मथुरा के भंगेड़ी यमुना किनारे गये। खूब भाँग पी। नशे में चूर होने लगे। संध्या का समय था। गगन में पूर्णिमा का चाँद निकल रहा था। एक भंगेड़ी ने सुझाव दियाः "चलो, आज नौका की सैर करें, प्रयाग चलें।"
बाकी के तीनों सहमत हो गये। चारों नाव में बैठे। रातभर पतवार चलाते रहे, परिश्रम करते रहे। सुबह हुई। चारों समझे हम प्रयाग आ गये। इतने में मथुरा की कोई महिला यमुना से पानी भरने आयी। भंगेड़ियों की नजर भी भंगेड़ी। एक ने कहाः "अरे ! यह तो मेरी पत्नी है। यहाँ प्रयाग में ?" आश्चर्य भी हुआ कि हम तो रात भर पतवार चलाते रहे, नाव को खेते रहे, तब पहुँचे हैं और यह यकायक कैसे पहुँच गयी? ......और फिर बिना पूछे ? वह अपनी पत्नी को गोलियाँ देने लगा।
कोई सज्जन आदमी वहाँ से गुजरा। पूछाः "अरे भाई ! क्या बात है ?"
भंगेड़ी बोलाः "हम कल शाम को मथुरा से नाव में चले थे तो अभी सुबह प्रयाग पहुँचे हैं और यह मेरी औरत बिना पूछे ही यकायक कैसे पहुँच गयी ?
सज्जन ने देखा कि चारों नाव में तो बैठे है, पतवारें भी रातभर चलाईं लेकिन नाव का लंगर खोला ही नहीं। समझते हैं कि हम परिश्रम करके मथुरा से प्रयाग पहुँच गये हैं लेकिन वास्तव में वे यहीं-के-यहीं मथुरा में पड़े हैं। लंगर दिखाया तब उनका नशा उतरा।
ऐसे ही हम जीवन में खूब परिश्रम करते है। समझते हैं कि हमारी जीवनयात्रा हो रही है लेकिन वासना-कामना का लंगर तो उठाया ही नहीं है। हमारी जीवन-नैया वहीं की वहीं संसार के दलदल में उलझी पड़ी है।
एक वे लोग हैं जो ईश्वर को प्यार करते हैं और आवश्यकता संसार की समझते है। दूसरे वे लोग हैं जो आवश्यकता तो ईश्वर की समझते हैं और प्यार संसार की चीजों से करते हैं। दोनों प्रकार के लोग बेचारे ठगे जाते हैं।
आवश्यकता है ईश्वर की और प्यार करते हैं संसार को तो वे लोग ईश्वर का उपयोग भी संसार के लिए करना चाहेंगे।
अरे भैया ! अपने आप पर कृपा करो। अपनी आवश्यकता भी ईश्वर हो और प्रेमास्पद भी ईश्वर हो यह बात जिस दिन समझ में आ जायेगी उस दिन सब कामनाएँ भी अपने आप पूर्ण होने लगेंगी। इतना ही नहीं, तुम्हारी मनौती माननेवाले का भी बेड़ा पार हो जायेगा। तुम केवल कामसंकल्पवर्जिताः हो जाओ। सचमुच तुम साक्षात् नारायणस्वरूप बन जाओगे। जब ईश्वर ही अपना प्रेमास्पद और ईश्वर ही अपनी आवश्यकता बनेगा तब हर रोज मुबारकबादी के दिन होंगे।
सदा दिवाली संत की, आठों प्रहर आनन्द।
निज स्वरूप में मस्त है, छोड़ इच्छा के फन्द।।
हम लोग तो वर्षभर में दो तीन दिन दिवाली मनाते हैं और थक जाते हैं। संत निष्काम होते हैं अतः उनकी हर साँस दिवाली होती है। उनकी तो दिवाली होती है, उनकी महफिल में आने वालों की भी दिवाली हो जाती है।
जगत के फन्द तब तक फन्द नहीं हैं जब तक आप काम संकल्प से आक्रान्त नहीं होते। कार्य तो ज्ञानी भी करते हैं फिर भी निर्लेप नारायण रहते हैं। जगत के किसी फन्दे में फँसते नहीं क्योंकि वे निष्काम हैं।
वासनाएँ होती है अन्तःकरण में। अन्तःकरण के साथ सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया जनक ने तो राज्य करते हुए भी उनका कुछ नही बिगड़ा। अगर हम लोग अन्तःकरण से जुड़े रहे तो जीवन में कभी ऊँचाई, कभी निचाई, कभी चढ़ाव, कभी उतार होता ही रहेगा। संतों ने अन्तःकरण को अपना मानना ही छोड़ दिया।
अन्तःकरण के साथ सम्बन्ध होता है तो उसकी एकाग्रता में अपने को सुखी मानते हैं, अन्तःकरण की इच्छा पूरी हुई तो अपने को भाग्यशाली मानते हैं, इच्छा अधूरी रही तो अपने को अभागा मानते हैं। करोड़ों-करोड़ों अन्तःकरण जिसमें पैदा होकर लीन हो रहे है उस वास्तविक 'मैं' का अगर साक्षात्कार कर लिया तो बेड़ा पार हो गया। फिर तुम्हारी वाणी सुनकर लोग पावन हो जाएँगे। ऐसी वाणी सुनने के लिए गोदावरी माँ नारी का रूप लेकर एकनाथजी महाराज के सत्संग में बैठती थीं। ब्रह्मवेत्ताओं की वाणी सुनने के लिए सूक्ष्म जगत के लोग भी आकर बैठ जाते हैं। इच्छारहित होने मात्र से आप इतने महान जाएँगे। इच्छा कर-करके तो आज तक कितनी ही मुसीबतें उठाईं। अब इच्छारहित होकर देखो।
इसीलिए तुलसीदासजी ने गाया होगाः
अब प्रभु ! कृपा करौं एहि भाँती।
सब तजि भजन करउँ दिन राती।।
सब छोड़कर भजन करूँ माने क्या ? खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना छोड़कर भजन करूँ ? नहीं, खाना-पीना आदि तो चलता रहेगा। सब छोड़ने का मतलब है इच्छा, वासना, कामना, संकल्प का त्याग। कामना और संकल्प में ही तो सब छुपा है। कामना और संकल्प छोड़ दो तो दिन-रात भजन होगा। फिर तुम्हारा नौकरी करना भी भजन, दुकान चलाना भी भजन, युद्ध करना भी भजन हो जायेगा। विषय-सुख भोगने की इच्छा ही बन्धन है। इच्छा, वासना-कामना और संकल्प छोड़कर सब प्रभु का है यह समझकर निष्काम होकर सब व्यवहार करो तो सब भजन हो जाएगा।
आश्रम से प्रकाशित पुस्तक " सामर्थ्य स्रोत " से लिया गया प्रसंग
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