इकतीसवाँ
सर्ग
सासांरिक
जीवन वर्षाऋतु के मेघ के समान कुत्सित है, अतः संसार निर्मुक्तिपूर्वक सुखपदप्रापक
उपाय का प्रश्न।
पूछे जाने वाले
प्रश्नों के उपोदघातरूप से संसार में जीवन की वर्षाऋतु के मेघरूप से कल्पना करते
हैं।
ब्रह्मन, इस
संसार में जीव की आयु ऊँचे वृक्षों के चंचल पत्तों में लटक रहे, जलकण (ओस बिन्दु)
के सदृश क्षणभंगुर एवं शिवजी के आभूषणरूप चन्द्रकला के सदृश अत्यल्प है(Ǿ)(दुर्लक्ष्य
होने के कारण यदि कहा जाय कि उसका अस्तित्व नहीं है, तो भी कोई अतिशयोक्ति न
होगी), तुच्छ देह धानों के खेतों में बोल रहे मेंढकों के गले के चमड़े के समान
अस्थिर है, इष्ट-मित्र और बन्धु-बान्धवों का समागम सदगति का प्रतिबन्धक होने के
कारण जाल की नाईं तने हुए झाड़ियों के समूह के सदृश हैं, वासनारूपी पूर्वी वायु से
वेष्टित, तुच्छ आशारूपी बिजली से विभूषित और मोहरूपी निविड कुहरे से जनित मेघों के
खूब जोर से तर्जन-गर्जन, पूर्वक वज्रपात करने पर, अति उग्र और चंचल लोभरूपी मयूर
के ताण्डव नृत्य करने पर, अनर्थरूपी कुटजवृक्षों की कलियों के चटचट शब्दपूर्वक खूब
विकसित होने पर, अतिक्रूरतम यमरूपी वनबिलाव के सम्पूर्ण प्राणिरूपी चूहों का अविरत
संहार करने पर एवं लगातार मूसलाधार वृष्टि के किसी अनिर्दिष्ट स्थान से अपने ऊपर
गिरने पर इस संसार में किस उपाय का अवलम्बन करना चाहिए ? कौन गति है?
Ǿ
वर्षाऋतु में पूर्ण चन्द्रमा का भी कठिनाई से यदा कदा ही दर्शन हो जाता है फिर
कलामात्र अवशिष्ट कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के चन्द्रमा की दुर्लक्ष्यता में तो कहना
ही क्या है ? उसका दिखाई देना ही आश्चर्य है।
किसका स्मरण
करना चाहिए और किसकी शरण में जाना चाहिए(*)? जिससे कि यह जीवनरूपी अरण्य भविष्य
में अकल्याणकारी न हो।।1-6।।
* जैसे
अरण्य में प्राप्त आँधी, वृष्टि आदि से उत्पन्न क्लेश की निवृत्ति के लिए छाता,
छप्पर, चटाई आदि उपाय हैं, पारदगुटिका, औषधिलेप आदि द्वारा शीघ्र वृष्टिरहित दूर
देश में गति (गमन) होती है, संकट से बचाने वाले मन्त्र या देवता आदि का स्मरण होता
है, पर्वत की गुफा का आश्रय लिया जाता है वैसे ही सांसारिक क्लेश की निवृत्ति के
लिए भी क्या कोई उपाय, गमन, स्मरण और आश्रयम आदि साधन है ? यह अभिप्राय है।
भगवन्, तपःशक्ति
और ज्ञानशक्ति से जिनकी बुद्धि की कोई सीमा नहीं है, ऐसे आप सरीखे महात्मा अति
तुच्छ वस्तु को भी दिव्य बना सकते हैं। यह सामर्थ्य पृथिवी में मनुष्यों में एवं
स्वर्ग में देवताओं में कहीं भी नहीं है। देखिये न ! यह आपके ही तपोबल और ज्ञानबल
का प्रभाव है कि त्रिशंकु को कुलगुरू श्रीवसिष्ठजी द्वारा दिया गया शाप
आकल्पस्थायी स्वर्गरूप में परिणत हो गया एवं शुनः शेप की मृत्यु दीर्घायु में
परिणत हो गई। मुनिवर, यह निन्द्य संसार निरन्तर दुःखप्राप्ति से परिपूर्ण है, अतएव
इसमें कुछ भी रस (स्वाद) नहीं है, कृपया बतलाइये कि यह किस उपाय से अज्ञाननिवृत्ति
द्वारा सुस्वाद (सरस) बनता है ? जैसे फूलों से अत्यन्त रमणीय वसन्त के आगमन से
पृथिवी मनोहर हो जाती है वैसे ही सम्पूर्ण दुःखों की एकमात्र कारण आशा के प्रसिद्ध
स्वभाव से प्रतिकूल परिणामरूपी (पूर्णकामतारूपी) दुग्धस्नान से संसार सुखमय हो
जाता है।।7-9।। महर्षे, काम से कलंकित मनरूपी चन्द्रमा विद्वान जनों द्वारा अनुभूत
किस धोवन से (क्षालन से) धोया जाय जिससे कि उससे निर्मल (काम आदि मल से रहित)
आनन्दरूपी चाँदनी उदित हो। जिसे संसार की अनर्थकारिता का अनुभव है और जो ऐहिक और
लौकिक भोगों का विवेकजनित व्यवहार करना चाहिए कृपया उसका निर्दश कीजिए। भगवन्,
क्या करने से रागद्वेषरूपी महाव्याधियाँ एवं प्रचुर भोगों से परिपूर्ण दुःखदायिनी
सम्पत्तियाँ संसाररूपी समुद्र में विहार करने वाले प्राणी को क्लेश नहीं देतीं, कृपया
उसे हमसे कहिए। हे धीर श्रेष्ठ ब्रह्मन्, जैसे अग्नि में गिरने से भी पारद रस जलता
नहीं, वैसे ही अग्नि के तुल्य सन्ताप देने वाले संसार में पड़ने पर भी ज्ञानामृत
से सुशोभित पुरुष किस उपाय का अवलम्बन करने से सन्ताप को प्राप्त नहीं होता, कृपया
उसको मुझसे कहिए।।10-13।।
यदि व्यवहार से
दुःख होता है तो व्यवहार का त्यागकर दीजिए ऐसी शंका होने पर कहते हैं।
जैसे सागर में
उत्पन्न हुए मछली आदि जलजन्तुओं के प्राण जल के बिना नहीं रह सकते हैं, वैसे ही
व्यवहारों के सम्पादन के बिना इस संसार में स्थिति नहीं हो सकती।।14।।
जैसे अग्नि की
ज्वाला दाहरहित नहीं हो सकती है, वैसे ही इस संसार में ऐसा कोई सत्कर्म नहीं है,
जो राग-द्वेष से रहित हो तथा सुख-दुःख से वर्जित हो अर्थात् सम्पूर्ण सत्कर्मों
में किसी न किसी प्रकार राग-द्वेष का सम्बन्ध और सुख-दुःख का संसर्ग है ही।।15।।
बाह्य व्यवहार
रहे, वह हमारा क्या बिगाड़ सकता है, मन की चंचलता ही परम दुःख है अतएव जिससे उसकी
चिकित्सा हो, वही उपाय कहिए, ऐसा कहते हैं।
मुनिश्रेष्ठ,
तीनों भुवनों में मन का विषयों से संसर्ग होना ही मन की सत्ता (अस्तित्व) है और
उसका विषयों से सम्पर्क न होना ही उसकी सत्ता का विनाश (मन के अस्तित्व का अभाव)
है और मन की सत्ता का विनाश सम्पूर्ण विषयों के बाधक तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति में
कारणभूत युक्ति के उपदेश के बिना नहीं हो सकता, इसलिए जब तक मुझ में तत्त्वज्ञान
का उदय न हो तब तक मुझे उक्त युक्ति का बार बार उपदेश दीजिए। अथवा जिस युक्ति से,
मेरे लोकव्यवहार में रत रहने पर भी, मुझे दुःख प्राप्त न हो, व्यवहार की उस उत्तम
युक्ति का आप मुझे उपदेश दीजिए। युक्ति से मोह का (अज्ञान का) निराकरण पहले किस
उत्तम चित्तवाले ने किया और किस प्रकार किया ? जिससे चित्त पवित्र होकर परम शान्ति
को प्राप्त होता है। मोह की निवृत्ति के लिए जो कुछ आपको जानकारी हो उसे कृपाकर
कहिये, जिसके अवलम्बन से अनेक साधु-सन्त पुरुष निर्वाण को प्राप्त हो गये
हैं।।16-19।।
यदि मुझे उक्त
युक्ति प्राप्त न होगी तो मैं मरणान्त अनशन आरम्भ कर दूँगा, जीवन के उपयोगी
व्यवहार कदापि न करूँगा, ऐसा कहते हैं।
ब्रह्मन्, यदि
वैसी कोई युक्ति है ही नहीं अथवा उसके विद्यमान रहने पर भी कोई महात्मा पुरुष
मुझको उसका स्पष्ट रीति से उपदेश नहीं करता है या मैं स्वयं ही विचार कर उस
सर्वश्रेष्ठ शान्ति को नहीं पा सकता हूँ, तो सम्पूर्ण चेष्टाओं का त्यागकर
निरहंकारता को प्राप्त हुआ मैं न तो भोजन करूँगा, न जल पीऊँगा, न वस्त्र पहनूँगा,
न स्नान, दान, भोजन आदि कर्म ही करूँगा और न सम्पत्ति और आपत्ति की अवस्था में
किसी प्रकार के कार्य का अवलम्बन करूँगा। मुनिवर, देहत्याग को छोड़कर मैं और कुछ
भी नहीं चाहता हूँ। मैं सम्पूर्ण शंकाओं, मोह-ममता, डाह-द्वेष आदि से शून्य होकर
भित्ति में लिखित चित्र की नाईं मौन रहता हूँ। तदुपरान्त क्रमशः श्वास-उच्छवास
क्रिया का त्याग कर अवयव संगठनरूप देहनामक इस अनर्थ का त्याग करता हूँ, इस देहरूप
अनर्थ का न मुझसे कोई सम्बन्ध है, न मेरा इससे सम्बन्ध है और न मेरा और किसी से
सम्बन्ध है, मैं तेलरहित दीपक की नाईं शान्त होता हूँ। मैं सम्पूर्ण पदार्थों का
परित्याग कर इस अनर्थरूप देह का त्याग करता हूँ। श्रीवाल्मीकि जी ने कहाः जैसे
मयूर बड़े-बड़े मेघों के सन्मुख केकावाणी (मयूर की वाणी) बोलकर, थकावट होने के
कारण चुप हो जाता है, वैसे ही निर्मल चन्द्रमा के सदृश मनोहर एवं तत्त्वविचार से
उदार चित्तवाले श्रीरामचन्द्रजी यों कहकर वसिष्ठ आदि गुरुओं के सामने चुप हो
गये।।20-27।।
इकतीसवाँ सर्ग
समाप्त
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