मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

तुम लगे रहो........ पूज्य बापू जी



समत्व योग बड़ा महत्त्वपूर्ण योग है। इस योग को समझने के लिए, इसमें प्रवेश करने के लिए धारणा, ध्यान, समाधि करो। समाधि करना अच्छा है, ध्यान करना अच्छा है, जप करना अच्छा है, सेवा करना अच्छा है लेकिन इन सबका फल यह है कि तुम विदेही की नाईं शोभा पा लो।

एक महात्मा बड़े सूक्ष्म विषय पर प्रवचन करते थे। वेदांत की गूढ़ बातें साधकों को समझाते थे। एक भक्त खोमचा लेकर साधकों की ग्राहकी भी कर लेता था और महात्मा का प्रवचन भी सुन लेता था। भक्त और साधक जब सत्संग सुनते थे तो वह भी सत्संग में एकतान हो जाता। कई महीने सत्संग सुनने के बाद एक बार वह बाबाजी के चरणों में दंडवत प्रणाम करके कहता हैः "गुरु महाराज ! मैंने वेदान्त को सुन लिया, समझ लिया कि यह (संसार) सरकने वाली चीज है। अन्वय(संबंध) और व्यतिरेक(असमानता) का सिद्धान्त मैंने जान लिया। जाग्रत का व्यतिरेक स्वप्न में हो जाता है, स्वप्न का व्यतिरेक सुषुप्ति में हो जाता है लेकिन आत्मा का तीनों अवस्थाओं में अन्वय है। दुःख है, दुःख आया तो सुख गायब का हो गया। सुख आया तो दुःख गायब हो गया। चिंता आयी तो आनंद गायब हो गया, हर्ष गायब हो गया और हर्ष आया तो चिंता गायब हो गयी किंतु इनमें आत्मा ज्यों का तयों है। यह मैं जान तो गया। बचपन आया, चला गया लेकिन बचपन का द्रष्टा रहा। जवानी आयी, चली गयी लेकिन उसको देखने वाला रहा। बुढ़ापा आया, मौत आयी परंतु मौत के बाद भी मैं रहता हूँ। मर जाने के बाद भी सुखी रहूँ – ऐसा भाव हम लोगों का होता है। यह बात आपकी मैंने गुरु महाराज ! अच्छी तरह से समझ ली, लेकिन आत्मा की मुक्तता का अनुभव मुझे नहीं हो रहा है। आत्मा मुक्त है, शरीर संसारी है। शरीर की संसार के साथ और आत्मा की परमात्मा के साथ एकता अनुभव करने की आप श्री की तरफ से जो वाणी थी, वह वाणी मैं समझ तो गया किंतु गुरु महाराज ! हे कृपानाथ ! हे प्राणिमात्र के परम मित्र, परम हितैषी गुरुवर ! मैं तो एक छोटा-सा धंधेवाला दिख रहा हूँ, खोमचे वाला, चना बेचने वाला। आपके वचन समझ तो गया हूँ लेकिन आत्मा का आनंद प्रकट नहीं हुआ।"

बाबा जी ने कहाः "कोई प्रतिबंधक प्रारब्ध, रूकावट का कोई प्रारब्ध होगा, इसीलिए तुम समझ गये फिर भी आनंद प्रकट नहीं होता है। तुम लगे रहना।"

गर्मियों के दिन थे, धूप तड़ाके की थी, लू चल रही थी। एक मोची उस गर्मी में, लू में नंगे पैर, नंगे सिर कष्ट का शिकार होता हुआ लथड़ता-लथड़ता आकर एक पेड़ के करीब बेहोश होकर गिरा। खोमचे वाले ने देखा कि गर्मी के मारे इसके प्राण सूख रहे हैं, कंठ सूख गया है। उसने उसके सिर पर हलकी-सी तेल की मालिश की। शर्बत बना कर उसके मुँह में थोड़ा-थोड़ा डाला। फिर चने वने खिलाकर उसको जरा तसल्ली दी। वह आदमी उठ खड़ा हुआ। जब वह जाने लगा तो धन्यवाद से, कृतज्ञता से उसकी आँखें भर गयीं। बार-बार उसकी आँखों से कुछ टपक रहा है। कुछ आशीर्वाद का भाव टपक रहा है। वह मोची तो चला गया लेकिन मोची के द्वारा वह अंतर्यामी परमात्मा इस पर बरस पड़ा। इसके हृदय में वह आनंद छलकने लगा। 'मोची के वेश में, खोमचेवाले के वेश में, श्रोताओं के वेश में, धनवान के वेश में और निर्धन के वेश में यह जो दिख रहा है, वह उसकी माया है लेकिन इसको जो चला रहा है वह महेश्वर है। वह सच्चिदानंद सोऽहम् है। वही मैं हूँ।' – ऐसा बोध प्रकट होने लगा। चित्त में बड़ी शांति, बड़ी निर्मलता, बड़ी आध्यात्मिक पूँजी प्रकट होने लगी। गुरु जी के पास गया। प्रणाम करके अपनी स्थिति का वर्णन करने लगा कि थोड़ी-सी सेवा करने से यह आत्मानंद प्रकट हुआ है।

बाबा ने कहा कि "निष्काम भाव से किये हुए कर्म अंतःकरण को शुद्ध करते हैं और शुद्ध हृदय में अपना मुख दिखता है। जैसे साफ आईने में अपना चेहरा दिखता है, ऐसे ही शुद्ध हृदय में अपने स्वरूप का बोध होता है। तेरा प्रतिबंधक प्रारब्ध हट गया।"

घटना घट जाय तो घड़ी भर में काम हो जात है। लगे रहें, कोई-न-कोई ऐसी घड़ी आती है जब सुने हुए उस तत्त्वज्ञान का, उसकी गरिमा का हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ॐ... ॐ..... ॐ.....

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 225

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बुधवार, 28 सितंबर 2011

मोटर कार की चार अवस्थाएँ...


मोटर कार की चार अवस्थाएँ होती हैं-

पहली अवस्थाः गाड़ी पड़ी है गैरेज मे, साफ-सुथरी, ज्यों-की-त्यों। गाड़ी भी शांत, पहिए भी स्थिर और इंजिन भी चुप। पड़ी हुई गाड़ी को जंग लग रहा है, समय बरबाद हो रहा है।

दूसरी अवस्थाः इंजिन को चालू किय लेकिन गाड़ी को गियर में नहीं डाला। अभी वह गैरेज में ही है। गति नहीं करती। पहिये घूमते नहीं। केवल इंजिन चल रहा है। पेट्रोल जल रहा है बेकार में। कुछ कार्य सिद्ध नहीं हो रहा है।

तीसरी अवस्थाः गाड़ी का गियर घुमाया, गाड़ी गैरेज से बाहर आयी और सड़क पर भाग रही है। इंजिन भी चल रहा है, पहिये भी घूम रहे हैं, गाड़ी भी दौड़ रही है, पेट्रोल भी जल रहा है। मशीन चल-चलकर जीर्ण हो रही है।

चौथी अवस्थाः रास्ते में लम्बी ढलान आयी। चतुर ड्राइवर न गियर 'न्यूट्रल' कर दिया, इंजिन बन्द कर दिय फिर भी गाड़ी आगे भाग रही है, मंजिल तय कर रही है, इंजिन की कोई आवाज नहीं, पेट्रोल का खर्च नहीं। मधुर यात्रा हो रही है।

ऐसे ही अन्तःकरणरूपी गाड़ी की चार अवस्थाएँ हैं-

पहली अवस्थाः कुछ जीव अन्तःकरण की घनीभूत सुषुप्त अवस्था में जी रहे हैं, जैसे कि वृक्ष, पाषाण आदि। कोई कामना नहीं, कोई संकल्प नहीं फिर भी दुःख भोग रहे हैं बेचारे। पड़े-पड़े तप रहे हैं।

दूसरी अवस्थाः कुछ लोग ऐसे होते हैं कि संकल्प-पर-संकल्प, विकल्प-पर-विकल्प करते रहते हैं, पलायनवादी होते हैं। चाहिए तो बढ़िया खाने को, बढ़िया पहनने को, बढ़िय रहने को लेकिन कर्म नहीं करते। भीतर संकल्प-विकल्प का इंजिन धमाधम चलता रहता है लेकिन पहिये घूमते नहीं, हाथ-पैर उचित दिशा में उचित समय पर चलते नहीं। पड़े हैं आलसी-पलायनवादी होकर।

तीसरी अवस्थाः कुछ लोग जैसे संकल्प और कामनाएँ होती हैं, वैसे कर्म करते हैं। उनका आयुष्यरूपी पेट्रोल जल रहा है, शक्ति खर्च हो रही है, जीवनरूपी गाड़ी घिस रही है।

चौथी अवस्थाः कोई कोई विरले ज्ञानीजन होते हैं जिनके भीतर काम और संकल्प निवृत्त हो चुके हैं। प्रारब्ध वेग के ढलान में जीवन की गाड़ी मधुरता से सरक रही है। बड़े मजे से यात्रा हो रही है।

ज्ञानी में कोई कामना और संकल्प नहीं होता इसलिए कार्यों का बोझ उनको नहीं लगता। उनके द्वारा बड़े-बड़े कार्य संपन्न होते रहते है, फिर भी वे निर्लेप नारायण। अपने सहज स्वाभाविक आत्मानन्द में मस्त। संसारीजन की एकाध दुकान भी होती है तो दिवाली के समय सिर पर हाथ देकर चिन्ता करने लगता है, बोझे से दब जाता है।

जो लोग कामना से आक्रान्त हैं, उनको बड़ी परेशानी होती है। रावण का अधःपतन क्यों हुआ ? कामना से आक्रान्त होकर सीताजी को ले गया। देवता लोग जिसके यहाँ चाकर की नाईं सेवा करें, ऐसे बलवान् रावण का अधःपतन कामना ने कराया।

हनुमानजी जब बन्धन में बँधकर लंकेश के सामने खड़े हुए, तब लंकेश ने पूछाः

"तुम कौन हो ?"

"रामजी का दूत हूँ।"

"सागर पार करके कैसा आया ?"

"गोपद की तरह उसे लाँघकर।"

"मेरे पुत्र को मार डाला ?"

"ऐसे ही भून डाला। मारने की मेहनत नहीं करनी पड़ी।"

"इतना वीर होकर भी तू बँधा कैसे ?"

"मैं अखण्ड बाल ब्रह्मचारी हूँ। अशोक वाटिका में उन राक्षसियों पर अनजाने में दृष्टि पड़ गई, इसलिए बँध गया। मेरी तो अनजाने में नारियों पर दृष्टि पड़ी और मैं फँस गया और तू कामना से प्रेरित होकर जान-बूझकर सीता जी को उठा लाया है तो तेरा क्या हाल होगा यह भी तो जरा पूछ ले ! चाहे तो मैं अकेला तुझे चूर्ण कर सकता हूँ, लेकिन रामजी ने मेरे स्वामी ने कहा है कि पता लगाकर आओ, इसलिए मैं पता लगाने को ही आया हूँ।"

"श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण" में मुनिशार्दूल वशिष्ठजी कहते हैं- "हे रामजी ! ऐसा कौन सा दुःख है जो कामना वाले को नहीं भोगना पड़ता ? ऐसा दुःख नर्क में भी नही है जैसा कामना वाले के हृदय में होता है। ऐसा सुख स्वर्ग में भी नहीं है जैसा निष्कामी व्यक्ति के हृदय में छलकता है।"

अपने स्वरूप का ज्ञान नहीं है तब तक कर्म जोर मारते हैं। आत्मस्वरूप का ज्ञान होते ही कर्म जल जाते है। ऐसे ज्ञानी बड़े-बड़े विशाल आयोजनों का आरम्भ करते हुए दिखते हैं, बड़ी-बड़ी प्रवृत्तियाँ करते हुए दिखते हैं फिर भी अपनी दृष्टि में वे कुछ नहीं करते। सदा अकर्त्ता पद में शान्त प्रतिष्ठित हैं। बाहर से सुख लेने की लालचवाली कामनाएँ ज्ञानाग्नि में जल गई हैं। कर्त्तृत्त्व-भोक्तृत्त्व भाव दग्ध हो जाता है। पहले की चली हुई गाड़ी अब प्रारब्धवेग से ऐसे ही मजे से चल रही है। पेट्रोल का खर्च नहीं, इंजिन की शांति।....

आश्रम द्वारा प्रकाशित पुस्तक " सामर्थ्य स्रोत" से लिया गया प्रसंग

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मंगलवार, 27 सितंबर 2011

ऊँची समझ......


एक संत के पास बहरा आदमी सत्संग सुनने आता था। उसे कान तो थे पर वे नाड़ियों से जुड़े नहीं थे। एकदम बहरा, एक शब्द भी सुन नहीं सकता था। किसी ने संतश्री से कहाः
"बाबा जी ! वे जो वृद्ध बैठे हैं, वे कथा सुनते-सुनते हँसते तो हैं पर वे बहरे हैं।"
बहरे मुख्यतः दो बार हँसते हैं – एक तो कथा सुनते-सुनते जब सभी हँसते हैं तब और दूसरा, अनुमान करके बात समझते हैं तब अकेले हँसते हैं।
बाबा जी ने कहाः "जब बहरा है तो कथा सुनने क्यों आता है ? रोज एकदम समय पर पहुँच जाता है। चालू कथा से उठकर चला जाय ऐसा भी नहीं है, घंटों बैठा रहता है।"
बाबाजी सोचने लगे, "बहरा होगा तो कथा सुनता नहीं होगा और कथा नहीं सुनता होगा तो रस नहीं आता होगा। रस नहीं आता होगा तो यहाँ बैठना भी नहीं चाहिए, उठकर चले जाना चाहिए। यह जाता भी नहीं है !''
बाबाजी ने उस वृद्ध को बुलाया और उसके कान के पास ऊँची आवाज में कहाः "कथा सुनाई पड़ती है ?"
उसने कहाः "क्या बोले महाराज ?"
बाबाजी ने आवाज और ऊँची करके पूछाः "मैं जो कहता हूँ, क्या वह सुनाई पड़ता है ?"
उसने कहाः "क्या बोले महाराज ?"
बाबाजी समझ गये कि यह नितांत बहरा है। बाबाजी ने सेवक से कागज कलम मँगाया और लिखकर पूछा।
वृद्ध ने कहाः "मेरे कान पूरी तरह से खराब हैं। मैं एक भी शब्द नहीं सुन सकता हूँ।"
कागज कलम से प्रश्नोत्तर शुरू हो गया।
"फिर तुम सत्संग में क्यों आते हो ?"
"बाबाजी ! सुन तो नहीं सकता हूँ लेकिन यह तो समझता हूँ कि ईश्वरप्राप्त महापुरुष जब बोलते हैं तो पहले परमात्मा में डुबकी मारते हैं। संसारी आदमी बोलता है तो उसकी वाणी मन व बुद्धि को छूकर आती है लेकिन ब्रह्मज्ञानी संत जब बोलते हैं तो उनकी वाणी आत्मा को छूकर आती हैं। मैं आपकी अमृतवाणी तो नहीं सुन पाता हूँ पर उसके आंदोलन मेरे शरीर को स्पर्श करते हैं। दूसरी बात, आपकी अमृतवाणी सुनने के लिए जो पुण्यात्मा लोग आते हैं उनके बीच बैठने का पुण्य भी मुझे प्राप्त होता है।"
बाबा जी ने देखा कि ये तो ऊँची समझ के धनी हैं। उन्होंने कहाः "आप दो बार हँसना, आपको अधिकार है किंतु मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप रोज सत्संग में समय पर पहुँच जाते हैं और आगे बैठते हैं, ऐसा क्यों ?"
"मैं परिवार में सबसे बड़ा हूँ। बड़े जैसा करते हैं वैसा ही छोटे भी करते हैं। मैं सत्संग में आने लगा तो मेरा बड़ा लड़का भी इधर आने लगा। शुरुआत में कभी-कभी मैं बहाना बना के उसे ले आता था। मैं उसे ले आया तो वह अपनी पत्नी को यहाँ ले आया, पत्नी बच्चों को ले आयी – सारा कुटुम्ब सत्संग में आने लगा, कुटुम्ब को संस्कार मिल गये।"
ब्रह्मचर्चा, आत्मज्ञान का सत्संग ऐसा है कि यह समझ में नहीं आये तो क्या, सुनाई नहीं देता हो तो भी इसमें शामिल होने मात्र से इतना पुण्य होता है कि व्यक्ति के जन्मों-जन्मों के पाप-ताप मिटने एवं एकाग्रतापूर्वक सुनकर इसका मनन-निदिध्यासन करे उसके परम कल्याण में संशय ही क्या !

आश्रम से प्रकाशित पुस्तक " सत्संग अमृत " से लिया गया प्रसंग
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सोमवार, 26 सितंबर 2011

तमाचे की करामात.....


पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से
मुंबई के नजदीक गणेशपुरी है। गणेशपुरी, वज्रेश्वरी में नाना औलिया नाम के एक महापुरुष रहा करते थे। वे मुक्तानंदजी के आश्रम के नजदीक की सड़क पर मैले कुचैले कपड़े पहने पड़े रहते थे अपनी निजानंद की मस्ती में। वे दिखने में तो सादे-सूदे थे पर बड़ी ऊँची पहुँच के धनी थे।
उस समय घोड़ागाड़ी चलती थी, ऑटोरिक्शा गिने गिनाये होते थे। एक बार एक डिप्टी कलेक्टर (उपजिलाधीश) घोड़ागाड़ी पर कहीं जा रहा था। रास्ते में बीच सड़क पर नाना औलिया टाँग पर टाँग चढ़ाये बैठे थे।
कलेक्टर ने गाड़ीवान को कहाः "हॉर्न बजा, इस भिखारी को हटा दे।"
गाड़ीवान बोलाः "नहीं, ये तो नाना बाबा हैं ! मैं इनको नहीं हटाऊँगा।"
कलेक्टरः "अरे ! क्यों नहीं हटायेगा, सड़क क्या इसके बाप की है ?" वह गाड़ी से उतरा और नाना बाबा की डाँटने लगाः "तुम सड़क के बीच बैठे हो, तुमको अच्छा लगता है ? शर्म नहीं आती ?" बाबा दिखने में दुबले पतले थे लेकिन उनमें ऐसा जोश आया कि उठकर खड़े हुए और उस कलेक्टर का कान पकड़कर धड़ाक से एक ने तमाचा जड़ दिया। आस पास के सभी लोग देख रहे थे कि नाना बाबा ने कलेक्टर को तमाचा मार दिया। अब तो पुलिस नाना बाबा का बहुत बुरा हाल करेगी।
लेकिन ऐसा सुहावना हाल हुआ कि 'साधूनां दर्शनं लोके सर्वसिद्धकरं परम्।' की तरह 'साधूनां थप्पड़ं सर्वसिद्धिकरं परं... महापातकनाशनं... परं विवेकं जागृतम्।' पंजा मार दिया तो उसके पाँचों विकारों का प्रभाव कम हो गया। कलेक्टर ने सिर नीचे करके दबी आवाज में गाड़ीवान को कहाः "गाड़ी वापस लो।" जहाँ ऑडिट करने जा रहा था वहाँ न जाकर वापस गया अपने दफ्तर में और त्यागपत्र लिखा। सोचा, "अब यह बंदों की गुलामी नहीं करनी है। संसार की चीजों को इकट्ठा कर-करके छोड़कर नहीं मरना है, अपनि अमर आत्मा की जागृति करनी है। मैं आज से सरकारी नौकरी को सदा के लिए ठुकराता हूँ और अब असली खजाना पाने के लिए जीवन जीऊँगा।' बन गये फकीर एक थप्पड़ से।
कहाँ तो एक भोगी डिप्टी कलेक्टर और नाना साहब औलिया का तमाचा लगा तो ईश्वर के रास्ते चलकर बन गया सिद्धपुरुष !
तुम में से भी कोई चल पड़े ईश्वर के रास्ते, हो जाय सिद्धपुरुष ! नानासाहब ने एक ही थप्पड़ मारा और कलेक्टर ने अपना काम बना लिया। अब मैं क्या करूँ ? थप्पड़ से तुम्हारा काम होता हो तो मैं उसके लिए भी तैयार हूँ और कहानी-कथा, सत्संग सुनाने से तुम्हारा काम होता हो तो भी मैं तैयार हूँ लेकिन तुम अपना काम बनाने का इरादा कर लो। लग जाय तो एक वचन भी लग जाता है।

आश्रम से प्रकाशित पुस्तक " सत्संग अमृत " से लिया गया प्रसंग
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हिंसक बन गया परम भक्त


परब्रह्म परमात्मा के साथ एकत्व के अनुभव को उपलब्ध स्वामी रामतीर्थ देश-विदेश में घूम-घूमकर ब्रह्मविद्या का उपदेश देते थे। बात फरवरी सन् 1902 की है, 'साधारण धर्मसभा, फैजाबाद' के दूसरे वार्षिकोत्सव में स्वामी रामतीर्थ भी पधारे। स्वामी जी तो वेदान्ती थे। 'सबमें ब्रह्म है, सब ब्रह्म में है, सब ब्रह्म है। मैं ब्रह्म हूँ, आप भी ब्रह्म हैं, ब्रह्म के सिवाय कुछ नहीं है।' – इसी सनातन सत्य ज्ञान की पहले दिन उन्होंने व्याख्या की। श्रोताओं में एक सज्जन श्री नौरंगमल भी मौजूद थे। उनके पास एक मौलवी मोहम्मद मुर्तजा अली खाँ भी बैठे थे। नौरंगमल जी ने मौलवी साहब से कहाः "सुनते हो मौलाना ! यह युवक क्या कह रहा है ! कहता है कि मैं खुदा हूँ।" यह सुनकर मौलवी आपे से बाहर हो गये और कहने लगेः "अगर इस वक्त मुसलमानी राज्य होता तो मैं फौरन इस काफिर की गर्दन उड़ा देता। लेकिन अफसोस ! मैं यहाँ मजबूर हूँ।"
दूसरे दिन मौलवी साहब फिर धर्मसभा में गये। वहाँ सुबह का सत्संग चल रहा था। मंडप श्रद्धालुओं से भरा हुआ था। स्वामी रामतीर्थ फारसी में एक भजन गा रहे थे जिसका मतलब थाः "हे नमाजी ! तेरी यह नमाज है कि केवल उठक-बैठक ? अरे, नमाज तो तब है जब ईश्वर के विरह में ऐसा बेचैन और अधीर हो जाय कि न तुझे बैठते चैन मिले और न खड़े होते। असली नमाज तो तभी कहलायेगी, नहीं तो यह केवल कवायद मात्र है।"
स्वामी रामतीर्थ यह भजन बिल्कुल तल्लीन हो कर गा रहे थे और उनकी आँखों से आँसू झर रहे थे। उस समय उनके चेहरे से अलौकिक तेज बरस रहा था। मौलवी साहब स्वामी रामतीर्थ की उस तल्लीनता, भगवत्प्रेम और भगवत्समर्पण से बहुत प्रभावित हुए। भजन समाप्त होते ही मौलवी अपनी जगह से उठे और स्वामी रामतीर्थ के पास पहुँचकर अपने वस्त्रों में छुपाया हुआ एक खंजर (कटार) निकालकर उनके कदमों में रख दिया और बोलेः "हे राम ! आप सचमुच राम है, मैं आज इस वक्त बहुत बुरी नीयत से आपके पास आया था। मैं आपका गुनहगार हूँ। मुझे माफ कर दीजिये। मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ।"
स्वामी रामतीर्थ मुस्कराये और बोलेः "क्यों गंदा बंदा बनता है ? जो तू है वही तो मैं हूँ। मैं तुझसे अलग कब हूँ ? जब, आइंदा किसी से भी नफरत मत करना क्योंकि सबके भीतर वही सर्वव्यापी खुदा मौजूद है। हालांकि तू उससे बेखबर है, पर वह तेरी हर बात को जानता है। अपने खयालात पवित्र रख। खुदी को भूल जा और खुदा को याद रख, जो तेरे नजदीक से भी नजदीक है, यानी जो तू खुद है।" – ऐसा कहकर स्वामी जी ने बहुत प्यार से मौलवी के सिर पर हाथ फेरा और मौलवी अपना सिर स्वामी जी के चरणों पर रख बच्चों की तरह रोने लगे। रोते-रोते मौलवी की आँखें लाल हो गयीं। वे किसी प्रकार से भी स्वामी जी के चरण छोड़ नहीं रहे थे। बस, एक ही रट लगा रखी थीः "मुझे माफ कर दीजिये, मुझे माफ कर दीजिये।" बड़ी मुश्किल से उन्हें शांत किया गया। तब से वह मौलवी मुहम्मद मुर्तजा अली खाँ उनका अनन्य भक्त हो गया। उसने अपने आपको स्वामी जी के श्रीचरणों में समर्पित कर दिया और उसका जीवन भक्तिमय हो गया।
ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष सभी के आत्मीय स्वजन है। वे किसी को भी अपने से अलग नही देखते और प्राणिमात्र पर अपनी करूणा-कृपा रखते हैं। वे सभी का आत्मोत्थान चाहते हैं। वे हमारे अंतःकरण में भरे कूड़े-कचरे को अपने उपदेशों द्वारा बाहर निकाल फेंकते हैं और हमारे हृदय को निर्मल व पवित्र बना देते हैं। वे हमें जीवन जीने की सही राह दिखाते हैं और जीवन को जीवनदाता भगवान की ओर ले जाते हैं।
स्वामी रामतीर्थ का रसमय जीवन आज भी दिख रहा है – कहीं कोई बापू जी कहता है, कोई साँईं कहता है परंतु अठखेलियाँ वही सच्चिदानंद की.... सभी को हरिनाम के द्वारा अपने ब्रह्मसुख का रस प्रदान करने वाले ऐसे कौन हैं इस समय ? जान गये, मान गये, पहचान गये – स्वामी रामतीर्थ का प्यार, भले नाम बदलकर, वही तो डाँट रहा है !

आश्रम से प्रकाशित पुस्तक " सत्संग अमृत " से लिया गया प्रसंग
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शनिवार, 24 सितंबर 2011

क्या जादू है तेरे प्यार में !!!!!!


किसी गाँव में एक चोर रहता था। एक बार उसे कई दिनों तक चोरी करने का अवसर ही नहीं मिला, जिससे उसके घर में खाने के लाले पड़ गये। अब मरता क्या न करता, वह रात्रि के लगभग बारह बजे गाँव के बाहर बनी एक साधु की कुटिया में घुस गया। वह जानता था कि साधु बड़े त्यागी हैं, अपने पास कुछ नहीं रखते फिर भी सोचा, 'खाने पीने को ही कुछ मिल जायेगा। तो एक दो दिन का गुजारा चल जायेगा।'
जब चोर कुटिया में प्रवेश कर रहे थे, संयोगवश उसी समय साधु बाबा ध्यान से उठकर लघुशंका के निमित्त बाहर निकले। चोर से उनका सामना हो गया। साधु उसे देखकर पहचान गये क्योंकि पहले कई बार देखा था, पर साधु यह नहीं जानते थे कि वह चोर है। उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह आधी रात को यहाँ क्यों आया ! साधु ने बड़े प्रेम से पूछाः "कहो बालक ! आधी रात को कैसे कष्ट किया ? कुछ काम है क्या ?"
चोर बोलाः "महाराज ! मैं दिन भर का भूखा हूँ।"
साधुः "ठीक है, आओ बैठो। मैंने शाम को धूनी में कुछ शकरकंद डाले थे, वे भुन गये होंगे, निकाल देता हूँ। तुम्हारा पेट भर जायेगा। शाम को आ गये होते तो जो था हम दोनों मिलकर खा लेते। पेट का क्या है बेटा ! अगर मन में संतोष हो तो जितना मिले उसमें ही मनुष्य खुश रह सकता है। 'यथा लाभ संतोष' यही तो है।"
साधु ने दीपक जलाया। चोर को बैठने के लिए आसन दिया, पानी दिया और एक पत्ते पर भुने हुए शकरकंद रख दिये। फिर पास में बैठकर उसे इस तरह खिलाया, जैसे कोई माँ अपने बच्चे को खिलाती है। साधु बाबा के सदव्यवहार से चोर निहाल हो गया, सोचने लगा, 'एक मैं हूँ और एक ये बाबा हैं। मैं चोरी करने आया और ये इतने प्यार से खिला रहे हैं ! मनुष्य ये भी हैं और मैं भी हूँ। यह भी सच कहा हैः आदमी-आदमी में अंतर, कोई हीरा कोई कंकर। मैं तो इनके सामने कंकर से भी बदतर हूँ।'
मनुष्य में बुरी के साथ भली वृत्तियाँ भी रहती हैं, जो समय पाकर जाग उठती हैं। जैसे उचित खाद-पानी पाकर बीज पनप जाता है, वैसे ही संत का संग पाकर मनुष्य की सदवृत्तियाँ लहलहा उठती हैं। चोर के मन के सारे कुसंस्कार हवा हो गये। उसे संत के दर्शन, सान्निध्य और अमृतवर्षा दृष्टि का लाभ मिला।
एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।
तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।
उन ब्रह्मनिष्ठ साधुपुरुष के आधे घंटे के समागम से चोर के कितने ही मलिन संस्कार नष्ट हो गये। साधु के सामने अपना अपराध कबूल करने को उसका मन उतावला हो उठा। फिर उसे लगा कि 'साधु बाबा को पता चलेगा कि मैं चोरी की नियत से आया था तो उनकी नजर में मेरी क्या इज्जत रह जायेगी ! क्या सोचेंगे बाबा कि कैसा पतित प्राणी है, जो मुझ संत के यहाँ चोरी करने आया !' लेकिन फिर सोचा, 'साधु मन में चाहे जो समझें, मैं तो इनके सामने अपना अपराध स्वीकार करके प्रायश्चित करूँगा। इतने दयालू महापुरुष हैं, ये मेरा अपराध अवश्य क्षमा कर देंगे।' संत के सामने प्रायश्चित करने से सारे पाप जलकर राख हो जाते हैं।
उसका भोजन पूरा होने के बाद साधु ने कहाः "बेटा ! अब इतनी रात में तुम कहाँ जाओगे, मेरे पास एक चटाई है, इसे ले लो और आराम से यहाँ सो जाओ। सुबह चले जाना।"
नेकी की मार से चोर दबा जा रहा था। वह साधु के पैरों पर गिर पड़ा और फूट-फूट कर रोने लगा। साधु समझ न सके कि यह क्या हुआ ! साधु ने उसे प्रेमपूर्वक उठाया, प्रेम से सिर पर हाथ फेरते हुए पूछाः "बेटा ! क्या हुआ ?"
रोते-रोते चोर का गला रूँध गया। उसने बड़ी कठिनाई से अपने को सँभालकर कहाः "महाराज ! मैं बड़ा अपराधी हूँ।"
साधु बोलेः "बेटा ! भगवान तो सबके अपराध क्षमा करने वाले हैं। उनकी शरण में जाने से वे बड़े-से-बड़े अपराध क्षमा कर देते हैं। तू उन्हीं की शरण में जा।"
चोरः "महाराज ! मेरे जैसे पापी का उद्धार नहीं हो सकता।"
साधुः "अरे पगले ! भगवान ने कहा हैः यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भाव से मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है।"
"नहीं महाराज ! मैंने बड़ी चोरियाँ की हैं। आज भी मैं भूख से व्याकुल होकर आपके यहाँ चोरी करने आया था लेकिन आपके सदव्यवहार ने तो मेरा जीवन ही पलट दिया। आज मैं आपके सामने कसम खाता हूँ कि आगे कभी चोरी नहीं करूँगा, किसी जीव को नहीं सताऊँगा। आप मुझे अपनी शरण में लेकर अपना शिष्य बना लीजिये।"
साधु के प्यार के जादू ने चोर को साधु बना दिया। उसने अपना पूरा जीवन उन साधु के चरणों में सदा के समर्पित करके अमूल्य मानव जीवन को अमूल्य-से-अमूल्य परमात्मा को पाने के रास्ते लगा दिया।
महापुरुषों की सीख है कि "आप सबसे आत्मवत् व्यवहार करें क्योंकि सुखी जीवन के लिए विशुद्ध निःस्वार्थ प्रेम ही असली खुराक है। संसार इसी की भूख से मर रहा है, अतः प्रेम का वितरण करो। अपने हृदय के आत्मिक प्रेम को हृदय में ही मत छिपा रखो। उदारता के साथ उसे बाँटो, जगत का बहुत-सा दुःख दूर हो जायेगा।"

आश्रम से प्रकाशित पुस्तक " सत्संग अमृत " से लिया गया प्रसंग
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नाव पानी में रहे, पानी नाव में नहीं.....पूज्य बापू जी


सुबह नींद में से उठ के श्वास गिनो और शांत हो जाओ। अपने परमात्मा में, आत्मा मे ही खुश रहना। 'मेरा पैसा कहाँ है ? मेरा छोरा कहाँ है ?' नश्वर दुनिया की चीजों की क्या इच्छा करना ! 'मैं अमर आत्मा हूँ। शरीर मरेगा, मैं तो अपने-आप में मस्त हूँ। मुझे मारे ऐसी कोई तलवार नहीं, कोई मौत नहीं। अमर आत्मा के आगे तो मौत की मौत हो जाये। मैं तो अमर आत्मा हूँ। ॐ....हरिॐ....ॐ....' – इस प्रकार अमर आत्मा का विचार करे तो अमर आत्मा को पायेगा और बेट-बेटी का विचार करे, नाती-पोते का विचार करे तो अंत में उन्हीं की याद आयेगी और वहीं जन्मेगा।
भगवान ने गीता में कहा हैः
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तदभावभावितः।।
' हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! यह मनुष्य अंतकाल में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उस उस को ही प्राप्त होता है क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है।' (8.6)
एक बार संत कबीर जी ने एक किसान से कहाः "तुम सत्संग में आया करो।"
किसान बोलाः "हाँ महाराज ! मेरे लड़के की सगाई हो गयी है, शादी हो जाये फिर आऊँगा।"
लड़के की शादी हो गयी। कबीर जी बोलेः "अब तो आओ।"
"मेहमान आते जाते हैं। महाराज ! थोड़े दिन बाद आऊँगा।"
ऐसे दो साल बीत गये। बोलेः "अब तो आओ।"
"महाराज ! मेरी बहू है न, वह माँ बनने वाली है। मेरा छोरा बाप बनने वाला है। मैं दादा बनने वाला हूँ। घऱ में पोता आ जाय, फिर कथा में आऊँगा।"
पोता हुआ। "अब तो सत्संग में आओ।"
"अरे महाराज ! आप मेरे पीछे क्यों पड़े हैं ? दूसरे नहीं मिलते हैं क्या ?"
कबीर जी ने हाथ जोड़ लिये। कुछ वर्ष के बाद कबीरजी फिर गये, देखा कि कहाँ गया वह खेतवाला ? दुकानें भी थीं, खेत भी था। लोग बोलेः "वह तो मर गया !"
"मर गया।"
"हाँ।"
मरते-मरते वह सोच रहा था कि 'मेरे खेत का क्या होगा, दुकान का क्या होगा ?' कबीर जी ने ध्यान लगा के देखा कि दुकान में चूहा बना है कि खेत में बैल बना है ? देखा कि अरहट में बँधा है, बैल बन गया है। उसके पहले हल में जुता था, फिर गाड़ी में जुता। अब बूढ़ा हो गया है। कबीर जी थोड़े-थोड़े दिन में आते जाते रहे। फिर उस बूढ़े बैल को, अब काम नहीं करता इसलिए तेली के पास बेच दिया गया। तेली ने भी काम लिया फिर बेच दिया कसाई को और कसाई ने 'बिस्मिल्लाह !' करके छुरा फिरा दिया। चमड़ा उतार के नगाड़ेवाला को बेच दिया और टुकड़े-टुकड़े कर के मांस बेच दिया।
कबीर जी ने साखी बनायीः
कथा में तो आया नहीं, मरकर
बैल बने हल में जुते, ले गाड़ी में दीन।
हल नहीं खींच सका तो गाड़ी, छकड़े को खींचने में लगा दिया।
तेली के कोल्हू रहे, पुनि घर कसाई लीन।
मांस कटा बोटी बिकी, चमड़न मढ़ी नगार।
कुछ एक कर्म बाकी रहे, तिस पर पड़ती मार।।
नगारे पर डंडे पड़ रहे हैं। अभी कर्म बाकी हैंतो उसे डंडे पड़ रहे हैं। मेरा बेटा कहाँ है ? मेरी बेटी कहाँ है ?....' डंडे पड़ेंगे फिर। 'मेरा परमात्मा कहाँ है ? अमर आत्मा कहाँ है ? यह तो मरने वाला शरीर मर रहा है, सपने जैसा है। कई बेटे-बेटी सपना हो गये, संसार सपना हो रहा है लेकिन जो बचपन में मेरे साथ था, शादी में साथ था, बुढ़ापे में साथ है, मरने के बाद भी जो साथ नहीं छोड़ेगा वह मेरा प्रभु आत्मा कैसा है ? ॐ आनंद.... ॐ शांति...' – ऐसा करके उस आत्मा को जाने तो मुक्त हो जाये और 'छोरे क्या क्या होगा ? खेती का क्या होगा ?' किया तो बैल बनो बेटा ! जाओ।
इसलिए मन को संसार में नहीं लगाना। नाव पानी में रहे लेकिन पानी नाव में नहीं रहे। शरीर संसार में रहे किंतु अपने दिमाग में संसार नहीं घुसे। अपने दिमाग में तो 'ॐ आनन्द... ॐ शांति.... ॐ माधुर्य... संसार सपना, परमात्मा अपना....' – ऐसा चिंतन चलता रहे। चिंतन करके निश्चिंत नारायण में विश्रान्ति पायें, निश्चिंत नारायण-व्यापक ब्रह्म में आयें।

आश्रम से प्रकाशित पुस्तक " सत्संग अमृत " से लिया गया प्रसंग
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गुरुवार, 22 सितंबर 2011

मथुरा के भंगेड़ी


मथुरा के भंगेड़ी यमुना किनारे गये। खूब भाँग पी। नशे में चूर होने लगे। संध्या का समय था। गगन में पूर्णिमा का चाँद निकल रहा था। एक भंगेड़ी ने सुझाव दियाः "चलो, आज नौका की सैर करें, प्रयाग चलें।"
बाकी के तीनों सहमत हो गये। चारों नाव में बैठे। रातभर पतवार चलाते रहे, परिश्रम करते रहे। सुबह हुई। चारों समझे हम प्रयाग आ गये। इतने में मथुरा की कोई महिला यमुना से पानी भरने आयी। भंगेड़ियों की नजर भी भंगेड़ी। एक ने कहाः "अरे ! यह तो मेरी पत्नी है। यहाँ प्रयाग में ?" आश्चर्य भी हुआ कि हम तो रात भर पतवार चलाते रहे, नाव को खेते रहे, तब पहुँचे हैं और यह यकायक कैसे पहुँच गयी? ......और फिर बिना पूछे ? वह अपनी पत्नी को गोलियाँ देने लगा।
कोई सज्जन आदमी वहाँ से गुजरा। पूछाः "अरे भाई ! क्या बात है ?"
भंगेड़ी बोलाः "हम कल शाम को मथुरा से नाव में चले थे तो अभी सुबह प्रयाग पहुँचे हैं और यह मेरी औरत बिना पूछे ही यकायक कैसे पहुँच गयी ?
सज्जन ने देखा कि चारों नाव में तो बैठे है, पतवारें भी रातभर चलाईं लेकिन नाव का लंगर खोला ही नहीं। समझते हैं कि हम परिश्रम करके मथुरा से प्रयाग पहुँच गये हैं लेकिन वास्तव में वे यहीं-के-यहीं मथुरा में पड़े हैं। लंगर दिखाया तब उनका नशा उतरा।
ऐसे ही हम जीवन में खूब परिश्रम करते है। समझते हैं कि हमारी जीवनयात्रा हो रही है लेकिन वासना-कामना का लंगर तो उठाया ही नहीं है। हमारी जीवन-नैया वहीं की वहीं संसार के दलदल में उलझी पड़ी है।
एक वे लोग हैं जो ईश्वर को प्यार करते हैं और आवश्यकता संसार की समझते है। दूसरे वे लोग हैं जो आवश्यकता तो ईश्वर की समझते हैं और प्यार संसार की चीजों से करते हैं। दोनों प्रकार के लोग बेचारे ठगे जाते हैं।
आवश्यकता है ईश्वर की और प्यार करते हैं संसार को तो वे लोग ईश्वर का उपयोग भी संसार के लिए करना चाहेंगे।
अरे भैया ! अपने आप पर कृपा करो। अपनी आवश्यकता भी ईश्वर हो और प्रेमास्पद भी ईश्वर हो यह बात जिस दिन समझ में आ जायेगी उस दिन सब कामनाएँ भी अपने आप पूर्ण होने लगेंगी। इतना ही नहीं, तुम्हारी मनौती माननेवाले का भी बेड़ा पार हो जायेगा। तुम केवल कामसंकल्पवर्जिताः हो जाओ। सचमुच तुम साक्षात् नारायणस्वरूप बन जाओगे। जब ईश्वर ही अपना प्रेमास्पद और ईश्वर ही अपनी आवश्यकता बनेगा तब हर रोज मुबारकबादी के दिन होंगे।
सदा दिवाली संत की, आठों प्रहर आनन्द।
निज स्वरूप में मस्त है, छोड़ इच्छा के फन्द।।
हम लोग तो वर्षभर में दो तीन दिन दिवाली मनाते हैं और थक जाते हैं। संत निष्काम होते हैं अतः उनकी हर साँस दिवाली होती है। उनकी तो दिवाली होती है, उनकी महफिल में आने वालों की भी दिवाली हो जाती है।
जगत के फन्द तब तक फन्द नहीं हैं जब तक आप काम संकल्प से आक्रान्त नहीं होते। कार्य तो ज्ञानी भी करते हैं फिर भी निर्लेप नारायण रहते हैं। जगत के किसी फन्दे में फँसते नहीं क्योंकि वे निष्काम हैं।
वासनाएँ होती है अन्तःकरण में। अन्तःकरण के साथ सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया जनक ने तो राज्य करते हुए भी उनका कुछ नही बिगड़ा। अगर हम लोग अन्तःकरण से जुड़े रहे तो जीवन में कभी ऊँचाई, कभी निचाई, कभी चढ़ाव, कभी उतार होता ही रहेगा। संतों ने अन्तःकरण को अपना मानना ही छोड़ दिया।
अन्तःकरण के साथ सम्बन्ध होता है तो उसकी एकाग्रता में अपने को सुखी मानते हैं, अन्तःकरण की इच्छा पूरी हुई तो अपने को भाग्यशाली मानते हैं, इच्छा अधूरी रही तो अपने को अभागा मानते हैं। करोड़ों-करोड़ों अन्तःकरण जिसमें पैदा होकर लीन हो रहे है उस वास्तविक 'मैं' का अगर साक्षात्कार कर लिया तो बेड़ा पार हो गया। फिर तुम्हारी वाणी सुनकर लोग पावन हो जाएँगे। ऐसी वाणी सुनने के लिए गोदावरी माँ नारी का रूप लेकर एकनाथजी महाराज के सत्संग में बैठती थीं। ब्रह्मवेत्ताओं की वाणी सुनने के लिए सूक्ष्म जगत के लोग भी आकर बैठ जाते हैं। इच्छारहित होने मात्र से आप इतने महान जाएँगे। इच्छा कर-करके तो आज तक कितनी ही मुसीबतें उठाईं। अब इच्छारहित होकर देखो।
इसीलिए तुलसीदासजी ने गाया होगाः
अब प्रभु ! कृपा करौं एहि भाँती।
सब तजि भजन करउँ दिन राती।।
सब छोड़कर भजन करूँ माने क्या ? खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना छोड़कर भजन करूँ ? नहीं, खाना-पीना आदि तो चलता रहेगा। सब छोड़ने का मतलब है इच्छा, वासना, कामना, संकल्प का त्याग। कामना और संकल्प में ही तो सब छुपा है। कामना और संकल्प छोड़ दो तो दिन-रात भजन होगा। फिर तुम्हारा नौकरी करना भी भजन, दुकान चलाना भी भजन, युद्ध करना भी भजन हो जायेगा। विषय-सुख भोगने की इच्छा ही बन्धन है। इच्छा, वासना-कामना और संकल्प छोड़कर सब प्रभु का है यह समझकर निष्काम होकर सब व्यवहार करो तो सब भजन हो जाएगा।

आश्रम से प्रकाशित पुस्तक " सामर्थ्य स्रोत " से लिया गया प्रसंग
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बुधवार, 21 सितंबर 2011

घोड़ी गई...... हुक्का रह गया


मैंने सुना है एक चुटकुला। कोई नया-नया चोर कहीं से एक बढ़िया, पानीदार, आभासम्पन्न, तेज घोड़ी चुरा लाया। सोचा कि ऐसी बढ़िया घोड़ी पर सवार करके गाँव में घूमूँगा तो लोग समझ जाएंगे और मैं पकड़ा जाऊँगा। ढोर बाजार में जाकर इसे बेच दूँ। पैसे मिलेंगे। एक दो-साथी बना लूँगा फिर दूसरी घोड़ियाँ ले आएँगे। खूब पैसे कमाएँगे।
कामना और संकल्प उसके बढ़ गये।
घोड़ी लेकर वह पहुँचा बाजार में। अपराधी मानस था। चोरी का माल था। रंगेहाथ पकड़े जाने का डर था। भीतर से खोखला हो गया था। दबी आवाज में धीरे-धीरे लोगों से बोलताः
"घोड़ी चाहिए घोड़ी ? पानीदार घोड़ी है।"
एक आदमी मामला समझ गया। रोब भरी आवाज में पूछाः
"कितने में देगा रे ?"
चोर तो सोचता रह गया। कितने में बेचूँ ? घोड़ों की लेन-देन उसके बाप दादों ने भी नहीं की थी। वह हक्का बक्का रह गया। वह आदमी बोलाः
"घोड़ी दिखती तो अच्छी है लेकिन सवारी करके देखना पड़ेगा। तू मेरा यह हुक्का पकड़। मैं एक चक्कर लगाकर आता हूँ।"
वह घोड़ी लेकर रवाना हो गया। चोर ने वापस बुलाया तो उसने कहाः "जिस भाव में तु लाया था उसी भाव में मैं लिये जा रहा हूँ। चिन्ता मत कर।"
चोर की घोड़ी तो गई, हाथ में हुक्का रह गया। घर पहुँचा तो किसी ने पूछाः "तू तो घोड़ी बेचने गया था ! क्या हुआ ?"
पोपला मुँह बनाकर चोर बोलाः "घोड़ी तो गई और मेरा कलेजा जलाने के लिय यह हुक्का रह गया हाथ में।"
ऐसे ही समय की धारा बहती चली जाती है और कलेजा जलाने वाली कामनाएँ अन्तःकरण में पड़ी रह जाती है। देह रूपी घोड़ा रवाना हो जाता है और सूक्ष्म शरीर में कामनारूपी हुक्का कलेजा जलाता रहता है। फिर जीव प्रेत होकर भटकता है।
देह छूट जाये और कोई कामना नहीं रहे तो जीव विदेही हो जाये, ब्रह्मस्वरूप हो जाय। कामना रह गई और देह छूट गई, दूसरी देह नहीं मिली तो जीव प्रेत होकर भटकता है। खाने- पीने की वासना है लेकिन बिना देह के खा-पी नहीं सकता। भोगने की वासना है लेकिन भोग नहीं सकता। फिर वासना तृप्त करने के लिए दूसरों के शरीर में घुसता है, वहाँ भी झाड़-फूँकवाले लोग उसकी पिटाई करते हैं।
पिटाई किसकी होती है ? इच्छा, कामना, वासना की ही पिटाई होती है। पूजा किसकी होती है ? निष्कामता की पूजा होती है। जिनके अन्तःकरण से वासना-कामना निवृत्त हो जाती है, वे महापुरूष होकर पूजे जाते हैं, वे साक्षात् शिवस्वरूप हो जाते हैं। ऐसे सत्पुरूषों के लिए ही कहा हैः
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरूर्साक्षात्परब्रह्म तस्मैं श्रीगुरवे नमः।।
गुरू ब्रह्म कैसे ? वे हमारे हृदय में ज्ञान भरते है। गुरू विष्णु कैसे ? वे हमारे ज्ञान की पुष्टि करते हैं। गुरू महेश कैसे ? वे हमारे चित्त में छुपी हुई कामनाओं को भस्म करते हैं।

स्रोत:- आश्रम से प्रकाशित पुस्तक " सामर्थ्य स्रोत" से लिया गया प्रसंग
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