पचीसवाँ सर्ग
कर्म और कर्मफलरूप दूसरे काल के अदभुत नृत्यों का वर्णन।
इस प्रकार महाकाल का राजपुत्र के रूपक द्वारा वर्णन कर उसके
उपाधिभूत कर्मरूप काल का, उसके मनोविनोद के लिए, दो प्रकार के नर्तकरूप से कल्पना
कर वर्णन करते हैं।
श्रीरामचन्द्रजी ने कहाः मुनिवर, इस संसार में दुश्चरित्रों के
शिरोमणि पूर्वोक्त महाकाल से अन्य एक दूसरा काल है, अन्य काल होने पर भी यह
पूर्वोक्त काल का अवस्थाभेद है, उसका यहाँ पर वर्णन किया जाता है। वह इस लोक में
प्राणियों की सृष्टि और संहार करता है, लोग उसे दैव (भाग्य) और काल भी कहते
हैं।।1।।
सूचीकटाह न्याय से पहले दूसरे का वर्णन करते हैं।
मुनिश्रेष्ठ, स्वकर्मरूपी जिसका फलसिद्धि से अतिरिक्त न कोई
दूसरा रूप देखा जाता है, न कर्म देखा जाता है और न कोई अभिलाषा देखी जाती है, उसी
ने, जैसे सूर्य का प्रखर ताप बरफ को पिघला कर नष्ट कर देता है, वैसे ही सुकुमार इन
सम्पूर्ण प्राणियों को सर्वथा नष्ट कर दिया है। भाव यह है कि सभी अनर्थों की जड़
अपना कर्म ही है। जो यह विस्तीर्ण संसाररूपी मण्डल दिखाई दे रहा है, वह उस काल की
नृत्यशाला है, वह इसमें खूब जी भर कर नृत्य करता है।।2-4।।
उक्त दो कालों में से प्रथम केवल शास्त्र से ही जाना जा सकता
है, उस पर विश्वास दृढ़ करने के लिए उसका विस्तार से वर्णन करते है।
यह दैव पूर्वोक्त महाकाल की अपेक्षा तीसरा है। यह बड़ा उन्मत्त है, कृतान्त इस
अतिभीषण नाम को धारण कर नरमुण्डधारी वेष में संसार में नृत्य करता है। मुनिजी, इस
संसार में नृत्य कर रहे इस कृतान्त का नियतिरूप प्रिय भार्या में अत्यन्त अनुराग
है।।5।। किये हुए कर्मों के फल की अवश्यम्भावितारूप नियम में बड़ा अनुराग है। यह
किये हुए कर्मों का फल(☻) अवश्य देता है, यह भाव है।।6।।
☻दैव प्राणियों को शुभ-अशुभ कर्म का फल
देने वाला अर्थात् फलोन्मुख भाग्य और काल-जो अवश्य फल को उत्पन्न करता है अर्थात्
क्रियावस्था काल। यों एक ही काल का उत्तरावस्था और पूर्वावस्था के भेद से दो
प्रकारों से वर्णन किया गया है।
चन्द्रमा की कला के समान सफेद शेषनाग और तीन धाराओं में विभक्त
गंगा का प्रवाह ये दोनों उसके संसाररूपी वक्षस्थल में उपवीत और अवीत यज्ञोपवीतरूप
(●) में विद्यमान है।
● गंगा की एक धारा स्वर्ग में बहती है,
दूसरी पृथ्वी में और तीसरी पाताल में। ये तीन धाराएँ काल के गले में उपवीत
यज्ञसूत्र के सदृश प्रतीत होती हैं। बाये कन्धे में स्थित यज्ञोपवित को उपवित कहते
हैं और दक्षिण स्कन्ध में स्थित यज्ञोपवित को अवीत कहते हैं। शेषनाग उसका अवीतरूप
में स्थित यज्ञसूत्र है।
सूर्यमण्डल और चन्द्रमण्डल उसके हस्ताभरण हैं और सुमेरू पर्वत
उसके हाथ में स्थित लीलाकमल है। प्रलयकाल के सागर में धोया गया असीम आकाश उसका
एकमात्र वस्त्र है। वह तारारूपी चित्र-विचित्र बिन्दुओं से व्याप्त है और प्रलय के
पुष्कर और आवर्त नाम के मेघ उसके चंचल छोर हैं। इस प्रकार के कृतान्तरूप काल के
सामने उसकी भार्या नियति आलस्यरहित होकर लगातार प्राणियों के समुचित भोगानुरूप
कार्यारम्भ द्वारा नाचती है। नियति की क्रियाशक्ति कभी क्षीण नहीं होती और नृत्य
करने के कारण उसके अंग प्रत्यंग सदा चंचल रहते हैं। उसका नाच देखने वाले प्राणियों
के जन्म और नाश से चंचल जगत-मण्डलरूपी कोठरी में नाच रही उस नियति के अंगों में
देवलोक सहित अन्य लोकों की पंक्ति सुन्दर भूषण हैं और पातालपर्यन्त आकाश उसका
लम्बमान बड़ा भारी केशों का जूड़ा है। प्राणियों के रोदन के कोलाहल से गुलजार और
नरक की अग्नियों से दैदीप्यमान नरकों की पंक्ति उसके पातालरूप चरण में स्थित
मंजीरमाला पाजेब है और वह पाप रूपी तागे से पिरोई गई है।।7-13।। चित्रगुप्त
प्राणियों के कर्मरूपी सुगन्ध को प्रकट करता है, अतः वह कस्तूरीस्वरूप है। उक्त
कस्तूरीभूत चित्रगुप्त से क्रियारूपी सखी द्वारा उसके यमरूप कपाल में सुन्दर तिलक
बनाया गया है। भाव यह है कि यम इस नियति का ललाट(▪) है और चित्रगुप्त उसमें स्थित कस्तूरी
तिलक है, उसे क्रियारूपी सखी ने तैयार किया है।
▪ यहाँ पर काल के ललाट और पैर इन आदि और
अन्त अंगों की भूषणकल्पना का ही वर्णन किया गया है, इसी से उसके शरीर के अन्य
अवयवों की भूषणकल्पना का भी यथायोग्य स्वयं अनुमान कर लेना चाहिए।
प्रलयकाल में काल की प्रिय पत्नी यह नियतिदेवी अपने पति काल के
इंगितपूर्ण मुख के अभिप्राय को जानकर बड़ी चंचलता के साथ फिर नाचना आरम्भ कर देती
है। इसके नाचने में चट्टानों के टूटने का सा घोर शब्द होता है। वह नियतिदेवी
महाप्रलयों में नाचने के समय पृष्ठ भाग में गले से सीधी लटक रही माला में चंचल
कार्तिकेय के वाहनरूप मृत मयूरों से शोभित होती है। लम्बमान चंचल जटाओं में
चन्द्रमा से लांछित महादेव जी के मुण्डों से, जो तीन नेत्रों के बड़े बड़े छिद्रों
से निकल रहे विपुल भाँय-भाँय शब्द से भयंकर प्रतीत होते हैं, विकसित मन्दार के
पुष्पों से शोभित श्रीपार्वती जी के केशरूपी चँवरों से, ताण्डव के समय पर्वताकार
हुए संहारभैरव के उदररूपी तुम्बों से और एक हजार सात छेदों(‡) से युक्त इन्द्र की देहरूपी भिक्षापात्रों
से (खप्परों से) जो नाचने के समय खनखन शब्द करते हैं, बड़ी शोभित होती है।
‡ अन्य देहियों के शरीरों में नौ छिद्र
प्रसिद्ध हैं, परन्तु इन्द्र सहस्रक्ष (हजार नेत्र वाले) हैं। उनके शरीर में एक
हजार छिद्र तो नेत्रों के हैं तथा सात छिद्र और हैं, इस प्रकार नौ छिद्र वाले
प्रसिद्ध अन्य शरीरों से एक हजार सात छिद्र वाला इन्द्र का शरीर विलक्षण है।
सबका संहार करने वाली यह नियति देवी सूखे हुए नर-कंकालरूपी
खट्वांगों से (पाटियों से) आकाशमण्डल को पूर्णकर अपने को आप ही भयभीत करती है।
नाचने के समय हिल रही जीवों के भाँति भाँति के मस्तक रूपी सुन्दर कमलों की माला से
इसकी शोभा की सीमा नहीं रहती। प्रलय के समय नियति देवी के उद्धत प्रलयकाल के
मेघरूपी डमरू के भीषण शब्दों से तुम्बुरु आदि गन्धर्व भागते हैं।।14-21।।
नियति देवी के नृत्य और नृत्य की सामग्री का वर्णन कर उसके पति
के भी नृत्य का वर्णन करते हुए उसके भूषणों को कहते हैं।
पूर्वोक्त नृत्यशाला के अन्दर नियति देवी का पति कृतान्त नृत्य
करता है। कुण्डलभूत चन्द्रमण्डल से वह अति शोभित होता है और उसके केश तारे और
चाँदनी से मनोहर आकाशरूपी पिच्छ से (मोरपंख से) अलंकृत है। उसके दाहिने कान में
हिमालयरूपी हड्डी का बना अँगूठी के आकार का चमकदार कुण्डल है और बाँए कान में
महान् सुमेरु पर्वत ही सोने का सुन्दर कुण्डल है। उसके चन्द्रमा और सूर्य ही उक्त
दोनों ही कानों में गालों की शोभा को बढ़ाने वाले चंचल कुण्डल हैं। लोकालोकाचल
पर्वत की श्रेणी उसकी कमर के चारों ओर लगी हुई मेखला (करधनी) है। बिजली उसके हाथ
का गोलाकार कंकण है और वह नृत्य के समय कभी इधर कभी उधर सरकता है। मेघ ही उसके
रंग-बिरंग के वस्त्रों से टुकड़ों से बनी हुई कन्था है और वह वायु से सदा
हिलती-डुलती हुई शोभित होती है। इसके गले में मुसल, पट्टिश, प्रास, शूल, तोमर और
मुदगरों से बनी हुई माला शोभा पा रही है, वे मूसल आदि ऐसे तीक्ष्ण हैं कि मानों
पूर्व-पूर्व की जितनी सृष्टियाँ नष्ट हुई थी, उनसे निकले हुए मृत्यु ही इकट्ठे हो
गये हों। यह माला शेषनाग के शरीररूपी महारस्सी से बँधे हुए, पूर्वोक्त राजपुत्ररूप
काल के हाथ से गिरे हुए और जन्म-मरणशील जीवरूपी मृगों के बन्धन के लिए बिछाए गये
जाल में गुँथी हुई है। सात समुद्रों की श्रेणी ही इसके बाहुओं के कंकण हैं, वे
रत्नों की कान्ति से खूब चमकते हैं और सजीव मछलियाँ उनमें विद्यमान हैं।।22-28।।
अन्य लोगों के कंकणों में निर्जीव मछलियों की आकृति बनाई जाती
है, पर इसके कंकणरूपी समुद्रों में सजीव मछलियाँ विद्यमान हैं, यह भाव है।
शास्त्रीय और स्वाभाविक आवर्त से (भँवर से) युक्त, रजोगुण
पूर्ण तमोगुण से काली सुख-दुःखपरपम्परा उसकी रोमावली के रूप में विराजमान हैं। इस
प्रकार का वह कृतान्त प्रलय काल में ताण्डव को उत्पन्न करने वाली नृत्येच्छा
(नाचने की इच्छा) का परित्याग करता है, अर्थात् उक्त नृत्यचेष्टा से विरत होकर
चिरकाल तक विश्राम करता है। तदनन्तर ब्रह्मा आदि के साथ भूतों की फिर सृष्टि कर
पुनः नृत्यलीला का विस्तार करता है। उसकी उक्त नृत्यलीला अंग-प्रत्यंग के अभिनय से
पूर्ण है और वृद्धता, शोक, दुःख और तिरस्कार उसके आभूषण हैं। जैसे बालक गीली
मिट्टी को लेकर नाना प्रकार के खिलौने आदि बनाता है और थोड़ी देर में उन्हें
नष्ट-भ्रष्ट कर देता है, वैसे ही काल भी आलस्य रहित होकर चौदह भुवन, विविध देश, वन
और असंख्य तथा विविध जीव और उनके सुन्दर श्रौतस्मातार्दिरूप आचार-विचारों की
सृष्टि कर फिर उन्हें नष्ट कर देता है उक्त आचार-विचार सत्ययुग और त्रेतायुग में
निश्चल रहते हैं तथा कलियुग और द्वापरयुग में चल हैं।।21-32।।
पचीसवाँ सर्ग समाप्त
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ