मोटर कार की चार अवस्थाएँ होती हैं-
पहली अवस्थाः गाड़ी पड़ी है गैरेज मे, साफ-सुथरी, ज्यों-की-त्यों। गाड़ी भी शांत, पहिए भी स्थिर और इंजिन भी चुप। पड़ी हुई गाड़ी को जंग लग रहा है, समय बरबाद हो रहा है।
दूसरी अवस्थाः इंजिन को चालू किय लेकिन गाड़ी को गियर में नहीं डाला। अभी वह गैरेज में ही है। गति नहीं करती। पहिये घूमते नहीं। केवल इंजिन चल रहा है। पेट्रोल जल रहा है बेकार में। कुछ कार्य सिद्ध नहीं हो रहा है।
तीसरी अवस्थाः गाड़ी का गियर घुमाया, गाड़ी गैरेज से बाहर आयी और सड़क पर भाग रही है। इंजिन भी चल रहा है, पहिये भी घूम रहे हैं, गाड़ी भी दौड़ रही है, पेट्रोल भी जल रहा है। मशीन चल-चलकर जीर्ण हो रही है।
चौथी अवस्थाः रास्ते में लम्बी ढलान आयी। चतुर ड्राइवर न गियर 'न्यूट्रल' कर दिया, इंजिन बन्द कर दिय फिर भी गाड़ी आगे भाग रही है, मंजिल तय कर रही है, इंजिन की कोई आवाज नहीं, पेट्रोल का खर्च नहीं। मधुर यात्रा हो रही है।
ऐसे ही अन्तःकरणरूपी गाड़ी की चार अवस्थाएँ हैं-
पहली अवस्थाः कुछ जीव अन्तःकरण की घनीभूत सुषुप्त अवस्था में जी रहे हैं, जैसे कि वृक्ष, पाषाण आदि। कोई कामना नहीं, कोई संकल्प नहीं फिर भी दुःख भोग रहे हैं बेचारे। पड़े-पड़े तप रहे हैं।
दूसरी अवस्थाः कुछ लोग ऐसे होते हैं कि संकल्प-पर-संकल्प, विकल्प-पर-विकल्प करते रहते हैं, पलायनवादी होते हैं। चाहिए तो बढ़िया खाने को, बढ़िया पहनने को, बढ़िय रहने को लेकिन कर्म नहीं करते। भीतर संकल्प-विकल्प का इंजिन धमाधम चलता रहता है लेकिन पहिये घूमते नहीं, हाथ-पैर उचित दिशा में उचित समय पर चलते नहीं। पड़े हैं आलसी-पलायनवादी होकर।
तीसरी अवस्थाः कुछ लोग जैसे संकल्प और कामनाएँ होती हैं, वैसे कर्म करते हैं। उनका आयुष्यरूपी पेट्रोल जल रहा है, शक्ति खर्च हो रही है, जीवनरूपी गाड़ी घिस रही है।
चौथी अवस्थाः कोई कोई विरले ज्ञानीजन होते हैं जिनके भीतर काम और संकल्प निवृत्त हो चुके हैं। प्रारब्ध वेग के ढलान में जीवन की गाड़ी मधुरता से सरक रही है। बड़े मजे से यात्रा हो रही है।
ज्ञानी में कोई कामना और संकल्प नहीं होता इसलिए कार्यों का बोझ उनको नहीं लगता। उनके द्वारा बड़े-बड़े कार्य संपन्न होते रहते है, फिर भी वे निर्लेप नारायण। अपने सहज स्वाभाविक आत्मानन्द में मस्त। संसारीजन की एकाध दुकान भी होती है तो दिवाली के समय सिर पर हाथ देकर चिन्ता करने लगता है, बोझे से दब जाता है।
जो लोग कामना से आक्रान्त हैं, उनको बड़ी परेशानी होती है। रावण का अधःपतन क्यों हुआ ? कामना से आक्रान्त होकर सीताजी को ले गया। देवता लोग जिसके यहाँ चाकर की नाईं सेवा करें, ऐसे बलवान् रावण का अधःपतन कामना ने कराया।
हनुमानजी जब बन्धन में बँधकर लंकेश के सामने खड़े हुए, तब लंकेश ने पूछाः
"तुम कौन हो ?"
"रामजी का दूत हूँ।"
"सागर पार करके कैसा आया ?"
"गोपद की तरह उसे लाँघकर।"
"मेरे पुत्र को मार डाला ?"
"ऐसे ही भून डाला। मारने की मेहनत नहीं करनी पड़ी।"
"इतना वीर होकर भी तू बँधा कैसे ?"
"मैं अखण्ड बाल ब्रह्मचारी हूँ। अशोक वाटिका में उन राक्षसियों पर अनजाने में दृष्टि पड़ गई, इसलिए बँध गया। मेरी तो अनजाने में नारियों पर दृष्टि पड़ी और मैं फँस गया और तू कामना से प्रेरित होकर जान-बूझकर सीता जी को उठा लाया है तो तेरा क्या हाल होगा यह भी तो जरा पूछ ले ! चाहे तो मैं अकेला तुझे चूर्ण कर सकता हूँ, लेकिन रामजी ने मेरे स्वामी ने कहा है कि पता लगाकर आओ, इसलिए मैं पता लगाने को ही आया हूँ।"
"श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण" में मुनिशार्दूल वशिष्ठजी कहते हैं- "हे रामजी ! ऐसा कौन सा दुःख है जो कामना वाले को नहीं भोगना पड़ता ? ऐसा दुःख नर्क में भी नही है जैसा कामना वाले के हृदय में होता है। ऐसा सुख स्वर्ग में भी नहीं है जैसा निष्कामी व्यक्ति के हृदय में छलकता है।"
अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं है तब तक कर्म जोर मारते हैं। आत्मस्वरूप का ज्ञान होते ही कर्म जल जाते है। ऐसे ज्ञानी बड़े-बड़े विशाल आयोजनों का आरम्भ करते हुए दिखते हैं, बड़ी-बड़ी प्रवृत्तियाँ करते हुए दिखते हैं फिर भी अपनी दृष्टि में वे कुछ नहीं करते। सदा अकर्त्ता पद में शान्त प्रतिष्ठित हैं। बाहर से सुख लेने की लालचवाली कामनाएँ ज्ञानाग्नि में जल गई हैं। कर्त्तृत्त्व-भोक्तृत्त्व भाव दग्ध हो जाता है। पहले की चली हुई गाड़ी अब प्रारब्धवेग से ऐसे ही मजे से चल रही है। पेट्रोल का खर्च नहीं, इंजिन की शांति।....
आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तक " सामर्थ्य स्रोत" से लिया गया प्रसंग
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