मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

कौन है तुम्हारा जीवन सारथी ? - पूज्य बापू जी

तीन मित्र थे। उन्होंने शर्त रखी कि देखें, अधिक समय बदबू कौन सहन कर सकता है ? वे एक बूढ़ा बकरा, जिसके शरीर पर गंदगी, मैल लगी थी, ले आये और कमरे में रख दिया। एक मित्र कमरे के अंदर गया और पाँच मिनट में वापस गया कि 'अपने से यह बदबू सहन नहीं होती।' फिर दूसरा गया... गया और वापस आया। फिर तीसरा गया। तीसरा गया तो उसकी बदबू से बकरा ही बाहर गया।

अब यह है दृष्टांत। ऐसे ही हमारा अहंकार, हमारी मैली वासना जब भीतर चली जाती है आँख के द्वारा, कान के द्वारा, किसी के द्वारा तो हमारा आनंद बाहर चला जाता है, सुख भाग जाता है। वासना में इतनी बदबू होती है कि हमारी जान निकाल देती है वह। जीवरूपी बकरे को इतना सताती है वासना कि वह भी बेचारा कह उठता है कि 'मेरी तो जान निकल गयी है !'

आपे देखा होगा व्यवहार में, ऐसे-ऐसे काम करते हैं कि आपकी जान निकल जाती है। आप ऐसा महसूस करते हैं कि 'मकान तो बना लेकिन हमारी तो जान निकल गयी। फलाना-फलाना काम करते हुए हमारी जान निकल गयी !' अनुभव होता है ! तो वासना दिखती तो साफ सुथरी, हट्टी-कट्टी है लेकिन वह अपनी जान को, अपनी मस्ती को, सुख को बाहर निकाल देती है। चुपचाप बैठे हैं और ऐसे कोई घड़ियाँ हैं जिनमें कोई वासना नहीं तो वह एकाध घड़ी इतनी महत्त्वपूर्ण है, वह एकाथ क्षण इतना सुखद है कि उस सुखद क्षण का इन्द्र के वैभव के साथ मुकाबला करो तो इन्द्र का वैभव भी तुच्छ दिखता है, इतनी उस निर्वासनिक अवस्था में शांति, आनंद, माधुर्य की झलकियाँ होती है।

देवताओं के पास सुख-सुविधाएँ ज्यादा होती हैं, वे भोगी होते हैं इसलिए परमात्मा को नहीं पा सकते हैं। दैत्यों में तमोगुण होता है इसलिए वे विवेक की गद्दी पर नहीं बैठ सकते। एक मनुष्य-शरीर ऐसा है कि अति तमो है अति सत्त्व, अति भोग हैं। मनुष्य है मध्य का। अब जिधर का वह संग करे, चाहे गुणातीत तत्त्व का संग करे...

एक बात और समझ लेना। जो आदमी जैसा संग करता है, वह वैसा हो जाता है। तुच्छ काम करने वाले व्यक्तियों का संग करो तो तुम्हारी प्रतिष्ठा भी तुच्छ होने लगती है। पवित्र आत्मा, परोपकारी आत्मा, संत, साधक जिनका हृदय ऊँचा है, चरित्र ऊँचा है, ऐसे व्यक्तियों का संग करते हैं तो आप ऊँचे होने लगते हैं। वासना अति तुच्छ है और इन्द्रियों रूपी नाली के द्वारा वह मजा चाहती है। अगर आदमी वासना का संग करता है तो तुच्छ हो जाता है और विवेक का संग करता है तो परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कारी ज्ञानीस्वरूप, ईश्वरस्वरूप हो जाता है। अगर हम विवेक का संग करते हैं तो हम ईश्वर के साथ हो जाते हैं और वासना का संग करते हैं तो नरक के साथ हो जाते हैं। हम मध्य में हैं। मनुष्य जन्म एक जंक्शन है, अब जिधर को जायें।

वासना और कमजोरी के विचार आदमी का जितना सत्यानाश करते हैं, उतना तो मौत भी नहीं करती। मौत तो एक बार मारती है लेकिन कमजोर विचार और वासनाएँ करोड़ों जन्मों तक मारती रहेंगी। वासना जीव को अंधा कर देती है। अपने तुच्छ स्वभाव, मलिन स्वभाव से जीव इतने आक्रान्त हो जाते हैं कि हृदय में बैठे हुए विश्वेश्वर का कोई पता ही नहीं ! तुम्हारे जीवनरथ का सारथी कौन है ? अपने-आपसे पूछना चाहिए।
शरीर रथ है, इन्द्रियाँ घोड़े हैं। अब सारथी कामना है, काम है कि राम है ? बुद्धि निर्णय करे, मन उसके विषय में विचार करे और इन्द्रियाँ तदनुकूल चलें तो समझो आप राम तक पहुँच जायेंगे। इन्द्रियों ने देखा, मन ने उसकी प्राप्ति के लिये सोचा और बुद्धि उसमें लग गयी तो समझो बरबादी हो गयी। कभी-कभी आपका विवेक इन्कार करता है लेकिन इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि उधर को खींचते हैं। बुद्धि कुछ कह रही है और हृदय कुछ और कह रहा है तो उस वक्त बुद्धि की बात को ठुकरा दो, क्योंकि वह भीतरवाला अंतर्यामी जो है , तुम्हारा हृदय जो है , वह ईश्वर के करीब होता है, विवेक के करीब होता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2011, पृष्ठ संख्या 6,7 अंक 218

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

धर्मात्मा की ही कसौटियाँ क्यों ?

(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

प्रायः भक्तों के जीवन में यह फरियाद बनी रहती है कि 'हम तो भगवानकी इतनी भक्ति करते हैं, रोज सत्संग करते हैं, निःस्वार्थ भाव से गरीबोंकी सेवा करते हैं, धर्म का यथोचित अनुष्ठान करते हैं फिर भी हम भक्तोंकी इतनी कसौटियाँ क्यों होती हैं ?'

बचपन में जब तुम विद्यालय में दाखिल हुए थे तो ', , ' आदि काअक्षरज्ञान तुरंत ही हो गया था कि विघ्न बाधाएँ आयी थीं ? लकीरें सीधीखींचते थे कि कलम टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती थी ? जब साईकिल चलाना सीखाथा तब भी तुम एकदम सीखे थे क्या ? नहीं। कई बार गिरे, कई बार उठे।चालनगाड़ी को पकड़ा, किसी की उँगली पकड़ी तब चलने के काबिल बनेऔर अब तो मेरे भैया ! तुम दौड़ में भाग ले सकते हो।

अब मेरा सवाल है कि जब तुम चलना सीखे तो विघ्न क्यों आये ? क्यों विद्यालय में परीक्षा के बहाने कसौटियाँहोती थीं ? तुम्हारा जवाब होगा कि 'बापू जी ! हम कमजोर थे, अभ्यास ज्ञान नहीं था।'

ऐसे ही तुमने परमात्मा को पाने की दिशा में कदम रख दिया है। तुम अभी 30 वर्ष के, 50 वर्ष के छोटे बच्चे हो, तुम्हें इस जगत के मिथ्यात्व का पता नहीं है। ईश्वर के लिए अभी तुम्हारा प्रेम कमजोर है, नियम में सातत्य औरदृढ़ता की जरूरत है। अहंकार-काम-क्रोध के तुम जन्मों के रोगी हो, इसीलिए तो तुम्हारी कसौटियाँ होती हैं औरविघ्न आते हैं ताकि तुम मजबूत बन सको। साधक तो विघ्न-बाधाओं से खेलकर मजबूत होता है। कसौटियाँइसलिए कि तुम प्रभु को प्यार करते हो और वे तुम्हें प्यार करते हैं। वे तुम्हारा परम कल्याण चाहते हैं। वे तुम्हेंकसौटियों पर कसकर, तुम्हारा विवेक-वैराग्य जगाकर तुमसे नश्वर संसार की आसक्ति छुड़ाना चाहते हैं।

माता कुंती भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करती थीं-

विपदः सन्तु न यश्वत्तत्र जगदगुरो......

'हे जगदगुरो ! हमारे जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्तियाँ आती रहें क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चित रूप से आपकाचिंतन-स्मरण हुआ करता है और आपका चिन्तन-स्मरण होते रहने पर फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं आनापड़ता।'

एक बीज को वृक्ष बनने में कितने विघ्न आते हैं। कभी पानी मिला कभी नहीं, कभी आँधी आयी, कभी तूफानआया, कभी पशु-पक्षियों ने मुँह-चौंचें मारीं.... ये सब सहते हुए वृक्ष खड़े हैं। तुम भी कसौटियों को सहते हुए वृक्षखड़े हैं। तुम भी कसौटियों को सहन करते हुए उन पर खरे उतरते हुए ईश्वर के लिए खड़े हो जाओ तो तुम ब्रह्म होजाओगे। परमात्मा की प्राप्ति की दिशा में कसौटियाँ तो सचमुच कल्याण के परम सोपान हैं। जिसे तुम प्रतिकूलताकहते हो सचमुच वह वरदान है क्योंकि अनुकूलता में लापरवाही एवं विलास सबल होता है तथा संयम एवं विवेकदबता है और प्रतिकूलता में विवेक एवं संयम जगता है तथा लापरवाही एवं विलास दबता है। कसौटियों के समयघबराने से तुम दुर्बल हो जाते हो, तुम्हारा मनोबल क्षीण हो जाता है। हम लोग पुराणों की कथाएँ सुनते हैं। ध्रुव तपकर रहा था। असुर लोग डराने के लिए आये लेकिन ध्रुव डरा नहीं। सुर लोग विमान लेकर प्रलोभन देने के लिएआये लेकिन ध्रुव फिसला नहीं। वह विजेता हो गया। वे कहानियाँ हम सुनते हैं, सुना भी देते हैं लेकिन समझते नहींकि ध्रुव जैसा बालक दुःख से घबराया नहीं और सुख में फिसला नहीं। उसने दोनों का सदुपयोग कर लिया तो ईश्वरउसके पास प्रकट हो गये।

हम क्या करते हैं ? जरा-सा दुःख पड़ता है तो दुःख देने वाले पर लांछन लगाते हैं, परिस्थितियों को दोष देते हैंअथवा अपने को पापी समझकर कोसते हैं। कुछ दुर्बुद्धि, महाकायर आत्महत्या भी कर लेते हैं। कुछ पवित्र होंगे तोकिसी संत-महात्मा के पास जाकर दुःख से मुक्ति पाते हैं। यदि आप प्रतिकूल परिस्थितियों में संतो के द्वार जाते हैंतो समझ लीजिये कि आपको पुण्यमिश्रित पापकर्म का फल भोगना पड़ रहा है क्योंकि कसौटि के समय जबपरमात्मा याद आता है तो डूबते को सहारा मिल जाता है। नहीं तो कोई शराब का सहारा लेता है तो कोई और किसीका.....मगर इससे तो समस्या हल होती है और ही शांति मिल पाती है क्योंकि जहाँ आग है वहाँ जाने सेशीतलता कैसे महसूस हो सकती है ! तुम कसौटी के समय धैर्य खोकर पतन की खाई में गिर जाते हो और फिरफँसकर रह जाते हो।

जो गुरुओं के द्वार पर जाते हैं उनको कसौटियों से पार होने की कुंजियाँ सहज ही मिल जाती हैं। इससे उनके दोनोंहाथों से लड्डू होते हैं। एक तो संत-सान्निध्य से हृदय की तपन शांत होती है, समस्या का हल मिलता है, साथ-ही-साथ जीवन की नयी दिशा भी मिलती है। तभी तो स्वामी रामतीर्थ कहते थेः "हे परमात्मा ! रोज नयीसमस्या भेजना।"

आज आप इस गूढ़ रहस्य को यदि भलीभाँति समझ लेंगे तो आप हमेशा के लिए मुसीबतों से, कसौटियों से पार होजायेंगे। बात है साधारण पर अगर शिरोधार्य कर लेंगे तो आपका काम बन जायेगा।

आपने देखा होगा कि जिस खूँटे के सहारे पशु को बाँधना होता है, उसे घर का मालिक हिलाकर देखता है कि उसेउखाड़कर कहीं पशु भाग तो नहीं जायेगा। फिर घर की मालकिन देखती है कि उचित जगह पर तो ठोका गया है यानहीं। फिर ग्वाला देखता है कि मजबूत है या नहीं। एक खूँटे को, जिसके सहारे पशु बाँधना है, इतने लोग देखते हैं, उसकी कसौटियाँ करते हैं तो जिस भक्त के सहारे समाज को बाँधना है, समाज से अज्ञान भगाना है उस भक्त कीभगवान-सदगुरु यदि कसौटियाँ नहीं करेंगे तो भैया कैसे काम चलेगा ?

जिसे वो देना चाहता है उसी को आजमाता है।

खजाने रहमतों के इसी बहाने लुटाता है।।

जब एक बार सदगुरु की, भगवान की शरण गये तो फिर क्या घबराना ! जो शिष्य़ भी है और दुःखी भी है तो मानना चाहिए कि वह अर्धशिष्य है अथवा निगुरा है। जो शिष्य भी है और चिंतित भी है तो मानना चाहिए कि उसमें समर्पण का अभाव है। मैं भगवान का, मैं गुरु का तो चिंता मेरी कैसे ! चिंता भी भगवान की होगयी, गुरु की हो गयी। हम भगवान के हो गये तो कसौटी, बेईज्जती हमारी कैसे ! अब तो भगवान को ही सबसँभालना है। जैसे आदमी कारखाने का कर्मचारी हो जाता है तो कारखाने को लाभ हानि जो भी हो, उसे तो वेतनमिलता ही है, ऐसे ही जब हम ईश्वर के हो गये तो हमारा शरीर ईश्वर का साधन हो गया। खेलने दो उस परमात्मा कोतुम्हारे जीवनरूपी उद्यान में। बस, तुम तो अपनी ओर से पुरुषार्थ करते जाओ। जो तुम्हारे जिम्मे आये उसे तुम करलो और जो ईश्वर के जिम्मे है वह उसे करने दो, फिर देखो तुम्हारा काम कैसे बन जाता है। वे लोग मूर्ख हैं जोभगवान को कोसते हैं और वे लोग धन्य हैं जो हर हाल में खुश रहकर अपने-आप में तृप्त रहते हैं। गरीबी है तो क्याखाने को, पहनने को नहीं है तो क्या ! यदि तुम्हारे दिल में गुरुओं के प्रति श्रद्धा है, उनके वचनों को आत्मसात्करने की लगन है तो तुम सचमुच बड़े ही भाग्यशाली हो। सच्चा भक्त भगवान से उनकी भक्ति के अलावा किसी औरफल की कभी याचना नहीं करता। !

जिसे वह इश्क देता है, उसे और कुछ नहीं देता है।

जिसे वह इसके काबिल नहीं समझता, उसे और सब कुछ देता है।।

'श्री योगवासिष्ठ' में आता है कि चिंतामणि के आगे जो चिंतन करो, वह चीज मिलती है परंतु सत्पुरुष के आगे जोचीज माँगोगे वह चीज वे नहीं देंगे, जिससे तुम्हारा हित होगा वही देंगे।

यदि तुम्हारी निष्ठा है, संयम है, सत्य का आचरण है, सेवा का सदगुण है तो वे सबसे पहले तुम्हारी कसौटी हो, ऐसीपरिस्थितियाँ देंगे ताकि इन सदगुणों के सहारे तुम सत्यस्वरूप परमात्मा को पा लो, परमात्मा को पाने की तड़पबढ़ा दो क्योंकि वे तुम्हारे परम हितैषी हैं। सदगुरूओं का ज्ञान तुम्हें ऊपर उठाता है। परिस्थितियाँ हैं सरिता काप्रवाह, जो तुम्हें नीचे की ओर घसीटती हैं और सदगुरु 'पम्पिंग स्टेशन' है जो तुम्हें हरदम ऊपर उठाते हैं।

अज्ञानी के रूप में जन्म लेना कोई पाप नहीं। मूर्ख के रूप में पैदा होना कोई पाप नहीं पर मूर्ख रहकर सुख-दुःख केथप्पड़ खाना और जीर्ण-शीर्ण होकर प्रभु से विमुख होकर मर जाना महापाप है।

मनुष्य जन्म मिला है, सदगुरु का सान्निध्य और परम तत्त्व का ज्ञान पाने का दुर्लभ मौका भी हाथ लगा है औरसबसे बड़ी हर्ष की बात यह है कि तुममें श्रद्धा और समझ है, अब केवल उसके लिए तड़प, जिज्ञासा बढ़ा दो। दुःख, चिंता और परेशानियों से क्यों घबराते हो ! ये तो कसौटियाँ हैं जो आपको निखार कर चमकाना चाहती हैं। हिम्मत, साहस, संयम की तलवार से जीवनरूपी कुरूक्षेत्र में आगे बढ़ते जाओ.... तुम्हारी निश्चय ही विजय होगी, तुमदिग्विजयी होओगे, तत्त्व के अनुभवी होओगे, तुममें और भगवान में कोई फासला नहीं रहेगा। सदगुरू का अनुभवतुम्हारा अनुभव हो जाय, यही तुम्हारे सदगुरूओं का पवित्र प्रयास है।

तेरे दीदार के आशिक, समझाये नहीं जाते हैं।

कदम रखते हैं तेरे द्वार पर, तो लौटाये नहीं जाते हैं।।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2010, पृष्ठ संख्या 4,5,6. अंक 207.

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

ब्रह्मज्ञानी गुरु मिल जायें तो !

(पूज्य बापू जी के सत्संग प्रवचन से)

मेरे मित्र संत थे मस्तराम बाबा। वे साक्षात्कारी पुरुष थे। कुछ साधक उनसे मिलने गये। उन्होंने देखा तो समय गये कि ये किसके साधक हैं।

मस्तराम बाबा ने उन साधकों से पूछाः "भगवान कैसे मिलते हैं, अपने-आप ? प्रभु का दर्शन कैसे होता है ?"

साधकों ने कहाः "स्वामी जी ! आप ही बताओ।"

बाबा ने कहाः "यह भी बताने का ही तरीका है।"

साधकों ने पूछा कि ''साक्षात्कार कैसे होता है ?" तो बोलेः "भगवान की भक्ति से और सेवा से होता है।" साधकों ने पूछा कि "कौन-से भगवान की भक्ति करें ताकि जल्दी साक्षात्कार हो ?" बोलेः "कृष्ण की, राम की, देवी की अथवा और भी जिसका जो भगवान है उसकी भक्ति करे।" तब साधकों ने पूछा कि "किसी को साक्षात्कार किये हुए महापुरुष मिल जायें तो उसको किसकी भक्ति करनी चाहिए ?"

मस्तराम बोलेः "जिसको साक्षात्कार हो गया है, वह तो शुद्ध चैतन्य हो गया। उसमें कृष्ण की भावना करो तो कृष्ण के दीदार हो सकते हैं, राम की भावना करो तो राम दिख सकते हैं, बुद्ध की भावना करो तो बुद्ध दिख सकते हैं, चोर की भावना करो तो चोर दिख सकते हैं और उसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश एक ही साथ दिख सकते हैं क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महेश का जो आधार है, वही आत्मा है। आत्मा की सत्ता के बिना, चैतन्य की सत्ता के बिना ब्रह्मा, विष्णु नहीं टिक सकते हैं। तो जो चैतन्यस्वरूप में स्थिर हो गये हैं, उनका सान्निध्य मिल गया तो फिर किसकी भक्ति करें ? फिर भक्ति क्या करनी है, जैसा ज्ञानी गुरू आदेश देते हैं उसके अनुसार चलना है बस ! फिर हो गयी भक्ति।" उच्चकोटि के साधकों के लिए तो –

ईश ते अधिक गुरु में प्रीति।

विचार सागर

ऐसी निष्ठा से ज्ञानी महापुरुषों में ईश्वरबुद्धि करके उनकी भक्ति, सेवा पूजा करने से, उनका सान्निध्य लाभ लेने से अंतःकरण शुद्ध होता है और अंतःकरण का अज्ञान भी मिटता है।

श्रीमद भागवत, में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिट्टी या पत्थर की प्रतिमाएँ ही देवता हैं क्योंकि उनका (तीर्थ, देवता का) बहुत समय तक सेवन किया जाये तब वे पवित्र करते हैं, परंतु संतपुरुष तो दर्शनमात्र से ही कृतार्थ कर देते हैं। (वे महापुरुष घड़ी, आधी घड़ी, चौथाई घड़ी के दर्शन-सत्संग से भी पवित्र कर देते हैं-

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।

तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।)

जो मनुष्य वात, पित्त और कफ – इन तीन धातुओं से बने हुए शवतुल्य शरीर को ही आत्मा – अपना मैं, स्त्री पुत्रादि को ही अपना और मिट्टी, पत्थर, काष्ठ आदि पार्थिव विकारों को ही इष्टदेव मानता है तथा जो केवल जल को ही तीर्थ समझता है ज्ञानी महापुरुषों को नहीं, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में भी नीच गधा ही है।

श्रीमद भागवतः 10.84.11.13

भक्ति से भी यदि आगे जाना है तो ज्ञानवानों के सान्निध्य की जरूरत है। भक्ति तो हमने बहुत की, बचपन में भगवान के लिए ऐसे-ऐसे नाचते थे पागल होकर कि देखने वाले अच्छे-अच्छे संत भी भाव-विभोर हो जाते थे। भक्ति तो की, उपासना भी की। भक्ति और उपासना सबका फल यही है कि ज्ञानी का दर्शन हो गया। हमारे सारे पुण्यों का फल यही है कि हमको भगवत्पाद लीलाशाह बापू मिल गये। हमारी जन्म-जन्म की भक्ति का फल यही है कि हमको सदगुरू मिल गये, सत्य का जिन्होंने अनुभव किया है, जो सत्यस्वरूप हो गये। कबीर जी कहते हैं-क

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।

सिर दीजै सदगुरू मिले, तो भी सस्ता जान।।

जैसा तैसा आदमी तो यह बात स्वीकार भी नहीं कर सकता, सुनने का भाग्य नहीं होता। जिसका पुण्य नहीं उसको साक्षात्कार की बात सुनना तो दूर है, तत्त्ववेत्ताओं का दर्शन भी नहीं हो सकता। जो पापी हैं न, घोर पापी हैं उनको ज्ञानी का दर्शन भी नहीं हो सकता है। किसी को दर्शन होता भी है तो केवल ऊपर-ऊपर से उनके शरीर का। और जिनके बहुत पुण्य होते हैं, जितने-जितने पुण्य बढ़ते हैं, भक्ति बढ़ती है, योग्यता बढ़ती है, उतना-उतना तुम ज्ञानी को पहचान सकते हो। श्री कृष्ण ज्ञानी-शिरोमणि थे, अर्जुन साथ में था तो भी पहचान नहीं सका। ज्यों-ज्यों अर्जुन का सान्निध्य और योग्यता बढ़ती गयी त्यों-त्यों अर्जुन पहचानते गये। मेरे गुरुदेव (भगवत्पाद साँई श्री लीलाशाह जी महाराज) के सान्निध्य में भी बहुत लोग थे। जिनकी जितनी-जितनी योग्यता थी, उतना-उतना उन्होंने पहचाना, पाया।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2010, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 216

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

दोषों को दूर भगायें, सदगुणों से जीवन महकायें


ईश्वर भी उन्हीं की मदद करता है जो पुरुषार्थ करके स्वयं अपनी कमियों को दूर करने का प्रयत्न करते हैं, अपने दोष आप मिटाने के लिए जो कृत-संकल्प होते हैं। हमारे अन्दर कौन-से दोष हैं यह हम अच्छी तरह जानते हैं। उन्हें निकालने के लिए जब तक हम स्वयं प्रयास नहीं करेंगे तब तक वे दूर नहीं होंगे।
क्रोधः जरा-जरा सी बात पर झुँझला जाना, क्रोधित हो जाना बड़ा भारी दोष है। क्रोधी व्यक्ति की स्मृति का लोप हो जाता है, उसकी बुद्धि भ्रमित और प्रतिभा कुण्ठित हो जाती है।
जब लगे कि क्रोध आने वाला है तो मौन होकर वहाँ से दूसरी जगह चले जाइये। प्रतिदिन एक-दो घंटा मौन रखिये और भोजन चबा-चबाकर कीजिए, इससे क्रोध पर नियंत्रण आयेगा। (अन्य प्रयोग देखें- आरोग्यनिधि भाग-2, पृष्ठ संख्या 191 पर)
घृणा तथा ईर्ष्याः जब आप किसी के प्रति घृणा या ईर्ष्या रखते हैं तो वह आपको ही हानि करती हैं क्योंकि इससे सबसे पहले आपका ही चित्त मलिन होता है। सबमें ईश्वर का भाव रखकर सबके प्रति प्रेम का व्यवहार कीजिएइस प्रकार घृणा, ईर्ष्या तथा असहिष्णुता पर विजय प्राप्त कीजिए।
भयः भय, चिंता और क्रोध मनुष्य की सम्पूर्ण शक्तियों का ह्रास करते हैं। भय के कारण कभी-कभी व्यक्ति सफल होते होते भी चूक जाता है। भ्रूमध्य में ध्यान करते हुए ॐकार का जप व्यक्ति को निर्भय बनाता है। महाभारत जैसे सदग्रन्थ, जिनमें भीम, अर्जुन तथा अन्य योद्धाओं के शौर्य का वर्णन है, पढ़ने चाहिए। असंयमित व्यक्ति ज्यादा भयभीत होते हैं, ब्रह्मचर्य प्रचुर शक्ति और साहस प्रदान करता है।
निराशा व आत्महीनताः निराश व्यक्ति किसी भी वस्तु के सकारात्मक पक्ष को देखकर उसके अवगुणों को ही देखता है। आशावादी व्यक्ति प्रत्येक वस्तु के सदगुण को ही देखेगा। निराशावादी मनुष्य अपने को हमेशा हीन असहाय महसूस करता है। जिनके जीवन में सदगुरु की दीक्षा, गुरुमंत्र का बल नहीं है वे ज्यादा निराश-हताश होते देखे गये हैं। परम सुहृद परमात्मा आपके साथ हैं तो अपने को निराश-हताश और दुर्बल क्यों मानना ? ॐकार की टंकार से निराशा आत्महीनता के विचारों को दूर भगायें। पूज्य बापूजी द्वारा बताया गया 'देव-मानव हास्य-प्रयोग' सुबह उठने के बाद रात्रि को सोने से पहले करें, इससे आत्महीनता निराशा को दूर करने में बहुत मिलेगी।
आलस्य, असावधानी और विस्मृतिः आलसी विद्यार्थी अपना काम समय पर नहीं कर पाता और हँसी का पात्र बनता है। आलस्य दूर करने में सूर्यनमस्कार त्रिबन्ध प्राणायाम बहुत मदद करते हैं। इसी प्रकार असावधानी और लापरवाही भी एक बड़ा दोष है। असावधान विद्यार्थी कोई भी कार्य ठीक से नहीं कर पाता। वह सदा पेन, कापी, चाबियाँ इत्यादि खोता रहता है। समय पर जब उसे कोई चीज नहीं मिलती तो वह परेशान होता है।
अतः अपने दैनिक कार्यों उपयोगी वस्तुओं की सूची बनायें और समय-समय पर उसका अवलोकन करते रहें। सूर्यदेव को रोज जल चढ़ायें। नियमित भ्रामरी प्राणायाम करने प्रातः खाली पेट तुलसी के पाँच-सात पत्ते चबा-चबाके खाकर ऊपर से आधा गिलास पानी पीने से विस्मृति रोग दूर होता है। (अन्य यौगिक प्रयोगों के लिए देखें पुस्तक 'दिव्य प्रेरणा प्रकाश', पृ. 35)
कुसाहित्य एवं सिनेमाः इन दोनों से आज हमारी युवा पीढ़ी का जितना पतन हो रहा है उतना और किसी चीज से नहीं। जिस विद्यार्थी को महान बनना हो उसे इन दोनों से दूर ही रहना चाहिए। गंदे साहित्य फिल्मों से मन में कुसंस्कार भर जाते हैं, फिर जैसे ऊसर भूमि में अनाज नहीं उगता वैसे ही उसमें दिव्य सदगुणों का विकास नहीं होता।
इन्द्रिय लोलुपताः इन्द्रिय लोलुपता विकास के मार्ग में एक बड़ा भारी अवरोध है, अतः अपनी इन्द्रियों पर कड़ी निगरानी रखें। जिसने अपनी इन्द्रियों को अनुशासित कर लिया है, उसका संकल्प बलवान तथा मन शांत होगा। वह अच्छी तरह ध्यान कर सकता है एकाग्र हो सकता है। उसमें अपार आंतरिक बल प्रकट होता है। उसे हर किसी क्षेत्र में सफलता मिलती है। इन्द्रिय-दमन से आपको सदगुणों के विकास तथा दुर्गुणों के उन्मूलन में बहुत सहायता प्राप्त होगी और बुरी आदतों का निवारण आपके लिए बड़ा सरल हो जायेगा।

बुरी आदत को एक ही झटके से छोड़ देना चाहिए, धीरे धीरे कम करके छोड़ने का विचार प्रायः सफल नहीं हुआ करता। जो बुरी आदतों के शौकीन हों उनके संग से हमेशा बचें। जब पुरानी आदत जोर करे तो सावधान हो जायें। जब कभी तनिक सा भी प्रलोभन उपस्थित हो तो दृढ़ता से अपना मुख फेर ले। भगवन्नाम का जप करें। मन को किसी कार्य में पूर्णतया व्यस्त कर दें। दृढ़ संकल्प करें कि 'मैं अवश्य महान बनूँगा।' इस संसार में तुम्हारे लिए कुछ भी असंभव नहीं है। जहाँ चाह है, वहाँ राह है।

---:- स्रोतः लोक कल्याण सेतु, मार्च अप्रैल 2009