अट्ठाईसवाँ सर्ग
सम्पूर्ण भोग्य
पदार्थों में विरसता की प्रतीति के लिए उनकी परिवर्तनशीलता का वर्णन।
सब पदार्थों में निरन्तर परिवर्तन देखने से भी उनमें स्थायित्व
का विश्वास नहीं हो सकता, ऐसा कहते हैं।
श्रीरामचन्द्रजी ने कहाः मुनिवर, यह जो कुछ भी स्थावर-जंगमरूप
दृश्य जगत् दिखाई देता है, वह सब स्वप्न के समाज सम्मेलन के समान असत्य या अस्थिर
है। मुनिजी, आज यहाँ पर सूखे समुद्र के सदृश गम्भीर जो यह विशाल गड्ढा दिखाई देता
है, वह कल मेघमाला से परिवेष्टित पर्वत बन जाता है और जो आज यहाँ पर विविध
वनश्रेणियों से परिपूर्ण गनगनचुम्बी महापर्वत दिखाई देता है, कुछ ही दिनों में वही
समतल पृथिवी के रूप में या गम्भीर कुएँ के रूप में परिणत हो जाता है। आज जो शरीर
रेशमी वस्त्र, माला और कुमकुम, केसर एवं कस्तूरी के विलेपन से विभूति है वही कल
वस्त्रशून्य (नंगा) होकर ग्राम या नगर से दूरवर्ती गड्ढे में सड़ेगा। जहाँ पर आज
अदभुत आचार-व्यवहार वाले मनुष्यों की चहल-पहल से परिपूर्ण नगर दिखाई देता है, कुछ
ही दिनों के बाद वहीं पर सूना अरण्य बन जाता है। जो पुरुष आज तेजस्वी है, अनेक
सामन्तों पर शासन करता है, वही कुछ ही दिनों के बाद भस्मराशि (राख की ढेरी) बन
जाता है। आज जो महाअरण्य विस्तार और नीलता में आकाशमण्डल को मात करता है, अर्थात्
आकाश के समान विशाल और गहन होने के कारण आकाश के समान काला है, वही थोड़े दिनों
में पताकाओं से आकाश को पाट देने वाला महानगर बन जाता है। आज जो लताओं से वेष्टित
अतएव भयंकर वनश्रेणी दिखाई देती है, वही थोड़े ही दिनों में जल और वृक्षों से
शून्य मरूभूमि (रेगिस्तान) बन जाती है। जहाँ पर अगाध जल भरा रहता है, वे बड़े-बड़े
तालाब और समुद्र, स्थल बन जाते हैं और स्थल जलाशय बन जाता है, बहुत कहाँ तक कहें,
काष्ठ, जल और तृणों से युक्त यह सारा का सारा जगत् विपरीत अवस्था को प्राप्त होता
है। युवावस्था, बाल्यावस्था, शरीर और धनसम्पत्ति ये सब के सब अनित्य हैं। जैसे
तरंग लगातार जल से तरंगरूपता को और तरंग से जलरूपता को प्राप्त होती है वैसे ही सब
पदार्थ निरन्तर अपने पूर्व स्वभाव से अन्य स्वभाव को प्राप्त होते हैं। इस संसार
में जीवन प्रखर वायु से पूर्ण स्थान में रक्खे हुए दीपक की लौ के समान अत्यन्त
चंचल है और तीनों लोकों के सम्पूर्ण पदार्थों की चमक-दमक बिजली की चमकके सदृश
क्षणिक है। जैसे भण्डार घर में पुनःपुनः भरने पर भी धान, गेहूँ आदि अन्नों की राशि
प्रतिदिन के व्यय से रिक्त हो जाती है या खेत में बोई गई और पानी से सींची जाती
हुई धान्यराशि अंकुर और पौधे के रूप से विपरीत अवस्था को प्राप्त होती है, वैसे ही
ये विविध पदार्थ विपरीत अवस्था (परिवर्तन) को प्राप्त होते हैं। अतिशय आडम्बर से
शोभित होने वाली संसाररचना अत्यन्त कौशलपूर्ण नटी के समान है। यह नर्तक के आवेश
में नटी के समान अपना अतिशय नृत्य कौशल प्रकट करने के लिए अंगपरिवर्तन द्वारा पद
पद में भ्रम उत्पन्न करती है। मनरूपी वायु से परिचालित जीवरूप धूलि ही इस
संसाररचनारूपी नर्तकी के वस्त्र हैं और प्राणियों को नरक में गिराना, स्वर्ग में
पहुँचाना और पुनः इसी लोक में वापिस लाना ही इसके उत्तम अभिनय है, उनसे यह विभूषित
है।।1-14।। ब्रह्मन, कटाक्षदर्शन के समान क्षणभंगुर व्यवहारपरम्परा से मनोहर यह
संसाररचना कटाक्षपात और क्षणभंगुर नई नई कारीगरियों से मनोहर नृत्तासक्त नटी के
समान अदभुत गन्धर्वनगर के सदृश अनेक भ्रम उत्पन्न करती है और यह पुनः पुनः बिजली
रूप चंचल दृष्टि को फैलाती है अर्थात् जैसे ऐन्द्रजालिक स्त्री तन्त्र और मन्त्रों
के विस्तार द्वारा लोगों के नयनों की दर्शनशक्ति को आच्छादित कर अवस्तु में वस्तु
ज्ञान उत्पन्न कराती है, यह संसाररचनारूपी नर्तकी की दृष्टि भी वैसे ही बिजली से
भी चंचल है अतएव यह नृतासक्त संसार रचना नृतासक्त नटी के समान है, इसमें कुछ भी
सन्देह नहीं है।।15,16।। महर्षि जी आप विचार कर देखें वे उत्सव और वैभव से
परिपूर्ण दिन, वे महापुरुष, वे प्रचुर सम्पत्तियाँ, वे यज्ञ आदि क्रियाएँ कहाँ हैं
? वे सब के सब हमारे दृष्टिपथ से दूर हो
गये हैं, अब केवल उनकी स्मृति ही शेष रह गई है, वैसे ही हम भी थोड़े ही दिनों में
चले जायेंगे, हमारी भी केवल स्मृति ही शेष रह जायेगी। यह गर्हित संसार प्रतिदिन
नष्ट होता है और प्रतिदिन फिर उत्पन्न होता है। कितना काल बीत गया इसकी सीमा नहीं
है, फिर भी आज तक इस निन्दत संसार का अन्त नहीं हुआ, यह बराबर चलता ही जाता है।
मनुष्य पशु आदि योनि को प्राप्त होते हैं, पशु आदि मनुष्य-जन्म को प्राप्त होते
हैं और देवता देवभिन्न योनियों में जन्म लेते हैं, भला बतलाइये तो सही, इस संसार
में कौन वस्तु स्थिर है ? सभी का तो विपर्यास (परिवर्तन) दिखलाई दे
रहा है। कालरूप सूर्य अपनी किरणों द्वारा रात-दिन पुनः पुनः प्राणियों की सृष्टिकर
अनेक रात्रि और दिनों को बिताकर स्वयं रचित भूतों के विनाश की अवधि की प्रतीक्षा
करता है। और को क्या कहें, ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र आदि एवं सम्पूर्ण प्राणिवर्ग
जैसे जल बडवाग्नि का (ώ) अनुसरण करता है वैसे ही विनाश का
अनुसरण करते हैं।
ώ मूल में स्थित वाड्शब्द भागत्यागलक्षणा
द्वारा अग्नि का प्रतिपादक है, क्योंकि अन्यथा प्रसिद्ध बडवाग्नि जल को भी जला
डालती है, इसलिए उसके दाह्य इन्धनों में शुष्क विशेषण अनुपयुक्त होगा।
कहाँ तक कहें, द्युलोक, पृथिवी, वायु, आकाश, पर्वत नदियाँ,
दिशाएँ ये सब के सब विनाश रूपी अग्नि के लिए सूखे काष्ठ हैं अर्थात्त जैसे अग्नि
को सूखे लकड़े को जलाने में कोई विलम्ब नहीं होता, वैसे ही इनका विनाश होने में भी
कुछ काल नहीं लगता। काल से भयभीत पुरुषों के धन-सम्पत्ति, बन्धु बान्धव, मृत्यु
मित्र और ऐश्वर्य ये नीरस हो गये हैं। इस जगत में विवेकशील पुरुषों को तभी तक वे
पदार्थ अच्छे लगते हैं, जब तक कि विनाशरूपी दुष्ट राक्षस का स्मरण नहीं
होता।।17-24।। मुनिवर, इस संसार में क्षण भर में मनुष्य वैभवपूर्ण हो जाता है,
क्षणभर में दरिद्र बन जाता है, क्षणभर में निरोग हो जाता है और क्षण भर में ही रोग
से आक्रान्त हो जाता है। गिरगिट के समान क्षणभर में रंग बदलने वाले नश्वर जगतरूपी
भ्रम से कौन बुद्धिमान जन मोहित नहीं हुए अर्थात् इस गर्हित जगद भ्रम ने सभी को
मोह में डाल रक्खा है।।25,26।।
इस जगत की अनियत स्थिति को ही उदाहरण द्वारा विशद करते हैं।
आकाशमण्डल कभी निविड अन्धकार से आच्छन्न हो जाता है, कभी
सुवर्णद्रव के समान उज्जवल चाँदनी आदि से उदभासित हो उठता है, कभी मेघरूपी नीलकमल
की माला से परिवृत्त हो जाता है, कभी गम्भीरतर बादलों की गर्जना से परिपूर्ण हो
जाता है, कभी मृककी नाईं सुनसान हो जाता है, कभी तारों की पंक्तियों से रंजित हो
जाता है, कभी सूर्य की किरणों से विभूषित हो जाता है, कभी चाँदनी रूप आभूषण से
अलंकृत हो उठता है और कभी पूर्वोक्त कोई भी पदार्थ उसमें नहीं रहते। क्या ये सब
आकाश के स्वरूप हैं ?
नहीं वह तो रंग आदि
से रहित है, केवल उक्त प्रकार के आकारों को धारण करता है, आकाश दृष्टान्तय है।
इसका दार्ष्टान्तिक संसार भी इसी भाँति घोर मायामय (भ्रान्तिमय) है। संसार का
स्वरूप ठीक आकाश के सदृश है। हे महर्षे, आगम और अपाय के वशीभूत एवं क्षण में
उत्पन्न और क्षण में नष्ट होने वाली इस जगत्-स्थिति से कौन ऐसा पुरुष है, जो धीर
होता हुआ भी इस संसार में भयभीत नहीं होता।।27-30।।
मुने, क्षण में आपत्तियाँ आती हैं एवं क्षण में ही सम्पत्तियाँ
प्राप्त होती हैं, केवल सम्पत्तियाँ और विपत्तियाँ ही नहीं, किन्तु क्षण में ही
जन्म होता है और क्षणभर में ही मृत्यु हो जाती है। इस संसार में कौन ऐसी वस्तु है,
जो क्षणिक न हो अर्थात् सुस्थिर हो। जो पुरुष पहले अन्य था, वही थोड़े दिनों में
अन्य प्रकार हो गया। भगवन्, सदा एकरूप में रहने वाली सुस्थिर वस्तु यहाँ कोई भी
नहीं है। कपास के खेत में नष्ट हुआ घड़ा कपास रूप में परिणत होकर पट (वस्त्र) बन
जाता है औऱ पट भी घटरूप बन जाता है, इस संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं देखी गई
जिसका विपर्यास (परिवर्तन) नहीं होता। पुरुष को परमात्मा वृद्धि को प्राप्त कराता
है, विपरिणाम को प्राप्त कराता है, क्षीण कराता है, नष्ट कराता है और फिर जन्म को
प्राप्त कराता है। क्रम से वृद्धि विपरिणाम, अपक्षय, विनाश और जन्म को प्राप्त हो
रहे देहाभिमानी के समीप ये पाँच भावविकार भी चिरकाल तक नहीं रहते, रात्रि औऱ दिन
के समान निवृत्त हो जाते हैं अर्थात् विपर्यय को प्राप्त हो जाते हैं। भाव यह कि
रात्रि और दिन के समान उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि, ह्रास और विनाश क्रम से मनुष्य
को प्राप्त होते हैं, प्राप्त होकर स्थिर नहीं रहते, किन्तु पुनः पुनः परिवर्तित
होते रहते हैं। बलवान दुर्बल के द्वारा मारा जाता है, एक व्यक्ति भी सैंकड़ों
व्यक्तियों को धराशायी बना देता है एवं सामान्य व्यक्ति भी प्रभुता को प्राप्त हो
जाते हैं। बहुत क्या कहें सारा जगत ही परिवर्तनशील है। जैसे जल का वेग क्रिया के
साथ संपर्क होने से तरंगों की पंक्तियाँ लगातार परिवर्तित होती हैं, वैसे ही यह
जनता (चेतनप्राणिसमूह) भी जड़ प्राण, इन्द्रिय आदि के संसर्ग से निरन्तर परिवर्तित
होती है। बाल्यावस्था थोड़े ही दिनों में चली जाती है, तदनन्तर यौवन पदार्पण करता
है, वह भी बाल्यावस्था के अनुसार थोड़े ही दिनों में चल बसता है, तदुपरान्त
वृद्धावस्था आती है। देखिये, देह में भी एकरूपता (स्थिरता) नहीं है, बाह्य
पदार्थों में तो एकरूपता की क्या आशा हो सकती है ? जैसे नट हर्ष, विषाद आदि का अभिनय करता
है, वैसे ही मन भी हर्ष, विषाद का अभिनय करता है, कभी वह किसी विषय को देखकर आनन्द
को प्राप्त होता है, क्षणभर में ही अन्य को देखकर दुःखी बन जाता है और क्षणभर में
सौम्य बन जाता है। जैसे बालक खेल क्रीड़ा में कभी कुछ, कभी कुछ वस्तु बनाता हुआ
थकता नहीं, वैसे ही यह विधाता भी इधर दूसरी, उधर दूसरी औऱ उधर दूसरी वस्तु को
बनाता हुआ खेद को प्राप्त नहीं होता, कभी थकता नहीं। विधाता मनुष्यों को धान आदि
के समान संचित कर बढ़ाता है, उनसे अन्य लोगों की (पुत्र-पौत्रादिरूप से) उत्पत्ति
कराता है, फिर उनको मारकर खा जाता है। उनको खाने में उसे स्वाद मिल जाता है, फिर
तो वह निरन्तर खाने के लिए अन्य लोगों की सृष्टि करता है। सृष्टि को प्राप्त
मनुष्यों के पास हर्ष, विषाद आदि रात्रि और दिन की नाईं सदा आते जाते रहते हैं।
उत्पन्न और विनष्ट होने वाले संसारी पुरुषों की न तो आपत्तियाँ स्थिर रहती हैं और
न सम्पत्तियाँ ही स्थिर रहती हैं। यह काल समर्थों को भी अनादर के साथ परिवर्तित
करने में अति दक्ष हैं। यह प्रायः सब लोगों को आपत्ति में ढकेल कर क्रीड़ा करता
है। कर्मों के एवं रसों के सम परिणाम और विषम परिणाम से विविध भाँति के तीनों
लोकों के प्राणी समुदायरूप फल समयरूपी वायु द्वारा आन्दोलित होकर विस्तृत
संसाररूपी वृक्षों से प्रतिदिन गिरते हैं।।31-43।।
अट्ठाईसवाँ सर्ग समाप्त
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