बीसवाँ
सर्ग
एक दूसरे को बढ़ाने वाले प्रज्ञाबुद्धि
प्रकार, महापुरुषलक्षण और सदाचारक्रम का कथन।
उक्त ज्ञान
महापुरुषों में ही रहता है दूसरों में नहीं, और महापुरुष बनने में वक्ष्यमाण
सदाचार ही कारण है, अतः सदाचार का वर्णन करने के लिए उपक्रम कर रहे श्रीवसिष्ठजी
बोले।
श्रीरामचन्द्रजी,
पहले आर्यों के संसर्ग से प्राप्त उपदेश, आचरण, शिक्षण और युक्ति द्वारा बुद्धि को
बढ़ाना चाहिए, तदनन्तर आगे कहे जाने वाले महापुरुष के लक्षणों से अपने में
महापुरुषता का सम्पादन करना चाहिए। यदि सम्पूर्ण गुण एक पुरुष में न मिलें, तो इस
संसार में जो पुरुष जिस गुण के द्वारा उन्नत प्रतीत होता है, वह उसी गुण के द्वारा
दूसरे पुरुषों से विशिष्ट गिना जाता है, अतः उस पुरुष से शीघ्र उस गुण को प्राप्त
कर अपनी बुद्धि को बढ़ाना चाहिए।।1,2।। हे श्रीरामजी, शम आदि गुणों से परिपूर्ण यह
महापुरुषता यथार्थ ज्ञान के बिना किसी प्रकार की सिद्धि से प्राप्त नहीं होती।
जैसे वृष्टि से नवीन अंकुर बढ़ते हैं, वैसे ही आत्मसुख के आविर्भाव से प्रशंसा के
योग्य सत्पुरुषों के शम आदि आचार और अमानित्य आदि ज्ञान से वृद्धि को प्राप्त होते
हैं।।3।। जैसे अन्नात्मक घृत आदि से युक्त यज्ञों से धान आदि अन्नों की हेतु वृष्टि
की अभिवृद्धि होती है, वैसे ही शम आदि गुणों से उत्तम ज्ञान की अभिवृद्धि होती है।
यज्ञों से वृष्टि होती है, इस विषय में कहा भी है, 'अग्नौ प्रास्ताऽऽहुतिः
सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिवृष्टेरन्न ततः प्रजाः।।' अर्थात्
अग्नि में भली भाँति दी गई आहुति आदित्य को प्राप्त होती है, आदित्य से वृष्टि
होती है, वृष्टि से अन्न होता है और अन्न से प्राणी होते हैं।।4,5।।
एक समय में
परस्पर वृद्धि के अनुरूप दृष्टान्त को बतलाने के लिए उक्त वस्तु को ही पुनः कहते
हैं।
जैसे कमल के
सौन्दर्य और शोभा आदि गुणों द्वारा सरोवर की और जल के शीतलता आदि गुणों द्वारा कमल
की परस्पर वृद्धि होती है, वैसे ही शम आदि गुणों की ज्ञान से और ज्ञान की शम आदि
गुणों से परस्पर अभिवृद्धि होती है।।6।।
इसी प्रकार
ज्ञान और सदाचार भी परस्पर अभिवृद्धि के कारण हैं, ऐसा कहते हैं।
ज्ञान की सत्पुरुषों
के आचार से वृद्धि होती है और सत्पुरुष के आचार की ज्ञान से वृद्धि होती है, यों
ज्ञान और सत्पुरुष का आचार परस्पर एक दूसरे से अभिवृद्धि को प्राप्त होते हैं। शम,
प्रज्ञा, महापुरुषता आदि से युक्त श्रवण आदि प्रयत्न के क्रम से बुद्धिमान पुरुष
ज्ञान और सदाचार का अभ्यास करे यानी उनका पुनः पुनः आवर्तन करे।।7,8।। हे
श्रीरामचन्द्रजी, यहाँ जब तक ज्ञान और सदाचार का भली भाँति अभ्यास न किया जाय, तब
तक उनमें से एक की भी पुरुष को सिद्धि नहीं होती।।9।।
उनकी अभिवृद्धि
का फल भी एक ही समय में होता है, इसे दृष्टान्तपूर्वक कहते हैं।
जैसे पके हुए
धान के खेत की रक्षा करने वाली स्त्री को, जो पक्षियों को उड़ाने के लिए कोई दूसरा
व्यापार नहीं करती है विस्तृत करतलध्वनि से युक्त गान से आयुषंगिक पक्षियों का
निरास और गान का आनन्द एक ही काल में होता है वैसे ही ज्ञानप्राप्ति में विघ्नभूत राग,
मान आदि के निराकरण से इच्छारहित अतएव कर्तान होते हुए भी किये गये ज्ञान के हेतु
श्रवण और सदाचार से कर्तारूप अर्थात् केवल श्रवण और सदाचारमात्र का कर्तारूप पुरुष
आनुषंगिक विघ्नों के निरास द्वारा परम पद को प्राप्त होता है।।10,11।। हे
रघुकुलतिलक, जैसे मैंने इस प्रकार के इस सदाचार क्रम का आपको उपदेश दिया है, वैसे
ही इस समय आगे के प्रकरण में ज्ञानक्रम का आपको भली भाँति उपदेश देता हूँ। यह
शास्त्र कीर्ति देने वाला, आयु बढ़ाने वाला और पुरुषार्थरूपी फल देने वाला है,
बुद्धिमान पुरुष को इस शास्त्र का इसे जानने वाले हितैषी गुरु से श्रवण कर कि
बुद्धि को दर्पण की नाईं निर्मल करने के कारण आप अवश्य ही उस परम पद को प्राप्त
होंगे।।12-14।।
केवल साधनों के
बल से ही नहीं, किन्तु ज्ञातव्य तत्त्व के स्वभाव से भी आप परम पद को प्राप्त
होंगे, ऐसा कहते हैं।
मुनि का
(प्रस्तुत साधन सम्पत्ति से मननशील पुरुष का) मन, जिसने ज्ञातव्य पदार्थ को जान
लिया है, ऐसा होकर ज्ञातव्य पदार्थ के बल से ही विवश हो परम पद को प्राप्त होता
है। वह अज्ञान और उसके कार्य का तिरस्कार कर जागरूक हो अखण्डित उत्तम पद को नहीं
छोड़ता, इसमें कुछ सन्देह नहीं है।।15।।
कहा भी है।
देहात्मज्ञानवज्ज्ञानं
देहात्मज्ञानबाधकम्। आत्मन्येव भवेद्यस्य स नेच्छन्नपि मुच्यते।।
अर्थात् जैसे
सर्वसाधारण को देहात्मज्ञान होता है, वैसे ही जिसको आत्मा में ही देहात्मज्ञान का
बाधक ज्ञान हो जाता है, वह पुरुष इच्छा न रहते हुए भी मुक्त हो जाता है।
बीसवाँ सर्ग
समाप्त
इति श्री
योगवासिष्ठ हिन्दीभाषानुवाद में मुमुक्षु-व्यवहार
प्रकरण समाप्त
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