(श्री योगवाशिष्ठ महारामायण)
श्री वशिष्ठजी बोले: "रघुकुलभूषण श्रीराम ! जब संसार के प्रति वैराग्य सुदृढ़ हो जाता है, सत्पुरुषों का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है, भोगों की तृष्णा नष्ट हो जाती है, पाँचों विषय नीरस भासने लगते हैं, शास्त्रों के ’तत्त्वमसि’ आदि महावाक्यों का यथार्थ बोध हो जाता है, आनन्दस्वरुप आत्मा की अपरोक्षानुभूति हो जाती है, ह्रदय में आत्मोदय की पूर्ण भावना विकसित हो जाती है तब विवेकी पुरुष एकमात्र आत्मानन्द मेंरममाण रहता है और अन्य भोग-वैभव, धन-सम्पत्ति को जूठी पत्तल की तरह तुच्छ समझकर उनसे उपराम हो जाता है ।
ऎसे विवेक-वैराग्यसम्पन्न पुरुष एकान्त स्थानों में या लोकाकीर्ण नगरों में, सरोवरों में, वनों में या उद्यानों में, तीर्थो में या अपने घरों में, मित्रों की विलासपूर्ण क्रीड़ाओं में या उत्सव-भोजनादि समारम्भों में एवं शास्त्रों की तर्कपूर्ण चर्चाओं में आसक्ति न होने से कहीं भी लम्बे समय तक रुकते नहीं । कदाचित कहीं रुकें तो तत्त्वज्ञान का ही अन्वेषण करते हैं । वे विवेकी पुरुष पूर्ण शांत, इन्द्रियनिग्रही, स्वात्मारामी, मौनी और एकमात्र विज्ञानस्वरुप ब्रह्म का ही कथन करनेवाले होते हैं । अभ्यास और वैराग्य के बल से वे स्वयं परमपदस्वरुप परमात्मा में विश्रांति पा लेते हैं । वे मनोलय की पूर्ण अवस्था में आरुढ़ हो जाते हैं । जिस प्रकारह्रदयहीन पत्थरों को दूध का स्वाद नहीं आता, उसी प्रकार इन अलौकिक पुरुषों को विषयों में रस नहीं आता ।
जिस प्रकार दीपक अन्धकार का नाश करता है, उसी प्रकार विवेक-ज्ञानसम्पन्न महापुरुष अपने ह्रदयस्थित अज्ञानरुपी अन्धकार का नाश कर देते हैं, बाहर के राग-द्वेष, शोक-भय आदि दूर हटा देते हैं । जिनमेंतमोगुण का सर्वथा अभाव है, जो रजोगुण से रहित हैं, सत्त्वगुण से भी पार हो चुके हैं वे महापुरुष गगनमण्डल में सूर्य के समान हैं, साक्षात परमात्मस्वरुप हैं । सर्व जीव, प्राणी, समग्र चराचर सृष्टि स्वेच्छानुसारउपहार प्रदान करके उन आनन्दस्वरुप आत्मदेव की ही निरन्तर पूजा करते हैं । अनेक जन्मों तक जब ये आत्मदेव पूजित होते हैं तब वे अपने पुजारी पर प्रसन्न होते हैं । प्रसन्न बने हुए ये देवाधिदेव महेश्वररुपआत्मा पूजा करनेवाले की शुभ कामना से उसे ज्ञान प्रदान करने के लिये अपने पावन दूत को प्रेरित करते हैं ।”
श्री रामजी ने पूछा : "ब्रह्मन ! परमेश्वररुप आत्मा कौन-से दूत को प्रेरित करते हैं और वह दूत किस प्रकार ज्ञानोपदेश देता है ? "
श्री वशिष्ठजी बोले : " रामभद्र ! आत्मा जिस दूत को प्रेरित करता है उसका नाम है विवेक । वह सदा आनन्द देनेवाला है । अधिकारी पुरुष की ह्रदयरुपी गुफा में वह दूत ऎसे स्थित हो जाता है मानों निर्मल आकाश में चन्द्रमा । विवेक ही वासनायुक्त अज्ञानी जीव को ज्ञान प्रदान करता है और धीरे-धीरे संसार-सागर से उसका उद्धार कर देता है ।
यह ज्ञानस्वरुप अन्तरात्मा ही सबसे बड़े परमेश्वर हैं । वेदसम्मत जो प्रणव है, ॐ है वह उन्हींका बोधक शुभ नाम है । नर-नाग, सुर-असुर ये सब जप, होम, तप, दान, पाठ, यज्ञ और कर्मकाण्ड के द्वार नित्यउन्हींको प्रसन्न करते हैं । चिन्मय होने से वे ही सर्वत्र विचरण करते हैं, जागते हैं, और देखते हैं । वे सर्वव्यापक हैं । ये चिदात्मा ही विवेकरुपी दूत को प्रेरित करके उसके द्वारा चित्तरुपी पिशाच को मारकर जीव को अपने दिव्य अनिर्वचनीय पद तक पहुँचा देते हैं ।
अतः तमाम संकल्प-विकल्प, विकार तथा अर्थसंकटों को छोड़कर अपने पुरुषार्थ से उन चिदात्मा को प्रसन्न कर लेना चाहिए । ज्ञानरुपी चिदात्म-सूर्य का उदय होते ही संसाररुपी रात्रि में विचरता हुआ मनरुपी पिशाच नष्ट हो जायेगा । काम-क्रोधादि छः ऊर्मिरुपी कालिमा बिखर जायेगी । जीवन का मार्ग पूर्ण प्रकाशित, आनन्दमय हो जायेगा । मनुष्य जन्म सार्थक हो जायेगा ।
ॐ आनन्द ....
आश्रम से प्रकाशित पुस्तक "मन को सीख" से लिया गया प्रसंग
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