केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो उन्नति कर सकता है, मगर सावधान नहीं रहा तो अवनत भी हो सकता है। या तो उसका उत्थान होता है या पतन होता है, वहीं का वहीं नहीं रहता। अगर मनुष्य उन्नति के कुछ नियम जान ले और निष्ठापूर्वक उनमें लगा रहे तो पतन से बच जायेगा और अपने कल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ता जायेगा। आध्यात्मिक पतन न हो, इसलिए हर रोज कम से कम भगवन्नाम जप की दस माला करनी ही चाहिए।
दूसरी बात, त्रिबंध प्राणायाम करने चाहिए। इससे माला करने में एकाग्रता बढ़ेगी और चब करने में आनंद आयेगा। माला आसन पर बैठकर ही करनी चाहिए, जिससे मंत्रजप से उत्पन्न होने वाली विद्युतशक्ति जमीन में न चली जाये। अर्थिंग मिलने से तुम्हारी साधना का प्रभाव क्षीण हो जाता है।
यदि आसन पर बैठकर जप करते हो और अर्थिंग नहीं होने देते हो तो भजन के बल से आध्यात्मिक विद्युत के कण पैदा होते हैं, जो तुम्हारे शरीर के वात, पित्त और कफ के दोषों को क्षीण करके स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं। यही कारण है कि हमारे ऋषि-मुनि प्रायः ज्यादा बीमार नहीं पड़ते थे। नियम में अडिग रहने से अपना बल बढ़ता है, जिससे हम अपने जीवन की बुरी आदतों को मिटा सकते हैं। जैसे – कईयों की आदत होती है ज्यादा बोलने की। उन बेचारों को पता ही नहीं होता कि ज्यादा बोलने से उनकी कितनी शक्ति नष्ट होती है। वाणी का अपव्यय नहीं करना चाहिए।
गुजराती में कहावत है
न बोलवामां नव गुण। अर्थात् न बोलने में नौ गुण होते हैं।
कम बोलने से या नहीं बोलने से ये लाभ हैं- झूठ बोलने से बचेंगे, निंदा करने से बचेंगे, द्वेष से बचेंगे, ईर्ष्या से बचेंगे, क्रोध और अशांति से बचेंगे। इस प्रकार छोटे-मोटे नौ लाभ होते हैं।
अधिक बोलने की आदत साधक तो बहुत हानि पहुँचाती है। साधक से बड़े में बड़ी गलती यह होती है कि यदि उसमें कुछ शक्ति आ जाती है या कुछ अनुभव होते हैं तो वह उसका उपयोग करने लगता है, दूसरों को बता देता है। इससे वह एकदम गिर जाता है। फिर वह अवस्था लाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। इसलिए साधकों को अपना अनुभव किसी को नहीं कहना चाहिए। अगर साधक किसी को ईश्वर की ओर मोड़ने में सहयोगी होता है, अपने अनुभव से उसकी श्रद्धा में बढ़ोतरी होती है तो फिर थोड़ा बहुत ऊपर ऊपर से बता देना चाहिए।
जिस तरह वाणी पर संयम लाया जा सकता है उसी तरह ज्यादा खाने का, काम विकार का या शराब आदि का दोष है तो उसे भी दूर किया जा सकता है और बुरी आदतें भी मिटायी जा सकती हैं।
जब कामुकता जग रही हो तो उससे होने वाली हानियों पर नजर डालनी चाहिए व संयम से होने वाले लाभ पर विचार करना चाहिए। मन को समझाना चाहिए कि शरीर में क्या है ? कुछ आड़ी और कुछ खड़ी हड्डियाँ, माँस, मल-मूत्र, रक्त और ऊपर से चमड़े का आवरण (कवर)। फिर भी यह हाड़-मांस का शरीर परम सुन्दर चैतन्य के कारण ही सुंदर लगता है। तू उसी चैतन्य से प्रेम कर, अपने आत्मा में आ। हे मेरे प्रभु ! अब मैं विकारों में नहीं गिरूँगा, वरन् मैं तो तेरे शुद्ध चैतन्यस्वरूप में, राम में रहूँगा.....ॐ....ॐ....ॐ....
इस तरह एक सप्ताह तक काम विकार में न गिरने का नियम ले लिया और सप्ताह पूरा होने के पहले ही आगे एक सप्ताह बढ़ा दिया।
अपने मस्तिष्क में दिव्य विचार भरना और उनका पोषण करना नितांत आवश्यक है। डण्डे के बल से या पुचकार से बंदर, शेर आदि पशुओं को भी वश किया जा सकता है। इसी तरह अपने मन को कभी कठोर प्रतिज्ञा तो कभी पुचकार से वश में करने के संस्कार रोज डालते रहो।
लोभ के विचार आने पर विचार करोः आखिर में कौन अपने साथ क्या ले गया ?
क्या करिये क्या जोड़िये थोड़े जीवन काज।
छोड़ि छोड़ि सब जात है देह गेह धन राज।।
जो लोभ की दलदल में फँसे, उन्होंने शांति, आनंद, माधुर्य खोया। अतः लोभ से बचने के लिए दान-पुण्य आदि सत्कर्म करो। औदार्य सुख पाने में मन को लगाओ।
छोटी-छोटी बातों में भय सताता हो तो प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उठकर शांत मन से चिंतन करो कि 'निर्भय नारायण मेरे साथ हैं। अब मैं जरा जरा बात में भयभीत न होऊँगा। पाप से, दुश्चारित्र्य से भय कर लेकिन हे मेरे मन ! अच्छे रास्ते पर चलने में किस बात का भय ? ॐ....ॐ.....ॐ.... मैं निर्भय हूँ। ॐ.....ॐ......ॐ..... मैं निर्भय नारायण का अंग हूँ।' ये विचार बार-बार मन में भरो।
चटोरेपन, स्वादलोलुपता की आदत अकारण रोग लाती है, स्वास्थ्य बिगाड़ती है और आयुष्य क्षीण करती है। जो जिह्वा एक दिन जल जाने वाली है, उसके पीछे मैं अपना जीवन क्यों नष्ट करूँ ? नमक मिर्च मसाले वाला सादा, सात्त्विक भोजन ही करूँगा। चटोरेपन का शिकार होकर अकाल नहीं मरूँगा। - ऐस दिव्य विचार भरने के लिए थोड़ा समय अवश्य निकालना चाहिए, अन्यथा पुरानी आदतें साधन-भजन में बरकत नहीं आने देंगी और अपने को असमर्थ समझकर हम दैवी लाभ से वंचित होते रहेंगे।
बीड़ी सिगरेट, गाँजा, शराब आदि के सेवन की बुरी आदतें एक दिन में नहीं आतीं अपितु बार-बार इनके प्रयोग से ये बुराइयाँ जीवन का अंग बन जाती हैं। ऐसे ही बुराइयों को निकालते हुए अच्छाइयों को अपनाओ तो अच्छाइयाँ भी जीवन का अंग हो जायेंगी। जो भी दुर्गुण हो, उनसे होने वाली हानियों पर नजर डालो और सदगुणों के महान फायदों पर नजर डालो। केवल मंदिरों में जाने से या माला घुमाने से ही काम नहीं चलता, अपितु रोज थोड़े दुर्गुण हटाते जाओ और सदगुण भरते जाओ। इससे आप शांति, प्रसन्नता, संतोष, आरोग्यता, उत्साह आदि सदगुणों के धनी बन जाओगे।
जैसे खेत में निराई-गुड़ाई करते हैं, वैसे ही मनरूपी खेत में से हलके विचार निकालकर दिव्य विचार भरने का रोज अभ्यास करो। मस्तिष्क की तिजोरी में जितने दिव्य विचार भरते जाओगे, उन्हें दृढ़ बनाते जाओगे, उतने ही सच्चे अर्थों में आप धनवान बनते जाओगे। वास्तव में तुम ईश्वर की सनातन संतान हो। बुरी आदतों में फँस मरने के लिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ है। ॐ.....ॐ.....ॐ.....
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, जुलाई-अगस्त 2009
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दूसरी बात, त्रिबंध प्राणायाम करने चाहिए। इससे माला करने में एकाग्रता बढ़ेगी और चब करने में आनंद आयेगा। माला आसन पर बैठकर ही करनी चाहिए, जिससे मंत्रजप से उत्पन्न होने वाली विद्युतशक्ति जमीन में न चली जाये। अर्थिंग मिलने से तुम्हारी साधना का प्रभाव क्षीण हो जाता है।
यदि आसन पर बैठकर जप करते हो और अर्थिंग नहीं होने देते हो तो भजन के बल से आध्यात्मिक विद्युत के कण पैदा होते हैं, जो तुम्हारे शरीर के वात, पित्त और कफ के दोषों को क्षीण करके स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं। यही कारण है कि हमारे ऋषि-मुनि प्रायः ज्यादा बीमार नहीं पड़ते थे। नियम में अडिग रहने से अपना बल बढ़ता है, जिससे हम अपने जीवन की बुरी आदतों को मिटा सकते हैं। जैसे – कईयों की आदत होती है ज्यादा बोलने की। उन बेचारों को पता ही नहीं होता कि ज्यादा बोलने से उनकी कितनी शक्ति नष्ट होती है। वाणी का अपव्यय नहीं करना चाहिए।
गुजराती में कहावत है
न बोलवामां नव गुण। अर्थात् न बोलने में नौ गुण होते हैं।
कम बोलने से या नहीं बोलने से ये लाभ हैं- झूठ बोलने से बचेंगे, निंदा करने से बचेंगे, द्वेष से बचेंगे, ईर्ष्या से बचेंगे, क्रोध और अशांति से बचेंगे। इस प्रकार छोटे-मोटे नौ लाभ होते हैं।
अधिक बोलने की आदत साधक तो बहुत हानि पहुँचाती है। साधक से बड़े में बड़ी गलती यह होती है कि यदि उसमें कुछ शक्ति आ जाती है या कुछ अनुभव होते हैं तो वह उसका उपयोग करने लगता है, दूसरों को बता देता है। इससे वह एकदम गिर जाता है। फिर वह अवस्था लाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है। इसलिए साधकों को अपना अनुभव किसी को नहीं कहना चाहिए। अगर साधक किसी को ईश्वर की ओर मोड़ने में सहयोगी होता है, अपने अनुभव से उसकी श्रद्धा में बढ़ोतरी होती है तो फिर थोड़ा बहुत ऊपर ऊपर से बता देना चाहिए।
जिस तरह वाणी पर संयम लाया जा सकता है उसी तरह ज्यादा खाने का, काम विकार का या शराब आदि का दोष है तो उसे भी दूर किया जा सकता है और बुरी आदतें भी मिटायी जा सकती हैं।
जब कामुकता जग रही हो तो उससे होने वाली हानियों पर नजर डालनी चाहिए व संयम से होने वाले लाभ पर विचार करना चाहिए। मन को समझाना चाहिए कि शरीर में क्या है ? कुछ आड़ी और कुछ खड़ी हड्डियाँ, माँस, मल-मूत्र, रक्त और ऊपर से चमड़े का आवरण (कवर)। फिर भी यह हाड़-मांस का शरीर परम सुन्दर चैतन्य के कारण ही सुंदर लगता है। तू उसी चैतन्य से प्रेम कर, अपने आत्मा में आ। हे मेरे प्रभु ! अब मैं विकारों में नहीं गिरूँगा, वरन् मैं तो तेरे शुद्ध चैतन्यस्वरूप में, राम में रहूँगा.....ॐ....ॐ....ॐ....
इस तरह एक सप्ताह तक काम विकार में न गिरने का नियम ले लिया और सप्ताह पूरा होने के पहले ही आगे एक सप्ताह बढ़ा दिया।
अपने मस्तिष्क में दिव्य विचार भरना और उनका पोषण करना नितांत आवश्यक है। डण्डे के बल से या पुचकार से बंदर, शेर आदि पशुओं को भी वश किया जा सकता है। इसी तरह अपने मन को कभी कठोर प्रतिज्ञा तो कभी पुचकार से वश में करने के संस्कार रोज डालते रहो।
लोभ के विचार आने पर विचार करोः आखिर में कौन अपने साथ क्या ले गया ?
क्या करिये क्या जोड़िये थोड़े जीवन काज।
छोड़ि छोड़ि सब जात है देह गेह धन राज।।
जो लोभ की दलदल में फँसे, उन्होंने शांति, आनंद, माधुर्य खोया। अतः लोभ से बचने के लिए दान-पुण्य आदि सत्कर्म करो। औदार्य सुख पाने में मन को लगाओ।
छोटी-छोटी बातों में भय सताता हो तो प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उठकर शांत मन से चिंतन करो कि 'निर्भय नारायण मेरे साथ हैं। अब मैं जरा जरा बात में भयभीत न होऊँगा। पाप से, दुश्चारित्र्य से भय कर लेकिन हे मेरे मन ! अच्छे रास्ते पर चलने में किस बात का भय ? ॐ....ॐ.....ॐ.... मैं निर्भय हूँ। ॐ.....ॐ......ॐ..... मैं निर्भय नारायण का अंग हूँ।' ये विचार बार-बार मन में भरो।
चटोरेपन, स्वादलोलुपता की आदत अकारण रोग लाती है, स्वास्थ्य बिगाड़ती है और आयुष्य क्षीण करती है। जो जिह्वा एक दिन जल जाने वाली है, उसके पीछे मैं अपना जीवन क्यों नष्ट करूँ ? नमक मिर्च मसाले वाला सादा, सात्त्विक भोजन ही करूँगा। चटोरेपन का शिकार होकर अकाल नहीं मरूँगा। - ऐस दिव्य विचार भरने के लिए थोड़ा समय अवश्य निकालना चाहिए, अन्यथा पुरानी आदतें साधन-भजन में बरकत नहीं आने देंगी और अपने को असमर्थ समझकर हम दैवी लाभ से वंचित होते रहेंगे।
बीड़ी सिगरेट, गाँजा, शराब आदि के सेवन की बुरी आदतें एक दिन में नहीं आतीं अपितु बार-बार इनके प्रयोग से ये बुराइयाँ जीवन का अंग बन जाती हैं। ऐसे ही बुराइयों को निकालते हुए अच्छाइयों को अपनाओ तो अच्छाइयाँ भी जीवन का अंग हो जायेंगी। जो भी दुर्गुण हो, उनसे होने वाली हानियों पर नजर डालो और सदगुणों के महान फायदों पर नजर डालो। केवल मंदिरों में जाने से या माला घुमाने से ही काम नहीं चलता, अपितु रोज थोड़े दुर्गुण हटाते जाओ और सदगुण भरते जाओ। इससे आप शांति, प्रसन्नता, संतोष, आरोग्यता, उत्साह आदि सदगुणों के धनी बन जाओगे।
जैसे खेत में निराई-गुड़ाई करते हैं, वैसे ही मनरूपी खेत में से हलके विचार निकालकर दिव्य विचार भरने का रोज अभ्यास करो। मस्तिष्क की तिजोरी में जितने दिव्य विचार भरते जाओगे, उन्हें दृढ़ बनाते जाओगे, उतने ही सच्चे अर्थों में आप धनवान बनते जाओगे। वास्तव में तुम ईश्वर की सनातन संतान हो। बुरी आदतों में फँस मरने के लिए तुम्हारा जन्म नहीं हुआ है। ॐ.....ॐ.....ॐ.....
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, जुलाई-अगस्त 2009
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