मुझे एक महात्मा बताया करते थेः "हमारे गुरुजी मुझसे कहते थे कि बेटा ! मन में आये तो किसी को दो गाली दे देना लेकिन मन में गाँठ मत बाँधना। ऐसी कुछ बात हो जाय तो ठपका दे देना, तमाचा मार देना लेकिन किसी भी व्यक्ति के प्रति चित्त में द्वेष की गाँठ मत बाँधना।"
द्वेष की गाँठ अपने चित्त को मलिन कर देती है। जो कलह, झगड़े, परेशानियाँ होती हैं वे द्वेष की आग के कारण ही होती हैं। ऐसा नहीं कि परेशान करने वाला व्यक्ति दूसरे को ही परेशान करता है। नहीं.... वह बेचारा स्वयं भी परेशान होता है। जहर तो जो पीता है उसका खाना खराब करता है, जिस बोतल में पड़ा है उस बोतल का पहले सत्यानाश करता है और फिर जिस पर उड़ेला जाता है उसका सत्यानाश करता है। दोनों पक्षों की हानि होती है, फिर चाहे पति-पत्नी का द्वेष हो, राजा-राजा का द्वेष हो, व्यापारी-व्यापारी का द्वेष हो, साधक-साधक का द्वेष हो चाहे सुर-असुर का द्वेष हो। द्वेष सात्त्विक प्रकृति के व्यक्तियों के बीच का हो चाहे राजसिक-तामसिक प्रकृति के व्यक्तियों के बीच का हो, वह खाना खराबी करता है, कोई फायदा नहीं करता।
ब्रह्माजी इन्द्र और विरोचन से कहते हैं- "अगर तुममें द्वेष न होगा तो तुम मेरा थोड़ा-सा उपदेश भी समझ जाओगे। आँखों में जो दिखता है वह परब्रह्म है।" ब्रह्माजी ने सोचा कि ब्रह्मभाव में आकर मैंने ये वचन कहे हैं। मेरे इन वचनों को ही याद करेंगे, दोहरायेंगे, मनन करेंगे तो इनकी बुद्धि प्रकाशित हो जायेगी लेकिन विरोचन तो विरोचन ही था, मोटी बुद्धि का। जाकर पानी में देखा तो अपनी परछाई दिखी। किसी की आँख में देखा तो अपना प्रतिबिम्ब दिखा। आँखों में जो दिखता है वह ब्रह्म है। एक-दूसरे की आँखों में हम ही दिख रहे हैं तो हम ही ब्रह्म हैं। देहो ब्रह्मः। दिल में द्वेष की आग के कारण बुद्धि खुली नहीं थी। वह देह को ब्रह्म मानकर उलझ गया और अपनी प्रजा को भी उलझा दिया। शरीर को ही ब्रह्म मानकर अपने राज्य में जाकर प्रचार कर दिया। खाओ, पियो और मौज से जियो। मरने के बाद किसने क्या देखा है?
विरोचन का यह सिद्धान्त विदेशों में देखा जाता है। सुबह से शाम तक, जन्म से मौत तक जीवन का पूरा आयोजन, विकास और वैज्ञानिक आविष्कार, बुद्धिमानों की पूरी अक्ल होशियारी शरीर को सुख देने के लिए ही लगायी जा रही है। उनमें असुरों का सिद्धान्त फूला-फला है।
देवताओं का राजा इन्द्र सात्त्विक था। उसने सोचाः 'दिखता तो देह है, क्या देह ब्रह्म है?' जाकर ब्रह्माजी से पूछा तो वे खुश हुए कि इसने विचार का सहारा लिया है। बोलेः "अब इस देह को नहलाकर, सुन्दर वस्त्रालंकार पहनाकर आओ।"
इन्द्र वैसा होकर गया। ब्रह्माजी ने कहाः "अब अपना प्रतिबिम्ब पानी में देखो। क्या दिखता है?"
"अब मैं सजा-धजा, आभूषणों से विभूषित दिखता हूँ। पहले बिना आभूषण का था।"
"आभूषणवाला और बिना आभूषण का, इन दोनों को जो जानता है वह ब्रह्म् है। एकान्त में जाकर चिन्तन करो।" चिन्तन व खोजबीन में समय बिताकर इन्द्र फिर ब्रह्माजी के पास आया। बोलाः "इन दोनों को देखता है मन।" "मन को भी जो देखता है वह ब्रह्म है।"
सोचते-सोचते, खोज करते-करते विश्रांति नहीं मिली, साक्षात्कार नहीं हुआ। फिर वापस आकर बोलाः "हे भन्ते ! कृपानाथ ! कृपा करें। मुझे ब्रह्म-साक्षात्कार करा दीजिए, परमात्मा में विश्रांति प्राप्त करा दीजिए। इसके बिना जीव अभागा है। जब तक आत्म-साक्षात्कार नहीं होता तब तक मेरी इन्द्र पदवी भी तुच्छ है ऐसा मैंने समझा है। अब आपके शरण हूँ। कैसे भी हो, मुझे परमात्मतत्त्व का बोध करा दीजिए प्रभो !"
ब्रह्माजी के हृदय में प्रसन्नता हुई कि शिष्य अधिकारी है, ब्रह्मज्ञान का मूल्य समझता है। अपने जीवन व आत्मबोध का मूल्य समझता है। बोलेः "मन को जो देखता है वह ब्रह्म है। फिर से जा एकान्त में और खोज कर, चिन्तन कर।"
एकान्त में जाकर इन्द्र विचार करने लगा, देखने लगा कि कौन मन को देखता है। वह समाहित होने लगा। धीरे-धीरे इन्द्रियाँ मन में आ गईं। मन को कौन देखता है – यह प्रश्न करते-करते मन के संकल्प – विकल्प कम हो गये। इन्द्रियों का संयम हो गया, मन एकाग्र हो गया। मन संयत हुआ तो बुद्धि का प्रकाश होने लगा। मन की हरकतों को देखते-देखते उसका मन अमनीभाव को प्राप्त होने लगा। ऐसे गहरे चिन्तन में उतरते-उतरते इन्द्र इन्द्र न बचा। इन्द्र वही हो गया जिससे ब्रह्माजी ब्रह्माजी हैं।
द्वेष की गाँठ अपने चित्त को मलिन कर देती है। जो कलह, झगड़े, परेशानियाँ होती हैं वे द्वेष की आग के कारण ही होती हैं। ऐसा नहीं कि परेशान करने वाला व्यक्ति दूसरे को ही परेशान करता है। नहीं.... वह बेचारा स्वयं भी परेशान होता है। जहर तो जो पीता है उसका खाना खराब करता है, जिस बोतल में पड़ा है उस बोतल का पहले सत्यानाश करता है और फिर जिस पर उड़ेला जाता है उसका सत्यानाश करता है। दोनों पक्षों की हानि होती है, फिर चाहे पति-पत्नी का द्वेष हो, राजा-राजा का द्वेष हो, व्यापारी-व्यापारी का द्वेष हो, साधक-साधक का द्वेष हो चाहे सुर-असुर का द्वेष हो। द्वेष सात्त्विक प्रकृति के व्यक्तियों के बीच का हो चाहे राजसिक-तामसिक प्रकृति के व्यक्तियों के बीच का हो, वह खाना खराबी करता है, कोई फायदा नहीं करता।
ब्रह्माजी इन्द्र और विरोचन से कहते हैं- "अगर तुममें द्वेष न होगा तो तुम मेरा थोड़ा-सा उपदेश भी समझ जाओगे। आँखों में जो दिखता है वह परब्रह्म है।" ब्रह्माजी ने सोचा कि ब्रह्मभाव में आकर मैंने ये वचन कहे हैं। मेरे इन वचनों को ही याद करेंगे, दोहरायेंगे, मनन करेंगे तो इनकी बुद्धि प्रकाशित हो जायेगी लेकिन विरोचन तो विरोचन ही था, मोटी बुद्धि का। जाकर पानी में देखा तो अपनी परछाई दिखी। किसी की आँख में देखा तो अपना प्रतिबिम्ब दिखा। आँखों में जो दिखता है वह ब्रह्म है। एक-दूसरे की आँखों में हम ही दिख रहे हैं तो हम ही ब्रह्म हैं। देहो ब्रह्मः। दिल में द्वेष की आग के कारण बुद्धि खुली नहीं थी। वह देह को ब्रह्म मानकर उलझ गया और अपनी प्रजा को भी उलझा दिया। शरीर को ही ब्रह्म मानकर अपने राज्य में जाकर प्रचार कर दिया। खाओ, पियो और मौज से जियो। मरने के बाद किसने क्या देखा है?
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।
विरोचन का यह सिद्धान्त विदेशों में देखा जाता है। सुबह से शाम तक, जन्म से मौत तक जीवन का पूरा आयोजन, विकास और वैज्ञानिक आविष्कार, बुद्धिमानों की पूरी अक्ल होशियारी शरीर को सुख देने के लिए ही लगायी जा रही है। उनमें असुरों का सिद्धान्त फूला-फला है।
देवताओं का राजा इन्द्र सात्त्विक था। उसने सोचाः 'दिखता तो देह है, क्या देह ब्रह्म है?' जाकर ब्रह्माजी से पूछा तो वे खुश हुए कि इसने विचार का सहारा लिया है। बोलेः "अब इस देह को नहलाकर, सुन्दर वस्त्रालंकार पहनाकर आओ।"
इन्द्र वैसा होकर गया। ब्रह्माजी ने कहाः "अब अपना प्रतिबिम्ब पानी में देखो। क्या दिखता है?"
"अब मैं सजा-धजा, आभूषणों से विभूषित दिखता हूँ। पहले बिना आभूषण का था।"
"आभूषणवाला और बिना आभूषण का, इन दोनों को जो जानता है वह ब्रह्म् है। एकान्त में जाकर चिन्तन करो।" चिन्तन व खोजबीन में समय बिताकर इन्द्र फिर ब्रह्माजी के पास आया। बोलाः "इन दोनों को देखता है मन।" "मन को भी जो देखता है वह ब्रह्म है।"
सोचते-सोचते, खोज करते-करते विश्रांति नहीं मिली, साक्षात्कार नहीं हुआ। फिर वापस आकर बोलाः "हे भन्ते ! कृपानाथ ! कृपा करें। मुझे ब्रह्म-साक्षात्कार करा दीजिए, परमात्मा में विश्रांति प्राप्त करा दीजिए। इसके बिना जीव अभागा है। जब तक आत्म-साक्षात्कार नहीं होता तब तक मेरी इन्द्र पदवी भी तुच्छ है ऐसा मैंने समझा है। अब आपके शरण हूँ। कैसे भी हो, मुझे परमात्मतत्त्व का बोध करा दीजिए प्रभो !"
ब्रह्माजी के हृदय में प्रसन्नता हुई कि शिष्य अधिकारी है, ब्रह्मज्ञान का मूल्य समझता है। अपने जीवन व आत्मबोध का मूल्य समझता है। बोलेः "मन को जो देखता है वह ब्रह्म है। फिर से जा एकान्त में और खोज कर, चिन्तन कर।"
एकान्त में जाकर इन्द्र विचार करने लगा, देखने लगा कि कौन मन को देखता है। वह समाहित होने लगा। धीरे-धीरे इन्द्रियाँ मन में आ गईं। मन को कौन देखता है – यह प्रश्न करते-करते मन के संकल्प – विकल्प कम हो गये। इन्द्रियों का संयम हो गया, मन एकाग्र हो गया। मन संयत हुआ तो बुद्धि का प्रकाश होने लगा। मन की हरकतों को देखते-देखते उसका मन अमनीभाव को प्राप्त होने लगा। ऐसे गहरे चिन्तन में उतरते-उतरते इन्द्र इन्द्र न बचा। इन्द्र वही हो गया जिससे ब्रह्माजी ब्रह्माजी हैं।
ब्राह्मी स्थिति प्राप्त कर कार्य रहे न शेष।
मोह कभी न ठग सके इच्छा नहीं लवलेश।।
पूर्ण गुरु कृपा मिली पूर्ण गुरु का ज्ञान।
सुरपति इन्द्र हो गये स्वयं ब्रह्मप्रतिरूप।।
पूर्ण गुरु कृपा मिली पूर्ण गुरु का ज्ञान।
सुरपति इन्द्र हो गये स्वयं ब्रह्मप्रतिरूप।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें