बाईसवाँ सर्ग
शोक,
मोह, इष्टवियोग का दुःख, रोग आदि से परिपूर्ण तथा चिन्ता और तिरस्कार के घर
वृद्वावस्था की निन्दा।
युवावस्था
में काम आदि दोष बड़े प्रबल रहते हैं, इसलिए युवक को भले ही सुख न हो, किन्तु
वृद्धावस्था में काम आदि दोषों के शान्त हो जाने पर एवं विनीत पुत्र, पौत्र आदि
द्वारा घर में सेवा होने पर वृद्ध को अति आनन्द होता है, ऐसी शंका कर वृद्धावस्था
में अनन्त दुःखों का विस्तार से वर्णन करने की इच्छा से पहले 'अपने बच्चों का नाश करने वाले साँपों को दूसरे के बच्चों पर
दया कैसे हो सकती है' इस न्याय से वृद्धावस्था अति कठोर है,
यह कहते हैं।
खेल-कूद
कौतूहल आदि की अभिलाषा के पूर्ण न होने पर ही युवावस्था आकर जबर्दस्ती बाल्यावस्था
को निगल जाती है, तदुपरान्त स्त्रीसंभोग आदि की इच्छा की पूर्ति न होने पर ही
वृद्धावस्था आकर युवावस्था को स्वाहा कर देती है अतः इन दोनों की (युवावस्था और
वृद्धावस्था की) परस्पर कठोरता को देखिये अर्थात् उसी शरीर में होने वाली
बाल्यावस्था को यौवन निगल गया अतएव यौवन कठोरतर हुआ, उक्त कठोरतर यौवन को निगलने
वाली वृद्धावस्था कठोरतम न होगी तो क्या होगी ?।।1।।
पामर
लोगों के परम प्रेमपात्र विषयसुख के गृहभूत शरीर को ही जो वृद्धावस्था नष्ट-भ्रष्ट
कर देती है, उसमें सुख की आशा कहाँ ?
जैसे
तुषाररूपी वज्र कमलों को नष्ट-भ्रष्ट कर देता है, जैसे आँधी शरदऋतु की ओस को
(पत्तों के सिरे पर लटक रहे जलकण को) नष्ट कर देती है और जैसे नदी तटके वृक्ष को
उखाड़ देती है, वैसे ही वृद्धावस्था शरीर को नष्ट कर डालती है।।2।। यदि विष का
छोटा सा टुकड़ा खा लिया जाय, तो वह जैसे थोड़ी देर में ही देह को कुरूपकर देता है,
वैसे ही अंग-प्रत्यंग को शिथिल करने वाली एवं वृद्धकेसे स्वरूप वाली वृद्धावस्था
देह को शीघ्र (आते ही) कुरूप कर देती है। यदि वृद्धावस्था स्वयं वृद्धरूप न होती
तो अन्यों को वृद्धरूप कैसे करती, ऐसे तर्क करके लोक में जरठरूपिणी कहा है।।3।।
जिनके सब अंग शिथिल और छिन्न भिन्न हो गये हैं, और वृद्धावस्था से शरीर जर्जरित हो
गया है, ऐसे सभी पुरुषों को स्त्रियाँ ऊँट के समान समझती हैं।।4।। अनायास दीनता को
प्राप्त कराने वाली वृद्धावस्था जब मनुष्य को पकड़ती है तब सौत से तिरस्कृत (पिटी
गई) स्त्री के समान बुद्धि भागकर कहीं अन्यत्र चली जाती है।।5।। नौकर-चाकर, पुत्र,
स्त्रियाँ, बन्धु-बान्धव और सगे सम्बन्धी सभी लोग वृद्धावस्था से काँप रहे मनुष्य
को घृणित उन्मत पुरुष की नाईं उपहास करते हैं।।6।। जैसे गीध फलयुक्त शाखा और
टहनियों के फैलाव के कारण अन्य पक्षियों के आक्रमण से रहित अति उन्नत पुराने वृक्ष
पर आता है, वैसे ही कुरूप, वृद्ध, गुण और सामर्थ्य से शून्य अतएव दीन वृद्ध पुरुष
में बड़ी अभिलाषा आती है।।7।। दीनतारूपी दोष से परिपूर्ण, हृदय में सन्ताप
पहुँचाने वाली और सम्पूर्ण आपत्तियों की एकमात्र सहचरी बड़ी भारी तृष्णा
वृद्धावस्था में बढ़ती जाती है।।8।। खेद है, परलोक में मैं क्या करूँगा, इस प्रकार
का अतिभीषण भय, जिसका कोई प्रतीकार नहीं हो सकता, वृद्धावस्था में बढ़ता जाता
है।।9।। हे महर्षे, मैं कौन हूँ, बड़ा दुःखी-दीन हूँ, मैं क्या करूँ, कैसे करूँ,
अच्छा चुपचाप मौन ही रहूँ, ऐसी दीनता वृद्धावस्था में प्राप्त होती है अर्थात्
वृद्धावस्था में मैं दुःखी हूँ, मैं अकर्मण्य हूँ, मैं नितान्त हेय और तुच्छ हूँ,
मैं क्या करूँ, मुझ में सामर्थ्य ही क्या है, किस प्रकार मैं अपना जीवन निर्वाह
करूँ, मेरा बोलने से क्या प्रयोजन है, अच्छा, मैं मौन ही रहता हूँ, इत्यादि प्रकार
की दीनता उदित होती है।।10।। वृद्धावस्था में अपने आत्मीय जनों से मुझे किस प्रकार
कब कुछ स्वादिष्ट भोजन प्राप्त होगा, ऐसी चिन्तारूपी दूसरी जरा सदा चित्त को जलाती
रहती है।।11।। वृद्धावस्था में भोजन की शक्ति होने पर पचाने की अशक्ति, पचाने की
शक्ति होने पर भोजन की अशक्ति इत्यादि शक्तिह्रास से भोग की इच्छा तो बड़ी प्रबल
हो उठती है, पर उपभोग नहीं किया जा सकता और हृदय सदा जलता रहता है।।12।। मुनिवर,
जब विविध दुःखों से शरीर का अपकार करने वाली, रोगरूपी साँपों से व्याप्त
वृद्धावस्थारूपी जीर्ण बगुली शरीररूपी वृक्ष की चोटी पर बैठकर बासती है, उसी समय
निबिड़ मूर्च्छारूपी अन्धकार को चाहने वाला मृत्युरूपी उल्लू झटपट कहाँ से आया हुआ
ही दिखाई देता है।।13,14।। जैसे सायंकाल की सन्ध्या के उत्पन्न होने पर अन्धकार
उसके पीछे दौड़ता है अर्थात् सायंकाल होने के बाद अन्धकार इधर-उधर व्याप्त हो जाता
है, वैसे ही शरीर में वृद्धावस्था को देखकर ही काल लेने के लिए समीप में दौड़ कर
आता है।।15।। मुनिश्रेष्ठ वृद्धावस्था से कपास की नाईं फूले हुआ (सफेद केश और
मूँछ-दाढ़ी से युक्त) देहरूपी वृक्ष को दूर से ही देखकर कालरूपी बन्दर बड़े वेग
से उसकी और दौड़ता है अर्थात् जैसे फूलों
से युक्त वृक्ष को दूर से ही देखकर बन्दर उसकी ओर दौड़ता है, वैसे ही वृद्धावस्था
से सफेद हुए शरीर की ओर काल दौड़ता है।।16।। निर्जन नगर की यथा कदाचित् कुछ शोभा
हो भी सकती है, जिसकी सब लताएँ कट चुकी है, वह वृक्ष भी कुछ शोभित हो सकता है,
अनावृष्टि से पीड़ित देश की भी कुछ न कुछ शोभा हो सकती है, मगर वृद्धावस्था से
जर्जरित शरीर की कुछ भी शोभा नहीं है, अर्थात् वह इन सब दृष्टान्तों से बढ़कर
अभद्र है।।17।। जैसे शब्द करने वाली गृधी (गीध की स्त्री) निगलने के लिए ही शीघ्र
मांस के टुकड़े को पकड़ लेती है, वैसे ही खाँसीरूप शब्द करने वाली वृद्धावस्था
मनुष्य को निगलने के लिए ही वेग से पकड़ लेती है।।18।। जैसे बालिका उत्सुकता के
साथ देखकर और सिर पकड़कर कमल के फूल को तोड़ लेती है, वैसे ही वृद्धावस्था भी बड़ी
उत्सुकता के साथ देखकर और सिर पकड़कर देह को काट देती है, नष्ट कर देती है।।19।।
जैसे धूलि के कणों से कठोर और सी-सी कार कराने वाली (सी-सी शब्द कराने वाली) शिशिर
ऋतु के तेज वायु वृक्ष के पत्तों को धूलि से ध्वस्त कर छिन्न-भिन्न कर देती है,
वैसे ही शरीर में कम्प कराने वाली रूसी से कठोर यह वृद्धावस्था शरीर को नष्ट कर
देती है।।20।। वृद्धावस्था से तहस-नहस और जर्जरित शरीर तुषार (हिम) के कणों से
व्याप्त अतएव म्लान (मुरझाये हुए) कमल की समानता को धारण करता है अर्थात् जैसे हिम
समूह से आक्रान्त कमल मुरझा जाता है वैसे ही वृद्धावस्था से आक्रान्त शरीर भी
जीर्ण-शीर्ण हो जाता है।।21।। यह वृद्धावस्थारूपिणी चाँदनी सिररूपी पर्वत के शिर
से उदित होते ही वातरोग और खाँसीरोगरूपी कुमुदिनी को बड़े प्रयत्न से विकसित करती
है अर्थात् जैसे उदयाचल से उदित होते ही चाँदनी यत्नपूर्वक कुमुदिनीको विकसित करती
है वैसे ही प्रथम सिर में आविर्भूत हुई वृद्धावस्था वातरोग और खाँसी को खूब बढ़ा
देती हैं।।22।। भगवन्, कालरूपी स्वामी वृद्धावस्थारूपी लवणादि चूर्ण से धूसर
पुरुषों के सिररूपी कूष्माण्ड (कोहड़ा) को पका हुआ जानकर खा जाता है अर्थात् जैसे
स्वामी (किसान या अन्य कोई गृहस्थ, क्योंकि वही उसको पैदा करता है, अतः वह स्वामी
है) क्षार चूर्ण से धूसर कोहड़े को पका हुआ जानकर खा जाता है, वैसे ही काल भी
मनुष्यों के सिर को वृद्धावस्था से सफेद हुआ देखकर खा जाता है।।23।। आयुरूपी
प्रवाह के शीघ्र चलने पर वृद्धावस्थारूपी गंगा लगातार प्रयत्नपूर्वक इस शरीररूपी
तटवृक्ष की जड़ों को काट डालती है, अर्थात् जैसे प्रवाह तेज होने पर गंगा तीरस्थित
वृक्ष की जड़ों को काटकर उसे गिरा देती है, वैसे ही आयु के पूर्ण होने पर
वृद्धावस्था लगातार शरीर की जड़ों को काट कर उसे गिरा देती है, वैसे ही आयु के
पूर्ण होने पर वृद्धावस्थारूपी गंगा लगातार शरीर की जड़ों (शरीर के आधार बल आदि)
को काटकर उसे गिरा देती है।।24।। पहले वृद्धावस्थारूपी बिल्ली यौवनरूपी चूहे को
खाती है, फिर उद्धत होकर उसे शरीर का मांस खाने की इच्छा हो जाती है, तब तो उसकी
उद्दण्डता का ठिकाना नहीं रहता।।25।। इस संसार में ऐसी अमंगलकारिणी कोई नहीं है,
जैसे कि रोदन करने वाली (शब्द करने वाली) देहरूपी जंगल की सियारिन यह वृद्धावस्था
है अर्थात् जैसा जंगल की सियारिन के वासने से अमंगल होता है वैसा किसी से नहीं
होता। यह वृद्धावस्था भी ठीक सियारिन के समान है, यह भी रोदन करने वाली है और सबसे
बढ़कर दुःखदायिनी है।।26।। खाँसी और साँस के साँय-साँय शब्द से युक्त दुःखरूपी
धुआँ और कालिख से पूर्ण यह वृद्धावस्थारूपी ज्वाला जलती है, जिसने इस देह को जला
ही डाला अर्थात् गीली लकड़ियों के जलने पर ज्वाला सीं-सीं शब्द से युक्त और धूममय
करती है और उसमें धुआँ और कालिख भी रहती है, अतएव जैसे सीं-सीं शब्द से युक्त और
धूममय और कालिखपूर्ण ज्वाला काष्ठ को जला देती है वैसे ही कास श्वास की साँय-साँय
से युक्त और दुःखमय यह(♦) वृद्धावस्था भी देह को जला देती
है।।27।।
♦ वृद्धावस्था में नेत्रों की ज्योति के कुछ कम क्षीण होने पर
धूममय प्रकाश दिखाई देता है और बहुत अधिक क्षीण होने पर अन्धकार हो जाता है, अतः
धूममय और अन्धकारमय विशेषण भी जरा में लग सकते हैं।
जैसे
सफेद पत्तों वाली और फूलों से लदी हुई छोटी लता, फूलों के बोझ को न सह सकने के
कारण, टेढ़ी हो जाती है, वैसे ही सफेद सम्पूर्ण अंगों से युक्त मनुष्यों का छोटा
सा शरीर वृद्धावस्था से टेढ़ा हो जाता है।।28।। वृद्धावस्था रूपी कपूर से सफेद
देहरूपी केले के पेड़ को हाथी अनायास उखाड़कर फेंक देता है वैसे ही मृत्यु भी
वृद्धावस्था से सफेद देह को निःसन्देह क्षणभर में उखाड़कर फेंक देती है।।29।। पीछे
से आने वाले मृत्युरूपी राजा की वृद्धावस्थारूपी सफेद चँवरों से युक्त
चिन्ता-व्याधिरूपी अपनी निजी सेना पहले निकलती है। अर्थात् जैसे कोई राजा जब कहीं
जाता है, तब चँवर से युक्त उसकी सेना पहले निकलती है वैसे ही यहाँ भी समझना
चाहिए।।30।। मुनिवर, बड़े धैर्य से दुर्गम पहाड़ों की गुफाओं में बैठे हुए जिन
लोगों को रण में शत्रु हरा नहीं सके, उन्हें भी वृद्धावस्थारूपी वृद्ध राक्षसी ने
शीघ्र हरा दिया, यह आश्चर्य देखिये।।31।। वृद्धावस्थारूपी हिम से संकुचित (चारों
और हिम से पूर्ण हो जाने के कारण कम आकाश वाले) शरीररूपी गृह से मध्य में
इन्द्रियरूपी बच्चे तनिक भी हिलने-डुलने को समर्थ नहीं हो सकते अर्थात् जैसे हिम
से परिपूर्ण घर के अन्दर बालक इधर-उधर चल-फिर नहीं सकते, वैसे ही वृद्धावस्था से
पूर्ण शरीर में इन्द्रियाँ अपना कुछ भी व्यापार नहीं कर सकती।32।। लाठीरूपी तीसरे
पैर से युक्त, बारबार लड़खड़ा रही तथा खाँसी और अधोवायुरूपी मुरजसे (पखावज से)
युक्त वृद्धावस्थारूपी स्त्री नाच कर रही है।।33।। गन्ध अर्थात् रागद्वेष आदि से
चित्त को (दूसरे पक्ष में सभा को) वासित करने वाला विषयभोग (और कस्तूरी आदि
सुगन्धित पदार्थ) इस संसाररूपी राजा के व्यवहार से सम्बन्ध रखने वाली और विषयभोग
की कुटी आश्रय देहरूपी यष्टि के सिर पर बैठी हुई वृद्धावस्था नामक चँवरशोभा
विराजमान है अर्थात् जैसे राजा के व्यवहार से सम्बन्ध रखने वाली और कस्तूरी आदि
सुगन्धि पदार्थों को रखने की यष्टि के ऊपर स्थित चमरश्री अपने अनुपम सौन्दर्य
सुगन्धित और मन्द मन्द वायु के प्रसार से शोभित होती है, वैसे ही विषय भोग की
आश्रयभूत इस देह में सिर पर बैठी हुई वृद्धावस्था भी शोभित होती है।।34।। मुनीश्वर, वृद्धावस्थारूपी चन्द्रोदय
से से शुभ्र (सफेद और प्रकाशमय) शरीररूपी नगर में स्थित जीविताशारूप तालाब में
मृत्युरूपी कुमुदिनी क्षणभर में विकास को प्राप्त होती है अर्थात् जैसे चन्द्रमा
के उदित होने से प्रकाशमय नगर में स्थित तालाब में कुमुदिनी शीघ्र विकसित हो जाती
है, वैसे ही वृद्धावस्था से सफेद हुए शरीर में स्थित जीविताशा में शीघ्र मृत्यु का
आविर्भाव हो जाता है।।35।। वृद्धावस्थारूपी चूने के लेप से (पुताई से) शुभ्र
शरीररूपी अन्तःपुर के (रनवास के) भीतर अशक्ति (सामर्थ्य का अभाव), पीड़ा और
आपत्तिरूपी महिलाएँ बड़े चैन से रहती हैं।।36।। जिन जरायुज, अण्डज, स्वेदज और
उद्भिज्जरूप चार प्रकार के शरीरों में पहले वृद्धावस्था आक्रमण करती है और उसके
आगे मृत्यु अवश्य आने वाली है, उन्हीं शरीरों में से एक इस शरीर में (उन शरीरों के
सजातीय इस शरीर में) मुझ अतत्त्वज्ञ का क्या विश्वास हो सकता है? पहले वृद्धावस्था का तदन्तर मृत्यु का ग्रास होने वाले इस
शरीर में मेरी तनिक भी आस्था नहीं है, यह भाव है।।37।। हे तात्, जो वृद्धावस्था को
प्राप्त होकर भी बना रहता है, उस दुष्ट जीवन के दुराग्रह से (दुरभिलाषा से) क्या
प्रयोजन है अर्थात् कुछ भी नहीं, वह व्यर्थ ही है क्योंकि वृद्धावस्था इस पृथिवी
में मनुष्यों की सम्पूर्ण एषणाओं का तिरस्कार कर देती है। अर्थात् वृद्धावस्था के
आने पर कोई भी पुरुष अपनी किसी इच्छा को पूर्ण नहीं कर सकता, इसलिए दुःखप्रद दुष्ट
जीवन की दुराग्रहपूर्वक इच्छा करना निष्फल ही है, यह भाव है।।38।।
बाईसवाँ सर्ग समाप्त
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ