्म का जन्म, ज्ञान का जन्म महापुरुषों का आगमन इस वास्ते हुआ कि मनुष्य अपने अन्दर हो रही इन पशु वृत्तियों को समाप्त करे जो उसको बेचैन कर रही हैं जो उसको दुखी कर रही हैं और सादा और सरल जीवन बनाये और ये विदा होंगे प्रभु चिन्तन से, सत्संग से, जो मनुष्य महापुरुषों की बात नही मानेगा तो उसके अन्दर की ये वृत्तियाँ बढती ही जायेंगी। साधू-संतों के बिना या प्रभु भजन के बिना जीना तो ऐसा जीना है जैसे साँप जीता है। साँप का काम क्या हैं वो खाता है पीता है तो खाते-पीते उसके अन्दर जहर बनता हैं जब जहर भर जाता है तो वह डंक मारता हैं। जहर को किसी के शरीर के अन्दर प्रविष्ट कर देता है। ऐसा ही नही कि साँप डंक मारते हैं, मनुष्य भी डंक मारते है। हो सकता है कि साँप का डसा हुआ कोई बच भी जाये परन्तु मनुष्य के डंक से तो कोई बचता ही नही, मनुष्य इस तरह का जहरीला है।
बिन सिमरन जैसे सर्प अरजारी, त्यु साखत जीवे नाम बिसारी ।
बिन सिमरन डिग कर्म करास, काक बटन विष्टा में वास ॥

गुरुओं का ऐसा भी वचन है कि मनुष्य के अन्दर कौवा भी है। किस तरह पता चलेगा कि मनुष्य के अन्दर काक वृत्ति है। कौवे के मुंह में सुगन्ध नही होती कपूर नही होता, दुर्गंध ही होती हैं विष्टा होती है, हड्डी का टुकडा होता हैं। दुर्गंध उसके मुह में होगी। कौवे की बोली बडी प्रखर हैं। बडी सख्त हैं। जो बन्दा बहुत सख्त बोले, कडुवा बोले, गंदा बोले, गालियाँ ही उसके मुह पर होवे, चार गालियाँ बोल कर ही बात शुरु करता हो तो साहिबो का कहना है कि ये कौवे वाली वृत्ति हैं। बडा कडक बोलता है, बडी कसक है इसकी बोली में, बडी चोट है, फिर बोलना बडा गंदा है तो मुह में इस गन्दगी का होना ये कौए की निशानी है। जिस समय मनुष्य के अन्दर कौवे की वृत्ति प्रधान होती है उसके मुह में गन्दगी आ जाती हैं।
बिन सिमरन डिग कर्म करास, काक बटन विष्टा में वास, बिन सिमरन गर्भक की नाई, सापध थाउ भ्रष्ट फिराई।
सिमरन को छोड़ कर जीव ऐसे जीता है जैसे कुत्ता, अब जो साहिब जी बताते है वो सबसे याद रखने वाली बात है
हर के नाम बिना है सुन्दर है नकटी, ज्यु वेश्वा के घर पूत जमत है तिस नाम परयों है प्रगटी।
वेश्या का पुत्र अपना नाम नही बोल सकता है किसी महफिल के वीच उसके पिता का नाम उसको पूछो तो वो बेचारा क्या बोलेगा क्योकि वेश्या का पुत्र हैं। इसलिये महफिल उसको शर्मसार करती है। गुरु अर्जुन देव जी महाराज का कहना है कि वेश्या के पुत्र को शर्मसार मत करों। वो सिर्फ अपने शरीर के पिता को नही जानता कि कौन है? और वेश्या का पुत्र नही हैं। वास्तव में वेश्या का पुत्र वो है जो जगतपिता को नही जानता जिसको जगत पिता का बोध नही हैं। जिसने इसकी माँ को भी पैदा किया, इसके पिता को भी पैदा किया और इसको भी पैदा किया है जिसको उसका बोध नही हैं वो वास्तविक में वेश्या का पुत्र हैं। ये इल्जाम इसलिये है न कि उस वास्ते कि वो वेश्या का पुत्र हैं। कारण ये है कि जिस समय मनुष्य नाम से टूटता हैं उसी समय अनगिनत पशु वृत्तियाँ उसके अन्दर जाग्रत हो जाती हैं और मनुष्य बहुत खतरनाक हो जाता हैं। जब खतरनाक हो जाता है तो फिर इस पर बंदिशें भी लगानी पड़ती हैं।
भाई गुरुदास जी कहते हैं कि मनुष्य को जीने का ढंग कीडी से सीखनी चाहियें। क्योकि जितने तेरे अन्दर अवगुण है उतने ही गुण भी हैं कीडीयों में एक खूबी होती है कि एक चोटी सी जगह में भी बहुत सारी एक साथ रहती है और प्यार के साथ में रहती है लेकिन मनुष्य बडे घर में दो परिवारों के साथ नही रह सकता हैं कीडी का आकार बहुत छोटा हैं लेकिन दिल बहुत बडा हैं। लेकिन मनुष्य का आकार बहुत बडा है पर दिल बहुत छोटा हैं। कीडी में एक और खूबी हैं कि घी शक्कर की खुशबू उसको आ जाये तो वो चल पडती है अकेले नही सभी को साथ लेकर, दाना मुह में लेकर आती है एक जगह पर रखती है और फिर दूसरा लेने जाती है क्योकि उसको विश्वास हैं कि जो दाना मैं रख कर गयी हूँ वो मुझे मिलेगा। पर मनुष्य की दुनिया में ये विश्वास नही हैं। अगर कोई चीज बाहर रख जाये तो उसको वो वापस मिलेगी कि नही उसको विश्वास नही हैं। मिल कर रहने की जो भावना कीडीयों के अन्दर है उतनी मनुष्य के अन्दर नही हैं।
इसलिये भाई गुरुदास जी कहते है कि हे मनुष्य तू प्रभु चिन्तन कर ताकि अपने अन्दर के पशुओं को तू बाहर निकाल सकें जिस दिन ये सारे पशु तेरे अन्दर से विदा हो जायेंगे उस दिन मनुष्यता निखर जायेगी। उस दिन वो जो प्रार्थना करता है तो उसके अन्दर देवत्व झलकता है। उसके अन्दर परमात्मा झलकता हैं, उसके अन्दर ईश्वर झलकता हैं। वो मनुष्य होते हुए ईश्वर की ज्योत प्रकट कर लेता हैं।
नामे नारायण नही भेद राम कबीरे भेद न पावे
मनुष्य दो जगत के बीच में है पशुओ का जगत और परमात्मा का जगत, पशुओ का जगत पीछें है और परमात्मा का जगत आगे हैं। जब पशु जगत की इच्छा मनुष्य के अन्दर जगती है तो वो दुराचारी बन जाता हैं तब वो किसी भी नियम को नही मानता परन्तु उसके अन्दर इच्छा उस प्रभु की भी हैं जो शिखर पर हैं। पशुओ का जगत नीचे है और प्रभु का जगत ऊपर हैं। मनुष्य इन दोनों के बीच में खडा हैं। कभी प्रभु की ओर खिचता है तो धर्म-मन्दिरों का रुख करता हैं। धर्म-ग्रन्थों का पाठ-पठन करता हैं। सतपुरुषों के बीच बैठता हैं और बैठकर आनंद मानता हैं। जब आनंद मना ही रहा होता है तो पशुओं के जगत का खिचाव शुरु हो जाता है क्योंकि राग-द्वेश-अहंकार उसके अन्दर आ जाते है फिर वो नीचे गिर जाता हैं। इसी तरह कभी ऊपर कभी तो कभी नीचे होता रहता है कारण कि पशुओं के जगत का अपना खिचाव है और प्रभु के जगत का अपना खिचाव हैं। सत्संग और साधना में बहुत ज्यादा जोर इसलिये दिया जाता है कि मनुष्य इस पशुओं के जगत के खिचाव से बच कर प्रभु के जगत के ओर पहुँच जाये और लीनता भी उसको इस तरह मिल जाये कि " नानक लीन भयों गोविन्द ज्यु पानी संग पानी " सरिता रेगिस्तान में भी खो सकती है और सरिता सागर में भी खो सकती हैं। सरिता अगर रेगिस्तान में खो गयी तो अपना वजूद मिटा देगी और अगर सागर में खोई तो सागर का रूप बन जायेगी। ऐसे ही मनुष्य अगर पशुओं के जगत में खो गया तो अपनी मनुष्यता खो बैठेगा और अगर परमात्मा में लीन हो गया तो परमात्मा का ही रूप हो जायेगा, ईश्वर का ही रूप हो जायेगा। और ईश्वर का रूप होने ही मनुष्य इस जगत में आया हैं।

रविवार, 27 जून 2010

गुरु हरगोविन्द सिंह जयन्ती (२७ जून २०१०)

सिखों के छ्ठे गुरु गुरु हरगोविन्द सिंह जी की आज जयन्ती है । इसी उपलक्ष्य में उनके समय की एक कथा लिख रहा हूँ।
कहते है कि गुरु के दरबार में जो भी आता हैं वह कभी खाली वापस नही जाता है फिर चाहे वो स्वार्थ भाव से आये या फिर निस्वार्थ भाव सें आयें ।
गुरु हरगोविन्द सिंह जी के समय में एक बहन जिसका नाम सुलक्षणा था बडी परेशान थी क्योंकि उसकी कोई संतान नही थी वह हर जगह जा जा कर थक गई मन्दिर, मस्जिद, मजार, मसान सभी जगह उसने फरियाद लगाई लेकिन उसको कोई संतान नही हुई। तभी किसी ने कहा कि जो तुझे पुत्र चाहिये तो गुरुनानक के दर पर जा, इस समय गुरुनानक जी की छठी ज्योत मीरी पीरी के मालिक गुरु हरगोविन्द जी अकाल तख्त में सुशोभित है तु उनके चरणों मे जा कर विनती कर, सुना है कि गुरुनानक जी के दर पर जा कर अरदास करता है माँग माँगता है वो कभी खाली नही लौटता है। सुलक्षणा बहन जब मीरी पीरी के मालिक गुरु हरगोविन्द जी के चरणों में गयी और विनती की " हे सच्चे बादशाह ! तेरे चरणों में अरदास हैं मैं सारे-सारे द्वारे ड़ोल आयी हुँ कही खैरात नही मिली एक बस अब तेरा दर रह गया है और तेरे दर के लिये मैने सुना है जो तेरे दर पर आता है वो कभी खाली नही जाता हैं । मेरी झोली में भी एक पुत्र ड़ाल दों । " मीरी पीरी के मालिक गुरु हरगोविन्द जी ने एक पल के लिये आँखें बन्द की और जो आँखे खोली तो बोले "सुलक्षणिये ! तेरे भाग्य में तो सात जन्मों तक संतान नही हैं ।" सुलक्षणा बहन बडी उदास होकर वापस चल पडी जब जा रही थी तो रास्ते में भाई गुरुदास जी मिल गये। आँखों में आँसु थे सुलक्षणा बहन के, भाई गुरुदास जी बोले " क्या बात है बहन ! गुरु नानक जी के दरबार से तो जो रोता हुआ आता है वो भी हँसता हुआ जाता है तो फिर तु क्युं रो रही है ।" सुलक्षणा बहन बोली कि एक पुत्र माँगने आयी थी गुरुनानक जी के दर पर, पर आज वहाँ से भी जवाब मिल गया। भाई गुरुदास जी ने पूछा "साहिब जी ने क्या कहा ?" सुलक्षणा बहन बोली "साहिब जी ने बोला है कि तेरे भाग्य में पुत्र है ही नही ।" तो भाई गुरुदास जी ने कहा कि आपने विनती करनी चाहिये थी कि अगर वहा भाग्य में नही लिखा है तो आप यहाँ लिख दो क्योकि वहाँ भी लिखने वाले आप ही हो और यहाँ भी देने वाले आप ही हो। सुलक्षणा बहन को युक्ति बताई भाई गुरुदास जी ने कि जब कल साहिब जी अपने घोड़े पर जायेंगे सैर के लिये तब रास्ते में तुम उनसे विनती करना।
आज सुलक्षणा बहन रास्ते पर आकर खड़ी हो गयी क्योंकि उसे पता था कि आज इस रास्ते से मीरी पीरी के मालिक गुरु हरगोविन्द जी आने वाले हैं, जैसे ही साहिब जी आये और घोड़े पर चढ़ने लगे तो सुलक्षणा बहन ने उनके चरण पकड़ लिये और बोली " गरीब नवाज ! कृपा करो
नाम मेरा सुलक्षणी, मैं वसती हूँ चोबे, अरज करेनीया है हरगोबिन्द आगे, अ फलजान्दीनु कोई फल लगें ।
विनती करती है कि एक पुत्र दे दो । तुझे बोला था कल कि तेरे भाग्य में पुत्र हैं ही नही ।" सुलक्षणा बहन बोली कि उधर भी भाग्य लिखने वाला तू ही है और ईधर भी भाग्य बनाने वाला तू ही हैं। जो उधर नही लिखा तो इधर लिख दों ऐसी प्यार से जो उसने विनती की तो हरगोविन्द जी प्रसन्न हो गये और बोले "सुलक्षणा जा तुझे पुत्र दिया ।" सुलक्षणा बहन हाथ जोड़कर बोली "साहिब जी ! मुझसे तो बहुतों ने कहा कि तुझे पुत्र होगा पर आज तक नही हुआ अब मुझे कह कर नही आप मुझे लिख कर देकर जाओ।" साहिब जी बोले "अच्छा तो जा कागज कलम ले आ मैं लिख देता हूँ ।" सुलक्षणा ने ढूँढा और तो कुछ नही मिला उसको, सामने एक ठीकरी पडी थी उसको ही उठा लाई और बोली "हे गरीब नवाज ! इसी पर लिख दो अपने तीर से ही लिख दों ।" गुरु हरगोविन्द जी ने तीर निकाला और जो ठीकरी पर एक लिखने लगें तो सुलक्षणा बहन हाथ जोड़कर कर साहिब जी के घोड़े से विनती की तु तो गुरु का घोडा हैं साहिब जी हर समय तेरे पर सवारी करते हैं। गुरुनानक जी के समय में तो कुतिया की भी करामात है तू भी कोई करामात कर के दिखा । घोड़े ने सिर हिलाया कि मानो कह रहा हो कि ठहर मैं जो तुझे कर के दिखाउगां उसको दुनिया देखेगी । साहिब जी ने ज्युँ ही एक लिखने के लिये तीर चलाया त्युँ ही घोडे ने सिर हिलाया तो वह एक की बजाय सात हो गया । साहिब जी बोले कि ले सुलक्षणिये एक लिखने जा रहा था सात लिख दिया। सुलक्षणा कहती थी कि गरीब नवाज! "लोहडी सत्ता दी सी", एक से कुछ होना ही नही था, जमीन जायदाद तो बहुत है पर "लोहडी सत्ता दी सी ।"
जो सुलक्षणा बहन के घर पर पहला पुत्र हुआ तो वह मीरी पीरी के मालिक गुरु हरगोविन्द जी के चरणों मे ले कर पहुँची और जो माथा झुकाया और माथा झुकाते-झुकाते कहती हैं ................
सोई सोई दे...वे, जो माँगे ठाकुर अपने ते
सोई सोई दे...वे .............

सोमवार, 14 जून 2010

श्री आसारामायण पाठ से मिली मंत्र - दीक्षा

मैं बहुत नास्तिक प्रकृति का था। ईश्वर या भगवान के प्रति मुझे तनिक भी श्रद्धा नहीं थी क्योंकि मैं विज्ञान का विद्यार्थी था और विज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई धर्म हो ही नहीं सकता, ऐसी मेरी मान्यता थी। मेरी माता जी पूज्य स्वामी का साहित्य हमेशा पढ़ती रहती थी और मुझसे भी पढ़ने का आग्रह किया करती थी लेकिन मैं साधु-संतों के वचनों पर विश्वास नहीं करता था, इसलिए मैं उले टाल देता था। डिप्लोमा इन इलेक्ट्रोनिक्स की अंतिम वर्ष की परीक्षा देने के बाद घर पर ही छुट्टियों में मैंने माता जी के अत्यधिक आग्रह के कारण संत श्री आसारामजी आश्रम द्वारा प्रकाशित जीते जी मुक्ति पुस्तक पढ़ना आरम्भ किया। जैसे-जैसे उस पुस्तक का एक-एक पृष्ठ पढ़ता गया, वैसे-वैसे अदृश्य आनंद से अभिभूत होकर मेरी नास्तिकता आस्तिकता में परिवर्तित होने लगी। ईश्वर और धर्म का महत्त्व मुझे समझ में आने लगा। मैं इन महापुरूष के दर्शन के लिए बेचैन होने लगा जिन्होंने जिन्होंने मेरे जीवन में धर्म के प्रति आस्तकिता का बीजारोपण किया। मैंने अनेक प्रयत्न किये लेकिन अनेकानेक समस्याओं के कारण उनके पावन दर्शन करने नहीं जा सका।

एक बार मैंने पढ़ा कि श्री आसारामायण के 108 पाठ करने वालों की सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। मैंने भी श्रीआसारामायण के 108 पाठ किये और गुरूदेव को मन ही मन प्रार्थना की कि मंत्रदीक्षा के मार्ग में आने वाले सभी व्यवधान दूर कर दर्शन देकर अनुगृहीत कीजिएगा।

उस दिन मेरे विश्वास को अत्यधिक बल मिला तथा ईश्वर का अस्तित्व जगत में है, ऐसा आभास होने लगा। श्रीआसारामायण के 108 पाठ पूर्ण होते ही सूरत आश्रम जाकर पूज्य श्री के दर्शन तथा मंत्रदीक्षा प्राप्ति के मेरे सब मार्ग खुल गये। मंत्रदीक्षा के समय गुरूदेव द्वारा की गई शक्तिपात-वर्षा से प्राप्त अलौकिक आनंद के मधुर क्षणों का अनुभव शब्दों में वर्णित करना मेरे लिए असंभव है। पूज्यश्री के पावन सान्निध्य में आये हुए मुझे तीन वर्ष से अधिक समय हो चुका है और इस दौरान अनेक दिव्यातिदिव्य अनुभवों के दौर से मैं गुजर चुका हूँ। पूज्य गुरूदेव के सान्निध्य में रहते हुए मैंने अनुभव किया है कि इस कलियुग में पूज्यश्री ही भक्तिदाता, मुक्तिदाता व सर्वसमर्थ संत हैं। पूज्य श्री के महान् गुणों का वर्णन करने को बैठूँ तो कितने ही ग्रन्थ तैयार हो जाय लेकिन यहाँ मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि पूज्य श्री के सान्निध्य और मार्गदर्शन में जीवन, समाज और राष्ट्र जितना उन्नत हो सकता है, उतना विज्ञान से नहीं। मेरा भ्रमभेद मिटाकर मुझे निजानंद का रसपान करवाने वाले श्री गुरूदेव के श्रीचरणों में मेरे कोटि-कोटि नमन्....

किशोर विश्वनाथ चौधरी
27, चेतना नगर, नासिका (महा.)

ये तो श्री आसारामायण पाठ की एक महिमा है, ऐसी तो कितनी सारी है जिनका बयान नही किया जा सकता हैं। ऐसे कितने लोगों के अनुभव है जिनके बारे में हमने सुना भी नही होगा। जो जो पाठ करता है उसके मन की मुराद तो पूरी होती ही है और उसकी गुरुभक्ति भी बढ़ती हैं। क्योंकि जैसे जैसे आप इस पाठ की पंक्तियों में डूबते जायेंगे आपको गुरुदेव की जीवन लीला के साक्षात दर्शन होते चले जायेंगे। अगर मेरी इस बात पर यकीन ना आये तो खुद ही अनुभव करके देख लीजिये।

हरि: ॐ .........

रविवार, 13 जून 2010

जो जिस भाव से भजे गुरुदेव को वैसा ही बना देते है गुरुवर.


सेवी साहिब आपनों, और ना जाचों कोई.....
"हे गुरुदेव! मुझे बल दो, मुझे शक्ति दो कि मैं एक तेरी सेवा करुं बस सिर्फ़ तेरी सेवा करुं"

शिष्य के आसरा है सदगुरुदेव और जो शिष्य गुरुदेव को छोड़कर किसी और के पास जायेगा, किसी देवी-देवता के पास, किसी मन्त्र-तन्त्र वाले के पास या किसी कब्र या मजहार में जायेगा तो जैसे बछडा अपनी गौ माता को छोड़कर किसी दूसरी गाय के पास जा कर उससे दूध माँगेगां तो उसको दूध नही मिलेगा लातें मिलेगी। वैसे ही अगर अपने गुरु को छोड़कर यदि कोई कही और जायेगा तो फिर इसी संसार में फँसा रह जायेगा। कभी पार नही पायेगा।
सेवा कर गुरु की तो पार ही पायेगा कभी मार नही खायेगा, जितने भी महान संत प्रसिद्ध हुए है अपने गुरु की सेवा करके ही प्रसिद्ध हुए है। भाई लहड़ा गुरुनानक जी की सेवा करके ही गुरुगद्दी ले गयें। गुरुदेव की सेवा जिसने मनोकामना करके की उसकी मनोकामना पूरी हो गयी और जिन्होनें सदगुरु की सेवा निष्कामता से की उन्होने गुरुदेव को ही पा लिया। भाई लहड़ा जी ने गुरुनानक जी की सेवा निष्कामता से की जिसके फ़लस्वरूप गुरुनानकजी ने उनको बुलाया और कहा कि "लहडियाँ जो तू लहड़ा है तो असी तेरा देड़ा है" और गुरुनानक जी ने उनको अपने अंग से लगा कर उनको अंगद कर दिया और अपनी ज्योति उनके अंदर जला दी और आज्ञा दी कि आप खण्डूर जा कर साध-संगत को नाम जप करवाओं। गुरु अंगद देव जी खण्डूर की धरती पर बैठें हर रोज सिर्फ़ एक ही अरदास करते है गुरुनानक जी से कि जब से मैने तुझे देखा है तब से मुझे और कोई जचता ही नही हैं।
"सेवी साहिब आपनों और ना जाचों कोई, नानक ता का दास है बिंद-बिंद चुख-चुख होई "
रोज सवेरे उठकर गुरु अंगद देव जी साध-संगत को दर्शन देते है और कीर्तन करते हैं। एक दिन सवेरे गुरु अंगद देव जी खण्डूर की धरती पर बैठें है और गुरु का दरबार सजाया हैं और कीर्तन गा रहे है सेवी साहिब आपनों और ना जाचों कोई, नानक ता का दास है बिंद-बिंद चुख-चुख होई तो भाई बाला गुरु अंगददेव के दर्शन करने के लिये आये कि देखुं वो कौन है जिन्होने गुरु नानक जी को भी जीत लिया है। जिन्होने गुरुनानक जी का हृदय भी जीत लिया है। जब भाई बाला गुरु के दरबार में पहुँचे तो क्या देखते है कि गुरु अंगददेव कीर्तन में झूम रहे है जब कीर्तन से उनकी आँखे खुली तो देखा कि भाई बाला खडे है। थोडी देर के बाद गुरुअंगद देव जी ने उनको पास बुलाया और पूछा कि "भाई! आप कौन है।" भाई बाला ने कहा कि "हे गरीब नवाज! मेरा नाम भाई बाला है और मैने सारी उम्र गुरुनानक जी के साथ रहकर उनकी सेवा की है।" जैसे ही गुरुअंगद देव जी ने सुना "भाई बाला" तो उठ खड़े हुए और उनको हृदय से लगा लिया कि "तू बाला है मेरे गुरु नानक जी का साथी" अपने पास बिठा लिया और बोले कि सुनाओ गुरुनानक जी की लीलायें। जैसे-जैसे भाई बाला गुरुनानक जी की लीलाओं का वर्णन करते त्युँ-त्युँ गुरु अंगददेव की आँखों से आँसू बहते हैं। जैसे कोई अपने किसी प्यारे की खबर दे तो कैसे हमारी आँखें भर आती है वैसे ही गुरु अंगददेव की आँखें गुरुयाद से भर गयी। कुछ दिन तक भाई बाला उनके साथ रहे तो गुरु अंगददेव जी ने उनसे गुरुनानक जी की साखीयाँ लिख ली और उनको रख लिया। जब भाई बाला जाने लगे तो उन्होनें गुरु अंगददेव जी से बोला "गरीब नवाज! एक शंका है मन में उसको आप निवृत कर दे" तो गुरुअंगददेव जी ने बोला "भाई बाला गुरु के सामने कोई शंका नही रखना चहिये। क्योकि गुरु के सामने जिनके हृदय में शंका रह जाता है उसका हृदय मैला हो जाता हैं"। अपनी शंका बताओं। भाई बाला बोले कि सारी उम्र गुरु नानकजी की सेवा तो मैने की, गुरुनानजी के साथ मैं रहा लेकिन जब गुरुगद्दी देने का समय आया तो उन्होने आपको बैठा दिया। गुरु अंगददेव जी बोले "भाई बाला! तूने गुरु नानकजी को क्या मान कर सेवा की थी, तूने गुरु नानकजी को क्या मान कर पूजा था"। भाई बाला बोले "मैं गुरु नानकजी को पूर्ण संत मान कर पूजा की थी"। तो गुरु अंगददेव जी ने कहा कि फिर गुरुनानकजी ने तुझे पूर्ण संत ही बना दिया। तब भाई बाला ने पूछा "गरीब नवाज ! मैने तो गुरु नानकजी को पूर्ण संत समझ कर पूजा था पर आप बताओ कि आपने गुरु नानकजी को क्या मान कर पूजा था। तब गुरुअंगद देव जी की आँखें भर आई और उन्होने कहा कि मैने गुरुनानक जी को पारब्रह्म परमेश्वर जान कर पूजा था तब भाई बाला की आँखे भर आयी और उन्होने बोला तो फिर गुरुनानकजी ने आपको पारब्रह्म परमेश्वर का रूप ही बना दिया।
"सदगुरु नो जेहा को कर जाणें, तेहा फल पावे सोई...."
सदगुरु की सेवा सदगुरु को जो जैसा मानकर करता है वो वैसा फल पाता है। भाई लहड़ा पा गये और गुरु अंगददेव बन गयें।
साहिब मेरा नीत नवाँ सदा सदा दातार.................

शनिवार, 12 जून 2010

५ मंत्रों की आहुति मन ही मन करें

पूज्य बापू जी ने सत्संग में भगवान को मन से प्रार्थना करते हुए मन ही मन निम्न लिखित पाँच (५) मंत्रों की आहुतियाँ देने के लिए कहा है :

1। ॐ अविद्यां जुहोमि स्वाहा: (Om Avidyaam Juhomi Svaha)

अर्थ : हे परमात्मा ! हम अपनी अविद्या को , अज्ञान को , आपके ज्ञान में स्वाहा करते हैं ।

2। ॐ अस्मिता जुहोमि स्वाहाः (Om Asmita Juhomi Svaha)

अर्थ : अपने शरीर से जुड़ कर हमने जो मान्यताएं पकड़ रखी हैं , धन की , पद की , आदि उन सब को हम स्वाहा करते हैं ।

3। ॐ रागं जुहोमि स्वाहा: (Om Raagam Juhomi Svaha)

अर्थ : जिसमें राग होता है उसके दुर्गुण नहीं दिखते और जिसमें द्वेष होता है उसके गुण नहीं दिखते। हम किसी भी व्यक्ति, वस्तु अथवा परिस्थिति से राग न करें। राग को हम स्वाहा करते हैं ।

4। ॐ द्वेषं जुहोमि स्वाहाः (Om Dvesham Juhomi Svaha)

अर्थ : किसी भी व्यक्ति, वस्तु अथवा परिस्थिति से द्वेष न करें; उस द्वेष को भी हम स्वाहा करते हैं ।

5। ॐ अभिनिवेशम जुहोमि स्वाहाः (Om Abhinivesham Juhomi Svaha)

अर्थ : मृत्यु का भय निकाल दें ; यह शरीर मैं हूँ और मैं मर जाऊंगा इस दुर्बुद्धि का मैं त्याग करता हूँ ; जो शरीर मरता है वह मैं अभी से नहीं हूँ ; जो शरीर के मरने के बाद भी रहता है, वह मैं अभी से हूँ ।

हरि ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ

मंगलवार, 8 जून 2010

श्री राम नाम की महिमा

एक बार पार्वती जी ने भगवान शिवजी से श्री हरि की आराधना के बारे में पूछा तो भगवान शिव ने उनको भगवान श्री विष्णु की श्रेष्ठ आराधना, नित्य-नैमित्तिक कृत्य तथा भगवत्भक्तों की पूजा का वर्णन किया। जिसे सुन कर पार्वती जी ने कहा - नाथ ! आपने उत्तम वैष्णव धर्म का भलीभाँति वर्णन किया। वास्तव में परमात्मा श्री विष्णु का स्वरूप गोपनीय से भी अत्यन्त गोपनीय है। सर्वदेव वन्दित महेश्वर ! मैं आपके प्रसाद से धन्य और कृतकृत्य हो गयी। अब मैं भी सनातन देव श्री हरि का पूजन करूँगी।
श्री महादेव जी बोले - देवी ! बहुत अच्छा, बहुत अच्छा ! तुम सम्पूर्ण इन्द्रियों के स्वामी भगवान लक्ष्मीपति का पूजन अवश्य करो। भद्रे ! मैं तुम-जैसी वैष्णवी पत्नी को पाकर अपने को कृतकृत्य मानता हूँ।
वसिष्ठजी कहते है - तदनन्तर महादेव जी से उपदेशानुसार पार्वती जी प्रतिदिन श्रीविष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करने के पश्चात भोजन करने लगीं। एक दिन परम मनोहर कैलास शिखर पर भगवान श्री विष्णु की आराधना करके भगवान शंकर ने पार्वतीदेवी को अपने साथ भोजन करने के लिये बुलाया। तब पार्वति देवी ने कहा - "प्रभो ! मैं श्रीविष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करने के पश्चात भोजन करूँगी, तब तक आप भोजन कर लें" यह सुन कर महादेव जी ने हँसते हुए कहा - "पार्वती ! तुम धन्य हो, पुण्यात्मा हो ; क्योकि भगवान श्रीविष्णु में तुम्हारी भक्ति है। देवि ! भाग्य के बिना भगवान श्रीविष्णु की भक्ति प्राप्त होना बहुत कठिन है। सुमुखि ! मैं तो "राम ! राम ! राम !" इस प्रकार जप करते हुये परम मनोहर श्रीराम नाम में ही निरन्तर रमण किया करता हूँ । राम-नाम सम्पूर्ण सहस्त्रनाम के समान है। पार्वती ! रकारादि जितने नाम हैं, उन्हें सुनकर रामनाम ही आशंका से मेरा मन प्रसन्न हो जाता है।

श्रीराम राम रामेति रमे रामे मनोरमे । सहस्त्रनाम ततुल्यं रामनाम वरानने ॥
रकारादीनि नामानि श्रृण्वतो म्म पार्वति । मनः प्रसप्रतां याति रामनामाभिशंकया ॥ (२८१ । २१-२२)

अतः महादेवि ! तुम राम-नाम का उच्चारण करके इस समय मेरे साथ भोजन करों ।" यह सुन कर पार्वती जी ने राम-नाम का उच्चारण करके भगवान शंकर के साथ बैठकर भोजन किया। इसके बाद उन्होने प्रसन्नचित होकर पूछा - ‘ देवेश्वर ! आपने राम-नाम को सम्पूर्ण सहस्त्रनाम के तुल्य बतलाया है यह सुन कर राम-नाम में मेरी बडी भक्ति हो गयी हैं अतः भगवान श्री राम के यदि और भी नाम हों तो बताइयें।’
श्री महादेव जी बोले - "पार्वती ! सुनो, मैं श्रीरामचन्द्र जी के नामों का वर्णन करता हूँ। लौकिक और वैदिक जितने भी शब्द हैं, वे सब श्रीरामचन्द्रजी के ही नाम हैं। किन्तु सहस्त्रनाम उन सबमें अधिक है और उन सहस्त्रनामों में भी श्रीराम के एक सौ आठ नामों की प्रधानता अधिक है। श्रीविष्णु का एक-एक नाम ही सब वेदों से अधिक माना गया है। वैसे ही एक हजार नामों के समान अकेला श्रीराम-नाम माना गया है। पार्वती ! जो सम्पूर्ण मन्त्रों और समस्त वेदों का जप करता है, उसकी अपेक्षा कोटिगुना पुण्य केवल राम-नाम से उपलब्ध होता है।"

[{( स्रोत - पद्मपुराण - उत्तरखण्ड, अध्याय २९१ (श्रीराम-नाम महिमा और श्रीरामचन्द्रजी के १०८ नाम का माहात्म्य )}]

यही नाम अगर गुरुदेव से गुरुमन्त्र के रूप में मिल जाये तो फिर उसकी बराबरी कोई नही कर सकता........

शनिवार, 5 जून 2010

मेरे साहिबा (जोगी) कौन जाने गुण तेरे....

सदगुरुओं के गुण कौन जान सकता हैं। सदगुरुओं ने कितने तारे उनको कौन जान सकता हैं। आकाश के तारे गिनें जा सकते है परन्तु सदगुरुओं ने कितने तारे कोई नही गिन सकता हैं।

तारे गिने जात है ना तारे गिने जात

ऐसे ही गुरु नानक जी थे जिन्होने कितनों को तारा ये किसी को नही पता।
एक बार गुरु नानक जी का एक शिष्य भगीरथ गुरु नानक जी के पास आया और पूछा कि गुरुजी ! मैं दूसरे शहर जा रहा हूँ, आप मुझे जाने की आज्ञा दीजिये। गुरुनानक जी ने कहा कि भगीरथा जा रहा है तो बेशक जा पर एक बात का ध्यान रखना कि एक रात से ज्यादा मत रुकना, जो तू एक रात से ज्यादा रुका तो तेरा जन्म बिगड़ जायेगा। भगीरथ ने विनती की कि हे मेरे सच्चे बादशाह ! मैं नही रुकुंगा। आपका हुक्म है कि एक रात रुकना तो मेरे सच्चे बादशाह मैं एक रात ही रुकुंगा। मेरा जन्म क्युं बिगडें, क्योकि गुरु के वचन से ही जनम सफ़ल होता हैं और वचन ना मानने से ही वचन बिगडता हैं। फ़िर गुरुनानक जी ने भगीरथ से कहा कि जो तू दूसरे शहर जा रहा है तो एक काम और करना कि मरदाने की बेटी की शादी है उसे जो सामान चाहिये वो लिखवा ले और लेते आना। भगीरथ आया मरदाना के पास और जो जो सामान मरदाना को चाहिये था लिख लिया, सुहाग का जोडा भी लिख लिया, सारा सामान लिख लिया और आज्ञा लेने गुरुनानक जी के पास आया कि सच्चे बादशाह मैं जाउं ! गुरुनानक जी बोले कि जा भगीरथा पर एक रात से ज्यादा मत रुकना, जो तू एक रात से ज्यादा रुका तो तेरा जन्म बिगड़ जायेगा। भगीरथ ने चरणों में माथा रखा और कहा कि सच्चे बादशाह मैं एक रात ही रुकुंगा। भगीरथ दूसरे शहर पहुंचा तो उसका एक व्यापारी मित्र रहता था भाई मनसुख, शाम को वो भाई मनसुख के घर पहुंचा और बोला "मित्रा ! आज की रात मैं तेरे घर रुकुंगा और कल मैं वापस जाउंगा क्योकि मेरे गुरु का हुक्म है जो मैं एक रात से ज्यादा रुकुंगा तो मेरा जनम बिगड जायेगा।" मनसुख ने पूछा कि "ऐसा कौन सा तेरा गुरु है कि जिसका वचन मानने से तेरा जन्म सफ़ल होता है और न मानने से जन्म बिगडता हैं" तब भगीरथ ने हाथ जोड़ कर कहा कि "मेरे गुरु गुरु नानक जी हैं।" जैसे ही मनसुख ने गुरु नानक जी का नाम सुना तो उसका मन खिंच गया, फ़िर भगीरथ ने कहा कि भाई ये सामान का पर्चा है ये सामान बांध दे क्योकि मुझे सुबह ही जाना हैं। सवेरा हुआ, भाई मनसुख ने सामान बांध दिया था। भगीरथ ने कहा कि "मनसुखा ! चल एक बार गुरुनानक जी के दर्शन कर ले पूर्ण पुरुष है गुरु नानक जी परमेश्वर का रूप है भाई मनसुख कहने लगा "कि चलता तो हूँ पर मेरी एक शर्त है कि जब मैं वहाँ पहुँचु तो गुरुनानक मेरा नाम पुकार कर मुझे बुलावे।" दोनों जब गुरुनानक जी के पास पहुचें तो भगीरथ ने गुरु नानक जी के चरणों में माथा टेका। मनसुख साथ में खडा रहा, तो गुरु नानक जी बोले भगीरथा ! आ गया हैं और साथ उसको भी लाया है जिसकी माँ ने इसका नाम मनसुख रखा है। लेकिन कभी इसने मन का सुख नही जाना कि मन का सुख क्या होता है। इसने तन के सुख को ही सदा सुख समझा है। तन का सुख तो इसने बहुत पाया पर मन का सुख आज तक इसको नही मिला। जैसे ही भाई मनसुख ने गुरुनानक जी के मुख से अपना नाम सुना तो वो चरणों में गिर पडा और बोला "सच्चे बादशाह ! मुझे माफ़ कर दो। मै आपकी परीक्षा रहा था कि आप पूर्ण हो की नही। चरणों में गिर कर मनसुख कहता है कि सच्चे बादशाह मुझे अपना सिख (शिष्य) बना लो। ये जब गुरुनानक जी ने सुना तो मनसुख से सिर पर हाथ रखा और बोले मनसुखा जप "श्री वाहेगुरु"। जैसे ही गुरुनानक जी के हाथ की शरण मनसुख को मिली मनसुख को इतना सुख मिला कि आज तक उसे वो सुख नही मिला था। इतना धन कमाकर आज तक मनसुख को जो सुख नही मिला था उससे ज्यादा सुख सिर्फ़ गुरुनानक जी के उसके सिर पर हाथ रखने से मिल गया। फ़िर मनसुख ने विनती की कि हे गरीब नवाज दया करों मुझे अपना सिख बना लो। तो गुरुनानक जी बोले कि मनसुखा जो तुने मेरा सिख बनना है तो तुझे सवेरे जल्दि उठना पडेगा, नियम करना पडेगा, साधसंगत के साथ बैठ कर नाम जप करना पडेगा जा मरदाने के पास जा और सबद लिख ले और रोज कीर्तन करना जो तू कीर्तन करेगा न तो हम तेरे साथ बैठे होंगे। क्योकि जो कर्ते (परमब्रह्म) का कीर्तन करता है तो सारा जग उसके साथ हो जाता है। भाई मनसुख ने मरदाना से सबद ले लिये और गुरुनानक जी से आज्ञा ले कर घर चला आया और रोज नियम करने लगा। वो व्यापारी था तो एक दिन दूर देश से वापस लौट रहा था तो उसका बेडा समुद्री तूफ़ान में फ़ँस गया मल्लाहों ने बहुत कोशिश की लेकिन जब कुछ नही हुआ तो उन्होने लंगर डाल दिये और भाई मनसुख के पास आकर बोले कि अब जहाज नही संभल रहा हैं क्योकि हवा विपरीत हो रही है और बेडा तेज समुद्री लहरों से टूट जायेगा, अब हम लोगों लो डूबने से कोई नही बचा सकता हैं। तो भाई मनसुख ने कहा कि तुम लोग चिन्ता क्यु करते हो जिसका गुरु गुरुनानक हो उसका बेडा कोई डुबा नही सकता वो तो हमेशा तरता ही है। फिर सब लोग बैठ कर गुरुनानक जी का नाम लेकर कीर्तन शुरु किया। कीर्तन में जब वे एक मन और एक चित्त हो गये तब जब आँख खुली तो सभी क्या देखा कि उनका बेडा किनारे लगा हुआ हैं। गुरु नानक जी ने भाई मनसुख का बेडा तार दिया डूबने नही दिया। क्योकि जिस बेडे के अन्दर कीर्तन होता है और जिसका कोई गुरु होता है उसका बेडा भी कभी डूब सकता है ? इस प्रकार से उन सब की जान बच गयी। सभी ने गुरुनानक जी को शुक्रिया अदा किया और सभी बोले

मेरे साहिबा कौन जाने गुण तेरे.... कौन जाने गुण तेरे....
कौन जाने गुण तेरे.... कौन जाने गुण तेरे.... कौन जाने गुण तेरे....
मेरे साहिबा कौन जाने गुण तेरे.... कौन जाने गुण तेरे....