पत्नी तकलीफ में हो और पति भागता हुआ न आये तो पति किस बात का ! सेवक कष्ट में हो, स्वामी भागता हुआ न आये तो स्वामी किस बात का ! ऐसे ही जीव दुःखी होकर पुकारता हो और भगवान अवतार न लें तो भगवान किस बात के ! यह भारतीय संस्कृति की महिमा है, गरिमा है। कभी कृष्णरूप में तो कभी रामरूप में, कभी प्रेरणा अवतार तो कभी अंतर्यामी अवतार, कभी आवेश अवतार तो कभी नरसिंह अवतार, कभी प्रवेश अवतार.... द्रौपदी की साड़ी में भी प्रविष्ट हो जाने वाली भगवदसत्ता ! हाथियों का बल रखने वाला दुःशासन साड़ी खींचता-खींचता थक गया, बोलता है कि 'नारी है कि सारी है !' न नारी है न साड़ी है, तेरे बाप का अवतार है !
ऐसे ही वृंदावन के नारायण स्वामी जी महाराज की एक शिष्या कुबड़ी थी। जैसे भागवत में कुब्जा का वर्णन आता है न ! पीठ में कूबड़ निकला हुआ और झुकी हुई कमर ! नारायण स्वामी की शिष्या भी ऐसी ही कुबड़ी थी। वह अमृतसर में रहती थी और हर साल वृंदावन में श्रीकृष्ण की लीला करवाती थी। उसमें कोई लड़का कृष्ण बने, कोई राधा बने, ऐसे ही कोई बलराम आदि बने। जो-जो पात्र होते सब उस-उस तरह की पोशाक पहनते, रासलीला करते। रासलीला में जो लड़का कृष्ण बना था, उसमें उसकी भावना आ गयी कि 'ये साक्षात् कृष्ण ही तो हैं। ये राधा जी हैं, ये बलराम हैं, ये गोपियाँ हैं, ये ग्वाल हैं।'
देखो, भगवान कब, किसके द्वारा कैसा अपना अदभुत प्रभाव प्रकट कर दें ! उस बाई को पता था कि पैसे देकर मैंने ही रासलीला करने के लिए मण्डली मँगवायी है और रासलीला-मण्डली में रास करने वाला कृष्ण पगारदार (वेतनभोगी) हैं। लेकिन उस कुबड़ी की ऐसी भावना हो गयी कि 'ये प्रभुजी हैं।' एक बार क्या सूझा उसको कि रास करने वाले कृष्ण से बोलीः "हे केशव ! हे कृष्ण ! कुब्जा को तो बिना कहे आपने पैर पर पैर रखकर ठोढ़ी को झटका मार दिया और वह कुब्जा ठीक हो गयी। मैं भी तो आपकी कुब्जा ही हूँ कृष्ण ! मेरे को भी ठीक कर दो।" जो लड़का कृष्ण बना था उसके अंतःकरण में ऐसा भाव आ गया कि पकड़ के उस कुब्जा को दे मारा ठूँसा और वह ठीक हो गयी। अच्छी तरह से चलने-फिरने लगी। उसका कूबड़ ठीक हो गया। इस बात को हजारों आदमी जानते हैं। कैसी है भगवदसत्ता ! कहाँ संकल्प करके कैसा संचार कर दे कहा नहीं जा सकता ! ऐसी और भी बड़ी अलौकिक वार्ताएँ, लीलाएँ मिलती हैं।
वह भगवान की सत्ता जहाँ-जहाँ छलकती है, वहाँ कैसा संचार हो जाता है ! फिर चाहे वह भगवदसत्ता श्रीकृष्ण में छलके, रामजी में छलके, बुद्ध में छलके, लीलाशाहजी बापू में छलके, तुम्हारे में-हमारे में छलके। जहाँ-जहाँ विशेषता दिखती है, वह परमात्मा की है। जहाँ-जहाँ निष्काम प्रेम, निःस्वार्थ आनंद है वह भगवान का ही है।
रामहि केवल प्रेम पिआरा। जानि लेउ जो जाननिहारा।।
भगवान जो रोम-रोम में रम रहे हैं, उनको केवल प्रेम प्यारा है। वे ही सबके सुहृद हैं, वे ही सबके अपने हैं। मैं भगवान का चिंतन करूँ तब भगवान आयेंगे, हम मरेंगे फिर भगवान के पास जायेंगे – यह वहम निकाल दो। भगवान मेरे हैं, आनन्दस्वरूप हैं, चैतन्यस्वरूप हैं, सदा है, सर्वत्र हैं, सभी देशों में हैं, सभी कालों में हैं, सभी परिस्थितियों में हैं। खम्भे तो बहुत हैं, प्रह्लाद की कमी है। वह तो प्रकट होने की बाट देखता रहता है।
तो तुम भी जीते-जीते जी भगवान के साथ अपने शाश्वत संबंध को जानकर जीवन्मुक्त होने की कला, भगवान को जब चाहे, जहाँ चाहे, जिस रूप में चाहे प्रकट करने की कला किन्हीं महापुरुष से सीख लो तो तुम्हारा तो कल्याण हो ही जायेगा, जो लोग तुम्हारी महिमा का गान करेंगे उनका भी हृदय भगवदरस से सराबोर हो जायेगा, भगवान की सर्वव्यापकता, सुहृदता के ज्ञान से भर जायेगा।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 2, अंक 170
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