मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

बुधवार, 31 दिसंबर 2008

व्यतिपात योग - स्वामी सुरेशानन्द जी

व्यतिपात योग

व्यतिपात योग की ऐसी महिमा है कि उस समय जप पाठ प्राणायम, माला से जप या मानसिक जप करने से भगवान की और विशेष कर भगवान सूर्यनारायण की प्रसन्नता प्राप्त होती है जप करने वालों को, व्यतिपात योग में जो कुछ भी किया जाता है उसका १ लाख गुना फल मिलता है।

वाराह पुराण में ये बात आती है व्यतिपात योग की।

व्यतिपात योग माने क्या कि देवताओं के गुरु बृहस्पति की धर्मपत्नी तारा पर चन्द्र देव की गलत नजर थी जिसके कारण सूर्य देव अप्रसन्न हुऐ नाराज हुऐ, उन्होनें चन्द्रदेव को समझाया पर चन्द्रदेव ने उनकी बात को अनसुना कर दिया तो सूर्य देव को दुःख हुआ कि मैने इनको सही बात बताई फिर भी ध्यान नही दिया और सूर्यदेव को अपने गुरुदेव की याद आई कि कैसा गुरुदेव के लिये आदर प्रेम श्रद्धा होना चाहिये पर इसको इतना नही थोडा भूल रहा है ये, सूर्यदेव को गुरुदेव की याद आई और आँखों से आँसु बहे वो समय व्यतिपात योग कहलाता है। और उस समय किया हुआ जप, सुमिरन, पाठ, प्रायाणाम, गुरुदर्शन की खूब महिमा बताई है वाराह पुराण में।

कथा स्रोत - बडोदा २००८ में १२ नवम्बर को सुबह के दीक्षा सत्र में (स्वामी सुरेशानन्द जी के सत्संग से)

व्यतिपात योग हर महिने में एक बार जरुर आता है वर्ष २००९ में किस तारीख को यह योग आयेगा और उसके अनुमानित समय (दुबई समयानुसार) की सूची निम्न है।

२ जनवरी २००९ को ००.०१ बजे से २२:३८ बजे तक
२७ जनवरी २००९ को ०३:१६ बजे से २८ जनवरी ०३:४३ बजे तक
२१ फ़रवरी २००९ को ०७:१७ बजे से २२ फ़रवरी ०८:०२ बजे तक
१८ मार्च २००९ को ११:५९ बजे से १९ मार्च १२:५० बजे तक
१२ अप्रेल २००९ को १९:३२ बजे से १३ अप्रेल १९:२२ बजे तक
८ मई २००९ को ०३:४१ बजे से ९ मई ०२:४४ बजे तक
२ जून २००९ को १२:२३ बजे से ३ जून ११:१५ बजे तक
२७ जून २००९ को २३:२२ बजे से २८ जून २०:४१ बजे तक
२३ जुलाई २००९ को १६:०८ बजे से २४ जुलाई १२:१७ बजे तक
१८ अगस्त २००९ को ११:१२ बजे से १९ अगस्त ०७:१९ बजे तक
१३ सितम्बर २००९ को ०२:०८ बजे से २३:२९ बजे तक
८ अक्टूबर २००९ को १२:२१ बजे से ९ अक्टूबर १०:०१ बजे तक
२ नवम्बर २००९ को २३:२९ बजे से ३ नवम्बर २१:१४ बजे तक
२८ नवम्बर २००९ को ११:३७ बजे से २९ नवम्बर ०९:५९ बजे तक
२३ दिसम्बर २००९ को १८:५२ बजे से २४ दिसम्बर १९:२० बजे तक

तारिख या समय में किसी प्रकार की त्रुटी हो गई हो तो कृपया उसे ठीक करने की कृपा करे।

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008

पुराण कथामृत (कार्तिक मास - ९)

कार्तिक मास के महत्वपूर्ण नियम - ३

स्कन्द पुराण में जब राजा रोहिताश्व ने मार्कण्डेय जी से प्रार्थना की तब उन्होने जो संवाद राजा आनर्तनरेश और भर्तृयज्ञ के बीच हुआ उसका वर्णन यहा पर है।

भर्तृयज्ञ बोले - अगर पितरों को पितृपक्ष में श्राद्धान्न नहीं मिलता है तो वे जब तक कन्या राशि में सूर्य स्थित रहता है, तब तक अपनी संतानों द्वारा किये गये श्राद्ध की प्रतीक्षा करते रहते हैं। उसके भी बीत जाने पर कुछ पितर तुला राशि के सूर्य तक पूरे कार्तिक मास में अपने वंशजों द्वारा किये जाने वाले श्राद्ध की राह देखते हैं। जब सूर्यदेव वृश्चिक राशि पर चले जाते हैं, तब वे पितर दीन और निराश होकर अपने स्थान पर लौट जाते हैं। राजन ! इस प्रकार पूरे दो मास तक भूख-प्यास से व्याकुल पितर वायुरूप में आकर घर के दरवाजे पर खडे रहते हैं। अतः पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य करना चाहिये। विशेषतः तिल और जल की अंजलि देनी चहिये। जिन तिथियों में श्रद्धापूर्ण हृदय से स्नान करके पितरों के लिये दिया हुआ तिलमिश्रित जल भी उनके लिए अक्षय तृप्ति का साधन होता है, वे तिथियाँ हैं अश्विन शुक्ल नवमी, कार्तिक की द्वादशी, माघ तथा भादों के तृतीया, फाल्गुन की अमावस्या, पौष की एकादशी, आषाढ की दशमी, माघ की सप्तमी, श्रावण कृष्णपक्ष की अष्टमी, आषाढ - कार्तिक - फाल्गुन - चैत्र तथा ज्येष्ठ मास की पूर्णिमाएँ - ये मन्वंतर की आदि तिथियाँ कही गयी हैं। इन तिथियों स्नान करके जो मनुष्य पितरों के उद्देश्य से तिल और कुशमिश्रित जल भी देता है, वह परम गति को प्राप्त होता है। कार्तिक शुक्ल नवमी, वैशाख शुक्ल तृतीया, माघ मास की अमावस्या और श्रावण की तृतीया ये क्रमशः सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग की आदि तिथियाँ हैं। ये स्नान, दान, जप, होम और पितृतर्पण आदि कारने पर अक्षय पुण्य उत्पन्न करने वाली और महान फल देने वाली होती है। जब सूर्य मेष अथवा तुला राशि पर जाते हैं, उस समय अक्षय पुण्यदायक ‘विषुव’ नामक काल होता है। जिस समय सूर्य मकर और कर्क राशि पर जाते हैं, उस समय ‘अयन’ नामक काल होता है। सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि पर जाना ‘संक्रान्ति’ कहलाता है। ये सब स्नान, दान, जप और होम आदि का महान फल देनेवाले हैं। इनमें दी हुई वस्तु का अक्षय फल होता है।

स्रोतः- ऋषि प्रसाद, अंक ११७, सितम्बर २००२

गुरुवार, 23 अक्तूबर 2008

पुराण कथामृत (कार्तिक मास - ८)

कार्तिक मास के अन्य महत्वपूर्ण नियम - २

कार्तिक में तिल का दान, नदी का स्नान, सदा साधु-पुरुषों का सेवन और पलाश के पत्तों में भोजन सदा मोक्ष देने वाला है। कार्तिक के महीनें में मौन-व्रत का पालन, पलाश के पत्ते में भोजन, तिल मिश्रित जल से स्नान, निरन्तर क्षमा का आश्रय और पृथ्वी पर शयन करने वाला पुरुष युग-युग के उपार्जित पापों का नाश कर डालता है। जो कार्तिक मास में भगवान विष्णु के सामने उषाकाल तक जागरण करता है, उसे सहस्त्र गोदानों का फल मिलता है। पितृ-पक्ष में अन्नदान करने से तथा ज्येष्ठ और आषाढ मास मे जल देने से मनुष्यों को जो फल मिलता है, वह कार्तिक में दूसरों का दीपक जलाने मात्र से प्राप्त हो जाता है। जो बुद्धिमान कार्तिक में मन, वाणी और क्रिया द्वारा पुष्कर तीर्थ का स्मरण करता है, उसे लाखों-करोडों गुना पुण्य होता है। माघ मास में प्रयाग, कार्तिक में पुष्कर और वैशाख मास में अवन्तीपुरी (उज्जैन) - ये एक युगतक उपार्जित किये हुए पापों का नाश कर डालते हैं। कार्तिकेय ! संसार में विशेषतः कलियुग में वे ही मनुष्य धन्य हैं, जो सदा पितरों के उद्धार के लिये श्रीहरि का सेवन करते हैं । बेटा ! बहुत से पिण्ड देने और गया में श्राद्ध आदि करने की क्या आवश्यकता है। वे मनुष्य तो हरिभजन के ही प्रभाव से पितरों का नरक से उद्धार कर देते हैं। यदि पितरों के उद्देश्य से दूध आदि के द्वारा भगवान विष्णु को स्नान कराया जाय तो वे पितर स्वर्ग में पहुँचकर कोटि कल्पों तक देवताओं के साथ निवास करते हैं। जो कमल के एक फूल से भी देवेश्वर भगवान लक्ष्मीपति का पूजन करता है, वह एक करोड वर्ष तक के पापों का नाश कर देता है। देवताओं के स्वामी भगवान विष्णु कमल के एक पुष्प से भी पूजित और अभिवन्दित होने पर एक हजार सात सौ अपराध क्षमा कर देते है। षडानन ! जो मुख में, मस्तक पर तथा शरीर में भगवान की प्रसादभूता तुलसी को प्रसन्नतापूर्वक धारण करता हैं, उसे कलियुग नहीं छूता। भगवान विष्णु को निवेदन किये हुए प्रसाद से जिसके शरीर का स्पर्श होता है, उसके पाप और व्याधियाँ नष्ट हो जाती है। शंख का जल, श्री हरि को भक्तिपूर्वक अर्पण किया हुआ नैवेद्य, चरणोदक, चन्दन तथा प्रसाद स्वरूप धूप - ये ब्रह्महत्या का भी पाप दूर करने वाले हैं।

स्रोत - पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय - ११९-१२०

बुधवार, 22 अक्तूबर 2008

पुराण कथामृत (कार्तिक मास - ७)

कार्तिक मास के अन्य महत्वपूर्ण नियम - १

कार्तिकेय जी बोले - पिताजी ! अन्य धर्मों का भी वर्णन कीजिये, जिनका अनुष्ठान करने से मनुष्य अपने समस्त पाप धोकर देवता बन जाता है।

महादेव जी ने कहा - बेटा ! कार्तिक मास को उपस्थित देख जो मनुष्य दूसरे का अन्न त्याग देता है, वह प्रतिदिन कृच्छव्रत का फल प्राप्त करता है। कार्तिक में तेल, मधु, काँसे के बर्तन में भोजन और मैथुन का विशेष रूप से परित्याग करना चाहिये। एक बार भी मांस भक्षण करने से मनुष्य राक्षस की योनि में जन्म पाता है और साठ हजार वर्षों तक विष्ठा में डाल कर सडाया जाता है। उस से छुटकारा पाने पर वह पापी विष्ठा खानेवाला ग्राम-शूकर होता है। कार्तिक मास में शास्त्रविहित भोजन का नियम करने पर अवश्य ही मोक्ष प्राप्त होता है। भगवान विष्णु का परमधाम ही मोक्ष है। कार्तिक के समान कोई मास नहीं है, श्रीविष्णु से बढकर कोई देवता नहीं है, सत्य के समान सदाचार, सत्युग के समान युग, रसना के तुल्य, तृप्ति का साधन, दान के सदृश सुख, धर्म के समान मित्र और नेत्र के समान कोई ज्योति नही है।

स्नान करनेवाले पुरुषों के लिये समुद्र्गामिनी पवित्र नदी प्रायः दुर्लभ होती है। कुल के अनुरूप उत्तम शीलवाली कन्या, कुलीन और शीलवान दम्पति, जन्मदायिनी माता, विशेषतः पिता, साधु पुरुषों के सम्मान का अवसर, धार्मिक पुत्र, द्वारिका का निवास, भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन, गोमती का स्नान और कार्तिक का व्रत - ये सब मनुष्य के लिये प्रायः दुर्लभ है। चन्द्रमा और सूर्य के ग्रहण काल में ब्राह्मणों को पृथ्वीदान करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, वह कार्तिक में भूमि पर शयन करने वाले पुरुष को स्वतः प्राप्त हो जाता है। ब्राह्मण-दम्पति को भोजन कराये, चन्दन आदि से उनकी पूजा करे। ओढने के साथ ही बिछौना भी दे। तुम्हें कार्तिक मास में जूते और छाते का भी दान करना चाहिये। कार्तिक मास में जो मनुष्य प्रतिदिन पत्तल में भोजन करता है, वह चौदह इन्द्रों की आयुपर्यन्त कभी दुर्गति में नहीं पडता। उसे सम्पूर्ण कामनाओं तथा समस्त तीर्थों का फल प्राप्त होता है। पलाश के पत्ते पर भोजन करने से मनुष्य कभी नरक नही देखता; किन्तु वह पलाश के बिचले पत्र का अवश्य त्याग कर दे।

स्रोत - पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय - ११९-१२०

पुराण कथामृत (कार्तिक मास - ६)

कार्तिक मास के स्नान की विधि

सत्यभामा ने कहा - प्रभों ! कार्तिक मास सब मासों में श्रेष्ठ माना गया है। मैंने उसके माहात्म्य को विस्तार से नही सुना है कृपया उसी का वर्णन कीजिये।

भगवान श्रीकृष्ण बोले - सत्यभामे! तुमने बडी उत्तम बात पूछी है। पूर्वकाल में महात्मा सूतजी ने शौनक मुनि से आदरपूर्वक कार्तिक-व्रत का वर्णन किया था। वही प्रसंग मैं तुम्हें सुनाता हूँ।

सूत जी ने कहा - मुनिश्रेष्ठ शौनकजी ! पूर्वकाल में कार्तिकेय जी के पूछने पर महादेवजी ने जिसका वर्णन किया था, उसको आप श्रवण कीजिये ।

कार्तिकेय जी बोले - पिताजी ! आप वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं । मुझे कार्तिक मास के स्नान की विधि बताइये, जिससे मनुष्य दुःखरूपी समुद्र से पार हो जाते है। साथ ही तीर्थ के जल का माहात्म्य भी बताइये।

महादेव जी ने कहा - एक ओर सम्पूर्ण तीर्थ, समस्त दान, दक्षिणाओं सहित यज्ञ, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, हिमालय, अक्रूरतीर्थ, काशी और शूकरक्षेत्र में निवास तथा दूसरी ओर केवल कार्तिक मास हो, तो वही भगवान केशव को सर्वदा प्रिय है। जिसके हाथ, पैर, वाणी और मन वश में हो तथा जिसमें विद्या, तप और कीर्ति विद्यमान हों, वही तीर्थ के पूर्ण फल को प्राप्त करता है। श्रद्धारहित, नास्तिक, संशयालु और कोरी तर्कबुद्धि का सहारा लेनेवाले मनुष्य तीर्थ सेवन के फल के भागी नहीं होते। जो ब्राह्मण सवेरे उठकर सदा प्रातः स्नान करता है, वह सब पापों से मुक्त हो परमात्मा को प्राप्त होता है षडानन ! स्नान का महत्व जानने वाले पुरुषों ने चार प्रकार के स्नान बतलाये है - वायव्य, वारुण, ब्राह्म और दिव्य।

यह सुन कर सत्यभामा बोलीं - प्रभो ! मुझे चारों स्नानों ए लक्षण बतलाइये।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - प्रिये ! गोधूलि द्वारा किया हुआ स्नान वायव्य कहलाता है, सागर आदि जलाशयों में किये हुए स्नान को वारुण कहते है, “आपो हि ष्ठा मयो” आदि ब्राह्म-मन्त्रों के उचारणपूर्वक जो मार्जन किया जाता है, उसका नाम ब्राह्म है तथा बरसते हुए मेघ के जल और सूर्य की किरणों से शरीर की शुद्धि करना दिव्य स्नान माना गया है। सब प्रकार के स्नानों में वारुण स्नान श्रेष्ठ है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य मन्त्रोच्चारणपूर्वक स्नान करे। शूद्र और स्त्रियों के लिये बिना मन्त्र के ही स्नान का विधान है। बालक, युवा, वृद्ध, पुरुष, स्त्री और नपुंसक - सब लोग कार्तिक और माघ में प्रातःस्नान की प्रशंसा करते है। कार्तिक में प्रातःकाल स्नान करने वाले लोग मनोवान्छित फल प्राप्त करते हैं।

स्रोत - पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय - ११९-१२०

रविवार, 19 अक्तूबर 2008

पुराण कथामृत (कार्तिक मास - ५)

अशक्तावस्था में कार्तिक-व्रत के निर्वाह का उपाय

ऋषि बोले - रोमहर्षणकुमार सूतजी ! आपने इतिहाससहित कार्तिक मास की विधि का भलीभाँति वर्णन किया। यह भगवान विष्णु को प्रिय लगनेवाला तथा अत्यन्त उत्तम फल देनेवाला है। इसका प्रभाव बडा ही आश्चर्यजनक है। इसलिये इसका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। परन्तु यदि कोई व्रत करनेवाला पुरुष संकट में पड जाय या दुर्गम वन में स्थित को अथवा रोगों से पीडित हो तो उसे इस कल्याणमय कार्तिक-व्रत का अनुष्ठान कैसे करना चाहिये।

सूतजी ने कहा – महर्षियोँ ! ऐसे मनुष्य को भगवान विष्णु अथवा शिव के मन्दिर मेँ केवल जागरण करना चाहिये । विष्णु और शिव के मन्दिर न मिलेँ तो किसी भी मन्दिर मेँ वह जगरण कर सकता है। यदि कोई दुर्गम वन मेँ स्थित हो अथवा आपत्ति मेँ फँस जाय तो वह अश्र्वत्थ वृक्ष की जड के पास अथवा तुलसी के वृक्षोँ के समीप बैठकर जागरण करेँ। जो पुरुष भगवान विष्णु के समीप बैठकर श्रीविष्णु के नाम तथा चरित्रोँ का गान करता है, उसे सहस्त्र गो-दानोँ का फल मिलता है। बाजा बजानेवाला पुरुष वाजपेय यज्ञ का फल पाता है। भगवान के पास नृत्य करनेवाला पुरुष सम्पूर्ण तीर्थोँ मेँ स्नान करने का फल प्राप्त करता है। जो उक्त नियमोँ का पालन करनेवाले मनुष्योँ को धन देता है, उसे यह सब पुण्य प्राप्त होता है। उक्त नियमोँ का पालन करने वाले पुरुषोँ के दर्शन और नाम सुनने से भी उनके पुण्य का छठा अश प्राप्त होता है। जो आपत्ति मेँ फँस जाने के कारण नहाने के लिये जल न पा सके अथवा जो रोगी होने के कारण स्नान न कर सके, वह भगवान विष्णु का नाम लेकर मार्जन कर ले। जो कार्तिक-व्रत के पालन मेँ प्रवृत होकर भी उसका उद्यापन करने मेँ समर्थ न हो, उसे चाहिये कि अपने व्रत की पूर्ति के लिये यथाशक्ति ब्राह्मणोँ को भोजन कराये। ब्राह्मण इस पृथ्वी पर अव्यक्तरूप श्रीविष्णु के व्यक्त स्वरूप हैँ । उनके संतुष्ट होनेपर भगवान सदा संतुष्ट होते है, इसमेँ तनिक भी सन्देह नही है। जो स्वयं दीपदान करने मेँ असमर्थ हो, वह दूसरों का दीप जलाये अथवा हवा आदि से उन दीपोँ की यत्नपूर्वक रक्षा करे, क्योकि भगवान विष्णु अपने भक्तोँ के हृदय मेँ सदा ही विराजमान रहते हैँ। अथवा सब साधनोँ के अभाव मेँ व्रत करने वाला पुरुष व्रत की पूर्ति के लिये ब्राह्मणोँ, गौओँ तथा पीपल और वट के वृक्षोँ की सेवा करे।

ऋषियोँ ने पूछा – सूतजी ! आपने पीपल और वट को गौ तथा ब्राह्मण के समान कैसे बता दिया ? वे दोनोँ अन्य सब वृक्षोँ की अपेक्षा अधिक पूज्य क्योँ माने गये ?

सूतजी बोले – महर्षियोँ ! पीपल के रूप मेँ साक्षात भगवान विष्णु ही विराजते है । इसी प्रकार वट भगवान शंकर का और पलाश ब्रह्माजी का स्वरूप है। इन तीनोँ का दर्शन, पूजन और सेवन पापहारी माना गया है। दुःख, आपत्ति, व्याधि और दुष्टोँ के नाश मेँ भी उसको कारण बताया गया है।

स्रोत – पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय – 117-118

कार्तिक कथामृत - ४

कार्तिक मास के ५ नियम

पद्मपुराण के उत्तरखण्ड में सूतजी कार्तिक मास के बारे में बताते हुए कहते है कि हे महर्षियों ! यह कार्तिक मास भगवान विष्णु को सदा ही प्रिय हैं तथा भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करने वाला है। रात में भगवान विष्णु के समीप जागना, तुलसी की सेवा में सलंग्न सहना, उद्यापन करना और दीप-दान देना - ये कार्तिक मास के ५ नियम है। इन पाँचों नियमों के पालन से कार्तिक का व्रत करने वाला पुरुष पूर्ण फल का भागी होता है। वह फल भोग और मोक्ष देने वाला बताया गया है।

स्रोत - पद्मपुराण उत्तर खण्ड - अध्याय ११७

शुक्रवार, 17 अक्तूबर 2008

पुराण कथामृत (कार्तिक मास - ३)

कार्तिक मास में सूर्य-मन्दिर में दीपदान का फल

ब्रह्माजी बोले - विष्णों ! जो कार्तिक मास में सूर्यदेव के मन्दिर में दीप प्रज्वलित करता है, उसे सम्पूर्ण यज्ञों का फल प्राप्त होता है एवं वह तेज में सूर्य के समान तेजस्वी होता है। अब मैं आपको भद्र ब्राह्मण की कथा सुनाता हूँ, जो समस्त पापों का नाश करने वाली है, उसे आप सुने

प्राचीन काल में महिष्मती नाम की एक सुन्दर नगरी में नागशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। भगवान सूर्य की प्रसन्नता से उसके सौं पुत्र हुए। सबसे छोटे पुत्र का नाम था भद्र। वह सभी भाइयों में अत्यन्त विलक्षण विद्वान था। वह भगवान सूर्य के मन्दिर में नित्य दीपक जलाया करता था। एक दिन उसके भाइयों ने उससे बडे आदर से पूछा - “भद्र! हम लोग देखते है कि तुम भगवान सूर्य को न तो कभी पुष्प, धूप, नैवेद्य आदि अर्पण करते हो और न कभी ब्राह्मण-भोजन कराते हो, केवल दिन-रात मन्दिर में जाकर दीप जलाते रहते हो, इसमें क्या कारण है ? तुम हमें बताओ।” अपने भाइयों की बात सुनकर भद्र बोला - भातृगण ! इस विषय में आप लोग एक आख्यान सुनें

प्राचीन काल में राजा इक्ष्वाकु के पुरोहित महर्षि वसिष्ठ थे। उन्होंने राजा इक्ष्वाकु से सरयु-तट पर सूर्यभगवान का एक मन्दिर बनवाया। वे वहाँ नित्य गन्ध-पुष्पादि उपचारों से भक्तिपूर्वक भगवान सूर्य की पूजा करते और दीपक प्रज्वलित करते थे। विशेषकर कार्तिक मास में भक्तिपूर्वक दीपोत्सव किया करते थे तब मैं भी अनेक कुष्ठ आदि रोगों से पीडित हो उसी मन्दिर के समीप पडा रहता और जो कुछ मिल जाता, उसी से अपना पेट भरता। वहाँ के निवासी मुझे रोगी और दीन-हीन जानकर मुझे भोजन दे देते थे। एक दिन मुझमें यह कुत्सित विचार आया कि मैं रात्रि के अन्धकार में इस मन्दिर में स्थित सूर्यनारायण के बहुमूल्य आभूषणों को चुरा लूँ। ऐसा निश्चयकर मैं उन भोजकों की निद्रा की प्रतीक्षा करने लगा। जब वे भोजक सो गये, तब मै धीरे-धीरे मन्दिर में गया और वहाँ देखा कि दीपक बुझ चुका है। तब मैनें अग्नि जलाकर दीपक प्रज्वलित किया और उसमें घृत डालकर प्रतिमा से आभूषण उतारने लगा, उसी समय वे देवपुत्र भोजक जग गये और मुझे हाथ में दीपक हाथ में दीपक लिया देखकर पकड लिया। मैं भयभीत हो विलापकर उनके चरणों पर गिर पडा। दयावश उन्होंने मुझे छोड़ दिया, किन्तु वहाँ घूमते हुए राजपुरुषों ने मुझे फिर बाँध लिया और ये मुझसे पूछने लगे - ‘अरे दुष्ट! तुम दीपक हाथ में लेकर मन्दिर में क्या कर रहे थे? जल्दी बताओ’, मैं अत्यन्त भयभीत हो गया। उन राजपुरुषों के भय से तथा रोग से आक्रान्त होने के कारण मन्दिर में ही मेरे प्राण निकल गये। उसी समय सूर्यभगवान के गण मुझें विमान में बैठाकर सूर्यलोक ले गये और मैंने एक कल्पतक वहाँ सुख भोगा और फिर उत्तम कुल में जन्म लेकर आप सबका भाई बना। बन्धुओं! यह कार्तिक मास में भगवान सूर्य के मन्दिर में दीपक जलाने का फल है। यद्यपि मैंने दुष्टबुद्धि से आभूषण चुराने की दृष्टि से मन्दिर में दीपक जलाया था तथापि उसी के फल स्वरूप इस उत्तम ब्राह्मणकुल में मेरा जन्म हुआ तथा वेद-शास्त्रों का मैंने अध्ययन किया और मुझे पूर्वजन्मों की स्मृति हुई। इस प्रकार उत्तम फल मुझे प्राप्त हुआ। दुष्टबुद्धि से भी घी द्वारा दीपक जलाने का ऐसा श्रेष्ठ फल देखकर मैं अब नित्य भगवान सूर्य के मन्दिर में दीपक प्रज्वलित करता रहता हूँ। भाईयों। मैनें कार्तिक मास में यह दीपदान का संक्षेप में माहात्म्य आप लोगों को सुनाया।
इतनी कथा सुनाकर ब्रह्माजी बोले - विष्णों! दीपक जलाने का फल भद्र ने अपने भाइयों को बताया। जो पुरुष सूर्य के नामों का जप करता हुआ मन्दिर में कार्तिक के महीने में दीपदान करता है, वह आरोग्य, धन-सम्पत्ति, बुद्धि, उत्तम संतान और जातिस्मरत्व को प्राप्त करता है। षष्ठी और सप्तमी तिथि को जो प्रयत्नपूर्वक सूर्यमन्दिर में दीपदान करता है, वह उत्तम विमान में बैठकर सूर्यलोक को जाता है। इसलिये भगवान सूर्य के मन्दिर में भक्तिपूर्वक दीप प्रज्वलित करना चाहिये। प्रज्वलित दीपकों को न तो बुझाये और न उनका हरण करे। दीपक हरण करने वाला पुरुष अन्धमूषक होता है। इस कारण कल्याण की इच्छावाला पुरुष दीप प्रज्वलित करे, हरे नह

(स्रोत - भविष्य पुराण, ब्रह्म पर्व, अध्याय ११८)

गुरुवार, 16 अक्तूबर 2008

पुराण कथामृत (कार्तिक मास - २)

भगवान श्री गणेशजी का अनोखा संयम

ब्रह्मकल्प की बात है। नवयौवनसंपन्ना परम लावण्यती तुलसीदेवी भगवान नारायण का स्मरण करती हुई तीर्थों में भ्रमण कर रही थीं। वे पतितपावनी श्रीगंगाजी के पावन तट पर पहुँचीं, तब उन्होंने देखा कि वहाँ पीताम्बर धारण किये नवयौवनसंपन्न, परम सुन्दर निधिपति भगवान श्रीगणेश ध्यानस्थ अवस्था में बैठे हैं। उन्हें देखकर तुलसीदेवी सहसा कह उठीं - “अत्यंत अदभुत और अलौकिक रूप है आपका !”

संयमशिरोमणि, जितेन्द्रियों में अग्रगंण्य पार्वतीनन्दन श्री गणेश का चन्दन-विलेपित तेजस्वी विग्रह देखकर तुलसीदेवी का मन उनकी ओर बरबस आकृष्ट हो गया। विनोद के स्वर में उन्होंने गणेशजी से कहाः “गजवक्त्र ! शूर्पकर्ण ! एकदन्त ! घटोदर! सारे आश्चर्य आपके ही शुभ विग्रह में एकत्र हो गये हैं। किस तपस्या का फल है यह ?”

उमानन्दन एकदन्त ने शांत स्वर में कहाः “ वत्से! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो ? यहाँ किस हेतु से आयी हो ? माता ! तपश्चरण में विघ्न डालना उचित नही। यह सर्वथा अकल्याण का हेतु होता है। मंगलमय प्रभु तुम्हारा मंगल करें।”

तुलसीदेवी ने मधुर वाणी में उत्तर दिया : “ मैं धर्मात्मज की पुत्री हूँ। मैं मनोनुकूल पति की प्राप्ति के लिये तपस्या में संलग्न हूँ। आप मुझे पत्नी के रूप में स्वीकार कर लीजिये।”

घबराते हुए गणेशजी ने उत्तर दिया “माता! विवाह बडा दुःखदायी होता है। तुम मेरी ओर से अपना मन हटाकर किसी अन्य पुरुष को पति के रूप में वरण कर लो। मुझे क्षमा करों ।”

कुपित होकर तुलसी देवी ने गणेशजी को शाप दिया “ तुम्हारा विवाह अवश्य होगा।”एकदन्त गणेश ने भी तुरंत तुलसी देवी को शाप देते हुए कहा “देवि ! तुम्हें भी असुर पति प्राप्त होगा। उसके अनन्तर महापुरुषों के शाप से तुम वृक्ष हो जाओगी।”पार्वतीनन्दन के अमोघ शाप के भय से तुलसीदेवी गणेशजी का स्तवन करने लगीं।

परम दयालु, सबके मंगल में रत गणेशजी ने तुलसीदेवी की स्तुति से प्रसन्न होकर कहा “देवि ! तुम पुष्पों की सारभूता एवं कलांश से नारायण-प्रिया बनोगी। वैसे तो सभी देवता तुमसे संतुष्ट होंगे किंतु भगवान श्री हरि के लिये तुम विशेष प्रिय होगी। तुम्हारे द्वारा श्रीहरि की अर्चना कर मनुष्य मुक्ति प्राप्त करेंगे किंतु मेरे लिये तुम सर्वदा त्याज्य रहोगी।”

इतना कहकर गणेशजी तपश्चर्या हेतु बद्रीनाथ की ओर चल दिये। कालान्तर में तुलसीदेवी वृन्दा नाम से दानवराज शंखचूड की पत्नी हुई। शंखचूड भगवान संकर द्वारा मारा गया और उसके बाद नारायण - प्रिया तुलसी कलांश से वृक्षभाव को प्राप्त हो गयीं।

(ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृति खण्ड)
{लोक कल्याण सेतु (वर्ष ११ अंक १२२ १६ अगस्त से १५ सितम्बर २००७) के आधार पर}

बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

कार्तिक मास माहात्म्य

ॐ श्री गणेशाय नमःॐ श्री सरस्वत्यें नमःॐ श्री गुरुभ्यों नमः
स्कंदपुराण के वैष्णवखण्ड में कार्तिक मास की महत्ता बताते हुए ब्रह्माजी नारद जी से कहते हैं - बेटा ! यह मनुष्य-योनि दुर्लभ हैं। इसे पाकर मनुष्य अपने को इस प्रकार रखे कि उसे पुनः नीचे न गिरना पडे। कार्तिक में सभी देवता मनुष्य से सन्निकट होते हैं और इसमें किये हुए स्नान, दान, व्रत को विधिपूर्वक ग्रहण करते है, जो भी तप किया जाता है, उसे सर्वशक्तिमान भगवान विष्णु ने अक्षय फल देने वाला बतलाया है।
कार्तिक मास के समान कोई मास नहीं, सतयुग के समान कोई युग नही, वेदों के समान कोई शास्त्र नहीं और गंगाजी के समान दूसरा कोई तीर्थ नहीं हैं।दान आदि करने में असमर्थ मनुष्य प्रतिदिन प्रसन्नता पूर्वक नियम से भगवन्नामों का स्मरण करे।
गुरु के आदेश देने पर उनके वचन का कभी उल्लंघन न करे। गुरु की प्रसन्नता से मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर लेता है। कार्तिक में सब प्रकार से प्रयत्न करके गुरु की सेवा करे। ऐसा करने से उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
कार्तिक में अन्नदान अवश्य करना चाहिये। जो मनुष्य कार्तिक मास में प्रतिदिन गीता का पाठ करता है, उसके पुण्यफल का वर्णन करने की शक्ति मुझ में नही है। गीता के समान कोई ग्रन्थ न तो हुआ है और न होगा।
भूमि पर शयन, स्नान, दीपदान, तुलसी के पौधों को लगाना और सींचना, ब्रह्मचर्य का पालन, भगन्नाम संकीर्तन तथा पुराणों का श्रवण - कार्तिक मास में इन सब नियमों का पालन करना चाहिए ।
[ लोक कल्याण सेतु (अंक ६४, १६ अक्टूबर से १५ नवम्बर २००२) के आधार पर ]