सोलहवाँ सर्ग
श्रीरामचन्द्रजी
द्वारा चित्त और मन के विविध दोषों का युक्तियों और दृष्टान्तों से विस्तारपूर्वक
वर्णन।
अहंकार
के समान चित्त और मन भी सुख हेतु नहीं हैं, किन्तु दुःख हेतु ही हैं, ऐसा कहते
हैं।
श्रीरामचन्द्रजी
ने कहाः 'हे मुनिवर, महापुरुषों की सेवा मुक्ति
का द्वार है' ऐसा वचन है इसलिए सज्जनों (मुमुक्षुओं)
द्वारा अवश्य करणीय महात्माओं की सेवा के बिना काम आदि दोषों से चित्त की शिथिलता
को (चंचलता को अर्थात् पुरुषार्थ साधन
अपटुता को) प्राप्त होता है। चंचल चित्त वायु प्रवाह में पतित मयूर की पूँछ
के अग्रभाग की नाईं स्थिर नहीं रहता, इधर-उधर घूमता रहता है। मन भी प्राणवायु के
अधीन और चंचल है, ऐसा आगे कहेंगे।।1।।
उपर्युक्त
कथन को ही दृष्टान्त द्वारा स्फुट करते हैं।
अत्यन्त
व्याकुल चित्त युक्त और अयुक्त विचार के बिना इधर-उधर दूर से भी दूर प्रदेश तक,
ग्राम में कुत्ते की नाईं, घूमता है कहीं पर भी अपनी पूर्ति के उपाय को न पाकर
दीन-हीन बना रहता है अर्थात् जैसे कुत्ते अपने उदर की पूर्ति के लिए व्यग्रचित्त
होकर ग्राम में घूमते हैं, अभीष्ट वस्तु न पाकर दीन-हीन बने रहते हैं।।2।। पहले तो
उसे कहीं पर कुछ मिलता ही नहीं। कदाचित दैवयोग से प्रचूर धन प्राप्त होने पर भी न
पाये हुए के समान वह अतृप्त ही रहता है जैसे करण्डक (बांस या बेंत से बना हुआ
पात्र) जल से नहीं भरता, वैसे ही अन्तःकरण भी पूर्ण नहीं होता अर्थात् जैसे बांस
की शलाका और बेंत की सींकों से बनी हुई टोकरी आदि पात्र जल से भरने पर भी पूर्ण
नहीं होता, छिद्रों से जल के निकल जाने से उसमें कुछ भी जल नहीं रहता, वैसे ही
व्यग्रचित्तवाले अशान्त लोगों का अन्तःकरण भी पूर्ण नहीं होता।।3।। जैसे अपने
सजातीयों के झुण्ड से बिछुड़ा हुआ एवं बन्धन में पड़ा हुआ मृग सुख को प्राप्त नहीं
होता, वैसे ही सब प्रकार से शून्य (मिथ्या) नित्य दुराशारूप रज्जु से वेष्टित मन
कभी सुख को प्राप्त नहीं होता।।4।। हे मुने, तरंगों के समान चंचल वृत्ति को धारम
कर रहा मेरा मन स्थूल और सूक्ष्म अवयवों के छेद के सिवा एक क्षण के लिए भी अपने
स्थान पर स्थिरता को प्राप्त नहीं होता। विषयों के अनुसन्धान से विविध क्षोभ को
प्राप्त हुआ मेरा मन मथनकाल में मन्दराचल के आघात से उच्चलित क्षीरसागर के जल के
समान दसों दिशाओं में दौड़ता है, किन्तु सुख कहीं पर भी नहीं पाता।।5,6।। भोगों की
प्राप्ति के हेतुभूत उत्साहरूप कल्लोलों से जिसने डूबने लायक आवर्त बना रक्खे हैं,
मायारूप भोगों की प्राप्ति के हेतुभूत उत्साहरूप कल्लोलों से जिसने डूबने लायक
आवर्त बना रक्खे हैं, माया रूप (परंवंचनारूप) मगरों से परिवेष्टित मनरूप महासमुद्र
को अपने वश में करने के लिए मैं असमर्थ हूँ।।7।। ब्रह्मन्, मनरूपी हरिण नरक की
परवाह न कर भोगरूपी दूब के तिनकों की अभिलाषा से युक्त होकर तीव्र वेग से बहुत दूर
तक दौड़ता है, अर्थात् जैसे मृग गर्त में गिरने की चिन्ता न कर दूबके तिनकों के
लोभ से वेग के साथ बहुत देर तक दौड़ते हैं, वैसे ही मेरा मन नरकपतन का भय छोड़कर
भोगलाभ की आशा से बहुत दूर तक दौड़ता है।।8।। जैसे समुद्र अपनी चंचलता का त्याग
नहीं करता, वैसे ही चित्तासक्त और चंचलस्वभाव मेरा मन भी स्थूल और सूक्ष्म अवयवों
के विनाश का त्याग नहीं करता।।9।। जैसे पिंजड़े में बँधा हुआ सिंह विविध चिन्ताओं
से पूर्ण होकर चंचल चित्तवृत्ति से एक जगह स्थिर नहीं रह सकता, वैसे ही विविध
चिन्ताओं से अतिचपल और चंचल वृत्ति से युक्त मेरा मन भी एक जगह धैर्य को नहीं
प्राप्त हो रहा है।।10।।
चित्त
स्वतः ही चपलस्वभाव है, विविध चिन्ताओं द्वारा और भी विचलित किया जाता है, इसलिए
हठपूर्वक उसका विरोध करने पर भी वह धैर्य को प्राप्त नहीं होता, यह भाव है।
जैसे
हंस जल से दूध को निकाल लेता है, वैसे ही मेरा मोह रूपी रथ पर सवार मन भी इस शरीर
से उद्वेगरहित समतारूप सुख को हर लेता है। अर्थात् उत्कर्ष और अपकर्ष औपाधिक हैं
(उपाधिकल्पित हैं) अतएव परमार्थरूप से सब प्राणियों में आत्मा एकरूप से(Ω) विद्यमान है।
Ω एकात्मविज्ञान की अभयपद और समतासुख है। साम्यसुख ही नित्य और
निरतिशय है। उससे अतिरिक्त जो कुछ है वह सभी असार और दुःखप्रद है। देहात्मविज्ञान
सबसे बढ़कर असार है। इस शरीर में सार और असार दोनों विद्यमान हैं, परंतु मोहग्रस्त
मन असार का ही ग्रहण करता है, सार का ग्रहण नहीं करता।
जीवन्मुक्तों
द्वारा उक्त प्रकार से अनुभूत आत्मा की एकरूपता ही समतासुख कही जाती है। मन के
मोहाक्रान्त होने पर इस शरीर में पहले से प्राप्त भी उस समतासुख को मन ग्रस लेता
है। और असार (तुच्छ) देहमात्र में आत्मभाव बच जाता है, यह भाव है।
हे
मुनिनायक, चित्त की आत्माभिमुखी वृत्तियाँ (स्वभाव) विविध द्वैत विषयों में
आसक्तिकल्पनारूप शय्या पर सोई हुई हैं, वे बोध देने वाले शास्त्र और आचार्य के
उपदेश के बिना केवल अपनी बुद्धि से किये गये हजार बार के विचार से भी नहीं जागती।
उन वृत्तियों के न जागने से व्याकुल हुआ मैं सन्तप्त हूँ।।12।। जिसमें 'यह मैं हूँ' और 'यह मेरा है' इस प्रकार
अन्योन्यतादात्म्याध्यास और अन्योन्यसंसर्गध्यासरूप दृढ़ ग्रन्थियाँ पड़ी हैं, ऐसे
भोगस्पृहारूपी जाल में स्थित मैं अपने-आप चित्त द्वारा बाँधा गया हूँ, जैसे की
अनाज के दानों के लोभ से पक्षी बहलिए द्वारा जाल से बाँधा जाता है।।13।। मुने,
जैसे दुःसह धूम और ज्वाला से युक्त अग्नि सूखे तृण को जला डालती है, वैसे ही
विस्तारित कोपरूपी धूम से युक्त चिन्तारूपी ज्वाला से व्याप्त चित्त से मैं जलाया
गया हूँ।।14।। जैसे क्रूर और तृष्णा के समान सदा भूखी कुत्ती के पीछे चलने वाला
कुत्ता शव को खा जाता है, वैसे ही निष्ठुर और तृष्णारूपी भार्या के पीछे चलने वाला
चित्त अज्ञता को प्राप्त हुए मुझको खा गया
है।।15।।
मुनिवर,
जैसे तरंगों से चंचलवृत्तिवाला जल का वेग तट के वृक्ष को उखाड़ कर फेंक देता है,
वैसे ही तरंग के समान चंचल वृत्तिवाले जड़ चित्त ने मेरी भी दशा कर रखी है।
धर्मकर्मों से स्वर्ग के प्राप्त होने पर सुखलेश से शून्य इसी लोक में कीट, पतंग
आदि योनियों में भ्रमण करने के लिए चित्त ने मेरी वह दशा कर रक्खी है, जैसे कि
आँधी तृण की दशा करती है। आँधी भी आकाश मे उड़ रहे तृण को भूमि पर पटक देती है और
भूमि पर स्थित तृण को इधर-उधर उड़ा देती है।।16, 17।। इस संसाररूपी सागर से पार
होने के लिए नित्य उद्योग कर रहे मुझ को यह कुत्सित चित्त इस भाँति रोकता है, जैसे
की जल के प्रवाह को बाँध रोकता है।।18।। पृथिवी से (उर्ध्व प्रदेश से) पाताल को
(अधः प्रदेश को) और पाताल से (अधःप्रदेश से) पृथिवी को (उर्ध्व प्रदेश को) जा रही
रस्सी से लपेटे हुए घटीयंत्र (रस्सी से जल आदि भार को खींचने के लिए एक ओर जिसमें
रस्सी बँधी रहती है, दूसरी ओर पत्थर आदि भरी वस्तु बँधी रहती है, जिसे अरहट कहते
हैं, कुएँ से जल निकालने का यन्त्र) के समान मैं इस कुत्सित चित्तरूप रस्सी से
वेष्टित होकर कभी ऊपर जाता हूँ कभी नीचे गिरता हूँ।।19।। जैसे बालकों को डराने के
लिए कल्पित वेताल (विकरालस्वरूप) बालक को सत्य प्रतीत होता है, किन्तु बाल्यावस्था
के बीतने पर उसके लिए वह असत्य हो जाता है, वैसे ही अज्ञान से मुझे दुर्जय प्रतीत
होने वाला और विचार करने पर असत्यस्वरूप मन से मैं गृहीत हूँ जैसे कि बालक वेताल
से गृहीत होता है।।20।। ब्रह्मन्, मन अग्नि से भी अधिक उष्ण, पर्वत से भी दुरारोह,
वज्र से भी बढ़कर कठोर है, इसलिए मनरूपी ग्रह दुःख से भी गृहीत (वश में) नहीं हो
सकता।।21।। जैसे मांसभक्षी चील, कौए आदि पक्षी मांस को देखते ही उसे खाने के लिए
दौड़ पड़ते हैं हित और अहित का विचार नहीं करते, वैसे ही मन भी इन्द्रिय द्वारा
देखे गये विषयों में टूट पड़ता है, हित और अहित का विचार नहीं करता और क्षणभर में
उससे विरत हो जाता है। जैसे बालक खिलौने को देखते ही उस पर टूट पड़ता है और थोड़ी
देर के बाद उसे छोड़कर दूसरा खेल बालक खिलौने को देखते ही उस पर टूट पड़ता है और
थोड़ी देर के बाद उसे छोड़कर दूसरा खेल खेलने लगता है।।22।। हे तात, जैसे समुद्र
जड़स्वभाव (जलरूप), चंचल, बड़े बड़े आवर्ती से (भौंरियों से) भरा और अनेक सर्प आदि
हिंस्र जन्तुओं से पूर्ण है वैसे ही यह मन भी जड़, चंचल, विस्तीर्ण आवर्तरूपी
वृत्तियों से युक्त और काम आदि छः शत्रुरूपी सौंपों से व्याप्त है। जैसे समुद्र
हाथी को दूर फेंक देता है वैसे ही मन भी मुझे दूर फेंक रहा है।।23।। हे साधो,
समुद्र को पीने, सुमेरू पर्वत को लाँघने और अग्निभक्षण से भी चित्त को अपने वश में
करना कठिन है अर्थात् समुद्रपान आदि महान कार्य हैं, पर उनके होने की सम्भावना हो
सकती है, परन्तु मन का निग्रह करना उससे भी कठिन है।।24।। सम्पूर्ण पदार्थों का
कारण चित्त ही है उसके अस्तित्व में तीनों लोकों का अस्तित्व है, उसके क्षीण होने
पर तीनों लोक नष्ट हो जाते हैं। हे मुने, इसलिए प्रयत्नपूर्वक मन की चिकित्सा करनी
चाहिए अर्थात् रोग की तरह चित्त का अवश्य परित्याग करना चाहिए। हे मुनिवर, जैसे
विन्ध्याचल आदि श्रेष्ठ पर्वत से अनेक वनों की उत्पत्ति होती है वैसे ही मन से ही
ये सैंकड़ों सुख-दुःख उत्पन्न हुए है। ज्ञान से चित्त के क्षीण होने पर वे अवश्य
ही नष्ट हो जाते हैं, ऐसा मेरा निश्चय है।।25,26।। मुमुक्षु पुरुषों ने जिस चित्त
के जीतने पर शम, दम आदि गुणों के स्वाधीन होने की, काम, कर्म और वासनारूप कलाओं से
युक्त सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों से सम्पन्न अविद्या के नाश की और
निरतिशयानन्दरूप ब्रह्म की प्राप्ति की आशा की थी, उस शत्रुरूप चित्त को जीतने के
लिए मैं तत्पर हुआ हूँ, अतएव वैराग्यसम्पत्ति से युक्त होने के कारण मैं जैसे
चन्द्रमा मेघपंक्ति का अभिनन्दन नहीं करता वैसे ही जड़-मलिन-विलासवाली लक्ष्मी का
अभिनन्दन नहीं करता हूँ।।27।।
सोलहवाँ सर्ग समाप्त
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