मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

बुधवार, 26 सितंबर 2012

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 23 (वैराग्य प्रकरण)


बत्तीसवाँ सर्ग
श्रीरामचन्द्रजी के वचनों को सुनने वाले लोगों के प्रचुर आश्चर्य का तथा देवताओं द्वारा की गई पुष्पवृष्टि का वर्णन।

श्रीवाल्मीकि जी ने कहाः कमल के सदृश नेत्रवाले राजकुमार श्रीरामचन्द्रजी के इस प्रकार मन के मोह को नष्ट करने वाले वचन कहने पर वहाँ पर बैठे हुए सब लोग आश्चर्य सागर में गोता खाने लगे, श्रीरामचन्द्रजी की वाणी सुनने के लिए मानों खड़े हुए उनके रोंगटों से उनके कपड़े छिद गये, वैराग्य की वासना से उनकी संसार की कारणभूत राग-द्वेष आदि सम्पूर्ण वासनाएँ नष्ट हो गईं और वे क्षणभर के लिए अमृतसागर की तरंगों में ओत-प्रोत से हो गये। श्रीरामचन्द्रजी की वे वाणियाँ सुनने में समर्थ लोगों ने ऐसे ध्यान से सुनीं कि वे निश्चलता के कारण चित्रलिखित से प्रतीत होते थे और हार्दिक आनन्द से उनका वदन प्रसन्न था। वे सुनने वाले थे, सभा में स्थित वसिष्ठ, विश्वामित्र आदि मुनि, मन्त्रणा करने में निपुण जयन्त, द्युष्टि आदि दशरथ आदि राजा महाराज, पर्शु आदि देशों के शासक, सामन्त, नगरवासी, भरत आदि राजकुमार, ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण, नौकर-चाकर, अमात्य, पिंजड़े में स्थित पक्षी, निश्चल क्रीडामृग (मनोविनोद के लिए पाले गये मृग), घास-दाना न चबा रहे घोड़े, अपने महल के झरोखे पर बैठी हुई, निश्चल अतएव आभूषणाओं के शब्दों से रहित कौशल्या आदि रानियाँ, बगीचे की लताओं में और महल के अग्रभाग में (कबूतर आदि के रहने के स्थान में) रहने वाले, पंखों को तनिक भी न हिला रहे एवं चुपचाप पक्षी, आकाशचारी सिद्ध, गन्धर्व, किन्नर एवं नारद, व्यास, पुलह आदि मुनिश्रेष्ठ उक्त महानुभावों ने और उनसे अतिरिक्त देवता, दिकपति देवराज आदि, विद्याधर तथा शेषनाग प्रभृति नागों ने श्री रामचन्द्रजी की विचित्र अर्थों से परिपूर्ण वे उदारतम वाणियाँ सुनीं।।1-11।।
रघुकुलरूपी आकाश के उज्जवल चन्द्रमा और चन्द्रमा के सदृश सुन्दर कमलनयन श्रीरामचन्द्रजी जब उक्त गम्भीर वचन कहकर चुप हो गये तब चारों ओर से उनकी प्रशंसा के पुल बँध गये, वाह वाह से आकाश गूँज उठा और साथ ही साथ सिद्धों ने आकाश से ऐसी घनी पुष्पवृष्टि की कि पुष्पवृष्टि के कारण चारों ओर चँदवा सा बँध गया। उक्त मन्दार के पुष्पों के मध्य में विश्राम ले रही भँवरों की जोड़ी की गुनगुनाहट से गुलजार थी, पुष्पवृष्टि की मधुर सुगन्ध और सुन्दरता से मनुष्यों का चित्त उनके अधीन नहीं रह गया था। वह पुष्पवृष्टि क्या थी मानों आकाशवायु से गिराये गये तारों की पंक्ति थी, पृथिवी में गिरी हुई अप्सराओं के हास की छटा थी, बरस चुके अतएव तर्जन-गर्जन से रहित और बिजली से दैदीप्यमान मेघों के छोटे-छोटे टुकड़ों की झड़ी थी, फेंके गये मक्खन के पिण्डों की परम्परा थी, मोतियों के हारों की राशि के समान विशाल हिमवृष्टि थी, चन्द्रमा के किरणों की माला थी और क्षीरसागर के लहरों की श्रेणी थी। उस पुष्पवृष्टि में प्रचुर केसर से पूर्ण कमलों की अधिकता थी और उसके चारों ओर भँवर मँडराते थे तथा वह स्पर्शसुखसूचक लोगों की सीत्कार ध्वनि से गा रहे, अतिसुगन्धित और मन्द होने के कारण सुख स्पर्शवाले वायु से कुछ-कुछ हिल रही थी। उस पुष्पवृष्टि में कहीं पर केतकी के फूल लहलहा रहे थे, तो कहीं पर सफेद कमलों की छटा शोभित हो रही थी, तो कहीं पर कुन्द के फूल अधिक मात्रा में गिर रहे थे और कहीं पर केवल नीले कमलों की ही वृष्टि हो रही थी। फूलों की लगातार वृष्टि से आँगन, घर, छत और चौतरे सबके भर गये थे, नगर के सभी नर-नारी ऊपर गर्दनकर पुष्पवृष्टि की छटा को देखते थे। मेघरहित होने के कारण नीलकमल के सदृश स्वच्छ आकाश से गिरी हुई वह पुष्पवृष्टि अभूतपूर्व थी, अतएव उसने सभी के चित्त को आश्चर्यमग्न कर दिया था। आकाश में अदृश्य सिद्धों द्वारा की गई उक्त पुष्पवृष्टि आधी घड़ी तक लगातार होती रही। सभा और सभा में स्थित लोगों को आच्छन्न कर उक्त पुष्पवृष्टि के बन्द होने पर सभा में स्थित लोगों ने सिद्धों का आगे कहा गया वार्तालाप सुनाः हम लोग सृष्टि के आरम्भ से लेकर स्वर्ग के इस छोर से उस छोर तक अनेकानेक सिद्धों में विचर रहे हैं, पर हमने आज ही कानों को अमृत के समान प्रिय लगने वाले या वेदों के सारभूत ये वचन सुने हैं। विरक्त होने के कारण रघुवंशदीपक श्रीरामचन्द्रजी ने जो उदार वचन कहे, उन्हें वाचस्पति भी नहीं कह सकते हैं। खेद है कि जिन लोगों ने ऐसे वाक्य सुने उनका जन्म वृथा है। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि हमें श्रीरामचन्द्रजी के मुखारविन्द से निर्गत एवं चित्त को अत्यन्त आह्लादित करने वाले ये वचन सुनने को मिले। श्रीरामचन्द्रजी ने शान्तिप्रद, अमृत के समान सुन्दर एवं जाति, कुल, चरित्र, धर्माभिज्ञता आदि द्वारा प्राप्त उत्तमता के द्योतक जो वचन आदरपूर्वक कहे, उनसे हमको भी तुरन्त 'स्वर्ग आदि के सुखों में कुछ भी सार नहीं है', यह ज्ञान हो गया है।।12-27।।

बत्तीसवाँ सर्ग समाप्त
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