स्वामी
रामतीर्थ के
बोलने का
स्वभाव था किः
"मैं
बादशाह हूँ,
मैं शाहों का
शाह हूँ।"
अमेरिका के
लोगों ने
पूछाः "आपके
पास है तो कुछ
नहीं, सिर्फ
दो जोड़ी गेरूए
कपड़े हैं।
राज्य नहीं,
सत्ता नहीं,
कुछ नहीं, फिर
आप शाहों के
शाह कैसे ?"
रामतीर्थ
ने कहाः "मेरे
पास कुछ नहीं
इसलिए तो मैं
बादशाह हूँ।
तुम मेरी
आँखों में
निहारो.... मेरे
दिल में
निहारो। मैं
ही सच्चा
बादशाह हूँ।
बिना ताज का
बादशाह हूँ।
बिना वस्तुओं
का बादशाह
हूँ। मुझ जैसा
बादशाह कहाँ ? जो
चीजों का,
विषयों का
गुलाम है उसे
तुम बादशाह
कहते हो
पागलों ! जो
अपने आप में
आनन्दित है
वही तो बादशाह
है। विश्व
का सम्राट
तुम्हारे पास
से गुजर रहा
है। ऐ
दुनियाँदारों
!
वस्तुओं का
बादशाह होना
तो अहंकार की
निशानी है
लेकिन अपने मन
का बादशाह
होना अपने
प्रियतम की
खबर पाना है।
मेरी आँखों
में तो निहारो
! मेरे
दिल में तो
गोता मार के
जरा देखो ! मेरे
जैसा बादशाह
और कहाँ
मिलेगा ? मैं
अपना राज्य,
अपना वैभव
बिना शर्त के
दिये जा रहा
हूँ.... लुटाये
जा रहा हूँ।"
जो
स्वार्थ के
लिए कुछ दे वह
तो कंगाल है
लेकिन जो अपना
प्यारा समझकर
लुटाता रहे
वही तो सच्चा
बादशाह है।
'मुझ
बादशाह को
अपने आपसे
दूरी कहाँ ?'
किसी ने
पूछाः "तुम
बादशाह हो ?"
"हाँ...."
"तुम
आत्मा हो ?"
"हाँ।"
"तुम
God
हो?"
"हाँ....।
इन चाँद
सितारों में
मेरी ही चमक
है। हवाओं में
मेरी ही
अठखेलियाँ
हैं। फूलों
में मेरी ही
सुगन्ध और
चेतना है।"
"ये
तुमने बनाये ?"
"हाँ....
जबसे बनाये
हैं तब से उसी नियम
से चले आ रहे
हैं। यह अपना
शरीर भी मैंने
ही बनाया है,
मैं वह बादशाह
हूँ।"
जो अपने को
आत्मा मानता
है, अपने को
बादशाहों की
जगह पर
नियुक्त करता
है वह अपने
बादशाही स्वभाव
को पा लेता
है। जो
राग-द्वेष के
चिन्तन में
फँसता है वह
ऐसे ही
कल्पनाओं के
नीचे पीसा जाता
है।
मैं
चैतन्यस्वरूप
आत्मा हूँ।
आत्मा ही तो
बादशाह है....
बादशाहों का
बादशाह है। सब
बादशाहों को
नचानेवाला जो
बादशाहों का
बादशाह है वह
आत्मा हूँ
मैं।
अहं
निर्विकल्पो
निराकार रूपो
विभुर्व्याप्य
सर्वत्र
सर्वेन्द्रियाणाम्।
सदा
मे समत्वं न
मुक्तिर्न
बन्धः
चिदानन्दरूपः
शिवोऽहम्
शिवोऽहम्।।
मुक्ति और
बन्धन तन और
मन को होते
है। मैं तो सदा
मुक्त आत्मा
हूँ। अब मुझे
कुछ पता चल
रहा है अपने
घर का। मैं
अपने गाँव
जाने वाली
गाड़ी में
बैठा तब मुझे
अपने घर की
शीतलता आ रही
है। योगियों
की गाड़ी मैं
बैठा तो लगता
है कि अब घर बहुत
नजदीक है।
भोगियों की
गाड़ियों में
सदियों तक
घूमता रहा तो
घर दूर होता
जा रहा था।
अपने घर में
कैसे आया जाता
है, मस्ती
कैसे लूटी जाती
है यह मैंने
अब जान लिया।
मस्तों
के साथ मिलकर
मस्ताना हो
रहा हूँ।
शाहों
के साथ मिलकर
शाहाना हो रहा
हूँ।।
कोई काम का
दीवाना, कोई
दाम का
दीवाना, कोई
चाम का
दीवाना, कोई
नाम का
दीवाना, लेकिन
कोई कोई होता
है जो राम का
दीवाना होता
है।
दाम
दीवाना दाम न
पायो। हर जन्म
में दाम को छोड़कर
मरता रहा। चाम
दीवाना चाम न
पायो, नाम दीवाना
नाम न पायो
लेकिन राम
दीवाना राम
समायो। मैं
वही दीवाना हूँ।
ऐसा महसूस
करो कि मैं
राम का दीवाना
हूँ। लोभी धन
का दीवाना है,
मोही परिवार
का दीवाना है,
अहंकारी पद का
दीवाना है,
विषयी विषय का
दीवाना है।
साधक तो राम
दीवाना ही हुआ
करता है। उसका
चिन्तन होता
है किः
चातक
मीन पतंग जब
पिया बन नहीं
रह पाय।
साध्य
को पाये बिना
साधक क्यों रह
जाय ?
हम अपने
साध्य तक
पहुँचने के
लिए जेट विमान
की यात्रा
किये जा रहे
हैं। जिन्हें
पसन्द हो, इस
जेट का उपयोग
करें, नहीं तो
लोकल ट्रेन
में लटकते
रहें, मौज
उन्हीं की है।
यह
सिद्धयोग, यह
कुण्डलिनी
योग, यह
आत्मयोग, जेट
विमान की
यात्रा है,
विहंग मार्ग
है।
बैलगाड़ीवाला
चाहे पच्चीस
साल से चलता
हो लेकिन
जेटवाला दो ही
घण्टों में
दरियापार की
खबरें सुना
देगा। हम
दरियापार
माने संसारपार
की खबरों में
पहुँच रहे
हैं।
ऐ मन रूपी
घोड़े !
तू और छलांग
मार। ऐ नील
गगन के घोड़े ! तू और
उड़ान ले।
आत्म-गगन के
विशाल मैदान
में विहार कर।
खुले विचारों
में मस्ती लूट।
देह के पिंजरे
में कब तक
छटपटाता
रहेगा ?
कब तक विचारों
की जाल में
तड़पता रहेगा ? ओ
आत्मपंछी ! तू और
छलांग मार। और
खुले आकाश में
खोल अपने पंख।
निकल अण्डे से
बाहर। कब तक
कोचले में
पड़ा रहेगा ? फोड़
इस अण्डे को।
तोड़ इस
देहाध्यास
को। हटा इस
कल्पना को।
नहीं हटती तो
ॐ की गदा से
चकनाचूर कर
दे।.......
******] पूज्यपाद संत
श्री
आसारामजी
बापू के सत्संग-प्रवचन से [******