अठारहवाँ सर्ग
आधि, व्याधि आदि अनेक क्लेशों तथा जरा
मृत्यु से ग्रस्त अभिमान और
तृष्णा के मूलकारण शरीर की निन्दा।
श्लोक ३५ से आगे ............
हे
मुनीश्वर, जैसे कोई निर्बल जीव कीचड़ में फँसे हुए हाथी को नहीं निकाल सकता, वैसे
ही मैं भी इस देहरूपी गृह को धारण करने में असमर्थ हूँ।।36।। क्या राज्यलक्ष्मी,
क्या शरीर और क्या राज्य, क्या मनोरथ – इनमें से किसी से भी मेरा कुछ प्रयोजन नहीं
है, क्योंकि थोड़े ही दिनों में काल उन सबका नाश कर डालता है अर्थात् नाशवान वस्तु
से किसका क्या लाभ हो सकता है ?।।37।। मुनिवर, रक्त
और मांस से विरचित विनाशशील इस देह के बाहर और भीतर भली भाँति देखकर कहिए कि इसमें
कौन सी रमणीयता है ?।।38।। पूज्यवर, भला आप ही कहिये जो
शरीर मरने के समय जीव के पीछे नहीं जाते जीव का त्याग कर देते हैं, उन कृतघ्न
शरीरों पर ज्ञानवान पुरुषों का क्या आदर हो सकता है ? मदोन्मत्त हाथी के कानों के अग्रभाग की तरह चंचल और हाथी के
कान के अग्रभाग में लटक रहे जलबिन्दु के समान विनाशशील यह शरीर मुझे छोड़े, उससे
पहले ही मैं इसका त्याग कर देता हूँ। वायु के वेग से परिचालित कोमल पत्ते के समान
चंचल यह शरीर आधि-व्याधिरूपी सैंकड़ों काँटों से क्षत विक्षत होने के कारण जर्जर
हो जाता है। इस क्षुद्र स्वभाव, कटु और नीरस देह से हमारा किंचितमात्र भी उपकार
नहीं है। चिरकाल तक भाँति-भाँति के सुन्दर खाद्य और पेय पदार्थों को खा-पीकर नवीन
पत्ते के समान कोमल कृशता को प्राप्त होकर स्वतः विनाश की ओर अग्रसर होता है। यह
पामर शरीर पूर्व जन्मों में बार बार उपयुक्त ही भाव और अभावरूप सुख-दुःखों का पुनः
पुनः अनुभव करता हुआ लज्जित नहीं होता। जब यह दीर्घकालतक लोगों पर अपना आधिपत्य
जमाकर और विविध विभवों को पाकर न तो वृद्धि या उत्कर्ष को प्राप्त होता है और न
स्थिरता को प्राप्त होता है, तब इसके परिपालन या परीक्षण से क्या लाभ ? यह शरीर बुढ़ापे के समय में बुढ़ापे को अवश्य प्राप्त होता है
और मरने के समय मृत्यु को अवश्य प्राप्त होता है, यह नियम भाग्यवान् और दरिद्र
दोनों के लिए समान है, उसमें किसी प्रकार का भेद नहीं है, किन्तु यह बात इस अधम
देह को ज्ञात नहीं है। यह शरीर मूक कच्छप के (कच्छपों द्वारा दुष्ट इन्द्रियों
द्वारा दुर्विषयरूपी कीचड़ का पान करने वाले कछुए के) समान संसाररूप समुद्र के उदर
में तृष्णारूपी छोटे बिल के अन्दर रहता है। अपनी आत्मा के उद्धार के अनुकूल इच्छा
और चेष्टा भी इसमें नहीं है और गुरु के समीप में जाकर आत्मा के विषय में प्रश्न
आदिरूप वाणी भी इसमें नहीं है। इस संसाररूपी महासागर में केवल जलना ही जिनका मुख्य
प्रयोजन है, ऐसे हजारों देहरूपी काष्ठ भासित होते हैं, पर धीमान् जन उनमें से किसी
को ही 'नर' कहते हैं, अर्थात् जो ज्ञानाग्नि के द्वारा जलाया जा सकता है,
वह देह ही नरदेह है।।39-47।। दुष्टतारूपी बड़े बड़े बन्धनों युक्त और दुश्चरितों
से जिसका पतन अवश्यम्भावी है, ऐसी देहरूपी लता से विवेकी पुरुष को कुछ भी काम नहीं
है।।48।। यह शरीर कीचड़ से भरे पल्लवों में (तलैयों में) निमग्न मेंढक के समान
विषय-भोग में अत्यन्त निमग्न होकर वृद्धावस्था से आक्रान्त हो जाता है, किन्तु यह
शीघ्र ही कहाँ जाएगा और किस प्रकार की दुर्दशाओं से ग्रस्त होगा, यह ज्ञात नहीं
होता।।49।। जैसे धूलिपटलयुक्त आकाशमार्ग से जा रही आँधी को कोई देख नहीं सकता,
क्योंकि धूलि के कारण नेत्र बन्द हो जाते हैं, कुछ भी दिखाई नहीं देता, इस
देहसमुदाय की चेष्टाएँ भी ठीक आँधी के ही अनुरूप हैं अर्थात् इसकी सब चेष्टाएँ
नीरस (अनर्थकारिणी), और दर्शनशक्ति का नाश करने वाली हैं। यह शरीर ही आँधीरूपी
चपलता का मूल है, यही राजसी प्रवृत्ति का उत्पादन कर आत्मदर्शन में बाधक होता
है।।50।। वायु की, दीपक की और मन की गति-उत्पत्ति और विनाश-जैसे अज्ञात है वैसे ही
इस शरीर की उत्पत्ति, विनाश आदि अज्ञात हैं। यह क्या है, किस प्रकार से और कहाँ से
आता है और कहाँ जाता है, इस बात को कोई नहीं जानता।।51।। जो लोग अनित्य शरीरों में
नित्यत्व का आदर करते हैं और जो लोग संसार स्थिति के विषय में नित्यत्व का अभिमान
करते हैं अर्थात् जो लोग शरीरों को तथा संसार को आशायुक्त, चिरस्थायी और सत्य
मानते हैं वे मोह (अज्ञान) रूपी मदिरा से उन्मत्त है, उन्हें बार-बार धिक्कार
है।।52।।
न मैं देह का सम्बन्धी हूँ, न मैं देह
हूँ, न मेरी देह है और न मैं ही देह हूँ, ऐसा विचारकर अर्थात् इदंता से विशिष्ट घट
आदि के समान जड़ देह यह मैं नहीं हूँ, ऐसा विचार कर परमात्मा में जिनका चित्त
विश्रान्त है, वे लोग ही पुरुषोत्तम हैं।।53।। मान और अपमान से वृद्धि को प्राप्त हुई एवं प्रचुर लाभ से
सुन्दर लगने वाली दुष्ट दृष्टियाँ केवल शरीर में ही परमादर करने वाले पुरुष को
मृत्यु के वशीभूत कर देती है। शरीररूपी गड्ढे में रहने वाली मनोहर भोगतृष्णारूपिणी
पिशाचीने कपट से हमें संसार में पटककर हमारा सर्वस्व हर लिया-हमें ठग लिया
है।।54,55।। शरीर को ही सब कुछ समझने वाली इस मिथ्याज्ञानरूपिणी राक्षसी ने अकेली
अतएव दीन-हीन प्रज्ञा (सुबुद्धि) को पूर्णरूप से ठग लिया, यह बड़े कष्ट की बात
है।।56।। जब इस दृश्य प्रपंच में कोई भी वस्तु सत्य नहीं है, तब उसके मध्यवर्ती
होने से यह शरीर भी सत्य नहीं है। अपने आप जले हुए (असत्य) शरीर से जनता ठगी जाती
है, यह महान आश्चर्य है।।57।।
यदि
जनता को ठगने से इस शरीर को कोई प्रयोजन सिद्ध होता, तो किसी अंश में वह क्षन्तव्य
भी होता, पर वह भी कुछ नहीं है, ऐसा कहते हैं।
कुछ
ही दिनों में वृद्धता को प्राप्त हुआ यह शरीररूपी पत्ते झरने के जलकणों (सीकरों)
के समान अपने आप गिर पड़ता है – मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।।58।। समुद्र में
उत्पन्न हुए जल के बुदबुदों की नाईं इस शरीर का विनाश बहुत शीघ्र हो जाता है, यह
संसार में परिभ्रमणरूपी जलभँवर में व्यर्थ ही प्रकाश को प्राप्त होता है। न तो
संसार में परिभ्रमण से इसका कोई प्रयोजन सिद्ध होता है और न इससे किसी दूसरे का ही
प्रयोजन सिद्ध होता है।।59।। मुनिश्रेष्ठ, यह शरीर मिथ्याभूत अज्ञान का विकार है –
अज्ञानजनित है, स्वप्नरूपी भ्रान्तियों का आधार है और इसका विनाश सर्वथा स्पष्ट
है, इसलिए इस शरीर के प्रति मेरा क्षणभर के लिए आदर भी नहीं है।।60।। जिस पुरुष ने
बिजली में, शरत् ऋतु के मेघों में और गंधर्वनगर में ये चिरस्थायी हैं, ऐसा निर्णय
कर रक्खा है, वह इस क्षणभंगुर शरीर को भले ही चिरस्थायी माने।।61।. किसका शीघ्र
विनाश होता है, इस विषय में अपना अपना उत्कर्ष जताने के लिए हठ से प्रवृत्त हुए
सम्पूर्ण पदार्थों में से सदा विनाशशील कार्यों में विजयी होने वाले बिजली, शरत्
ऋतु के मेघ आदि से भी, नाशक सामग्री के अधिक होने से, उत्कृष्ट इस शरीर को तृण से
भी तुच्छ समझकर मैं परम सुखी हुआ हूँ।।62।।
अठारहवाँ सर्ग समाप्त
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