तैंतीसवाँ
सर्ग
सभा में सिद्ध पुरुषों का शुभागमन और
अपनी अपनी योग्यता के अनुकूल स्थान में बैठे हुए सिद्धों द्वारा श्रीरामचन्द्रजी
के वचनों की प्रशंसा।
सिद्धों द्वारा
की गई श्रीरामचन्द्रजी के वचनों की श्लाघा को ही विश्कलित कर रहे महामुनि वाल्मीकि
जी प्रश्न के उत्तर को सुनने की उनकी अभिलाषा और सभाप्रवेश आदिका वर्णन करने के
लिए इस सर्ग का आरम्भ करते हैं।
सिद्धों ने कहाः
रघुकुलतिलक श्रीरामचन्द्रजी द्वारा उक्त इन पवित्रतम प्रश्नवाक्यों का महर्षि लोग
जो निर्णय करेंगे, उसे अवश्य सुनना चाहिए। हे नारद, व्यास, पुलह आदि मुनिश्रेष्ठों
और सम्पूर्ण महर्षियों, आप लोग उसे निर्विघ्न सुनने के लिए शीघ्र पधारो।।1-2।।
कल्याणकारी
कार्यों में बहुत विघ्न उपस्थित हो जाते हैं, इसलिए विलम्ब करना उचित नहीं है, यह
भाव है।
जैसे भँवरे
कमलों से खचाखच भरे हुए, सुवर्ण के सदृश पीले केसर से दैदीप्यमान एवं पवित्र कमलों
के तालाब में चारों ओर से जाते हैं, वैसे ही हम लोग भी पवित्रतम, धन-सम्पत्ति से
परिपूर्ण अतएव सुवर्ण से चमचमा रही महाराज दशरथ कि इस सभा में चारों ओर से
जायें।।3।। श्रीवाल्मीकिजी ने कहाः सिद्धों के यों कहने पर विमानों पर रहने वाले
सम्पूर्ण दिव्य मुनिजन उस विशाल सभा में जहाँ पर श्रीरामचन्द्रजी आदि थे, उतरे।
उनके आगे-आगे वीणा बजा रहे देवर्षि श्रीनारदजी थे और जल से पूर्ण मेघ के समान
श्याम वेदव्यासजी उनके पीछे थे।।4,5।।
उन दोनों के
मध्य में दिव्य मुनिजनों की परम्परा थी, यह आशय है।
उक्त दिव्य
मुनिमण्डली भृगु, अंगिरा, पुलस्त्य आदि मुनीश्वरों से विभूषित थी और च्यवन,
उद्दालक, उशीर, शरलोम आदि मुनिजनों से परिवेष्टित थी। परस्पर के संघर्ष से उनके
मृगचर्म मुड़कर कुरूप हो गये थे, रूद्राक्ष मालाएँ हिल रही थीं और सुन्दर कमण्डलु
उनके हाथ में सुशोभित हो रहे थे। आकाश में तेज (ब्रह्मवर्चस) के विस्तार से सफेद
और लाल मुनियों की पंक्ति चमक रही तारागणों की पंक्ति के समान शोभित हो रही थी और
परस्पर के तेज से उनके मुखमण्डल खूब दमक रहे थे अतएव वे सूर्यपंक्ति के सदृश प्रतीत
होते थे। मुनिमण्डली ने परस्पर एक दूसरे के अंग-प्रत्यंग विविध वर्ण के कर रक्खे
थे, अतएव वे विभिन्न रत्नों की राशि से दिखाई दे रहे थे। परस्पर एक दूसरे की शोभा
बढ़ाने वाली मुनिमण्डली मुक्तावली के समान दिखाई दे रही थी, वह मुनिमण्डली क्या थी
मानों दूसरी चाँदनी की छटा थी, दूसरी सूर्य – मण्डली थी और दीर्घकाल से एक स्थान
में संचित पूर्णचन्द्रों की परम्परा थी। उस मुनिमण्डली में, तारागणों में सजल मेघ
के समान एक और व्यास जी विराजमान थे, तारागणों में चन्द्रमा के सदृश दूसरी ओर नारद
जी विद्यमान थे, देवताओं में देवराज के सदृश महर्षि पुलस्त्य विराजमान थे और
देवमण्डल में सूर्य के समान अंगिरा विराजमान थे। उक्त सिद्धसेना के आकाश से पृथिवी
पर आने पर महाराज दशरथ की वह सम्पूर्ण सभा उनके स्वागत के लिए उठ खड़ी हुई। एकत्र
हुए अतएव एक दूसरे की छवि को धारण किये हुए और दशों दिशाओं को प्रकाशमय कर रहे वे
आकाशचारी और भूमिचर अतिशोभित हुए। उनमें से किन्हीं के हाथ में बाँस की लाठियाँ
थीं, किन्हीं के हाथ में लीला-कमल थे, किन्हीं के सिर में दूब के तिनके थे और
किन्हीं के केशों में चूड़ामणियाँ चमक रही थी, कोई जटाजूटों से कपिल हो रहे थे, किन्हीं
का मस्तक, मालाओं से वेष्टित था, किन्हीं की कलाई में रूद्राक्ष की मालाएँ थीं,
किन्हीं के हाथ में मल्लिका का मालाएँ शोभित हो रही थीं, कोई चीर वल्कलधारी थे,
कोई सूक्ष्म रेशमी वस्त्र पहिरे थे किन्हीं के अंग में मूंज की मेखलाएँ लटक रही
थीं और कोई मुक्तहारों से अलंकृत थे। वसिष्ठ और विश्वामित्र ने अर्घ्य, पाद्य और
मधुरवचनों द्वारा क्रमशः सभी आकाशचारियों की पूजा की। आकाशचारी उन सिद्धों ने भी
श्रीवसिष्ठ और विश्वामित्रजी की अर्घ्य, पाद्य और मधुर वचनों द्वारा बड़े आदर के
साथ पूजा की। तदुपरान्त महाराज दशरथ का सत्कार किया। पूर्वोक्त प्रेमोचित दान,
सम्मान आदि के वेग से परस्पर आदर-सत्कार प्राप्त कर सब आकाशचारी सिद्ध महात्मा और
भूमिचर अपने-अपने आसनों पर बैठ गये। सामयिक वार्तालाप, प्रशंसा और पुष्पवृष्टि
द्वारा खूब सत्कार किया। पूर्वोक्त सिद्ध महात्माओं के मध्य में राज्यलक्ष्मी से
विभूषित श्रीरामचन्द्रजी विराजान हुए और वसिष्ठ, वामदेव, सुयज्ञ आदि मन्त्री,
ब्रह्मापुत्र श्रीनारदजी, मुनिश्रेष्ठ व्यासजी, मुनिवर मरीचि, दुर्वासा, अंगिरा,
क्रतु, पुलस्त्य, पुलह, मुनिराज शरलोम, वात्स्यायन, भरद्वाज, वाल्मीकि, उद्दालक,
ऋचीक, शर्याति, च्यवन आदि अनेक वेद और वेदांगों के पारंगत, तत्त्वज्ञानी महात्मा
विराजमान हुए। वसिष्ठ और विश्वामित्रजी के साथ देवर्षि नारद आदि ने जो कि गुरुमुख
से विधिपूर्वक सांग वेदों का अध्ययन किये हुए थे, विनय से नतमस्तक श्रीरामचन्द्रजी
से यह वाक्य कहा थाः बड़े आश्चर्य की बात
है कि राजकुमार श्रीरामचन्द्रजी ने कल्याण गुणों से (कहे जाने वाले
उत्तमोत्तम सोलह गुणों से) शोभायमान, वैराग्यरस से परिपूर्ण एवं बड़ी उदार वाणी
कही। उक्त वाणी में ये इस प्रकार के और ऐसे ही है, यों विचारकर वक्तव्य अर्थ
व्यवस्था के साथ निहित हैं, पदार्थों का तत्त्वबोध भी है अर्थात् केवल कपोल कल्पना
से पदार्थों की व्यवस्था नहीं की गई है, अतएव यह विद्वानों की सभा में स्थान पाने
योग्य है, इसके वर्ण बिल्कुल स्फुट हैं, यह वाणी उत्कृष्ट और विपुलभाव से गम्भीर
है, हृदय कोआनन्द देने वाली है, पूज्य महात्माओं के योग्य है, चित्त की चंचलता आदि
दोषों से रहित हैं, जैसे इसके वर्ण स्फुट हैं वैसे ही अर्थ भी स्फुट हैं, इसके
सम्पूर्ण पद व्याकरण के नियमों से संस्कृत है, यह हिताकारिणी है, ग्रस्त आदि दोषों
से रहित है और तृष्णा के विनाश से उत्पन्न संतोष की सूचक है। श्रीरामचन्द्रजी
द्वारा उक्त यह वाणी किसको आश्चर्यमग्न नहीं करती ? सैंकड़ों में से किसी एक-आध की
ही वाणी सम्पूर्ण वक्ताओं की अपेक्षा सर्वांश में उत्कृष्ट चमत्कार से परिपूर्ण
अतएव अभीष्ट (विवक्षित) अर्थ को प्रकट करने में सर्वथा समर्थ होती है। राजकुमार,
आपके बिना किस पुरुष की विवेकरूपी फल से सुशोभित, कुशाग्र के समान तीव्र प्रज्ञा
विचार-वैराग्यरूपी पुष्प-पल्लवों से वृद्धि को प्राप्त होगी ? श्रीरामचन्द्रजी के
समान जिसके हृदय में असाधारण रीति से पदार्थों के तत्त्व का प्रकाश करानेवाली या
अध्यस्त देह, इन्द्रिय आदि के साम्य से पृथक् कृत आत्मा का प्रकाश कराने वाली
प्रज्ञारूपी दीपकशिखा (दीपज्योति) प्रज्जवलित होती है, वही पुरुष है। और तो पुरुषार्थ के लिए असमर्थ अतएव स्त्रीप्राय
हैं। पूर्वोक्त प्रज्ञा से हीन पुरुष रक्त, मांस आदि यन्त्ररूप देह में आत्मबुद्धि
होने से रक्त, मांस, अस्थि आदि यन्त्ररूप ही शब्द, स्पर्श आदि पदार्थों का उपभोग
करते हैं, उनमें सचेतन आत्मा नहीं है, यों उनमें चार्वाकता ही सिद्ध होती है, यह
भाव है। अथवा यदि उनमें कोई सचेतन होता, तो वह अवश्य पुरुषार्थ के लिए यत्न करता।
वे यत्न नहीं करते, वे निरे पशु हैं, वे पुनः पुनः जन्म, मरण, जरा आदि दुःखों को
प्राप्त होते हैं। जैसे शत्रुनाशक श्रीरामजी विमल अन्तःकरण वाले हैं, वैसे निर्मल
अन्तःकरणवाला अतएव पूर्वापर का विचार करने वाला कहीं पर बड़ी कठिनाई से कोई विरला
ही दिखाई देता है। जैसे लोक में उत्कृष्ट माधुर्यवाले फलों से लदे हुए मनोहर
आकृतिवाले महापुरुष विरले ही हैं। जिससे जगत् का व्यवहार यथार्थरूप से देखा गया है
ऐसा केवल स्वविवेक से ही तत्त्वदर्शन पर्यन्त चमत्कार आदरणीय बुद्धिवाले इसी
राजकुमार में इसी अवस्था में देखा जाता है, यह महान् आश्चर्य है। देखने में
सुन्दर, सरलता से चढ़ने के योग्य एवं फल फूल और पत्तों से सुशोभित वृक्ष सभी
देशों में होते है, पर चन्दन के वृक्ष
सर्वत्र नहीं होते। फल और पल्लवों से पूर्ण वृक्ष प्रत्येक वन में सदा मिलते हैं,
पर अपूर्व चमत्कार वाला लोंग का वृक्ष सदा सर्वत्र सुलभ नहीं है। जैसे चन्द्रमा से
शीतल चाँदनी उत्पन्न होती है, जैसे वृक्ष से बौर उत्पन्न होते हैं और जैसे फूलों
से सुगन्ध परम्परा उत्पन्न होती है, वैसे ही श्रीरामचन्द्रजी से यह चमत्कार देखा
गया है। हे द्विजश्रेष्ठ, अत्यन्त दुष्टात्मा दैव (पूर्वजन्म के कर्म) या उसका
अनुसरण करने वाले विधाता की सृष्टि से रचित इस निन्दित संसार में सार पदार्थ
अत्यन्त दुर्लभ है। जो यशस्वी लोग सदा तत्त्व के विचार में तत्पर होकर सार पदार्थ
की प्राप्ति के लिए यत्न करते हैं वे ही धन्य हैं, वे ही सज्जनशिरोमणि हैं और वे
ही उत्तम पुरुष हैं। तीनों लोकों में श्रीरामचन्द्रजी के सदृश विवेकी एवं
उदारचित्त न कोई है और न कोई होगा, ऐसा मेरा निश्चय है।।6-45।।
श्रीरामचन्द्रजी
के मनोरथ की पूर्ति अवश्य करनी चाहिए, इस बात को उनकी प्रशंसारूप उत्तम अधिकार की
प्राप्ति के प्रख्यान द्वारा कहकर उसकी अपेक्षा करने में दोष कहते हैं।
सम्पूर्ण लोगों
को गुण, शील, विनय आदि द्वारा और समुचित प्रष्टव्य बातों के रहस्य के उदघाटन
द्वारा आनन्दित करने वाले श्रीरामचन्द्रजी के चित्त का तत्त्वजिज्ञासारूप मनोरथ
यदि हमारे जैसे ज्ञानियों के उपदेश से परिपूर्ण नहीं हुआ, तो ये हम लोग ही निश्चय
हतबुद्धि होंगे अर्थात् हमारी अभिज्ञता निष्फल होगी, यह आशय है।।46।।
तैंतीसवाँ सर्ग
समाप्त
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इति श्री
योगवासिष्ठ हिन्दीभाषानुवाद में वैराग्य प्रकरण समाप्त।
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