मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 38 (मुमुक्षु-व्यवहार प्रकरण)


चौदहवाँ सर्ग
साधुसंगम, सत् शास्त्र के अभ्यास और अन्तःकरण की शुद्धि से बुद्धि को प्राप्त एवं शम और सन्तोष के हेतु विचार की प्रशंसा।
पूर्वोक्त रीति से शमनामक पहले मोक्षद्वारपाल का वर्णन कर विचार नामक दूसरे द्वारपाल का वर्णन करनेवाले वसिष्ठजी बोलेः
हे श्रीरामचन्द्रजी ! विषय, सन्देह, पूर्वपक्ष, सिद्धान्त और प्रयोजन का विभागपूर्वक ज्ञान रखने वाले पुरुष को शास्त्रज्ञान से निर्मल परम पवित्र (विशुद्ध) बुद्धि से नित्य निरन्तर आत्मा का विचार () करना चाहिए।।1।।
विचार पाँच प्रकार के हैं, अर्थ और अनर्थ के कारण का विचार, सार और असार का विचार, हेय और उपादेय का विचार, प्रमाण के तात्पर्य का विचार एवं आत्मतत्त्वविचार। उक्त पाँच प्रकार के विचारों में स्वाभाविक प्रवृत्ति और विषयों में अनर्थकारिता और शास्त्रीय प्रवृत्ति एवं वैराग्य में पुरुषार्थहेतुता है, इस प्रकार अन्वय व्यतिरेक से परीक्षणरूप प्रथम विचार है। स्त्री, पुत्र और अपनी देह में स्वभाव से, बीज से और परिणाम से अशुचिता, विषमूत्ररूपता और अमंगलता का परीक्षणरूप और ब्रह्मलोकपर्यन्त सम्पूर्ण सुखों में अनित्यत्व तथा दुःखमिश्रितत्व आदि का परीक्षणरूप दूसरा विचार है। ये दोनों वैराग्य और मुमुक्षा के हेतु हैं। मुमुक्षा के अनन्तर भी मोक्षसाधन केवल कर्म है या केवल उपासना है या वे दोनों मिलकर हैं अथवा ज्ञानसमुच्चित कर्म और उपासना मोक्षसाधन हैं अथवा केवल ज्ञान ही मोक्ष का साधन  है, इस प्रकार परीक्षणरूप तीसरा विचार है। ज्ञान ही मोक्ष का साधन है, ऐसा मान लेने पर भी सांख्य, वैशेषिक आदि का अभिमत ज्ञान मोक्ष का साधन है या केवल श्रौत ज्ञान ही। श्रौत ज्ञान के मोक्षसाधन होने पर भी श्रुतियों का द्वैत में अथवा अद्वैत में, सविशेष या निर्विशेष आत्मा में या अनात्मा में तात्पर्य है, इस प्रकार परीक्षणरूप चौथा विचार है। वह श्रवण कहलाता है। श्रुति आदि प्रमाणों का अद्वितीय सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में तात्पर्य होने पर भी अपनी आत्मा में परमार्थरूप से सच्चिदानन्दघनता हो सकती है या नहीं, इस विषय का रत्नपरीक्षान्याय से अनुभवी गुरु और सतीर्थ्य आदि के संवाद से जीव, ईश्वर और जगत्तत्व के परिशोधन से निश्चय होने तक परीक्षणरूप पाँचवाँ विचार है। उक्त पाँचों विचारों में आदि तीन का फल साधन चतुष्टय की सम्पत्ति है और अन्तिम दो का फल क्रमशः प्रमाण और प्रमेय में असम्भावना की निवृत्ति है। प्रथम तीन यद्यपि भाग्यवश स्वतः भी प्राप्त हो जाते हैं, तथापि अपनी प्रतीति को दृढ़ करने के लिए फिर गुरुशास्त्रपूर्वक उनकी प्राप्ति करनी चाहिए। अन्तिम दो तो गुरु और शास्त्र से ही प्राप्त होते हैं, इसीलिए ऊपर श्लोक में सर्वसाधारणरूप से 'शास्त्रावबोधामलया धिया' कहा है।
बुद्धि विचार से सूक्ष्म तत्त्व के ग्रहण में निपुण होकर परम पद को देखती है, इसलिए विचार संसाररूपी महारोग की औषधि है। अनन्त प्रवृत्तियों से चारों ओर से पल्लवित आकारवाला आपत्तिरूपी वन विचाररूपी आरों से काटे जाने पर फिर उत्पन्न नहीं होता। हे महाप्राज्ञ, बन्धुनाश आदि दुःख दूर हो और चित्त में शान्ति आये, वह मोह से व्याप्त है अर्थात् बुद्धि में स्फुरित नहीं होता। वहाँ पर विचार ही सज्जनों का परम आश्रय है अर्थात् उचित कर्तव्य के अनुसन्धान में हेतु है। दुःखसन्तरण के लिए विद्वानों के पास विचार के सिवा और कोई उपाय नहीं है, सज्जनों की मति विचार से अशुभ का त्याग कर शुभ को प्राप्त होती है। बुद्धिमानों के बल, बुद्धि, सामर्थ्य और समयोचित स्फूर्ति, क्रिया और उसका फल ये सब विचार से ही सफल होते हैं। यह युक्त है और वह अयुक्त है, इसके प्रकाशन मे महादीपकरूप एवं अभीष्ट वस्तु की सिद्धि करने वाले प्रचुर विचार का अवलम्बन कर संसाररूप सागर को पार करना चाहिए। हृदयस्थित विवेकरूप कमल को कुचल डालने वाले महामोहरूपी हाथियों को विशुद्ध विचाररूपी सिंह मार डालता है। संसारसंतरण के उपाय से अनभिज्ञ लोग समय पाकर जो परमपद को प्राप्त हुए हैं, वह विचाररूप प्रदीप का ही उपायप्रकाशनजन्य सर्वोत्तम फल है। हे राघव, बड़े बड़े राज्य महती सम्पत्तियाँ भोग और अविनाशी मोक्ष ये सब विचाररूपी कल्पवृक्ष के फल है। इस संसार में महापुरुषों की विवेक से विकसित जो मतियाँ है वे जल में फेंकी गई तुम्बियों के समान विपत्ति में विषाद को प्राप्त नहीं होती। जो लोग विचार को उत्पन्न करने वाली (विचारवती) बुद्धि से व्यवहार करते हैं, वे लोग अतिश्रेष्ठ फलों के पात्र होते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। विविध दुःख मूर्खों के हृदयरूपी वन में स्थित तथा मुमुक्षा को (मुक्ति की इच्छा के) सर्वप्रथम रोकनेवाले अविचाररूपी करंज वृक्ष की मंजरियाँ हैं अर्थात् जैसे करंज वृक्ष वन में उगते हैं और अपने बढ़ाव से दिशाओं को रोकते हैं वैसे ही अविचार मूर्खजनों के हृदय में वास करता है और मोक्ष की आशा को रोक देता है। उसी अविचार का फल दुःख है। हे रघुवंशमणे, आपकी अंजन के चूर्ण के ढेर के समान काली और मदिरा (शराब) के नशे में होने वाले चिह्नों से भ्रम और स्खलन आदि से युक्त अविचाररूपी नींद नाश को प्राप्त हो। जैसे सूर्य निविड़ अन्धकारों में भी निमग्न नहीं होता, किन्तु स्वयं अन्धकार का विनाश कर सदा प्रकाशमान रहता है, वैसे ही सदविचार में तत्पर पुरुष बड़ी बड़ी आपत्तियों से युक्त एवं अतिविस्तारयुक्त अज्ञानों में निमग्न नहीं होता। जिसके अतिनिर्मल मनरूपी तालाब में विचाररूप कमलराशि खिल जाती है, वह हिमालय की भाँति शोभा को प्राप्त होता है। अर्थात् शीलता, उन्नता, स्थिरता आदि गुणों से हिमालय के सदृश शोभित होता है। हिमालय में भी निर्मल मानस सरोवर है और उसमें सदा कमल खिले रहते हैं। मूढ़ता को प्राप्त हुए जिस पुरुष की बुद्धि विचारशून्य है, उसके लिए चन्द्रमा से वज्र उत्पन्न होता है, जैसे मूर्खतावश बालक के लिए यक्ष (वेताल) उत्पन्न होता है। भाव यह है कि मन का देवता चन्द्रमा है और मन चन्द्रमा की नाईं प्रकाश के योग्य है, इसलिए मन में चांदनी के तुल्य ज्ञानजन्य सुख का ही आविर्भाव होना उचित है। जिस मूर्ख के मन में शोक, दुःख की उत्पत्ति होती है, उसके लिए चन्द्रमा से भी वज्र उत्पन्न होता है, जैसे की बालक की मूर्खता से वेताल उत्पन्न होता है। विवेकशून्य अधम पुरुष निरन्तर दुःख बीजों को रखने के लिए बनाया गया अति विशाल कुसूल (कोटिला) है एवं विपत्तिरूपी नवीन लताओं के विकास का कारण वसन्त है, ऐसे अधम पुरुष का दूर से त्याग कर देना चाहिए। जो कोई अपने को और दूसरों को दुःख देने वाले कार्य हैं, जो कोई निषिद्ध कार्य है और जो मानसिक पीड़ाएँ हैं, वे सब अन्धकार से वेताल की नाईं अविचार से (अविवेक से) ही उत्पन्न होते हैं। हे रघुकुलतिलक, जिस पुरुष में विवेक नहीं है, वह निर्जन स्थान में उगे हुए वनवृक्ष के सदृश है और पुरुषार्थ के उपयोगी सत्कर्म करने में असमर्थ हैं, उससे सदा दूर रहना चाहिए निर्जन स्थान में उत्पन्न वृक्ष भी सज्जन बटोहियों (पथिकों) को छाया में आश्रय देना आदि कार्यों में असमर्थ रहता है। विचारपूर्ण अतएव आशा की अधीनता से विमुक्त अधिकारी प्राणियों का मन पूर्णचन्द्र की नाईं आत्मा में परम विश्रामसुख को प्राप्त होता है। जैसे उदित हुई चाँदनी अत्यन्त शोभा कर देती है और जल प्यासे प्राणी को शीतल कर देता है, वैसे ही देह में जब विवेकशीलता उदित होती है, तब वह सबको अत्यन्त विभूषित कर देती है और शीतल कर देती है। जैसे रात्रि में चन्द्रमा शोभित होता है अर्थात् रात्रि का असाधारण चिह्न चन्द्रमा शोभित होता है, वैसे ही अधिकारी ब्राह्मण आदि कुल में जन्म लिए हुए पुरुष की सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थरूप (मोक्षरूप) राजत्वप्राप्ति की सूचिका होने के कारण पताकाभूत शुद्ध बुद्धि का विचार चँवर-सा (असाधारण राजचिह्न सा) शोभित होता है। विचार से ही क्रमशः जीवन्मुक्त हुए जीव दसों दिशाओं को दैदीप्यमान करते हुए सूर्य के तुल्य सुशोभित होते हैं, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है, अपने प्रकाश से सूर्य अन्धकार का विनाश करते हैं। जैसे रात्रि में बालक को बाहर न निकलने देने के लिए आकाश में कल्पित प्राणनाशक वेताल विचार से विनष्ट हो जाता है, वैसे ही अपने मन के अज्ञान से कल्पित स्वरूप का विनाशक यह संसार विचारक से विलीन हो जाता है। जगत के सभी पदार्थ अविचार न करने से ही भले लगते हैं, सत्य पदार्थ की नाईं सुन्दर लगते हैं, वास्तव में उनका अस्तित्व नहीं है, इसीलिए वे विचार करने से पत्थर से तोड़े गये मिट्टी के ढेले की नाईं तहस-नहस हो जाते हैं, मिथ्या प्रतीत हो जाते हैं। यह संसाररूपी पुराना वेताल बड़ा दुःखप्रद है, पुरुष ने अपने मन में स्थित अज्ञान से इसकी कल्पना कर रक्खी है, यह विचार करने से विलीन हो जाता है।।2-27।।
विचार का फल केवल भय की निवृत्ति नहीं ही नहीं है, किन्तु निरतिशय आनन्द की प्राप्ति भी उसका फल है, ऐसा कहते हैं।
ब्रह्मकैवल्य को उत्तम फल जानो, जो कैवल्य सुखरूप है, जिसमें जगत की विषमता का तनिक भी सम्पर्क नहीं है, जिसका कभी बाध नहीं होता और जो दूसरे के आधीन नहीं है। जैसे चन्द्रमा के उदय से शीतता का उदय होता है, वैसे ही विचार से उत्पन्न निरतिशय आनन्द के बल से चंचलता के कारण अज्ञान का विनाश होने पर निश्चल स्थिति से उदार आनन्दपूर्णतारूप निष्कामता का उदय होता है। अचल स्थिति ही सर्वश्रेष्ठ है। उक्त अचल स्थिति को देने वाली चित्त में स्थित आत्मविचाररूपी महौषधि से सिद्ध हुआ पुरुष न तो अप्राप्त वस्तु की इच्छा करता है और न प्राप्त का त्याग करता है, कृतकृत्य हो जाता है, यह अर्थ है।।28-30।।
यदि चित्त विचार से उत्पन्न ज्ञान से नष्ट हो गया, तो जीवन ही नहीं रहेगा, यदि नष्ट न हुआ, तो फिर नाना विक्षेपों को उत्पन्न करेगा, ऐसी परिस्थिति में कृतकृत्यता तो मृगतृष्णा ही ठहरी, इस शंका पर कहते हैं।
सच्चित आनन्दघन परब्रह्म परमात्मा में लगे हुए अतएव अत्यन्त आभासता को प्राप्त हुए (जैसे भूँजे हुए बीज बीजाभास हो जाते हैं अर्थात् उनमें अंकुर पैदा करने की सामर्थ्य नहीं रह जाती, वैसे ही आभासता को प्राप्त हुए) चित्त विक्षेपहेतु वासनाएँ आकाश की नाईं अति विस्तीर्ण ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाती हैं, अतएव वह न तो विनाश को प्राप्त होता है जिससे कि जीवन ही न रहे और न राग, द्वेष आदि वृत्तियों से फिर उदय को ही प्राप्त होता है, जिससे कि विक्षेप हों()।

अथवा इस श्लोक का अर्थ यों करना चाहिए। परब्रह्म परमात्मा में संलग्न अतएव ब्रह्मभाव को प्राप्त हुआ चित्त भूँजे हुए बीजों के समान न तो उगता है, जिससे कि विक्षेप का डर हो और न अनादि वासना से दृढ़ हुआ चित्त विषयसंस्कार से विनाश को ही प्राप्त होता है जिससे कि जीवन का असंभव हो।
क्योंकि ब्रह्मवेत्ता पुरुष विशाल जगत को (जगत में स्थित विविध विषयों को) केवल उदासीनता से देखता रहता है, उनमें आसक्त होकर मन नहीं लगाता केवल उदासीनता से देखता रहता है, उनमें आसक्त होकर मन नहीं लगाता और न सत्य या पुरुषार्थ समझ कर उनका उपभोग ही करता है और न सुषुप्ति अवस्था की तरह उपाधि की शान्ति से शान्त होता है, न स्वप्न की नाईं मनोवासनामय पदार्थों में आसक्त होता है और न मूढ़ जनों की जाग्रत अवस्था के सदृश बाह्य विषयों के फन्दे में फँसता है तथा नैष्कर्म्य का अवलम्बन करता है और न कर्मों में ही उलझा रहता है। ब्रह्मज्ञ पुरुष पूर्ण सागर के समान शोभित होता है, वह गई हुई (नष्ट हुई) वस्तु की उपेक्षा कर देता है अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिए यत्न नहीं करता और प्राप्त वस्तु का अनुसरण करता है, उसे क्षोभ नहीं होता और निश्चल नहीं होता है अर्थात् स्वाभाविक व्यवहार का त्याग करता हुआ निश्चल नहीं होता है। (समुद्र पक्ष में) समुद्र भी गये हुए लक्ष्मी, कौस्तुभमणि आदि वस्तु की उपेक्षा करता है, प्राप्त अन्यान्य रत्नों से अपना व्यवहार करता है, उसे मर्यादात्याग पर्यन्त क्षुब्धता नहीं होती और वह निश्चल भी नहीं होता। इस प्रकार पूर्ण मन से युक्त इसी शरीर में अनुभव में आ रहे जीवब्रह्मैक्यरूप योगवाले जीवन्मुक्त उदार महात्मा इस जगत में विहार करते हैं, विचरते हैं। वे धीर महात्मा अपनी इच्छानुसार चिरकालतक इस संसार में निवास कर अन्त में देह, इन्द्रिय आदि उपाधि का त्याग कर अपरिच्छिन्न विदेहकैवल्य को प्राप्त होते हैं। बुद्धिमान पुरुष को आपत्ति में भी (कुटुम्ब आदि फन्दे में फँसे रहने पर भी) मैं कौन हूँ, यह संसार किसका है ? यों संसार से छुटकारा पाने के उपाय श्रवण आदि के अनुष्ठान के साथ स्वयं ही प्रयत्नपूर्वक विचार करना चाहिए। हे श्रीरामचन्द्रजी, राजा सफल चाहे निष्फल अवश्य कर्तव्य सन्धि, विग्रह आदि का निश्चय विचार से ही करता है, विचार के सिवा उसका निश्चायक दूसरा मार्ग नहीं है। जैसे रात्रि में घट, पट आदि पदार्थों का परिज्ञान दीपक से होता है, वैसे ही पुरुषार्थप्राप्ति के हेतु वेद और वेदान्तसिद्धान्त के सारभूत धर्म तथा ब्रह्मतत्त्व का निर्णय विचार से ही किया जाता है। विचाररूपी सुन्दर नेत्र अन्धकार में नष्ट सा (व्यर्थ-सा) नहीं होता, अति तेजस्वी सूर्य आदि में कुण्ठित नहीं होता एवं जो वस्तु सामने नहीं है, व्यवहित है उसे भी देख लेता है। प्रसिद्ध नेत्र अन्धकार में नष्ट से हो जाते हैं प्रचुर तेजवाले सूर्य आदि को नहीं देख सकते, चकाचौंध होने के कारण कुण्ठित हो जाते हैं, एवं जो वस्तु व्यवहित है और दूर है उसे नहीं देख सकते। जो पुरुष विवेकान्ध (विवेकरूपी नेत्रों से हीन) है वह जन्मान्ध है, उस दुर्मति के लिए सब शोक करते हैं, जिस पुरुष को विवेक आत्मा की नाईं प्रिय है, वह दिव्यचक्षु है वह सम्पूर्ण वस्तुओं में श्रेष्ठ है, अर्थात् वह आपत्तियों पर विजय पाता है अथवा परम पुरूषार्थ मोक्ष को प्राप्त करता है।। 31-41।।
विचारों में भी जो सारभूत (श्रेष्ठतम) विचार है, उसका निर्देश करते हैं।
परमात्मप्राय (सदा परमात्मा में संलग्न) महान आनन्द की एकमात्र साधन आदरणीय विचारधारा का एक क्षण के लिए भी परित्याग नहीं करना चाहिए। जैसे परिपाक होने के कारण अत्यन्त माधुर्य से युक्त आम का फल महापुरुषों को भी अच्छा लगता है, वैसे ही विचार से रमणीय पुरुष तत्त्वज्ञों को भी अच्छा लगता है, जिज्ञासुओं की तो बात ही क्या है ? विचार से जिनकी मति अतिनिर्मल है और विचार से ही जिन्हें ज्ञानमार्ग में गमन ज्ञात है, वे अनेक दुःखमय गर्तों में (जन्म-मरण परम्परा में) बार-बार नहीं गिरते। रोग, विष, शस्त्र की चोट आदि सैंकड़ों दुःखों से शिथिल शरीरवाला रोगी वैसा नहीं रोता जैसा कि अविचार से जिसने अपनी आत्मा का प्रायः हनन कर दिया है, वह मूर्ख पुरुष विविध जन्म-मरण परम्पराओं में रोता है। कीचड़ में मेंढक बनना अच्छा है, विष्ठा का कीड़ा होना अच्छा है और अन्धेरी गुफा में साँप होना अच्छा है, पर मनुष्य का अविचारी होना अच्छा नहीं है। अविचार सम्पूर्ण क्लेशों का अपनी निजी घर है, सम्पूर्ण सज्जनों द्वारा तिरस्कृत है, एवं समस्त दुर्गतियों की चरम सीमा है, इसलिए उसका परित्याग कर देना चाहिए। महात्मा पुरुष को सदा विचारशील होना चाहिए, लोक में यह बात प्रसिद्ध है कि अन्धकूपरूप राग द्वेष आदि में गिर रहे लोगों का विचार अवलम्बन है। विचारपूर्वक स्वयं ही अपने आत्मा से राग, द्वेषादि प्रवाह में गिर रहे अपने आत्मा को जबरदस्ती स्थिरकर संसाररागरूपी सागर से अपने मनरूपी मृग को उतारना चाहिए।।42-49।।
विचार के स्वरूप को दिखलाते हैं।
मैं कौन हूँ (क्या देह आदि ही मैं हूँ या उनसे विलक्षण हूँ यों त्वं पदार्थ का विचार) और यह संसारनाम का दोष मुझे कैसे प्राप्त हुआ(यह संसाररूप दोष अधिष्ठान-ब्रह्म-में कैसे आ गया, यो तत्पदार्थ का विचार) श्रुति, मुनि आचार्य तथा साम्प्रदायिक पुरुषों द्वारा प्रदर्शित न्याय से इस प्रकार परामर्श विचार कहलाता है। ब्रह्मा ने पत्थर का और अविचारशील दुर्बुद्धि का हृदय दुःख के (क्लेश के) लिए ही बनाया है, (पत्थर के पक्ष में) घन से छेदन आदि क्लेश से होनेवाले दुष्ट छेद के लिए ही बनाया है, अन्यत्र उसका कोई भी उपयोग नहीं है, क्योंकि वह अन्धे से भी अन्धा और मोह से अत्यंत घना है। अन्धा देखे बिना कुएँ में गिरता है, दुर्बुद्धि का मन देखकर भी मोहवश नरक में गिरता है। (पत्थर के पक्ष में) जड़ होने से अन्धे से भी अन्धा है और कठोर होने से मोह से भी अधिक घना है। हे श्रीरामचन्द्रजी, इस व्यवहारभूमि में सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग को देख रहे विद्वानों को विचार के बिना उत्तम तत्त्व कुछ भी प्रतीत नहीं होता। विचार से तत्त्व का ज्ञान होता है, तत्त्वज्ञान से विश्रान्ति (मन की निश्चलता) होती है। विश्रान्ति से मन में जो शान्ति प्राप्त होती है, वही सम्पूर्ण दुःखों का विनाश है।।50-53।।
विस्तारपूर्वक कहे गये विचार का ही संक्षेपतः उपसंहार करते हैं-
श्रीरामजी, अतः पृथिवी में सभी लोग स्फुट विचारदृष्टि से ही वैदिक और लौकिक कर्मों में सफलता प्राप्त करते हैं, आत्मतत्त्व की आगे कही जाने वाली सप्तम भूमिकारूप उत्तम प्रकटता भी विचार से ही प्राप्त करते हैं, इसलिए शम, दम आदि साधनसम्पत्ति से युक्त आपको उक्त विचारशीलता रूचिकर हो।।54।।
चौदहवाँ सर्ग समाप्त
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श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 37 (मुमुक्षु-व्यवहार प्रकरण)


तेरहवाँ सर्ग
जीवनमुक्तिरूप फल के हेतु वैराग्य आदि गुणों का एवं शम का विशेषरूप से वर्णन।

वैराग्य, शान्ति आदि साधनों का आगे वर्णन करने वाले श्रीवसिष्ठजी इस समय प्रस्तुत जीवन्मुक्तिस्थिति का वर्णन करते हैं।
श्रीवासिष्ठजी ने कहाः हे श्रीरामजी, इस  दृष्टि का अवलम्बन कर सुबुद्धिमान् तत्त्वज्ञ महापुरुष इस संसार में ऐसे विचरते हैं, मानों उन्हें महान् साम्राज्य प्राप्त हो गया हो। वे लोग न तो अशुभ के लिए शोक करते हैं और न शुभ की कामना करते हैं अतएव वे उनके साधनें की भी याचना नहीं करते। वे सब कुछ करते भी हैं फिर भी कुछ नहीं करते। हेय और उपादेय के पक्षपात से रहित एवं अपनी आत्मा में स्थित वे असंग आत्मा के साक्षात्कार से निर्लेप रहते हैं, शास्त्रीय स्वच्छ कर्म करते हैं और सन्मार्ग में जाते हैं।।1-3।। वे अन्य लोगों की दृष्टि से आते हें और जाते हैं पर अपनी दृष्टि से न आते हैं और न जाते हैं, अन्य की दृष्टि से करते हुए एवं बोलते हुए भी अपनी दृष्टि से न करते हैं और न बोलते हैं।।4।।
क्योंकि 'सचक्षुरचक्षुरिव सकर्णोऽकर्ण इव समना अमना इव' (तत्त्वज्ञ पुरुष अन्य की दृष्टि में चक्षुयुक्त होता हुआ भी अचक्षु के सदृश है और अन्य की दृष्टि से कर्णयुक्त होता हुआ भी कर्णरहित है, अन्य की दृष्टि से मनयुक्त होता हुआ भी मन से रहित-सा है) ऐसी श्रुति है।
हेय और उपादेय से जो कोई यज्ञ-याग आदि कार्य हैं और जो कोई प्रमाण, प्रमेय आदि व्यवहार हैं, वे सब परमतत्त्व के ज्ञात होने पर क्षीण हो जाते हैं।।5।। सम्पूर्ण अभिलाषाओं से रहित शान्तिपूर्ण तथा ब्रह्माकारत्व को प्राप्त मन चन्द्रबिम्ब में बैठे हुए स्वर्गी के समान चारों ओर से सुख प्राप्त होता है।।6।। विषयों का बार-बार स्मरण करना और विषयों की प्राप्ति में कुतूहल ही विक्षेप के हेतु हैं, उनके अभाव में विक्षेपरहित सुख होता है। जैसे चन्द्रमा में अमृत नहीं समाता वैसे ही विषय मननरहित और सम्पूर्ण विषयकौतुक से शून्य सुखरूपता को प्राप्त हुआ मन आत्मा में नहीं समाता।।7।। सुखरूपता को प्राप्त हुआ मन न तो मायिक विक्षेपों करता है और न विक्षेपों की जननी वासना के प्रति दौड़ता है, किन्तु बालकों जैसी भ्रममूलक चंचलता का त्याग कर अनादिसिद्ध आत्मसुखरूप हो विराजमान होता है। इस प्रकार की स्थिति आत्मतत्त्व के साक्षात्कार से ही प्राप्त होती है, अन्य उपायों से नहीं।।8,9।। इसलिए पुरुष को जीवनपर्यन्त विचार द्वारा आत्मा का ही पुनः पुनः श्रवण और मनन करना चाहिए, आत्मा का ही निदिध्यासन करना चाहिए एवं श्रवण और मनन तथा निदिध्यासन द्वारा आत्मा का साक्षात्कार करना चाहिए, इसके सिवा पुरुष का और कुछ कर्तव्य नहीं है। जिस अधिकारी को अपने अनुभव, शास्त्रवचन और गुरु के उपदेश की एकार्तनिष्ठता का निश्चय हो, उसे नित्य निरन्तर किये गये श्रवण, मनन आदि के अभ्यास से आत्मा का साक्षात्कार होता है। शास्त्र और उसके अर्थ की अवहेलना करने वाले, तत्त्वज्ञानी पूज्य पुरुषों की उपेक्षा करने वाले मूढ़ों की तुलना को कभी प्राप्त नहो, चाहे कितने ही बड़े क्लेश क्यों न भुगतने पड़ें। पृथ्वी में मनुष्यों को ज्वर आदि शारीरिक क्लेश से, विष से, आपत्तियों से और मानसिक चिन्ताओं से वैसा क्लेश नहीं होता जैसाकि अपने शरीर में स्थित एक मूर्खता से क्लेश होता है। जिन लोगों की बुद्धि में थोड़ी बहुत भी बहुत्पत्ति हो गई है, इस शास्त्र के सुनने से जिस प्रकार उनकी मूर्खता की निवृत्ति होती है वैसे अन्य किसी शास्त्र के श्रवण से नहीं होती। यह शास्त्र अतिसुखदायी है, यथायोग्य अनेक दृष्टान्तों से इसकी सुन्दरता कहीं अधिक बढ़ गई है और किसी भी शास्त्र से यह विरूद्ध नहीं है। जिसे आत्मा का साक्षात्कार अभीष्ट है, उस नरश्रेष्ठ को अवश्य इसका श्रवण करना चाहिए।।10-15।। हे राम जी, जो दुस्तर आपत्तियाँ हैं और ज अति नीच कुत्सित योनियाँ हैं वे सब, जैसे खदिर से काँटे उत्पन्न होते हैं वैसे ही, मूर्खता से पैदा होती हैं। मिट्टी के पात्र को (सकोरे को) हाथ में लेकर चाण्डालों की टोली में भीख माँगने के लिए दर-दर घूमना अच्छा है, पर मूर्खतापूर्ण जीवन अच्छा नहीं है। निर्जन स्थान में, अति भयानक अन्धकूप में एवं पेड़ों के खोखलों में अन्धा कीड़ा होना अच्छा है, पर अतिदुःखदायी मूर्खता अच्छी नहीं है। यह संसारी पुरूष मोक्ष के उपायभूत इस शास्त्ररूप प्रकाश को पा कर फिर मोहान्धकार में भी अन्धता को प्राप्त नहीं होता। तभी तक तृष्णा मनुष्यरूपी कमल को संकुचित करती है जब तक विवेकरूपी सूर्य की निर्मल प्रभा का उदय नहीं होता। हे राघव, संसारदुःख से छुटकारा पाने के लिए मेरे सदृश आत्मीयों के साथ गुरुपदेश और शास्त्र के प्रमाण से अपने स्वरूप को जानकर जैसे इस संसार में जीवन्मुक्त हरि, हर आदि विचरण करते हैं और जैसे अन्यान्य जीवन्मुक्त महर्षि विचरण करते हैं वैसे ही आपभी विचरण कीजिए। हे रघुकुलतिलक, इस संसार में, अनन्त दुःख हैं, सुख तिनके के टुकड़े के बराबर बिल्कुल नगन्य हैं, इसलिए दुःखों से सराबोर (परिपूर्ण) सुखों में कभी भी आदर नहीं करना  चाहिए। ज्ञानवान पुरुष को पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए जो वस्तु असीम और क्लेशलवविरहित है, उस ज्ञानरूप वस्तु को प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करना चाहिए। हे रामजी, वे ही सज्जन परम पुरुषार्थ के भाजन हैं और वे ही पुरुष श्रेष्ठ हैं, जिनका सर्वोत्कृष्ट वस्तु में (परब्रह्म) में लीन मन परमशान्त है। जो दुरात्मा राज्य आदि सुखों में उत्तम भोगों के आस्वादमात्र से सन्तुष्ट हैं, उन्हें आप अन्धे मेढक समझिए। मेढक कुएँ में रहने से बाहर नहीं देख पाता, उसमें भी यदि अन्धा हो, तो कहाँ से देखेगा, यह भाव है। जो लोग वंचक, प्रबल दुराचियों, वैषयिक सुखों का भोग करने वाले और मित्र जैसे दिखाई देने वाले वास्तव में शत्रुओं पर आसक्त हैं, वे लोग संकट से संकट को, दुःख से दुःख को, भय से भय को और नरक से नरक को प्राप्त होते हैं। वे लोग मूर्ख हैं और अज्ञान से उनकी बुद्धि मन्द पड़ गई है। 'सुख के पश्चात दुःख होता है और दुःख के पश्चात सुख होता है, घटीयन्त्र के समान लगातार भ्रमण कर रहा पुरुष पुनः पुनः सुख और दुःख को प्राप्त होता है' इत्यादि वाक्यों से सुख और दुःख की परस्पर विनाशिता कही गई है, अतः यह संसारी पुरुष कभी विश्रान्ति को प्राप्त नहीं होता। सुख और दुःख की अवस्था बिजली की चमक के समान क्षणभंगुर है। जो लोग आपके सदृश वैराग्ययुक्त, सम्यक् विवेकी और महात्मा हैं, भोग और मोक्ष के एकमात्र भाजन व पुरुष वन्दनीय हैं। परम विवेक का अवलम्बन कर वैराग्य और अभ्यास से आपत्तिरूप यह भीषण संसार नदी पार करनी चाहिए। विष के समान तीव्र मूर्छा देने वाले इन मिथ्याभूत वंचनोपायों में नहीं सोना चाहिए। इस संसार को प्राप्त कर जो पुरुष अवहेलना से रहता है वह जल रहे तृणमय घर के विस्तार में गहरी नींद सोता है।।16-33।।
संसार के सिवा कोई अन्य स्थान ही नहीं है, फिर किसका अवलम्बन करके संसार में अरति करनी चाहिए ? ऐसी आशंका कर कहते हैं।
जिसको प्राप्त कर पुनः नहीं लौटते और जिसे प्राप्त कर फिर शोक नहीं होता, वह उत्तम पद केवल बुद्धिमात्र से प्राप्य है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।।34।।
पुराणों में भी कहा है – असत्यस्मिन् जगन्नाथे अन्धीभूतमिदं भवेत्। सूर्पेणेव विहीनत्वान्निरालोकं जगद् यथा। (यदि जगदधिपति परमात्मा न होते, तो सूर्य से विहीन अन्धकारपूर्ण जगत् के समान यह सब प्रपंच अन्धकारमय हो जाता।) श्रुति भी है – असन्नेव स भवति' (वह असत् ही हो जाता है जो ब्रह्म को असत् जानता है जो ब्रह्म है यों ब्रह्म की सत्ता को जानता है, उसे सत् कहते हैं।) सन्दिग्धे परलोकेऽपि वरं श्रुतिपथाश्रयः। यदि न स्यात् तदा किं स्याद्यदि स्यान्नास्तिको हतः।। (परलोक के सन्देहास्पद होने पर भी श्रुतिप्रतिपादित मार्ग का अवलम्बन करना उत्तम है, यदि परलोक न हो, तो उत्तम कर्म करने से अपना क्या बिगड़ा, यदि हो, तो नास्तिक के मुँह में थप्पड़ लगा।) इस न्याय से सन्देह करने वाले के प्रति कहते हैं।
यदि थोड़ी देर के लिए मान भी लिया कि ब्रह्म नहीं है तो भी उसके विचार से आपका कौन दोष होगा, यदि है, तो उसके विचार से आप संसारसागर को पार कर जायेंगे।।35।।
ऐसी अवस्था में सभी लोग मोक्ष के लिए प्रवृत्त क्यों नहीं होते, ऐसी शंका कर 'यावन्नाऽनुग्रहः साक्षाज्जायते परमेशितुः। तावन्न सदगुरूं कश्चित् सच्छास्त्रं वाऽपि विन्दति।।' (जब तक साक्षात् परमेश्वर की असीम अनुकम्पा नहीं होती तब तक वह सदगुरू या सतशास्त्र को नहीं पाता) इत्यादि वचन से ईश्वर के अनुग्रह से प्राप्त होने वाली मोक्षभाजनता से शोभित महान लोगों की ही प्रवृत्ति मोक्षसाधन में होती है, सबकी नहीं, ऐसा कहते हैं।
इस लोक में जब पुरुष की मोक्ष के उपाय के विचार में प्रवृत्ति होती है तब वह शीघ्र मोक्षभागी कहा जाता है। प्रवृत्ति का फल मोक्षाभागिता प्रवृत्तिरूप लिंग से अनुमेय है, यह भाव है।।36।।
देह, इन्द्रिय और विषय से शून्य केवलीभाव (अद्वैतभाव) में हेतु इस शास्त्र से क्या प्रयोजन है, देह आदि के रहने पर ही दूसरे उपायों से भी स्वर्गादिसुख हो सकता है, ऐसी शंका कर कहते हैं।
विनाशरहित, किसी प्रकार की अशुभ आशंका से रहित, स्वस्थतायुक्त एवं विशिष्ट भ्रम से रहित सुख केवलीभाव के बिना तीनों भुवनों में कहीं नहीं है। स्वर्ग आदि विनाशी है, उनमें पतन की शंका सदा बनी रहती है और दूसरे के उत्कर्ष में चित्त अस्वस्थ भी बना रहता है, इसलिए केवली भाव ही पुरुषार्थ है। प्रवृत्ति होने पर केवलीभाव की प्राप्ति होती है। केवलीभाव की प्राप्ति होने पर क्लेश नहीं होता। न धनसम्पत्ति उपकार करती है, न मित्र उपकार करते हैं और न बन्धुबान्धव ही उपकार करते हैं। न प्रणाम आदि, न तीर्थयात्रा आदि, न उपवास, तीर्थवास उपकार करते हैं, केवल एकमात्र श्रवण, मनन तथा निदिध्यासनरूप पुरुषप्रयत्न से एवं द्वैतवासनाविरोधी ब्रह्माकार दृढ़वासना के तुल्य विषयवाले कर्म से साध्य साक्षात्कार से हुए केवल मनोमात्ररूप द्वैत के मूलोच्छेदरूप जय से वह पद प्राप्त किया जाता है। देह, इन्द्रिय आदि से आत्मा का पृथक्करणरूप विवेकमात्र से प्राप्त होने वाला एवं श्रवण, मनन, निदिध्यासन से असम्भावनादिका निराकरणरूप विचार और एकाग्रता से निश्चय करने के योग्य वह उत्तम पद विषयों का त्याग कर रहे पुरुष द्वारा प्राप्त किया जाता है। सुखसेव्य आसन पर बैठे हुए और स्वयं उसका विचार कर रहे पुरुष को उक्त पद प्राप्त करके न तो शोक होता है और न फिर वह उत्पन्न ही होता है। उसको विद्वान लोग संसार में साररूप से प्रसिद्ध सुखों के आसारों का (वेगवती वृष्टियों का) मेघरूप परम अवधि कहते हैं और ध्यान करने वालों में जिससे अत्युत्तम आनन्द रस का आविर्भाव होता है। -ऐसा परम रसायन कहते हैं।।37-43।। स्वर्ग और मनुष्यलोक में सम्पूर्ण भावों के विनाशशील होने से जैसे मृगतृष्णा में जल नहीं होता, वैसे इन दोनों में सुख है ही नहीं। इसलिए शान्ति और सन्तोष का एकमात्र साधन मन के विजय का विचार करना चाहिए। उससे परमात्मा में एकरसतारूप आनन्द प्राप्त होता है। राक्षस, दानव, देवता या मनुष्य को बैठते, चलते, गिरते, घूमते मन के विजय से उत्पन्न तथा प्रफुल्ल (विकसित) शमरूपी (शान्तिरूपी) पुष्पों से युक्त विवेकरूपी उत्कृष्ट वृक्ष का (कल्पवृक्ष का) फल (परम सुख) प्राप्त करना चाहिए।।44-47।।
उक्त सुख के प्राप्त होने पर भी फिर व्यवहार में प्रसक्ति होने पर वह नष्ट हो जायेगा, इस शंका पर कहते हैं।
व्यवहार में संलग्न होने पर  भी कार्यजन्य फल को न प्राप्त हो रहे पुरुष द्वारा आकाशस्थित सूर्य के समान परिपूर्ण होने पर भी हेय न होने के कारण उक्त परम सुख न तो छोड़ा जाता है और परिपूर्ण होने के कारण न चाहा जाता है अर्थात् जैसे आकाशस्थित सूर्य द्वारा परिपूर्ण होने पर भी कल्पवृक्ष का फल हेय न होने के कारण नहीं छोड़ा जाता और परिपूर्ण होने के कारण वे उसकी अभिलाषा भी नहीं करते, वैसे ही यहाँ भी समझना चाहिए।।48।।
मन के रहने पर चाह क्यों न होगी ? इस पर कहते हैं।
प्रशान्त, अतिनिर्मल, विश्रान्ति-सुख से पूर्ण, भ्रमरहित, स्पृहारहित और अभीष्टशून्य मन न तो किसी वस्तु की अभिलाषा करता है और न किसी का त्याग करता है। श्रीरामजी, पूर्व में उक्त भी इस समय विस्तारपूर्वक कहे जा रहे मोक्ष के द्वार पर स्थित इन द्वारपालों को क्रमशः सुनिये, उनमें से एक पर भी आसक्ति होने से मोक्ष के द्वार में प्रवेश प्राप्त हो जाता है।।49-50।।
सर्ग की समाप्ति तक शम का वर्णन करने के लिए भूमिका बाँधते हैं।
सुख की आशारूप तृषाताप के तुल्य दोषदशा से दीर्घ संसाररूपी मरूमण्डली शम से चन्द्रमा की प्रभा के समान शीतलता को प्राप्त होती है। शम से कल्याण प्राप्त होता है, शम परम पद है, शम शिव है, शम भ्रान्ति का निरास है। शम से तृप्त, शीतल और निर्मल आत्मावाले एवं शम से जिसका चित्त विभूषित है, उसका शत्रु भी मित्र बन जाता है, शमरूपी चन्द्रमा जिनका आशय अलंकृत है, क्षीरसागरों की नाईं उनमें परमशुद्धता उत्पन्न होती है अर्थात् जैसे क्षीरसागरों में अतिशुभ्रता विराजमान रहती है वैसे ही उनमें शुद्धता का साम्राज्य रहता है। जिन सज्जनों के हृदय रूपी कमलकोषों में शमरूपी कमल विकसित है, दो हृदयकमल वाले वे लोग भगवान श्रीविष्णु के तुल्य हैं। भाव यह कि विष्णु भगवान का हृदयकमल ही बाहर ब्रह्मा का आसन है, अतः वह दो प्रकार का है। जिनके कलंकरहित मुखचन्द्र में शम श्री शोभित होती है, अपने सौन्दर्यरूप गुणों से जिन्होंने अन्य लोगों के नेत्र, मन आदि इन्द्रियाँ अपने वश में कर ली हैं, वे कुलीनशिरोमणि हैं और वन्दनीय हैं। तीनों लोकों के मध्य में स्थित राज्यलक्ष्मी वैसे आनन्द के लिए नहीं होती जैसे कि (केवल आकार से ही) साम्राज्यसम्पत्ति के सदृश (न कि अन्य गुणों से) शम-सम्पत्ति आनन्द के लिए होती है। जो विविध दुःख हैं, दुःसह तृष्णाएँ हैं और दुष्ट मानसिक चिन्ताएँ हैं, वे सब शान्तचित्तवाले पुरुषों में इस प्रकार नाश को प्राप्त होते हैं, जैसे कि अनेक सूर्यों के प्रकाश में अन्धकार विनष्ट हो जाता है। शान्त (शमवान) पुरुष के दर्शन से सब प्राणियों का मन जैसी कौतुकपूर्ण प्रसन्नता को प्राप्त होता है, चन्द्रमा के दर्शन से वैसी प्रसन्नता प्राप्त नहीं होती। शान्तियुक्त और सब प्राणियों में प्रेम करने वाले सज्जनतम पुरुष में परम तत्त्व स्वयं ही (अनायास) प्रसन्नता को (निर्मलता को) प्राप्त होता है। हे रामजी, जैसे प्राणियों का अपनी माता पर विश्वास होता, वैसे ही क्रूर, कुटिल और मृदु सब प्राणियों का शमवान पुरुष पर विश्वास होता है। पुरुष को इन्द्रपद प्राप्त होने पर अमृत के पान से और भगवान विष्णु का पद प्राप्त होने पर लक्ष्मी के आलिंगन से वैसा सुख प्राप्त नहीं हो सकता, जैसा कि शम से अन्तःकरण में सुख प्राप्त होता है।।59-62।।
हे रामचन्द्रजी, सम्पूर्ण आधि और व्याधियों से ग्रस्त और तृष्णारूपी रस्सी से आक्रान्त मन को शमरूपी अमृत के सेकों से प्रकृतिस्थ कीजिए। शम से शीतल बुद्धि से जो कुछ कार्य करते हो, जो कुछ भोजन करते हो वह मन को अत्यन्त स्वादु लगता है। उक्त बुद्धि से भिन्न बुद्धि से जो कुछ कर्म किया जाता है एवं भोजन किया जाता है, वह स्वादु नहीं लगता है। हे रामचन्द्रजी, शमरूपी अमृतरस से आप्लावित मन ऐसे आनन्द को प्राप्त होता है कि उससे कटे हुए अंग भी उग जाते हैं, ऐसा मेरा निश्चय है। शमवान पुरुष का न पिशाच, न राक्षस, न दैत्य,  न शत्रु, न बाघ और साँप कोई भी द्वेष नहीं करते। जैसे बाण हीरे को नहीं छेद सकते, वैसे ही उत्कृष्ट शमरूपी अमृतकवच से जिसके सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंग सुरक्षित है, उसे सम्पूर्ण दुःख पीड़ित नहीं कर सकते। अपने राजमहल में विराजमान राजा को भी वह शोभा प्राप्त नहीं हो सकती, जो शोभा स्वच्छ और शम से शोभायमान समबुद्धि से युक्त पुरुष को प्राप्त होती है। शान्त अन्तःकरण वाले पुरुष का दर्शन कर मनुष्य को जो अलौकिक आनन्द होता है, वह आनन्द अपने प्राणों से भी प्रियतरजन को देखकर नहीं होता। इस संसार में जो महात्मा शम से शोभित एवं सब लोगों द्वारा प्रशंसित समवृत्ति से सबके साथ सुन्दर बर्ताव करता है, उसी का जीवन सार्थक है, दूसरे का नहीं। शम से परिपूर्ण तथा उद्धतताशून्य मन वाला साधु पुरुष जो कुछ भी कर्म करता है, ये सम्पूर्ण प्राणी उसके उस कर्म की प्रशंसा करते हैं। जो पुरुष प्रिय और अप्रिय को सुनकर, छूकर, देखकर, खाकर और सूँघकर क्रमशः न तो प्रसन्न होता है और न खिन्न होता है, वह शान्त कहा जाता है। जो पुरुष प्रयत्न से इन्द्रियों को जीतकर सब प्राणियों में समान बर्ताव करता है और सुख आदि की न तो इच्छा करता है और न प्राप्त प्रारब्ध का त्याग करता है, वह शान्त कहा जाता। दूसरे लोगों की कुटिलता को जानकर भी जिसमें बाहर-भीतर एक सी निर्मल बुद्धि से मोक्ष के उपायरूप कर्तव्य कार्य देखे जाते हैं, वह शान्त कहा जाता है। चन्द्रबिम्ब के समान कान्तिवाला जिसका मन मृत्यु, उत्सव और युद्ध में क्रमशः भय, अनुराग और क्रोध से सन्तापरहित रहता है, वह शान्त कहा जाता है। हर्ष और कोप से निमित्तवाले प्रदेशों में स्थित बी जो पुरुष वहाँ स्थित न हुए के तुल्य न हर्ष को प्राप्त होता है और न कोप करता है, किन्तु सुषुप्त पुरुष के समान स्वस्थ रहता है, वह पुरुष शान्त कहा जाता है। जिसकी अमृत के झरने के समान सुखप्रद और प्रसन्न दृष्टि सब जन्तुओं के ऊपर पड़ती है, वह शान्त कहलाता है। अतिशीतल अन्तःकरण वाला जो पुरुष व्यवहार करता हुआ भी सांसारिक विषयों में आसक्त नहीं होता और मूढ़ नहीं है, वह शान्त कहा जाता है। बड़ी-से-बड़ी आपत्तियों में भी दीर्घ कालतक रहने वाले बड़े-बड़े प्रलय में भी जिसकी नश्वर देह आदि में अहंबुद्धि नहीं होती, वह पुरुष शान्त कहा जाता है। व्यवहार करते हुए भी जिस पुरुष की ब्रह्म के समान समरस या आकाश के समान विकार को प्राप्त न होने वाली बुद्धि राग द्वेष आदि के सम्पर्क को प्राप्त नहीं होती, वह पुरुष शान्त कहा जाता है।।63-80।।
लोक में सम्पूर्ण गुणों में शम सर्वाधिक श्रेष्ठता से प्रसिद्ध है, ऐसा कहते हैं।
तपस्वियों में, विद्वानों में, यज्ञकर्ताओं में, राजाओं में, बलवान पुरुषों में एवं अन्यान्य प्रचुर गुणों से विभूषित लोगों में शमयुक्त (शान्त) पुरुष ही अधिक शोभित होता है। जैसे चन्द्रमा से चाँदनी उदित होती है वैसे ही जिन गुणशाली सज्जनों का चित्त शमपूर्ण है, उनके हृदय से आनन्द का स्रोत उदभूत होता है। सम्पूर्ण गुणों की अवधि (सीमा), पुरुषों का मुख्य भूषण एवं सम्पूर्ण गुणों की सम्पत्ति से युक्त शम संकटों में और भयपूर्ण स्थानों में भी विराजमान रहता है – संकट और भय से पुरुष को मुक्त कर देता है। हे रघुनन्दन, दूसरों के द्वारा न चुराया जा सकने वाला तथा पूज्यजनों द्वारा बड़ी सावधानता से सुरक्षित परम साधनभूत शमरूपी  अमृत के अवलम्बन से अनेक महानुभाव जिस क्रम से परम पद को प्राप्त हुए हैं, आप भी सिद्धि के लिए उसी क्रम का अवलम्बन कीजिए।।81-84।।
तेरहवाँ सर्ग समाप्त
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