अज्ञान, क्षुधा, पिपासा, रोग, अशौच और
चपलता से दूषित जानवरों
की सी अवस्थावाली बाल्यावस्था की
निन्दा।
देह
की सभी अवस्थाएँ दुःखरूप नहीं है, क्योंकि उसकी बाल्यावस्था की सब लोग स्पृहा करते
हैं, इससे प्रतीत होता है कि वह सुखमय है। 'तद्यथा महाराजो वा
महाब्रह्मणो वा महाकुमारो वा अतिघ्नीमानन्दस्य गत्वा शयीत' यह श्रुति भी बाल्यावस्था में अतिशय आनन्द का प्रतिपादन करती
है, ऐसी शंका करके विस्तारपूर्वक बाल्यावस्था की अनर्थकारिता का प्रतिपादन करने के
लिए प्रतिज्ञा करते हैं।
श्रीरामचन्द्रजी
ने कहाः महर्षे, चंचल आकारावाले जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उदभिज्ज – इन चार शरीरों
से पूर्ण और नाना प्रकार के कर्तव्यभाररूपी तरंगों से युक्त संसारसागर में मनुष्य
जन्म पाकर भी बाल्यावस्था में केवल दुःख ही मिलता है। पहले मनुष्यजन्म ही दुर्लभ
है, वह किसी प्रकार पुण्य परिपाक से यदि प्राप्त भी हो गया, तो उसमें बाल्यावस्था
अतिक्लेशकारक है।।1।।
जिसकी
पहले प्रतिज्ञा की थी, उसी अर्थ का विस्तार से वर्णन करते हैं।
अशक्ति
(असामर्थ्य), आपत्तियाँ, खाने-पीने आदि की तृष्णा, मूकता, (बोल न सकना),
मूढ़बुद्धिता (जान न सकना), क्रीडा, कौतुक आदि के विषय में अभिलाषा करना, न मिलने
पर दीन-हीन बन जाना और चंचलता – ये सब बाल्यावस्था में ही होते हैं।।2।। हाथियों
के बन्धन-स्तम्भ के समान बाल्यावस्था अकारण क्रोध और रोदन से भीषण और दीनता से
जर्जरित दशाओं में बन्धन है अर्थात जैसे अकारण क्रोध, रोदन आदि से भीषण और दीनता
से जर्जरित अवस्थाओं में हाथी का बन्धनस्तम्भ (आलान) बन्धन होता है, वैसे ही अकारण
क्रोध, रोदन आदि से भीषण और दैन्य से जर्जरित अवस्थाओं में प्राणियों का बाल्यकाल भी
बन्धन ही है।।3।। जैसी पराधीनताप्रयुक्त चिन्ताएँ बाल्यावस्था में जीव के हृदय को
पीड़ित करती हैं, वैसी मरण में, बुढ़ापे में, रोगावस्था में, आपत्ति में एवं
यौवनावस्था में नहीं करती।।4।। बाल्यावस्था में पशुपक्षियों की-सी चेष्टाएँ होती
हैं, सभी लोग बालकों की भर्त्सना करते हैं, सचमुच चंचल बाल्यावस्था मरण से भी
बढ़कर दुःखदायिनी है।।5।। सामने स्थित प्रतिबिम्ब के समान बाल्यावस्था में स्फुट
और निबिड़ अज्ञान रहता है अथवा प्रत्येक क्षण में चित्त में तत् सत् विषयों का
प्रतिबिम्ब पड़ने से अनेक प्रकार की भ्रान्तियाँ होती हैं, अतएव यह नाना प्रकार के
संकल्पों से तुच्छ है। तत्-तत् संकल्पित विषयों के न मिलने से बाल्यावस्था में मन
चारों ओर से कटा हुआ-सा और जीर्णशीर्ण-सा दुःखित रहता है, भला ऐसी बाल्यावस्था
किसको सुखप्रद होगी ?।।6।। बाल्यावस्था में अज्ञानवश जल,
अग्नि और वायु से सदा उत्पन्न होने वाले भय से पद-पद में जैसा दुःख होता है, वैसा
आपत्ति में भी किसी को न होगा अर्थात् बाल्यावस्था में आपत्ति से भी बढ़कर दुःख
होता है।।7।। बालक बाल्यावस्था में निरन्तर विविध दुश्चेष्टाओं में-दुर्लीलाओं
में, दुराशाओं में, दुरभिसन्धानों में और दुर्विलासों में सहसा पड़कर ये सार
वस्तुएँ हैं, ऐसे महाभ्रम को प्राप्त होता है।।8।। बाल्यावस्था में बालक तुच्छ
कार्य को भी नन्हें बच्चे या निपट पागल के कहने-मात्र से बड़ा महत्त्व दे डालते
हैं, अनेक दुष्चेष्टाएँ करते हैं और किसी प्रकार की भी प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं
होते, इसलिए पुरुष की बाल्यावस्था, गुरु द्वारा किये ताड़न आदि से उत्पन्न दुःख
भोगने के लिए ही है, सुख के लिए नहीं है। अर्थात् निष्फल कार्यप्रवृत्ति और
सम्पूर्ण दुष्कर्मों का आवासरूप बाल्यकाल किसी प्रकार की भी शान्ति प्रदान नहीं
करता, उक्त काल में प्रायः प्रतिक्षण गुरुजनों के समीप दण्डित होकर दुःखित होना
पड़ता है और किसी प्रकार की भी प्रशंसा प्राप्त नहीं होती।।9।। जैसे उल्लू दिन में
अन्धकारमय गड्ढों में छिपे रहते हैं, वैसे ही जितने दोष, जितने दुराचार, जितने
दुष्कर्म और जितनी मानसिक चिन्ताएँ हैं, वे सब बाल्यावस्था में जीव के हृदय में
छिपकर बैठे रहते हैं।।10।। ब्रह्मन्, बाल्यावस्था रमणीय (सुखमय) है, ऐसी जो लोग
कल्पना करते हैं, वे सब दुर्बुद्धि हैं, उन हतचित्त मूढ़बुद्धि लोगों को बार-बार
धिक्कार है।।11।। जिसमें हिंडोले के समान चंचल मन विविध विषयों के आकार को प्राप्त
होता है, तीनों लोकों में अत्यन्त अमंगल वह बाल्यावस्था किस प्रकार सुखकर हो सकती
है ? मुनिवर, सम्पूर्ण प्राणियों की सभी
अवस्थाओं की अपेक्षा बाल्यावास्था में मन दस गुना चंचल होता है। मन की चंचलता का
अधिक होना दुःख का हेतु है अर्थात जितना ही मन चंचल होगा, उतना ही अधिक कष्ट होगा,
यह भाव है।।12,13।। मन स्वभावतः चंचल है ही बाल्यावस्था सम्पूर्ण चंचल पदार्थों
में सर्वश्रेष्ठ है। उन दोनों का सम्बन्ध होने पर चंचलता प्रयुक्त अनर्थ से बचाने
वाला कौन है ? अर्थात् कोई नहीं है। ब्रह्मन्,
बाल्यावस्था से आक्रान्त चित्त से युवतियों के लोचनों ने, बिजली ने, अग्नि की
ज्वालाओं ने और तरंगों ने चंचलता सीखी है अर्थात् मन सम्पूर्ण चंचल पदार्थों में
सर्वश्रेष्ठ है। सभी व्यवहारों में बाल्यावस्था और मन – ये दोनों सदा सहोदर भाई-से
प्रतीत होते हैं, ये दोनों चंचल हैं – दोनों की स्थिति क्षणिक है। दुःखपूर्ण
सम्पूर्ण दुर्व्यसन, सम्पूर्ण दोष और सम्पूर्ण मानसिक चिन्ताएँ बाल्यावस्था में ही
निवास करती हैं, जैसे कि मनुष्य धनवान पुरुष के आश्रय में रहते हैं।।14-17।। यदि
बालक को प्रतिदिन मन को प्रसन्न करने वाली नई-नई वस्तुएँ न मिले, तो वह विष के
समान असह्य चित्तविकृति से मूर्च्छा को प्राप्त हो जाता है। बालक कुत्ते के समान
थोड़े से खाने पीन की वस्तु देने आदि से वश में आ जाता है, थोड़े से घुड़कने आदि
विकृत हो जाता है और अपवित्र में (विष्ठा आदि में) क्रीड़ा करता है अर्थात् जैसे
कुत्ता थोड़ा-सा खाना देने या पुचकारने से वश में हो जाता है, थोड़ा सा घुड़काने
या छड़ी आदि दिखाने से बिगड़ जाता है और विष्ठा आदि से अपिवत्र स्थानों में खेलता
है, ठीक वैसे ही बालक भी है।।18,19।। जैसे वर्षा से भीगी हुई और धूप से तपी हुई
भूमि के ऊपर सदा भाप निकलती है, इधर उधर कीचड़ व्याप्त होता है और भीतर जल रहता
है, वैसे ही बालक भी सदा आँसुओं से युक्त मुखवाला, कीचड़ से सना एवं मूढ़बुद्धि और
अचेतन रहता है।।20।। मनुष्य सदा दूसरों से डरने और भोजन करने वाले, दीन-हीन, दुष्ट
और अदृष्ट सब वस्तुओं की इच्छा करने वाले एवं चंचल बुद्धि और शरीर से युक्त
बाल्याकाल को केवल दुःख भोग के लिए धारण करता है। विवश बालक जब अपने संकल्प से
इच्छित पदार्थों को नहीं पाता, तब अत्यन्त सन्तप्त होकर ऐसे दुःख को प्राप्त होता
है कि मानों किसी ने उसके हृदय को काट डाला हो।।21,22।। मुनिवर, बालक को दुष्ट
चेष्टाओं या दुष्ट मनोरथों से उत्पन्न और भाँति भाँति के वंचना के उपायों से भीषण
जो दुःख होते हैं, वे दूसरे किसी को नहीं होते।।23।।
बाल्यवास्था
से बढ़कर दुःख और किसी अवस्था या योनि में नहीं होते, यह आशय है।
जैसे
प्रखर ग्रीष्म ऋतु से वनभूमि सन्ताप को प्राप्त होता है। बालक जब विद्यालय में
पढ़ने में जाता है, तब उसे बन्धनस्तम्भ में बँधे हे हाथी के समान पराधीनता, बेंतों
की मार आदि और भी बड़े बड़े भीषण कष्ट झेलने पड़ते हैं। बाल्यावस्था में असत्य
पदार्थों में ही सत्यत्यबुद्धि होती है, अनेक प्रकार के मनोरथों का साम्राज्य छाया
रहता है और हृदय बड़ा कोमल रहता है, अतएव बाल्यावस्था में अत्यन्त दीर्घ दुःख के
सिवा सुख का लेश भी नहीं होता।।24-26।। किसी समय जब बालक भूख लगने से रोता है, तब
तुम्हें खाने के लिए भुवन (लोक) दूँगी, यों माता या पिता के कहने पर सन्तुष्ट होकर
वह भुवन को ही खाने की इच्छा करता है। तुम्हें चन्द्रमारूपी खिलौना देंगे, यों
ठगने पर आकाश से चन्द्रमा को हाथ में लेने की इच्छा करता है, ऐसी मूर्खता से पूर्ण
बाल्यावास्था कैसे सुखकर हो सकती है ?।।27।।
हे
महामते ! बालक के मन में शीत और ताप का अनुभव तो
होता है, पर वह उनका निवारण नहीं कर सकता, इसलिए बालक और वृक्ष में क्या भेद है
अर्थात् बालक वृक्ष के समान जड़ है।।28।। बालक सचमुच पक्षियों से सदृश हैं, जैसे
भूखे पक्षी आकाश में बहुत ऊँचा उड़ने की इच्छा करते है, वैसे ही भूखा बालक भी आहार
लेने के लिए हाथों के सहारे उठने की इच्छा करते हैं, पर सामर्थ्य न होने से उठ
नहीं सकते। जैसे पक्षियों को दूसरे से भय और आहार की चिन्ता प्रधानरूप से रहती है,
वैसे बालक भी भय और भोजन में तत्पर रहते हैं।।29।। बाल्यावस्था में गुरुओं से,
माता-पिता से, अन्याय जनों से एवं अपने से बड़े बालक से भय बना रहता है, इसलिए
बाल्यावस्था को यदि भय का कहा जाय, तो कोई अत्युक्ति न होगी।।30।। महामुने,
सम्पूर्ण दोषपूर्ण दशाओं से दूषित किसी की रोकटोक के बिना स्वच्छन्द विहार करने
वाले अविवेक का घर बाल्यकाल किसी के भी सन्तोष के लिए नहीं हो सकता।।31।।
उन्नीसवाँ सर्ग समाप्त
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