जीवन जीवत्व से ब्रह्मत्व की ओरि विकास की एक प्रक्रिया है।
हे मानव ! इस असार संसार की मिथ्या दौड़ धूप में कब तक दुःखी होना है ? नहाना, धोना, खाना-पीना, रोटी के लिए परिश्रम करना, निद्राधीन होना और वंशवृद्धि करना... यह कोई जीवन की सार्थकता नहीं है। जीवन की सार्थकता तो है अपने आपको जानने में।
रोटी के टुकड़ों की फिकर नहीं करो। जिसने जीवन दिया है वही अनाज भी देगा ही। फिकर करना ही हो तो इस बात की करो कि संसार के बन्धन से मुक्ति कैसे हो।
अपने लिए तो सब जीते हैं। दूसरों के लिए जो जीते हैं उनका जीवन धन्य है।
जीवन में प्रेम ही बाँटो, सुख ही बाँटो, दुःख न बाँटो। प्रेम और सुख बाँटोगे तो बदले में वे ही वापस आकर मिलेंगे। उसे कोई रोक नहीं सकता। .....हाँ बदले की अपेक्षा न रखो।
लोगों को अच्छा लगे इसलिए महँगे वस्त्र पहनना, उस ढंग से जीना यह तो लोगों की गुलामी हुई। लोग हमारे स्वामी हुए। वे हमारे भोक्ता हुए और हम उनके भोग्य हुए। लोग क्या कहेंगे ? लोगों को क्या अच्छा लगेगा ? अरे पागल ! यह नहीं सोचता कि लोकेश्वर को क्या अच्छा लगेगा ? सदगुरु को क्या अच्छा लगेगा ? शरीर को स्वस्थ रखने मात्र के लिए वस्त्रादि होना ठीक है लेकिन उसी में अधिक समय खर्चना, पूरी वृत्ति को लगाना यह जीवनदाता का घोर अपमान है।
बुद्धि रूपी स्त्री भीतर सोये हुए आत्मा रूपी स्वामी को छोड़कर बाह्य पदार्थों रूपी परदेसियों के साथ व्यवहार करती है। प्रेम स्वरूप परमात्मा को छोड़कर परदेसी को प्यार करने जाती है। विषयसुख भोगकर क्षणिक सुखाभास मिलता है लेकिन वह सुखाभास जीवन को अन्धकारमय कन्दरा में ही ले जाता है।
जगत के लोगों को खुश किये लेकिन आत्मदेव खुश नहीं हुए तो क्या खुशी मिली, खाक ? नाते-रिश्तेदारों को प्रसन्न किया लेकिन परमात्मा प्रसन्न नहीं हुए तो क्या प्रसन्नता मिली, खाक ? नश्वर चीजें इकट्ठी करने में जीवन खर्च दिया लेकिन आत्मधन नहीं मिला तो क्या कमाई की, खाक ?
जो शाश्वत है उस परम तत्त्व को जान लो। आप कहेंगेः हम तो गृहस्थ हैं। मैं कहता हूँ कि संन्यासी को योग की जितनी आवश्यकता है उससे ज्यादा आवश्यकता गृहस्थी को है। अपने जीवन को ऋषि जीवन बनाओ। योग के बल से अनेकों की जिन्दगियाँ बदल गई हैं तो तुम्हारी क्यों नहीं बदल सकती ? तुम अंशतः गुमराह हुए हो। यह गलती दूर करनी पड़ेगी। धन्य है उस वैदिक धर्म को कि जिसके कारण भारत जगत का गुरु बना है और भविष्य में भी बना रहेगा। लेकिन.... हमको जागना होगा। खड़ा होना पड़ेगा। जीवन आत्म-साक्षात्कार के लिए मिला है। यही समझाने के लिए विविध आध्यात्मिक उत्सवों की रचना की गई है।
आप अपने दिल की डायरी में सुवर्ण अक्षरों से लिखकर रखें कि प्रकृति में जो कुछ घटना घटती है वह जीव को अपने शिवस्वरूप की ओर ले जाने के लिए ही घटती है।
अपना हृदय विशाल रखो। अपने हृदय को सँभालो। कोई गिरता हो तो उसे थाम लो।
विषय-सेवन विष है, त्याग और संयम अमृत है। क्रोध विष है, क्षमा अमृत है। कुटिलता विष है, सरलता अमृत है। क्रूरता विष है, करूणा अमृत हे। देहाभिमान विष है, आत्मज्ञान अमृत है।
ऐसा कोई आदमी नहीं कि जिसको जीवन में सदा अनुकूलता मिलती रहे। ऐसा कोई आदमी नहीं कि जिसको सदा प्रतिकूलता मिलती रहे। ऐसा कोई आदमी नहीं कि जिसका सदा यश होता रहे या सदा अपयश होता रहे
आश्रम से प्रकाशित पुस्तक "ऋषि प्रसाद" से लिया गया प्रसंग
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