चौथा
सर्ग
मुक्तों
के अनुभव से सदेह और विदेह मुक्तियों में समानता वर्णन और ज्ञान की दृढ़ता के लिए
शास्त्रीय पौरुष की प्रशंसा।
नित्यमुक्तस्वभाव
आत्मा का अज्ञानरूप आवरण ही बन्धन है और ज्ञान से उसका विनाश ही मुक्ति है। जैसे
यह चित्रलिखित बाघ है, सचमुच नहीं है, ऐसा ज्ञान हो जाने पर बाघ का डर नहीं रहता
प्रत्युत उसे देखने में आनन्द ही आता है, वैसे ही अज्ञान के नष्ट हो जाने पर यह
दृश्यमान व्यवहार कौतूहल का ही कारण होता है, अनर्थ का हेतु नहीं होता, इसलिए
जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति में कोई अन्तर नहीं है, इस प्रकार पूर्व शंका का
समाधान करके प्रस्तुत आत्मतत्त्व का विस्तार से उपदेश देने के लिए पहले मूल की
दृढ़ता के लिए पुरुषार्थ का समर्थन करते हैं।
वसिष्ठजी ने
कहाः हे सौम्य, जैसे समुद्र में जलकी निश्चलावस्था में और तरंगित दशा में जलत्व
एक-सा ही है, उसमें किसी प्रकार का अन्तर नहीं है वैसे ही विदेहमुक्त और
जीवन्मुक्त मुनि की स्वस्वरूप में अवस्थिति तुल्य ही हैं।।1।।
मुक्ति चाहे
सदेह हो अथवा विदेह हो, वह विषयाधीन तो कदापि नहीं है। यदि मुक्ति स्वर्ग आदि के
समान विषयाधीन होगी, तो वह भी उसी प्रकार विषयों के वैषम्य से अवश्य विषम होगी। यह
भाव है। यदि कोई कहे कि फिर भी उक्त दोनों मुक्तियों में भोक्तृत्व और अभोक्तृत्व
से जनित अन्तर तो है ही, क्योंकि सदेह मुक्ति में देहस्थिति भोग के लिए ही है, इस
पर कहते हैं।
जिसने
सत्यत्वबुद्धि से भोगों का आस्वादन ही नहीं किया, उसमें भोग्य की अनुमति कहाँ से
होगी अर्थात् भोगों में सत्यत्वबुद्धि से भोक्तृत्व के अभिमान से भोग का आस्वादन
करने पर भोगकृत अन्तर होगा, किन्तु असंग उदासीन आत्मैकत्वदर्शी में उक्त अभिमान ही
नहीं है।।2।।
तब ये सन्देह
कैसे हैं, इस पर कहते हैं।
जीवनमुक्त
मुनिश्रेष्ठ श्रीवेदव्यासजी को सदेह के सदृश केवल हम अपनी कल्पना से सामने देखते
हैं, इन्हें अपने विदेहत्वनिश्चय के प्रति किसी प्रकार का विघ्न नहीं है। आशय यह
कि यद्यपि हम लोग अपनी कल्पना से इन्हें सदेह-सा देखते हैं तथापि ये अपने निश्चय
से विदेह ही हैं, अतएव अपने अनुभव से इनमें कोई अन्तर नहीं है। ज्ञानरूपी (चिन्मय)
सदेहमुक्त (जीवन्मुक्त) और विदेहमुक्त में क्या भेद है ? अर्थात् अज्ञान ही भेदक
है, उसके नष्ट होने पर केवल ज्ञान के अवशिष्ट रहने पर भेदक कौन है ? कोई नहीं। जल
की तरंगावस्था में जो जल है, वही सौम्यावस्था में (निश्चलावस्था में) भी है, उसमें
कोई अन्तर नहीं है।।3,4।।
जल में कदाचित
अस्वच्छता, मलिनता आदि से जनित अन्तर भी हो सकता है, ऐसी शंका से दूसरे दृष्टान्त
द्वारा उक्त अर्थ का समर्थन करते हैं।
सदेह और विदेह
मुक्ति में तनिक भी भेद नहीं है जैसे कि वेगवान् और वेगरहित वायु वायु ही है उसमें
कुछ भी अन्तर नहीं है(▀)।।5।।
▀ इस
श्लोक में अनन्तर कुछ पुस्तकों में - 'मयोक्तं केवलीभावं तत्तत्स्मरणजीवनम्।
सदेहस्य विदेहस्य समतैव सदा शिवा।।' यह श्लोक अधिक है। इसका यह अर्थ है – यदि कोई
कहे कि वेगवान वायु शीतल, वृक्ष, लहर आदि के कम्पका (चंचलता का) हेतु है और त्वचा
इन्द्रिय से जाना जाता है और वेगरहित वायु उससे विपरीत है, इस प्रकार उन दोनों में
भेद है ही, इसलिए भेदशून्य सदेह और विदेह मुक्ति में सस्पन्द और निःस्पन्द वायु का
दृष्टान्त कैसे देते हैं ? उस पर कहते हैं। और विदेह मुक्ति में सस्पन्द और
निःस्पन्द वायु का दृष्टान्त कैसे देते हैं ? उस पर कहते हैं।
सदेहमुक्ति,
विदेहमुक्ति, बन्धन, मुक्ति आदि व्यवहार भी कल्पना से ही होते हैं परमार्थ दृष्टि
से नहीं होते – ऐसा कहते हैं।
हमारी और श्री
व्यासजी की दृष्टि में सदेहमुक्ति अथवा विदेहमुक्ति परमार्थ वस्तु नहीं है, किन्तु
द्वैतशून्य आत्मैक्य ही परमार्थ वस्तु है। उसकी प्राप्तिरूप ज्ञान-फल में कोई भेद
नहीं है, इसलिए ज्ञान में अनित्यफलतारूप दोष की आशंका का अवसर ही नहीं है, ज्ञान
का उदय होने पर देहपात की आपत्ति भी नहीं हो सकती, क्योंकि विरोधी अंश का ही ज्ञान
से बाध होता है, प्रारब्ध कर्म का फल होने से देहधारण प्रारब्धकर्म-फल ज्ञान के
सदृश है और ज्ञान का उपजीव्य है, इसलिए देहधारण का ज्ञान के साथ किसी प्रकार का
विरोध नहीं है, जैसे उपादानभूत निद्रा का नाश होने पर भी स्वप्न के संस्कारों की
कुछ का तक अनुवृत्ति देखी जाती है, वैसे ही अज्ञान का ज्ञान से विनाश होने पर जब
तक प्रारब्ध कर्म रहता है तब तक देह आदि की स्थिति उपपन्न होती है, यह भाव है।।6।।
हे रामचन्द्र,
आप सर्वत्र तत्-तत् द्रष्टान्तों के स्मरण का विवक्षित सारभूत अंश वस्तु की स्वरूप
से अप्रच्युति हैं, ऐसा जानो, अविवक्षित कार्यभेदकृत विलक्षणता की कल्पना मत करो
और कानों को अति प्रिय लगने वाले, अज्ञानरूपी अन्धकार का विनाश करने वाले, जिस
उत्तम ज्ञान का मैं उपदेश दे रहा हूँ, उक्त प्रस्तुत ज्ञान को ही तुम सुनो।।7।।
भाव यह कि उक्त
दृष्टान्त एक अंश में है, सब अंशों में नहीं। यहाँ पर सदेहमुक्ति की और विदेहमुक्ति
की एकता उपमेय है, उनके सादृश्य के लिए कथित सस्पन्द और निःस्पन्द वायु की एकता
उपमान है उसका विवक्षित सारभूत अंश उपमेय के सादृश्य को उल्लसित करने वाला केवली
भाव है, परिस्पन्द के त्याग से केवल एक अंश से – ऐक्यसादृश्यरूप से – उपमेयको उपमा
का विषय समझो। ऐसी अवस्था में सदेहमुक्त और विदेहमुक्त की सदा कल्याणकारिणी समता
ही है। इस प्रकार अवान्तर सन्देह के निवृत्त होने पर प्रस्तुत कथा का अवसर दर्शाते
हैं। श्री शुकदेव आदि शम, दम आदि साधनों से परिपूर्ण थे, अतएव उन्हें श्रवण का फल
ज्ञान तदुपरान्त विदेहमुक्ति प्राप्त हुई, आधुनिक पुरुष उक्त साधनों का सम्पादन
करने में समर्थ नहीं है, अतः उन्हें श्रवण का फल कैसे प्राप्त होगा ? ऐसी शंका
होने पर संसार में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है जो पुरुष के प्रयत्न से साध्य न हो, यह
कहते हैं।
हे रघुनन्दन, इस
संसार में भली भाँति निरन्तर किये गये प्रयत्न से सबको सदा सब पदार्थ मिल सकते
हैं। जहाँ कहीं प्रयत्न में विफलता देखी जाती है, वहाँ पर निरन्तर प्रयत्न का अभाव
ही कारण है। शास्त्रविहित शारीरिक, वाचिक और मानसिक कर्मों से होने वाली
चित्तशुद्धि द्वारा जायमान ज्ञान की प्राप्ति होने पर हृदय में, चन्द्रमा के समान,
काम, क्रोध आदि सन्ताप से शून्य जीवन्मुक्तिसुखमुद्रा उदित होती है। श्रुति भी
कहती है-'स एको ब्रह्मणः आनन्दः। श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य।' (कामनाशून्य ब्रह्म
विद्वरिष्ठ का आनन्द और ब्रह्म का आनन्द एक ही है) और स्मृति भी है - 'यच्च
कामसुखं लोके' (लोक में जो वैषयिक सुख है और जो महान् स्वर्गीय सुख है, वे दोनों
तृष्णाक्षय से उत्पन्न परमानन्द की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं होते) उक्त
सम्पूर्ण सुख पुरुषप्रयत्न से ही प्राप्त हो सकता है, अन्य से (दैव आदि से) नहीं,
इसलिए पुरुष को प्रयत्न पर ही निर्भर रहना चाहिए।।8,9।।
भाग्य के
प्रतिकूल होने पर पुरुषप्रयत्न व्यर्थ देखा जाता है और 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि'
ऐसा लोकप्रवाद भी है, अतः पुरुषप्रयत्न से फल की आशा करना दुराशा ही है, ऐसी शंका
कर दैव का (भाग्य का) पौरुष में अन्तर्भाव और दुर्बलत्व के अभिप्राय से उसका खण्डन
करते हैं।
क्रिया द्वारा
दूसरे देश में पहुँचाता हुआ और तृप्ति कराता हुआ, गमन, भोजन आदि पुरुषप्रयत्न
प्रत्यक्षतः क्रियारूप फलवाला देखा गया है। दैव को प्रत्यक्षतः किसी ने नहीं देखा।
वस्तुतः वह कुछ है ही नहीं, अज्ञानमोहित मूढ़ पुरुषों की वह कोरी कपोलकल्पनामात्र
है।।10।।
वह पौरुष
(पुरुषप्रयत्न) क्या है, जिसकी आप इतनी बड़ी प्रशंसा करते हैं ? इस प्रश्न पर कहते हैं।
शास्त्रज्ञ
सज्जन पुरुषों द्वारा उपदिष्ट रीति से जो मानसिक, वाचिक और कायिक चेष्टा की जाती
है, वही पौरुष है, वह सफल है, उससे भिन्न जो मन, वचन और शरीर की चेष्टा है वह
उन्मत्त की चेष्टा है।।11।। जो मनुष्य जिस पदार्थ की अभिलाषा करता है, उसकी
प्राप्ति के लिए भी यत्न करता है। यदि बीच में ही उसका त्याग न कर दे, तो वह
क्रमशः उसको अवश्य प्राप्त करता है।।12।।
मूल में
'क्रमात्' पद कहीं पर विघ्नों द्वारा कार्य का विघात शास्त्रोक्त क्रम का त्याग
करने से ही होता है, यह सूचित करने के लिए है। भाव यह कि सांगोपांग कर्म करने से
अवश्य फलप्राप्ति होती है।
उक्त नियम को ही
विविध दृष्टान्तों से दृढ़ करते हैं।
कोई एक प्राणी
ही पुरुषप्रयत्न से तीनों लोकों के महा ऐश्वर्य से अतिरमणीय इन्द्रपदवी को प्राप्त
हुआ है। कोई चिदुल्ला (चित् उत्कर्ष से उत्कृष्ट) (╬)
प्राणी ही पौरुष प्रयत्न से कमलासन में स्थित होकर ब्रह्मा के पद को प्राप्त हुआ
है।
╬
सत्वगुण की उत्कृष्टता से चैतन्य का उत्कर्ष होता है। ब्रह्माजी का सत्त्वगुण
अन्यों की अपेक्षा उत्कृष्ट है, इसी कारण उनमें तन्मूलक चैतन्य भी सर्वोत्कृष्ट
है। ब्रह्मा भी पूर्वकल्प में सामान्य जीव थे, तपस्या के बल से वे इस कल्प में
ब्रह्मा हुए हैं।
सारभूत अपने
पुरुषार्थ से ही कोई पुरुष गरूड़ध्वज होकर पुरुषोत्तमता को प्राप्त हुआ है। अपने
पुरुषार्थ से ही, कोई देही, अर्धनारीश्वर बनकर चन्द्रशेखरता को प्राप्त हुआ है।
पौरुष दो प्रकार का है, एक पूर्वजन्म का और दूसरा इस जन्म का। आधुनिक पुरुषार्थ
द्वारा पूर्व जन्म का पुरुषार्थ शीघ्र तिरस्कार को प्राप्त होता है।।13-17।।
आधुनिक अल्प
पुरुषार्थ अनेक करोड़ कल्पों से उपार्जित अनन्त प्राक्तन कर्मों पर विजय कैसे
प्राप्त करता है ? इस पर कहते हैं।
निरन्तर प्रयत्न
करने वाले, दृढ़ अभ्यासवाले एवं प्रज्ञा और उत्साह से युक्त पुरुष प्रलय में
अधिकार रखने वाले देवताओं की पदवी को प्राप्त होकर महान् मेरू पर्वत तक को निगल
जाते हैं, मटियामेट कर डालते हैं, प्राक्तन (पूर्व जन्म के) पौरुष की तो बात ही
क्या है ? भाव यह कि यद्यपि प्राक्तन कर्म अनन्त हैं, फिर भी उनका मूल एक ही है
उनके मूल का नाश करने से उन पर बड़ी आसानी से विजय प्राप्त की जा सकती है। श्रुति
आदि से नियन्त्रित (श्रुत्यनुसारी) पुरुषार्थ का ही अवश्य सम्पादन करने वाली पुरुष
की जो निरन्तर उद्योगशीलता है, वही अभीष्ट सिद्धि देने वाली होती है। शास्त्रविधि
के प्रतिकूल पुरुषार्थ का उपार्जन करने वाली पुरुष की उद्योगशीलता अनर्थकारिणी
होती है।।18,19।।
महाधनी, प्रबल
और महामति लोगों को प्राप्त होने वाला पौरुष निर्धन, निर्बल और अल्पबुद्धिवाले
लोगों को कैसे प्राप्त होगा ? ऐसी शंका पर उनको भी स्वशक्ति के अनुरूप निरन्तर
पौरुष से इस जन्म में या जन्मान्तर में विपुल धन आदि सम्पत्ति से उक्त पौरुष
शास्त्रीय प्रयत्न और शास्त्रीय प्रयत्न में ढिलाई करना-इन दोनों के फल में बड़ा
अन्तर दिखलाते हैं।
पुरुष जब
शास्त्रीय यत्न को शिथिल करता है, तब स्वाभाविक रागादि दोषों से असन्मार्ग में
आसक्ति होने के कारण दारिद्रय, रोग, बन्धन आदि दुर्दशा में, जबकि अपने हाथ आदि भी
अपने काबू में नहीं रहते, अंगुलियों को खूब तोड़ मरोड़कर बनाये गये चुल्लु के
चुल्लूभर जल से मुँह में पड़े हुए एक बूँद जल को भी दुर्लभ होने के कारण अधिक
समझता है, वही जब शास्त्रीय प्रयत्न में दृढ़ रहता है, तब धर्म के उत्कर्ष से
प्रियव्रत महाराज के समान सात द्वीपों की एक छत्र आधिपत्य दशा में अवश्य पोषणीय
पुत्र आदि के लिए यथायोग्य दायभाग का विभाग करने में समुद्र, पर्वत, नगर और
द्वीपों से व्याप्त विशाल पृथ्वी को भी अधिक नहीं समझता।।20।।
चौथा वर्ग
समाप्त
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