गुरु अर्जुनदेव जी के एक शिष्य से कोई अपराध हो गया था तो दूसरे शिष्य गुरुजी से कहने लगे कि "यह अपराधी है, इसको सजा मिलनी चाहिए।"
गुरुजी शांत बैठे थे, सबकी बातें सुन रहे थे। एक शिष्य बोलाः "इसको आज पूरे दिन लंगर (भंडारे का स्थान) के बर्तन माँजने की सजा दीजिये।"
दूसरा शिष्य बोलाः "पूरा दिन कुएँ से पानी भरकर लायेगा और आश्रम की साफ-सफाई करेगा, तब पता चलेगा इसे !"
तीसरा शिष्य बोलाः "पूरे दिन बगीचे में कटाई-छँटाई, क्यारियों में पानी देने की सेवा दी जाय, यही इसके लिए सजा है।"
सबकी बातें सुनने के बाद गुरुजी ने कहाः "पहली बात यह बताओ कि तुमसे सलाह माँगी किसने ? यह अपराधी मेरा है कि तुम्हारा है ? दूसरी बात, तुम इसके लिए बुरा क्यों सोचते हो ? तीसरी बात, तुम लोग कहते हो कि इसको सजा मिलनी चाहिए। कोई कहता है कि पूरा दिन इसको बगीचे के काम में लगा दो, दूसरा कहता है रसोईघर के बर्तन माँजने में लगा दो। तो तुम सेवा को सजा मानते हो !
चाहे लंगर की सेवा हो, चाहे बगीचे की हो – कोई भी सेवा हो, सेवा को सजा मानने की ऐसी तुम्हारी नीची सोच कैसे हो गयी ! लगता है तुम लोग मेरे शिष्य नहीं हो। तुम लोगों ने सेवा को सजा कैसे कह दिया ! सेवा को तो पूजा बना लेना चाहिए।"
गीता जी में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धं विन्दति मानवः।
'उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।' (गीताः 18.46)
फिर गुरुजी ने अपराधी शिष्य को कहा कि "तुम एक सप्ताह तक कोई सेवा नहीं करोगे पर तुमको भोजन दिया जायेगा।" और जो सेवा को सजा कह रहे थे, उनको कहा कि "एक सप्ताह तक तुम सब लोग मौन रखोगे। एक शब्द भी नहीं बोलोगे और तुम सभी भगवन्नाम जप खूब बढ़ा दो !"
किसमें किसका हित है, यह गुरु ही जानते हैं। इसलिए गुरु सभी शिष्यों के साथ एक जैसा व्यवहार करते नहीं दिखते, बल्कि जिसका जिसमें भला है वैसा ही उसके साथ व्यवहार करते हैं।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अंक 163, पृष्ठ संख्या 12, जनवरी 2011
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