दसवाँ
सर्ग
ब्रह्माजी के और
अपने जन्म का वर्णन एवं समस्त जनों की मुक्ति के लिए मेरा उपदेश है इसका ज्ञान की
अवतरणिका के रूप में वर्णन।
प्राक्तन पौरुष
का ही नाम दैव है। उस पर आधुनिक पौरुष से भले ही विजय प्राप्त हो जाय। नियति तो,
जो वैराग्य प्रकरण में कृतान्त की पत्नी कही गई है, अजेय है क्योंकि उसे श्रेष्ठ
पुरुष भावी पदार्थों की अवश्यंभावरूप भवितव्यता और अप्रतिकार्य (अजेय) कहते हैं -
'अवश्यंभाविभावानां प्रतीकारो भवेद यदि। तदा दुःखेर्न लिप्येरन् नलरामयुधिष्ठिराः।
अर्थात् यदि अवश्य होने वाली घटनाओं का प्रतीकार होता, तो नल, राम, युधिष्ठिर आदि
दुःखी न होते। ऐसी परिस्थिति में पुरुष पर नियति का नियन्त्रण रहने के कारण पुरुष
की स्वतन्त्रता कहाँ रही ?
इस शंका का
निवारण करने के लिए श्रीवसिष्ठजी ने कहा।
हे रामचन्द्र,
ब्रह्मतत्त्व सब जगह सच्चिदानन्दप्रकाशरूप से सबकी अनुकूलता तथा समतारूप से स्थित
है। उससे सम्बन्ध रखने वाली सम्पूर्ण पदार्थों की सत्ता को ही नियति कहते हैं
जिसका भविष्त काल के सम्बन्ध से भवितव्यता शब्द से व्यवहार किया जाता है। और सत्ता
सर्वत्र उक्त रूप से स्थित ब्रह्मतत्त्व है। वही कारण और कार्य में क्रमशः नियामक
और नियम्यरूप से रहती है। कारण है तो अवश्य कार्य होना चाहिए और कार्य है तो कारण
अवश्य होना चाहिए, इस प्रकार का नियम नियति है। वह नियन्ता कारण आदि की नियन्तृता
(कार्यादिनियामकता) है और नियम्य कार्य आदि की नियम्यता है। पूर्वकाल में नियत
सत्ता कारणता है और पश्चातकाल में नियत सत्ता कार्यता है।।1।।
वे दोनों
देश-काल से विशेषित सत्तारूप ही हैं, यह भाव है।
नियति
सर्वानुकूल ब्रह्मसत्तारूप है, अतः पौरुष की सफलता के लिए भी नियति अनुकूल ही है,
प्रतिकूल नहीं है, इस अभिप्राय से कथित चित्त को एकाग्र करने के उपाय बोधक वचन को
कहते हैं।
इसलिए पौरुष का
अवलम्बन कर श्रेय के लिए नित्य बन्धुरूप चित्त को एकाग्र करो, मेरे इस कथन को
सुनो। इन्द्रियों को सदा विषयों की वासना बनी रहती है और वे मुक्ति से रहित ऐहिक
और स्वर्ग आदि सुख में आसक्त रहती हैं, अतः जैसे वे विषय की वासना करें वैसे
प्रयत्न से इन्द्रियों को शीघ्र अपने वश में कर के मन को सम कीजिए।।2,3।।
तदुपरान्त जो
कर्तव्य है, उसका उपदेश देते हैं।
इस लोक की
सिद्धि (जीवन्मुक्ति) तथा परलोक की सिद्धि के (विदेह मुक्ति के) लिए या मनुष्यलोक
और स्वर्ग आदि लोकों में अधिकारियों की ज्ञान सिद्धि के लिए पुरुषार्थरूप फल देने
वाली, मोक्ष के उपायों के उपदेश से परिपूर्ण तथा सारभूत जिस संहिता को कहूँगा, उसे
सावधान होकर सुनिये। श्रीराम जी (▲) अपुनर्ग्रहण के लिए (सर्वदा के
लिए) संसारवासना को हृदय से विदा कर तथा उदार बुद्धि से परिपूर्ण शान्तिसुख और
सन्तोषसुख का ग्रहण कर पूर्ववाक्य (कर्मकाण्ड श्रुतियों) और उत्तरवाक्यों के
(उपासनापरक श्रुतियों के) अर्थ के विचार से सम्पन्न और विषयों द्वारा अविद्ध (वेध
को प्राप्त न हुए) मन को आत्मानुसंधान से युक्त और समरस (गुरु और शास्त्र द्वारा
उपदिष्ट प्रकार की और अपने अनुभव की एकरसता के आस्वादन से युक्त) करके सुख और दुःख
का नाश करने वाले महान् आनन्द के एकमात्र कारणभूत इस मोक्ष के उपाय को, जिसे मैं
अभी कहूँगा, आप सावधान होकर सुनिय। श्रीरामचन्द्रजी, आप सम्पूर्ण विवेकशील(▼)
पुरुषों के साथ इस मोक्षकथा को सुनकर उस दुःखरहित परमपद को प्राप्त होंगे, जहाँ पर
विनाश का भय नहीं है।।4-8।।
▲ उक्त
संहिता के सुनने में मन्दविरक्त का भी अधिकार नहीं है, यह सूचित करने के लिए
'अपुनर्ग्रहणाय' ऐसा कहा है।
▼
श्रवणशाला में अविवेकी प्रविष्ट भी न हो सकें, यह सूचित करने के लिए विवेकशील कहा।
इस प्रकार
सांगोपांग श्रवण की भूमिका रचकर श्रवणीय शास्त्र की (मोक्षकथा की) सिद्धि के लिए
मोक्षकथा की प्राप्ति का प्रकार कहते हैं।
श्रीरामजी,
सृष्टि के आदि में भगवान ब्रह्माजी ने सम्पूर्ण दुःखों का विनाश करने वाली और
बुद्धि को अत्यन्त शान्ति देने वाली यह मोक्षकथा कही थी।।9।। श्रीरामचन्द्रजी ने
कहाः भगवन्, सृष्टि के आरम्भ में भगवान ब्रह्माजी ने किस लिए यह मोक्षकथा कही थी
और यह कैसे आपको प्राप्त हुई, यह कृपाकर मुझसे कहिए।।10।।
श्रीवसिष्ठजी ने
कहाः श्रीरामचन्द्रजी, घट-घट व्यापी, सबका आधार, अखण्ड चेतन, अविनाशी, सब
प्राणियों में प्रकाशरूप से स्थित एवं असीम मायिक विलासों का एकमात्र अधिष्ठान
परमात्मा है। माया और माया के कार्यों के आविर्भाव और तिरोभाव में सदा एकाकार
(निर्विकार) उस परमात्मा से विष्णु (सम्पूर्ण कार्यों में व्याप्त रहने वाले
ब्रह्माण्डरूप विराट्) सूक्ष्मभूतों के क्रम से उत्पन्न हुए जैसे कि स्पन्दमान जल
से परिपूर्ण निश्चलावस्था और चंचलावस्था में अप्रच्युत जल-स्वभाव सागर से तरंगे
उत्पन्न होती हैं। उस विराट् पुरुष के हृदयरूपी कमल से परमेष्ठी की (चतुर्मुख
ब्रह्मा की) उत्पत्ति हुई। सुवर्णाचल सुमेरू उस कमल की कर्णिका है, दिशाएँ दल हैं
और तारे केसर हैं। हे श्रीरघुकुलतिलक, जैसे कि मन विविध विकल्पों की सृष्टि करता
है वैसे ही वेद और वेदार्थ के महान परिज्ञाता ब्रह्माजी ने देवताओं और मुनियों की
मण्डली के साथ सम्पूर्ण प्राणियों की सृष्टि आरम्भ की। उन्होंने इस जम्बूद्वीप के
एक भाग इस भारतवर्ष में लाभ और हानि से दुःखी, जन्म-मरण-शील एवं मानसिक और कायिक
व्याधियों से पीड़ित विविध प्राणियों की सृष्टि की। प्राणियों की इस सृष्टि में
विविध विषयभोगरूपी व्यसनों से पूर्ण लोगों का क्लेश देखकर सम्पूर्ण लोकों की
सृष्टि करने वाले भगवान ब्रह्मा को, जैसे पुत्र को दुःखी देखकर पिता को दया आती है
वैसे ही, बड़ी दया आई। उन्होंने प्राणियों के कल्याण के लिए क्षणभर एकाग्रचित्त
होकर विचार किया कि इन अल्पायु बेचारे जीवों के दुःख का अन्त किस उपाय से होगा ?
ऐसा विचार कर भगवान ब्रह्माजी ने स्वयं तप, धर्म, दान सत्य और तीर्थों की सृष्टि
की। हे रघुवर, तप आदि की सृष्टि कर श्रीब्रह्माजी ने पुनः स्वयं विचार किया कि
सृष्टिप्रवाह में पड़े हुए लोगों के दुःख का तप आदि से समूल विनाश नहीं हो सकता।
निर्वाण (मोक्ष) परम सुख है, जिसके प्राप्त होने पर जीव न तो फिर जन्म लेता है और
न मरता है। वह निर्वाण ज्ञान से ही प्राप्त होता है। अतः जीव के संसारसागर से पार
होने का एकमात्र उपाय ज्ञान ही है।।11-22।।
तप, दान और
तीर्थ संसारतरण के लिए 'न कर्मणा न प्रजया धनेन' (न कर्म से, न पुत्रोत्पादन से और
न धनोपार्जन से ही मुक्ति हो सकती है) और 'प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपाः' (ये यज्ञ
आदि कच्चे प्लव(छोटी डोंगी) हैं, इनसे संसारमुक्ति नहीं हो सकती) इत्यादि
श्रुतियों में असाधन कहे गये हैं।
इसलिए मैं इन
दीन-हीन लोगों के दुःख के समूल विनाश के लिए नूतन (मजबूत) संसाररसागरतरण का उपाय
शीघ्र प्रकट करता हूँ। यों विचार कर कमल पर बैठे हुए भगवान ब्रह्माजी ने मन से
संकल्प कर मुझे, जो तुम्हारे सामने बैठा हूँ, पैदा किया। पुण्यमय श्रीरामजी, जैसे
एक तरंग से शीघ्र दूसरी तरंग होती है वैसे ही मैं भी अनिर्वचनीय मायावश ही उत्पन्न
हुआ और उत्पन्न होते ही तुरन्त पिताजी के समीप में उपस्थित हुआ। जिनके हाथ में
कमण्डल एवं रूद्राक्ष माला शोभा पा रही थी, उन भगवान् ब्रह्माजी को कमण्डल और
रूद्राक्षमाला से युक्त मैंने विनम्रतापूर्वक प्रणाम किया। मुझसे 'हे पुत्र, यहाँ
आओ' कहकर उन्होंने अपने आसनरूप कमल की ऊपरी पँखुड़ी में सफेद बादलपर चन्द्रमा के
समान मुझे अपने हाथ से बैठाया। मेरे पितृदेव ब्रह्माजी ने मृगचर्म पहन रक्खा था,
उन्हीं के अनुरूप मैं भी मृगचर्मधारी था। जैसे सुन्दर हंस सारस के कहे वैसे
मृगचर्मधारी पितृदेव ब्रह्मा ने मृगचर्मधारी मुझसे कहाः हे पुत्र, जैसे चन्द्रमा
में कलंक प्रविष्ट होता है वैसे ही वानर के समान चंचल अज्ञान एक मुहूर्त के लिए
तुम्हारे चित्त में प्रवेश करे। वत्स रामचन्द्रजी, यों शीघ्र ब्रह्माजी से अभिशप्त
हुआ मैं उनके संकल्प के अनन्तर ही अपना सारा निर्मल स्वरूप भूल गया। तदुपरान्त मैं
जैसे किसी धनी का धन हर लेने से वह दीन-हीन हो जाता है वैसे ही दीन हीन हो गया,
तत्त्वविज्ञान से रहित और दुःख-शोक से आक्रान्त मैं दिन पर दिन जीर्णशीर्ण होने
लगा। बड़े दुःख की बात है कि यह महाक्लेशदायक संसार नामक दोष कहाँ से मुझको
प्राप्त हो गया ऐसा विचार करता था और किसी प्रकार की चेष्टा नहीं करता था।
तदुपरान्त पूज्य ब्रह्माजी ने मुझसे कहाः पुत्र, तुम क्यों दुःखी हो ? इस दुःख के
नाशक का उपाय मुझसे पूछो। तदुपरान्त तुम अवश्य नित्यसुखी होओगे। तत्पश्चात
स्वर्णकमल की पँखुरी में बैठे हुए मैंने सम्पूर्ण लोकों के रचयिता श्रीब्रह्माजी
से संसारदुःखकी औषधि पूछी। मैंने पूछाः भगवन्, यह महादुःखमय संसार जीव को कैसे
प्राप्त हुआ और कैसे इसका विनाश होता है। यों मेरे द्वारा पूछे गये उन्होंने मुझको
उस प्रचुर ज्ञान का उपदेश दिया, जिस परम पवित्र ज्ञान को जानकर मैं पिता के
सर्वोत्कृष्ट तत्वज्ञान के समान परिपूर्णस्वभाव हो गया। तदुपरान्त जब कि मैंने
ज्ञातव्य तत्त्व ज्ञान जान लिया था, अतएव मैं अपनी प्रकृति में स्थित हो गया था,
तब जगत के निर्माता, सबके कारण और उपदेशक ब्रह्माजी ने मुझसे कहाः पुत्र, मैंने
शाप द्वारा तुम्हें अज्ञानी बनकर समस्त अधिकारी लोगों की ज्ञान सिद्धि के लिए इस
सारभूते ज्ञान का जिज्ञासु बनाया। वत्स, अब तुम्हारा शाप शान्त हो गया है, जैसे
चिरकाल तक मल के संसर्ग से मानों सुवर्ण अभावता को प्राप्त हुआ सुवर्ण पुनः शोधन
से पूर्वकालिक शुद्ध सुवर्ण रूपता को प्राप्त हो जाता है, वैसे ही तुम्हारा औपाधिक
अज्ञान नष्ट हो गया है, अब उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त हुए तुम मेरी नाईं अद्वितीय
आत्मरूप हो गये हो।।23-31।। हे सज्जनशिरोमणे, इस समय तुम लोकानुग्रह के लिए भूलोक
में जम्बूद्वीप के मध्य में स्थित भारतवर्ष में जाओ। वत्स, वहाँ पर महामति तुम
कर्मकाण्डपरायण लोगों को क्रम से शोभित होने वाले कर्मकाण्डक्रम से ही उपदेश देना,
क्योंकि 'न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्' (कर्म परायण अज्ञानियों की
बुद्धि में सन्देह उत्पन्न नहीं करना चाहिए) ऐसा न्याय है, और जो लोग विचारशील
विरक्त और अतीन्द्रिय तत्त्व के ग्रहण में समर्थ हों, उन्हें आनन्ददायक ज्ञानमार्ग
का उपदेश देना। रघुवंशशिरोमणि, इस प्रकार पिता ब्रह्माजी द्वारा आज्ञप्त मैं इस
लोक में रहता हूँ और जब तक इस लोक में अधिकारी पुरुष रहेंगे, तब तक रहूँगा। इस लोक
में मेरा कुछ भी कर्तव्य नहीं है, पर रहना चाहिए, यों विचार कर मैं अमनस्क होकर
यहाँ स्थित हूँ, अतएव अभिमानशून्य वृत्ति से रहता हुआ मैं अज्ञानियों की बुद्धि से
कार्य करता हूँ, अपनी बुद्धि से तो कुछ भी नहीं करता, यह भाव है।।40-44।।
दसवाँ सर्ग
समाप्त
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