तेरहवाँ
सर्ग
जीवनमुक्तिरूप
फल के हेतु वैराग्य आदि गुणों का एवं शम का विशेषरूप से वर्णन।
वैराग्य, शान्ति
आदि साधनों का आगे वर्णन करने वाले श्रीवसिष्ठजी इस समय प्रस्तुत
जीवन्मुक्तिस्थिति का वर्णन करते हैं।
श्रीवासिष्ठजी
ने कहाः हे श्रीरामजी, इस दृष्टि का
अवलम्बन कर सुबुद्धिमान् तत्त्वज्ञ महापुरुष इस संसार में ऐसे विचरते हैं, मानों
उन्हें महान् साम्राज्य प्राप्त हो गया हो। वे लोग न तो अशुभ के लिए शोक करते हैं
और न शुभ की कामना करते हैं अतएव वे उनके साधनें की भी याचना नहीं करते। वे सब कुछ
करते भी हैं फिर भी कुछ नहीं करते। हेय और उपादेय के पक्षपात से रहित एवं अपनी
आत्मा में स्थित वे असंग आत्मा के साक्षात्कार से निर्लेप रहते हैं, शास्त्रीय
स्वच्छ कर्म करते हैं और सन्मार्ग में जाते हैं।।1-3।। वे अन्य लोगों की दृष्टि से
आते हें और जाते हैं पर अपनी दृष्टि से न आते हैं और न जाते हैं, अन्य की दृष्टि
से करते हुए एवं बोलते हुए भी अपनी दृष्टि से न करते हैं और न बोलते हैं।।4।।
क्योंकि
'सचक्षुरचक्षुरिव सकर्णोऽकर्ण इव समना अमना इव' (तत्त्वज्ञ पुरुष अन्य की दृष्टि
में चक्षुयुक्त होता हुआ भी अचक्षु के सदृश है और अन्य की दृष्टि से कर्णयुक्त
होता हुआ भी कर्णरहित है, अन्य की दृष्टि से मनयुक्त होता हुआ भी मन से रहित-सा
है) ऐसी श्रुति है।
हेय और उपादेय
से जो कोई यज्ञ-याग आदि कार्य हैं और जो कोई प्रमाण, प्रमेय आदि व्यवहार हैं, वे
सब परमतत्त्व के ज्ञात होने पर क्षीण हो जाते हैं।।5।। सम्पूर्ण अभिलाषाओं से रहित
शान्तिपूर्ण तथा ब्रह्माकारत्व को प्राप्त मन चन्द्रबिम्ब में बैठे हुए स्वर्गी के
समान चारों ओर से सुख प्राप्त होता है।।6।। विषयों का बार-बार स्मरण करना और
विषयों की प्राप्ति में कुतूहल ही विक्षेप के हेतु हैं, उनके अभाव में विक्षेपरहित
सुख होता है। जैसे चन्द्रमा में अमृत नहीं समाता वैसे ही विषय मननरहित और सम्पूर्ण
विषयकौतुक से शून्य सुखरूपता को प्राप्त हुआ मन आत्मा में नहीं समाता।।7।।
सुखरूपता को प्राप्त हुआ मन न तो मायिक विक्षेपों करता है और न विक्षेपों की जननी
वासना के प्रति दौड़ता है, किन्तु बालकों जैसी भ्रममूलक चंचलता का त्याग कर
अनादिसिद्ध आत्मसुखरूप हो विराजमान होता है। इस प्रकार की स्थिति आत्मतत्त्व के
साक्षात्कार से ही प्राप्त होती है, अन्य उपायों से नहीं।।8,9।। इसलिए पुरुष को
जीवनपर्यन्त विचार द्वारा आत्मा का ही पुनः पुनः श्रवण और मनन करना चाहिए, आत्मा
का ही निदिध्यासन करना चाहिए एवं श्रवण और मनन तथा निदिध्यासन द्वारा आत्मा का
साक्षात्कार करना चाहिए, इसके सिवा पुरुष का और कुछ कर्तव्य नहीं है। जिस अधिकारी
को अपने अनुभव, शास्त्रवचन और गुरु के उपदेश की एकार्तनिष्ठता का निश्चय हो, उसे
नित्य निरन्तर किये गये श्रवण, मनन आदि के अभ्यास से आत्मा का साक्षात्कार होता
है। शास्त्र और उसके अर्थ की अवहेलना करने वाले, तत्त्वज्ञानी पूज्य पुरुषों की
उपेक्षा करने वाले मूढ़ों की तुलना को कभी प्राप्त नहो, चाहे कितने ही बड़े क्लेश
क्यों न भुगतने पड़ें। पृथ्वी में मनुष्यों को ज्वर आदि शारीरिक क्लेश से, विष से,
आपत्तियों से और मानसिक चिन्ताओं से वैसा क्लेश नहीं होता जैसाकि अपने शरीर में
स्थित एक मूर्खता से क्लेश होता है। जिन लोगों की बुद्धि में थोड़ी बहुत भी
बहुत्पत्ति हो गई है, इस शास्त्र के सुनने से जिस प्रकार उनकी मूर्खता की निवृत्ति
होती है वैसे अन्य किसी शास्त्र के श्रवण से नहीं होती। यह शास्त्र अतिसुखदायी है,
यथायोग्य अनेक दृष्टान्तों से इसकी सुन्दरता कहीं अधिक बढ़ गई है और किसी भी
शास्त्र से यह विरूद्ध नहीं है। जिसे आत्मा का साक्षात्कार अभीष्ट है, उस
नरश्रेष्ठ को अवश्य इसका श्रवण करना चाहिए।।10-15।। हे राम जी, जो दुस्तर
आपत्तियाँ हैं और ज अति नीच कुत्सित योनियाँ हैं वे सब, जैसे खदिर से काँटे
उत्पन्न होते हैं वैसे ही, मूर्खता से पैदा होती हैं। मिट्टी के पात्र को (सकोरे
को) हाथ में लेकर चाण्डालों की टोली में भीख माँगने के लिए दर-दर घूमना अच्छा है,
पर मूर्खतापूर्ण जीवन अच्छा नहीं है। निर्जन स्थान में, अति भयानक अन्धकूप में एवं
पेड़ों के खोखलों में अन्धा कीड़ा होना अच्छा है, पर अतिदुःखदायी मूर्खता अच्छी
नहीं है। यह संसारी पुरूष मोक्ष के उपायभूत इस शास्त्ररूप प्रकाश को पा कर फिर
मोहान्धकार में भी अन्धता को प्राप्त नहीं होता। तभी तक तृष्णा मनुष्यरूपी कमल को
संकुचित करती है जब तक विवेकरूपी सूर्य की निर्मल प्रभा का उदय नहीं होता। हे
राघव, संसारदुःख से छुटकारा पाने के लिए मेरे सदृश आत्मीयों के साथ गुरुपदेश और
शास्त्र के प्रमाण से अपने स्वरूप को जानकर जैसे इस संसार में जीवन्मुक्त हरि, हर
आदि विचरण करते हैं और जैसे अन्यान्य जीवन्मुक्त महर्षि विचरण करते हैं वैसे ही
आपभी विचरण कीजिए। हे रघुकुलतिलक, इस संसार में, अनन्त दुःख हैं, सुख तिनके के
टुकड़े के बराबर बिल्कुल नगन्य हैं, इसलिए दुःखों से सराबोर (परिपूर्ण) सुखों में
कभी भी आदर नहीं करना चाहिए। ज्ञानवान
पुरुष को पुरुषार्थ की सिद्धि के लिए जो वस्तु असीम और क्लेशलवविरहित है, उस
ज्ञानरूप वस्तु को प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करना चाहिए। हे रामजी, वे ही सज्जन परम
पुरुषार्थ के भाजन हैं और वे ही पुरुष श्रेष्ठ हैं, जिनका सर्वोत्कृष्ट वस्तु में
(परब्रह्म) में लीन मन परमशान्त है। जो दुरात्मा राज्य आदि सुखों में उत्तम भोगों
के आस्वादमात्र से सन्तुष्ट हैं, उन्हें आप अन्धे मेढक समझिए। मेढक कुएँ में रहने
से बाहर नहीं देख पाता, उसमें भी यदि अन्धा हो, तो कहाँ से देखेगा, यह भाव है। जो
लोग वंचक, प्रबल दुराचियों, वैषयिक सुखों का भोग करने वाले और मित्र जैसे दिखाई
देने वाले वास्तव में शत्रुओं पर आसक्त हैं, वे लोग संकट से संकट को, दुःख से दुःख
को, भय से भय को और नरक से नरक को प्राप्त होते हैं। वे लोग मूर्ख हैं और अज्ञान
से उनकी बुद्धि मन्द पड़ गई है। 'सुख के पश्चात दुःख होता है और दुःख के पश्चात
सुख होता है, घटीयन्त्र के समान लगातार भ्रमण कर रहा पुरुष पुनः पुनः सुख और दुःख
को प्राप्त होता है' इत्यादि वाक्यों से सुख और दुःख की परस्पर विनाशिता कही गई
है, अतः यह संसारी पुरुष कभी विश्रान्ति को प्राप्त नहीं होता। सुख और दुःख की
अवस्था बिजली की चमक के समान क्षणभंगुर है। जो लोग आपके सदृश वैराग्ययुक्त, सम्यक्
विवेकी और महात्मा हैं, भोग और मोक्ष के एकमात्र भाजन व पुरुष वन्दनीय हैं। परम
विवेक का अवलम्बन कर वैराग्य और अभ्यास से आपत्तिरूप यह भीषण संसार नदी पार करनी
चाहिए। विष के समान तीव्र मूर्छा देने वाले इन मिथ्याभूत वंचनोपायों में नहीं सोना
चाहिए। इस संसार को प्राप्त कर जो पुरुष अवहेलना से रहता है वह जल रहे तृणमय घर के
विस्तार में गहरी नींद सोता है।।16-33।।
संसार के सिवा
कोई अन्य स्थान ही नहीं है, फिर किसका अवलम्बन करके संसार में अरति करनी चाहिए ?
ऐसी आशंका कर कहते हैं।
जिसको प्राप्त
कर पुनः नहीं लौटते और जिसे प्राप्त कर फिर शोक नहीं होता, वह उत्तम पद केवल
बुद्धिमात्र से प्राप्य है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है।।34।।
पुराणों में भी
कहा है – असत्यस्मिन् जगन्नाथे अन्धीभूतमिदं भवेत्। सूर्पेणेव विहीनत्वान्निरालोकं
जगद् यथा। (यदि जगदधिपति परमात्मा न होते, तो सूर्य से विहीन अन्धकारपूर्ण जगत् के
समान यह सब प्रपंच अन्धकारमय हो जाता।) श्रुति भी है – असन्नेव स भवति' (वह असत्
ही हो जाता है जो ब्रह्म को असत् जानता है जो ब्रह्म है यों ब्रह्म की सत्ता को
जानता है, उसे सत् कहते हैं।) सन्दिग्धे परलोकेऽपि वरं श्रुतिपथाश्रयः। यदि न
स्यात् तदा किं स्याद्यदि स्यान्नास्तिको हतः।। (परलोक के सन्देहास्पद होने पर भी
श्रुतिप्रतिपादित मार्ग का अवलम्बन करना उत्तम है, यदि परलोक न हो, तो उत्तम कर्म
करने से अपना क्या बिगड़ा, यदि हो, तो नास्तिक के मुँह में थप्पड़ लगा।) इस न्याय
से सन्देह करने वाले के प्रति कहते हैं।
यदि थोड़ी देर
के लिए मान भी लिया कि ब्रह्म नहीं है तो भी उसके विचार से आपका कौन दोष होगा, यदि
है, तो उसके विचार से आप संसारसागर को पार कर जायेंगे।।35।।
ऐसी अवस्था में
सभी लोग मोक्ष के लिए प्रवृत्त क्यों नहीं होते, ऐसी शंका कर 'यावन्नाऽनुग्रहः
साक्षाज्जायते परमेशितुः। तावन्न सदगुरूं कश्चित् सच्छास्त्रं वाऽपि विन्दति।।'
(जब तक साक्षात् परमेश्वर की असीम अनुकम्पा नहीं होती तब तक वह सदगुरू या
सतशास्त्र को नहीं पाता) इत्यादि वचन से ईश्वर के अनुग्रह से प्राप्त होने वाली
मोक्षभाजनता से शोभित महान लोगों की ही प्रवृत्ति मोक्षसाधन में होती है, सबकी
नहीं, ऐसा कहते हैं।
इस लोक में जब
पुरुष की मोक्ष के उपाय के विचार में प्रवृत्ति होती है तब वह शीघ्र मोक्षभागी कहा
जाता है। प्रवृत्ति का फल मोक्षाभागिता प्रवृत्तिरूप लिंग से अनुमेय है, यह भाव
है।।36।।
देह, इन्द्रिय
और विषय से शून्य केवलीभाव (अद्वैतभाव) में हेतु इस शास्त्र से क्या प्रयोजन है,
देह आदि के रहने पर ही दूसरे उपायों से भी स्वर्गादिसुख हो सकता है, ऐसी शंका कर
कहते हैं।
विनाशरहित, किसी
प्रकार की अशुभ आशंका से रहित, स्वस्थतायुक्त एवं विशिष्ट भ्रम से रहित सुख
केवलीभाव के बिना तीनों भुवनों में कहीं नहीं है। स्वर्ग आदि विनाशी है, उनमें पतन
की शंका सदा बनी रहती है और दूसरे के उत्कर्ष में चित्त अस्वस्थ भी बना रहता है,
इसलिए केवली भाव ही पुरुषार्थ है। प्रवृत्ति होने पर केवलीभाव की प्राप्ति होती
है। केवलीभाव की प्राप्ति होने पर क्लेश नहीं होता। न धनसम्पत्ति उपकार करती है, न
मित्र उपकार करते हैं और न बन्धुबान्धव ही उपकार करते हैं। न प्रणाम आदि, न
तीर्थयात्रा आदि, न उपवास, तीर्थवास उपकार करते हैं, केवल एकमात्र श्रवण, मनन तथा
निदिध्यासनरूप पुरुषप्रयत्न से एवं द्वैतवासनाविरोधी ब्रह्माकार दृढ़वासना के
तुल्य विषयवाले कर्म से साध्य साक्षात्कार से हुए केवल मनोमात्ररूप द्वैत के
मूलोच्छेदरूप जय से वह पद प्राप्त किया जाता है। देह, इन्द्रिय आदि से आत्मा का
पृथक्करणरूप विवेकमात्र से प्राप्त होने वाला एवं श्रवण, मनन, निदिध्यासन से
असम्भावनादिका निराकरणरूप विचार और एकाग्रता से निश्चय करने के योग्य वह उत्तम पद
विषयों का त्याग कर रहे पुरुष द्वारा प्राप्त किया जाता है। सुखसेव्य आसन पर बैठे
हुए और स्वयं उसका विचार कर रहे पुरुष को उक्त पद प्राप्त करके न तो शोक होता है
और न फिर वह उत्पन्न ही होता है। उसको विद्वान लोग संसार में साररूप से प्रसिद्ध
सुखों के आसारों का (वेगवती वृष्टियों का) मेघरूप परम अवधि कहते हैं और ध्यान करने
वालों में जिससे अत्युत्तम आनन्द रस का आविर्भाव होता है। -ऐसा परम रसायन कहते
हैं।।37-43।। स्वर्ग और मनुष्यलोक में सम्पूर्ण भावों के विनाशशील होने से जैसे
मृगतृष्णा में जल नहीं होता, वैसे इन दोनों में सुख है ही नहीं। इसलिए शान्ति और
सन्तोष का एकमात्र साधन मन के विजय का विचार करना चाहिए। उससे परमात्मा में
एकरसतारूप आनन्द प्राप्त होता है। राक्षस, दानव, देवता या मनुष्य को बैठते, चलते,
गिरते, घूमते मन के विजय से उत्पन्न तथा प्रफुल्ल (विकसित) शमरूपी (शान्तिरूपी)
पुष्पों से युक्त विवेकरूपी उत्कृष्ट वृक्ष का (कल्पवृक्ष का) फल (परम सुख)
प्राप्त करना चाहिए।।44-47।।
उक्त सुख के
प्राप्त होने पर भी फिर व्यवहार में प्रसक्ति होने पर वह नष्ट हो जायेगा, इस शंका
पर कहते हैं।
व्यवहार में
संलग्न होने पर भी कार्यजन्य फल को न
प्राप्त हो रहे पुरुष द्वारा आकाशस्थित सूर्य के समान परिपूर्ण होने पर भी हेय न
होने के कारण उक्त परम सुख न तो छोड़ा जाता है और परिपूर्ण होने के कारण न चाहा
जाता है अर्थात् जैसे आकाशस्थित सूर्य द्वारा परिपूर्ण होने पर भी कल्पवृक्ष का फल
हेय न होने के कारण नहीं छोड़ा जाता और परिपूर्ण होने के कारण वे उसकी अभिलाषा भी
नहीं करते, वैसे ही यहाँ भी समझना चाहिए।।48।।
मन के रहने पर
चाह क्यों न होगी ? इस पर कहते हैं।
प्रशान्त,
अतिनिर्मल, विश्रान्ति-सुख से पूर्ण, भ्रमरहित, स्पृहारहित और अभीष्टशून्य मन न तो
किसी वस्तु की अभिलाषा करता है और न किसी का त्याग करता है। श्रीरामजी, पूर्व में
उक्त भी इस समय विस्तारपूर्वक कहे जा रहे मोक्ष के द्वार पर स्थित इन द्वारपालों
को क्रमशः सुनिये, उनमें से एक पर भी आसक्ति होने से मोक्ष के द्वार में प्रवेश
प्राप्त हो जाता है।।49-50।।
सर्ग की समाप्ति
तक शम का वर्णन करने के लिए भूमिका बाँधते हैं।
सुख की आशारूप
तृषाताप के तुल्य दोषदशा से दीर्घ संसाररूपी मरूमण्डली शम से चन्द्रमा की प्रभा के
समान शीतलता को प्राप्त होती है। शम से कल्याण प्राप्त होता है, शम परम पद है, शम
शिव है, शम भ्रान्ति का निरास है। शम से तृप्त, शीतल और निर्मल आत्मावाले एवं शम
से जिसका चित्त विभूषित है, उसका शत्रु भी मित्र बन जाता है, शमरूपी चन्द्रमा
जिनका आशय अलंकृत है, क्षीरसागरों की नाईं उनमें परमशुद्धता उत्पन्न होती है
अर्थात् जैसे क्षीरसागरों में अतिशुभ्रता विराजमान रहती है वैसे ही उनमें शुद्धता
का साम्राज्य रहता है। जिन सज्जनों के हृदय रूपी कमलकोषों में शमरूपी कमल विकसित
है, दो हृदयकमल वाले वे लोग भगवान श्रीविष्णु के तुल्य हैं। भाव यह कि विष्णु
भगवान का हृदयकमल ही बाहर ब्रह्मा का आसन है, अतः वह दो प्रकार का है। जिनके
कलंकरहित मुखचन्द्र में शम श्री शोभित होती है, अपने सौन्दर्यरूप गुणों से
जिन्होंने अन्य लोगों के नेत्र, मन आदि इन्द्रियाँ अपने वश में कर ली हैं, वे
कुलीनशिरोमणि हैं और वन्दनीय हैं। तीनों लोकों के मध्य में स्थित राज्यलक्ष्मी
वैसे आनन्द के लिए नहीं होती जैसे कि (केवल आकार से ही) साम्राज्यसम्पत्ति के सदृश
(न कि अन्य गुणों से) शम-सम्पत्ति आनन्द के लिए होती है। जो विविध दुःख हैं, दुःसह
तृष्णाएँ हैं और दुष्ट मानसिक चिन्ताएँ हैं, वे सब शान्तचित्तवाले पुरुषों में इस
प्रकार नाश को प्राप्त होते हैं, जैसे कि अनेक सूर्यों के प्रकाश में अन्धकार
विनष्ट हो जाता है। शान्त (शमवान) पुरुष के दर्शन से सब प्राणियों का मन जैसी
कौतुकपूर्ण प्रसन्नता को प्राप्त होता है, चन्द्रमा के दर्शन से वैसी प्रसन्नता
प्राप्त नहीं होती। शान्तियुक्त और सब प्राणियों में प्रेम करने वाले सज्जनतम
पुरुष में परम तत्त्व स्वयं ही (अनायास) प्रसन्नता को (निर्मलता को) प्राप्त होता
है। हे रामजी, जैसे प्राणियों का अपनी माता पर विश्वास होता, वैसे ही क्रूर, कुटिल
और मृदु सब प्राणियों का शमवान पुरुष पर विश्वास होता है। पुरुष को इन्द्रपद
प्राप्त होने पर अमृत के पान से और भगवान विष्णु का पद प्राप्त होने पर लक्ष्मी के
आलिंगन से वैसा सुख प्राप्त नहीं हो सकता, जैसा कि शम से अन्तःकरण में सुख प्राप्त
होता है।।59-62।।
हे रामचन्द्रजी,
सम्पूर्ण आधि और व्याधियों से ग्रस्त और तृष्णारूपी रस्सी से आक्रान्त मन को
शमरूपी अमृत के सेकों से प्रकृतिस्थ कीजिए। शम से शीतल बुद्धि से जो कुछ कार्य
करते हो, जो कुछ भोजन करते हो वह मन को अत्यन्त स्वादु लगता है। उक्त बुद्धि से
भिन्न बुद्धि से जो कुछ कर्म किया जाता है एवं भोजन किया जाता है, वह स्वादु नहीं
लगता है। हे रामचन्द्रजी, शमरूपी अमृतरस से आप्लावित मन ऐसे आनन्द को प्राप्त होता
है कि उससे कटे हुए अंग भी उग जाते हैं, ऐसा मेरा निश्चय है। शमवान पुरुष का न
पिशाच, न राक्षस, न दैत्य, न शत्रु, न बाघ
और साँप कोई भी द्वेष नहीं करते। जैसे बाण हीरे को नहीं छेद सकते, वैसे ही
उत्कृष्ट शमरूपी अमृतकवच से जिसके सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंग सुरक्षित है, उसे
सम्पूर्ण दुःख पीड़ित नहीं कर सकते। अपने राजमहल में विराजमान राजा को भी वह शोभा
प्राप्त नहीं हो सकती, जो शोभा स्वच्छ और शम से शोभायमान समबुद्धि से युक्त पुरुष
को प्राप्त होती है। शान्त अन्तःकरण वाले पुरुष का दर्शन कर मनुष्य को जो अलौकिक
आनन्द होता है, वह आनन्द अपने प्राणों से भी प्रियतरजन को देखकर नहीं होता। इस
संसार में जो महात्मा शम से शोभित एवं सब लोगों द्वारा प्रशंसित समवृत्ति से सबके
साथ सुन्दर बर्ताव करता है, उसी का जीवन सार्थक है, दूसरे का नहीं। शम से परिपूर्ण
तथा उद्धतताशून्य मन वाला साधु पुरुष जो कुछ भी कर्म करता है, ये सम्पूर्ण प्राणी
उसके उस कर्म की प्रशंसा करते हैं। जो पुरुष प्रिय और अप्रिय को सुनकर, छूकर,
देखकर, खाकर और सूँघकर क्रमशः न तो प्रसन्न होता है और न खिन्न होता है, वह शान्त
कहा जाता है। जो पुरुष प्रयत्न से इन्द्रियों को जीतकर सब प्राणियों में समान
बर्ताव करता है और सुख आदि की न तो इच्छा करता है और न प्राप्त प्रारब्ध का त्याग
करता है, वह शान्त कहा जाता। दूसरे लोगों की कुटिलता को जानकर भी जिसमें बाहर-भीतर
एक सी निर्मल बुद्धि से मोक्ष के उपायरूप कर्तव्य कार्य देखे जाते हैं, वह शान्त
कहा जाता है। चन्द्रबिम्ब के समान कान्तिवाला जिसका मन मृत्यु, उत्सव और युद्ध में
क्रमशः भय, अनुराग और क्रोध से सन्तापरहित रहता है, वह शान्त कहा जाता है। हर्ष और
कोप से निमित्तवाले प्रदेशों में स्थित बी जो पुरुष वहाँ स्थित न हुए के तुल्य न
हर्ष को प्राप्त होता है और न कोप करता है, किन्तु सुषुप्त पुरुष के समान स्वस्थ
रहता है, वह पुरुष शान्त कहा जाता है। जिसकी अमृत के झरने के समान सुखप्रद और
प्रसन्न दृष्टि सब जन्तुओं के ऊपर पड़ती है, वह शान्त कहलाता है। अतिशीतल अन्तःकरण
वाला जो पुरुष व्यवहार करता हुआ भी सांसारिक विषयों में आसक्त नहीं होता और मूढ़
नहीं है, वह शान्त कहा जाता है। बड़ी-से-बड़ी आपत्तियों में भी दीर्घ कालतक रहने
वाले बड़े-बड़े प्रलय में भी जिसकी नश्वर देह आदि में अहंबुद्धि नहीं होती, वह
पुरुष शान्त कहा जाता है। व्यवहार करते हुए भी जिस पुरुष की ब्रह्म के समान समरस
या आकाश के समान विकार को प्राप्त न होने वाली बुद्धि राग द्वेष आदि के सम्पर्क को
प्राप्त नहीं होती, वह पुरुष शान्त कहा जाता है।।63-80।।
लोक में
सम्पूर्ण गुणों में शम सर्वाधिक श्रेष्ठता से प्रसिद्ध है, ऐसा कहते हैं।
तपस्वियों में,
विद्वानों में, यज्ञकर्ताओं में, राजाओं में, बलवान पुरुषों में एवं अन्यान्य
प्रचुर गुणों से विभूषित लोगों में शमयुक्त (शान्त) पुरुष ही अधिक शोभित होता है।
जैसे चन्द्रमा से चाँदनी उदित होती है वैसे ही जिन गुणशाली सज्जनों का चित्त
शमपूर्ण है, उनके हृदय से आनन्द का स्रोत उदभूत होता है। सम्पूर्ण गुणों की अवधि
(सीमा), पुरुषों का मुख्य भूषण एवं सम्पूर्ण गुणों की सम्पत्ति से युक्त शम संकटों
में और भयपूर्ण स्थानों में भी विराजमान रहता है – संकट और भय से पुरुष को मुक्त
कर देता है। हे रघुनन्दन, दूसरों के द्वारा न चुराया जा सकने वाला तथा पूज्यजनों
द्वारा बड़ी सावधानता से सुरक्षित परम साधनभूत शमरूपी अमृत के अवलम्बन से अनेक महानुभाव जिस क्रम से
परम पद को प्राप्त हुए हैं, आप भी सिद्धि के लिए उसी क्रम का अवलम्बन
कीजिए।।81-84।।
तेरहवाँ सर्ग
समाप्त
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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