मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

बुधवार, 19 सितंबर 2012

चतुर्थी का लक्ष्य


देव-असुरों, शैव-शाक्तों, सौर्य और वैष्णवों द्वारा पूजित, विद्या के आरंभ में, विवाह में, शुभ कार्यों में, जप-तप-ध्यानादि में सर्वप्रथम जिनकी पूजा होती है, जो गणों के अधिपति है, इन्द्रियों के स्वामी है, सवके कारण है उन गणपतिजी का पर्व है गणेश चतुर्थी’|
जाग्रतावस्था आयी और गयी, स्वप्नावस्था आई और गयी, प्रगाढ़ निद्रा (सुषुप्ति) आयी और गयी इन तीनों अवस्थाओं को स्वप्न जानकर हे साधक ! तू चतुर्थी अर्थात तुरीयावस्था (ब्राम्ही स्थिति) में जाग | तुरीयावस्था तक पहुँचने के लिए तेरे रास्ते में अनेक विघ्न-बाधाएँ आयेगी | तू तब चतुर्थी के देव, विघ्नहर्ता गणपतिजी को सहायता हेतु पुकारना और उनके दण्ड का स्मरण करते हुए अपने आत्मबल से विघ्न-बाधाओं को दूर भगा देना |
बाधाएँ कब बाँध सकी हे पथ पे चलनेवालों को |
विपदाएँ कब रोक सकी है आगे बढनेवालों को ||
हे साधक ! तू लम्बोदर का चिंतन करना और उनकी तरह बड़ा उदर रखना अर्थात छोटी-छोटी बाते को तू अपने पेट में समां लेना, भूल जाना | बारंबार उनका चिंतन कर अपना समय नहीं बिघड़ना |
बीत गयी सो बीत गयी, तक़दीर का शिकवा कौन करे |
जो तीर कमान से निकल गया, उस तीर का पीछा कौन करे ||
तुझसे जो भूल हो गयी हो उसका निरिक्षण करना, उसे सुधार लेना | दूसरों की गलती याद करके उसका दिल मत खराब करना | तू अब ऐसा दिव्य चिंतन करना की भूल का चिंतन तुच्छ हो जाय | तू गणपतिजी का स्मरण से अपना जीवन संयमी बनाना | भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण, भगवान गणपति, मीराबाई, शबरी आदि ने तीनों अवस्थाओं को पार कर अपनी चौथी अवस्था-निज स्वरुप में प्रवेश किया और आज के दिन वे तुम्हे चतुर्थी की याद दिला रहे है कि हे साधक ! तू अपनी चौथी अवस्था में जागने के लिए आया है | चौथ का चाँद की तरह कलंक लगाये ऐसे संसार के व्यवहार में तू नहीं भटकना | आज की संध्या के चन्द्र को तू निहारना नहीं | आज की चतुर्थी तुन्हें यह संदेश देती है कि संसार में थोडा प्रकाश तो दिखता है परंतु इसमें चन्द्रमा कि नाई कलंक है |यदि तुम इस प्रकाश में बह गये, बाहर के व्यव्हार में बह गये तो तुम्हे कलंक लग जायेगा | धन-पद-प्रतिष्ठा के बल से तुम अपने को बड़ा बनाने जाओंगे तो तुम्हे कलंक लगेगा, परंतु यदि तुम चौथी अवस्था में पहुँच गये तो बेडा पार हो जायेगा |
जैसे भगवान श्रीकृष्ण ने गोपी-गोपियों को दृष्टि से निहारकर अपनी संप्रेषण-शक्ति से अधरामृत का पान कराया ऐसे ही मोरया बाप्पा (गणपतिजी ) भी तुम्हे अधरामृत पान करा दे ऐसे समर्थ है ! वे आपको अभय देनेवाले, उनके दुःख और  दरिद्रता को दूर करनेवाले तथा  संतों एवं गुरुओ के द्वारा तत्वज्ञान करानेवाले है |
वे चतुर्थी के देव संतों का हर कार्य करने में तत्पर रहते है । वेदव्यासजी महाराज लोकमांगल्य हेतु ध्यानस्थ महाभारतकि रचना कर रहे थे और गणपतिजी लगातार उनके बोले श्लोक लिख रहे थे | गणपतिजी की  कलम  कभी रुकी नहीं और सहयोग करने का कर्तुत्व-अकर्तुत्व में जरा भी नहीं आया क्योंकि कर्तुत्व-अकर्तुत्व जीव में  होता है | जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति ये अवस्थाएँ जीव की है और तुरीयावस्था गणपति-तत्व की है | भगवान गणपति अपने प्यारों को तुरीय में पहुँचाना चाहते इसलिए उन्होंने चतुर्थी तिथि पसंद की है |
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन | बिनु हरि कृपा न होई सो गावहिं बेड पुरान || (श्रीरामचरित..कां.:१२५ )
भगवान सदाशिव ने तुलसीदासजी से कहलवाया है कि संत-सान्निध्य के सामान जगत में और कोई लाभ नहीं | साहब या सेठ की कृपा हो तो धन बढाता है, सुविधा बढती है; मित्रों की कृपा हो तो वाहवाही बढती है परंतु भगवान की कृपा तो संत-समागम होता है | जब सच्चे संतों का समागम प्राप्त हो जाय तो तुम पक्का समझना कि भगवान पूर्णरूप से तुम पर प्रसन्न है, गणपति बाप्पा तुम पर प्रसन्न है तभी तुम सत्संग में आ सके हो |
सत्संग जीवन की अनिवार्य माँग है | जो सत्संग नहीं करता वह कुसंग जरूर करता है | जो आत्मरस नहीं लेता, रामरस की तरफ नहीं बढता बह काम के गड्डे में जरुर गिरता है | तुम रामरस की तरफ कदम बढ़ाते रहना, सत्संग की तरफ अहोंभाव से बढते रहना, सत्कार्यों में उत्साह से लगे रहना फिर तुम्हारी वह चतुर्थी दूर नही| जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति जिसकी सत्ता से आती और जाती है, पसार होती है फिर भी जो द्रष्टा ज्यों-का-त्यों है, वह तुम्हारा परमात्मास्वरुप प्रकट हो जायेगा | फिर एक ही साथ भगवान सदाशिव, भगवान गणपति, माँ उमा, भगवान ब्रम्हा, भगवान विष्णु और ब्रम्हांड के सारे पूजनीय-वंदनीय देवों के आत्मा तुम हो जाओंगे और सब देव तुम्हारा आत्मा जो जायेंगे | उनमें और तुममें भेद मिटकर एक अखंड तत्व, अखंड सत्य का साक्षात्कार हो जायेगा और यही तो चतुर्थी का लक्ष्य है  ...........
(परम् पूज्य संत श्री आसारामजी बापू के सत्संग प्रवचन से)

भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी मंत्र तथा स्यमंतक मणि कथा


गणेश चतुर्थी
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के मंगलमय अपरान्ह में भगवान श्री गणेश का जन्म हुआ था। इस दिन जितना हो सके 'ॐ गं गणपतये नमः' मंत्र का शांतिपूर्वक जप करना चाहिये।
एक बार जब भगवान गणेश अपनी हर्षमय लय में घूम रहे थे। यह शुक्ल पक्ष का चौथा दिन (चतुर्थी) था। चन्द्र देव ने उन्हे देखा। चन्द्र देव को अपने रूप का बड़ा ही घमंड था । चंद्र देव ने भगवान गणेश से एक कड़वे व्यंग्य के साथ कहा- "क्या सुंदर रूप है तुम्हारा ! एक बड़ा पेट और एक हाथी का सिर ..." भगवान गणेश ने सोचा कि चन्द्र देव को उनके घमंड के लिए समुचित दण्ड दिये बिना उनका घमंड नहीं जाएगा। भगवान गणेश ने कहा, " तुम्हारा चेहरा किसी को दिखाने के लायक नहीं होगा. "उसके बाद चंद्रोदय नहीं हुआ । देवता चिंतित हो गए कि पृथ्वी का पोषण बंद हो गया है! औषधीय जड़ी बूटियाँ समृद्ध कैसे होगी? दुनिया कैसे चलेगी? भगवान ब्रह्मा ने कहा, " चंद्रमा की धृष्टता से भगवान गणेश नाराज है| "देवताओं ने भगवान गणेश को प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा की । जब भगवान गणेश प्रसन्न हुए तब चंद्रमा का चेहरा दूसरों को दिखाने के लायक बन गया । चंद्रमा ने स्तुतियों से भगवान गणेश से प्रार्थना की । भगवान गणेश ने कहा, "साल के अन्य दिनों में तुम्हारा चेहरा दिखाने लायक होगा, लेकिन भाद्रपद के शुक्ल पक्ष के चौथे दिन (जब तुमने मेरा अपमान किया) जो कोई भी तुम्हें देखेगा वह एक साल के भीतर एक गंभीर आरोप के साथ बदनाम हो जाएगा। लोगों को यह संदेश देना जरूरी है कि किसी को भी अपनी शारीरिक सुंदरता और आकर्षण पर घमण्ड नहीं करना चाहिये। तुम मेरे जैसे एक आत्मोपलब्ध व्यक्तित्व की खिल्ली उड़ा रहे हो ? तुम मेरे भौतिक शरीर के दोष देख रहे हो और अपनी बाहरी सुंदरता पर गर्व कर रहे हो ? तुम मेरा, स्वयं का और समस्त सुंदरता के स्रोत का अपमान कर रहे हो जिसने तुम्हे बाहरी सौंदर्य दिया है। वह सर्व व्यापक है। वह स्वयं भगवान नारायण, भगवान गणेश , भगवान शिव और सभी प्राणियों के रूप में देखा जाता है. हे चन्द्र देव ! अपने बाहरी सुंदरता पर गर्व मत करो." भगवान कृष्ण पर भी स्यमंतक मणि की चोरी का आरोप लगा था क्योंकि उन्होने उसी चतुर्थी को चंद्रमा के दर्शन कर लिए थे। यहाँ तक कि उनके भाई बलराम भी आरोप लगाने वालों में शामिल हो गए, हालांकि , वास्तव में, भगवान कृष्ण ने स्यमंतक मणि नहीं चुराई थी । जिन लोगों को इस घटना पर विश्वास नहीं है, जिन्हे धर्मग्रंथों पर संदेह है वे भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी (गणेश चतुर्थी ) को चंद्रमा को देखकर इसकी सच्चाई के परीक्षण हेतु आमंत्रित हैं। सत्संग में कही गई शास्त्र की इस बात में अविश्वास का खामियाजा संदेहवादी भुगतेगा । एक साल के भीतर , वह एक ऐसे महान दोष का शिकार होगा जो पूरी तरह से उसकी गरिमा को दूषित करेगा।

महत्वपूर्ण टिप्पणी: इस साल गणेश चतुर्थी - 19 सितंबर 2012 को है । गणेश चतुर्थी पर चंद्रमा को देखना अत्यंत हानिकारक है. . इसलिए बहुत सावधान रहे और रात को चांद नहीं देखें । यदि गणेश चतुर्थी की रात को चंद्रमा के दर्शन हो जाए तो भले ही कोई मासूम हो, निश्चित रूप से उसकी बदनामी होगा । गणेश चतुर्थी की रात को चंद्रमा के दर्शन करने के कारण भगवान कृष्ण पर भी स्यमंतक मणि चुराने का आरोप लगा था। तीज ( 18 सितम्बर '12 ) और पंचमी (20 सितम्बर '12 ) की रातों को चन्द्र दर्शन करने से गणेश चतुर्थी की रात को चन्द्र दर्शन के हानिकारक प्रभाव समाप्त होते है।इस वर्ष गणेश चतुर्थी पर चन्द्र अस्त रात 9.18 बजे का है । सायंकालीन संध्या से लेकर चंद्र अस्त ( रात 9.18 बजे) तक अपने पूजा कक्ष में जप ध्यान करें। अगर गलती से इस रात को चंद्र दर्शन हो जाए तो श्रीमद भागवत के दसवें स्कंद के 56 वें और 57 वें अध्याय में वर्णित स्यमंतक मणि की चोरी के प्रकरण (नीचे दिया गया है) को पढ़ें या सुने।

स्यमन्तक मणि कथा
छप्पनवाँ अध्याय
जाम्बवती और सत्यभामा के साथ श्रीकृष्ण का विवाहश्री शुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! सत्राजित ने श्रीकृष्ण को झूठा कलंक लगाया था। फिर उस अपराध का मार्जन करने के लिए उसने स्वयं स्यमन्तक मणि सहित अपनी कन्या सत्याभामा भगवान श्रीकृष्ण को सौंप दी। राजा परीक्षित ने पूछाः भगवन् ! सत्राजित ने भगवान श्रीकृष्ण का क्या अपराध किया था? उसे स्यमंतक मणि कहाँ से मिली? और उसने अपनी कन्या उन्हें क्यों दी? श्रीशुकदेव जी ने कहाः परीक्षित ! सत्राजित भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्ती से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये थे। सूर्य भगवान ने ही प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमंतक मणि दी थी। सत्राजित उस मणि को गले में धारण कर ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो। परीक्षित ! जब सत्राजित द्वारका आया, तब अत्यन्त तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके। दूर से ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेज से चौंधिया गईं। लोगों ने समझा कि कदाचित स्वयं भगवान सूर्य आ रहे हैं। उन लोगों ने भगवान के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी। उस समय भगवान चौसर खेल रहे थे। लोगों ने कहाः 'शंख-चक्र-गदाधारी नारायण ! कमलनयन दामोदर ! यदुवंश शिरोमणि गोविन्द ! आपको नमस्कार है। जगदीश्वर देखिये, अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए प्रचण्डरश्मि भगवान सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं। प्रभो ! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूँढते रहते हैं, किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंश में छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्यनारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं। श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! अनजान पुरूषों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा- 'अरे, ये सूर्यदेव नहीं है। यह तो सत्राजित है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है। इसके बाद सत्राजित अपने समृद्ध घर में चला आया। घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों द्वारा स्यमंतक मणि को एक देवमन्दिर में स्थापित करा दिया। परीक्षित ! वह मणि प्रतिदिन आठ भार सोना दिया करती थी। और जहाँ वह पूजित होकर रहती थी, वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था। एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसंगवश कहा- 'सत्राजित ! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो।' परन्तु वह इतना अर्थलोलुप-लोभी था कि भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया। एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया। वह अभी पर्वत की गुफा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि के लिए ऋक्षराज जाम्बवान् ने उसे मार डाला। उन्होंने वह मणि अपनी गुफा में ले जाकर बच्चे को खेलने के लिए दे दी। अपने भाई प्रसेन के न लौटने से उसके भाई सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ। वह कहने लगा, 'बहुत सम्भव है श्रीकृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो, क्योंकि वह मणि गले में डालकर वन में गया था।' सत्राजित की यह बात सुनकर लोग आपस में काना-फूँसी करने लगे। जब भगवान श्रीकृष्ण ने सुना कि यह कलंक का टीका मेरे सिर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहाने के उद्देश्य से नगर के कुछ सभ्य पुरूषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूँढने के लिए वन में गये। वहाँ खोजते-खोजते लोगों ने देखा कि घोर जंगल में सिंह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है। जब वे लोग सिंह के पैरों का चिन्ह देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगों ने यह भी देखा कि पर्वत पर रीछ ने सिंह को भी मार डाला है। भगवान श्रीकृष्ण ने सब लोगों को बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ऋक्षराज की भयंकर गुफा में प्रवेश किया। भगवान ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्तक को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है। वे उसे हर लेने की इच्छा से बच्चे के पास जा खड़े हुए। उस गुफा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर बच्चे की धाय भयभीत की भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुनकर परम बली ऋक्षराज जाम्बवान क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये। परीक्षित ! जाम्बवान उस समय कुपित हो रहे थे। उन्हें भगवान की महिमा, उनके प्रभाव का पता न चला। उन्होंने एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध करने लगे। जिस प्रकार मांस के लिये दो बाज आपस में लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान श्रीकृष्ण और जाम्बवान आपस में घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार किया, फिर शिलाओं का तत्पश्चात वे वृक्ष उखाड़कर एक दूसरे पर फेंकने लगे। अन्त में उनमें बाहुयुद्ध होने लगा। परीक्षित ! वज्र-प्रहार के समान कठोर घूँसों की चोट से जाम्बवान के शरीर की एक एक गाँठ टूट गयी।  उत्साह जाता रहा। शरीर पसीने से लथपथ हो गया। तब उन्होंने अत्यंत विस्मित-चकित होकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा- 'प्रभो ! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियों के स्वामी, रक्षक, पुराणपुरूष भगवान विष्णु हैं। आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीर बल हैं। आप विश्व के रचयिता ब्रह्मा आदि  को भी बनाने वाले हैं। बनाये हुए पदार्थों में भी सत्तारूप से आप ही विराजमान हैं। काल के कितने भी अवयव है, उनके नियामक परम काल आप ही हैं और शरीर भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अन्तरात्माओं के परम आत्मा भी आप ही हैं। प्रभो ! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रों में तनिक सा क्रोध का भाव लेकर तिरछी दृष्टि से समुद्र की ओर देखा था। उस समय समुद्र के अंदर रहने वाल बड़े-बड़े नाक (घड़ियाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्र ने आपको मार्ग दे दिया था। तब आपने उस पर सेतु बाँधकर सुन्दर यश की स्थापना की तथा लंका का विध्वंस किया। आपके बाणों से कट-कटकर राक्षसों के सिर पृथ्वी पर लोट रहे थे। (अवश्य ही आप मेरे वे ही राम जी श्रीकृष्ण के रूप में आये हैं।) परीक्षित ! जब ऋक्षराज जाम्बवान ने भगवान को पहचान लिया, तब कमलनयन श्रीकृष्ण ने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमल को उनके शरीर पर फेर दिया और फिर अहैतुकी कृपा से भरकर प्रेम गम्भीर वाणी से अपने भक्त जाम्बवान जी से कहा- ऋक्षराज ! हम मणि के लिए ही तुम्हारी इस गुफा में आये हैं। इस मणि के द्वारा मैं अपने पर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता हूँ। भगवान के ऐसा कहने पर जाम्बवान बड़े आनन्द से उनकी पूजा करने के लिए अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती को मणि के साथ उनके चरणों में समर्पित कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण जिन लोगों को गुफा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिन तक उनकी प्रतीक्षा की। परन्तु जब उन्होंने देखा कि अब तक वे गुफा से नहीं निकले, तब वे अत्यंत दुःखी होकर द्वारका लौट गये। वहाँ जब माता देवकी, रूक्मणि, वसुदेव जी तथा अन्य सम्बन्धियों और  कुटुम्बियों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण गुफा से नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ। सभी द्वारकावासी अत्यंत दुःखित होकर सत्राजित को भला बुरा कहने लगे और भगवान श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए महामाया दुगदिवी की शरण गये, उनकी उपासना करने लगे। उनकी उपासना से दुगदिवी प्रसन्न हुई और उन्होंने आशीर्वाद दिया। उसी समय उनके बीच में मणि और अपनी नववधू जाम्बवती के साथ सफल मनोरथ होकर श्रीकृष्ण होकर श्रीकृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये। सभी द्वारकावासी भगवान श्रीकृष्ण को पत्नी के साथ और गले में मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्द में मग्न हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो। तदनन्तर भगवान ने सत्राजित को राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित को सौंप दी। सत्राजित अत्यंत लज्जित हो गया। मणि तो उसने ले ली, परन्तु उसका मुँह नीचे की ओर लटक गया। अपने अपराध पर उसे बड़ा पश्चाताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा। उसके मन की आँखों के सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान के साथ विरोध करने के कारण वह भयभीत भी हो गया था। अब वह यही सोचता रहता कि 'मैं अपने अपराध का मार्जन कैसे करूँ ? मुझ पर भगवान श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों ? मैं ऐसा कौन सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसे नहीं। सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ। धन के लोभ से मैं बड़ी मूढ़ता का काम कर बैठा। अब मैं रमणियों में रत्न के समान अपनी कन्या सत्याभामा और वह स्यमंतक मणि दोनों ही श्रीकृष्ण को दे दूँ। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसी से मेरे अपराध का मार्जन हो सकता है, और कोई उपाय नहीं है। सत्राजित ने अपनी विवेक बुद्धि से ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिए उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तक मणि दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्ण को अर्पण कर दीं। सत्यभामा शील स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सदगुणों से सम्पन्न थी। बहुत से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिले और उन लोगों ने उन्हें माँगा भी था। परन्तु अब भगवान श्रीकृष्ण ने विधि पूर्वक उनका पाणिग्रहण किया। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने सत्राजित से कहा- 'हम स्यमन्तक मणि न लेंगे। आप सूर्य भगवान के भक्त हैं,
इसलिए वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उसके फल के अर्थात उससे निकले हुए सोने के अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें।
सत्तावनवाँ अध्याय
स्यमन्तक-हरण, शतधन्वा उद्धार और अक्रूर जी को फिर से द्वारका बुलाना श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित ! यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण को इस बात का पता था कि लाक्षागृह की आग से पाण्डवों का बाल भी बाँका न हुआ है, तथापि जब उन्होंने सुना कि कुन्ती और पाण्डव जल मरे, तब उस समय का कुल परम्परोचित व्यवहार करने के लिए वे बलराम जी के साथ हस्तिनापुर गये। वहाँ जाकर भीष्मपितामह, कृपाचार्य, विदुर, गान्धारी और द्रोणाचार्य से मिलकर उनके साथ समवेदना-सहानुभूति प्रकट की और उन लोगों से कहने लगे- 'हाय-हाय ! यह तो बड़े दुःख की बात हुई।'
भगवान श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर चले जाने से द्वारका में अक्रूर और कृतवर्मा को अवसर मिल गया। उन लोगों ने शतधन्वा से आकर कहा – ‘तुम
सत्राजित से मणि क्यों नहीं छीन लेते ? सत्राजित ने अपनी श्रेष्ठ कन्या का विवाह हमसे करने का वचन दिया था और अब उसने हमलोगों का तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्ण के साथ ब्याह दिया है। अब सत्राजित भी अपने भाई प्रसेन की तरह क्यों न यमपुरी में जाय ?' शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिर पर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्मा इस प्रकार बहकाने पर शतधन्वा उनकी बातों में आ गया और उस महादुष्ट ने लोभवश सोये हुए सत्राजित को मार डाला। इस समय स्त्रियाँ अनाथ के समान रोने चिल्लाने लगीं, परन्तु शतधन्वा ने उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया, जैसे कसाई पशुओं की हत्या कर डालता है, वैसे ही वह सत्राजित को मारकर और मणि लेकर वहाँ से चम्पत हो गया। सत्यभामा जी को यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गये हैं, बड़ा शोक हुआ और वे हाय पिता जी ! हाय पिता जी ! मैं मारी गयी इस प्रकार पुकार पुकार कर विलाप करने लगीं। बीच बीच में बेहोश हो जातीं और होश में आने पर फिर विलाप करने लगतीं। इसके बाद उन्होंने अपने पिता के शव को तेल के कड़ाहे में रखवा दिया और आप हस्तिनापुर गयीं। उन्होंने बड़े दुःख से भगवान श्रीकृष्ण को अपने पिता की हत्या का वृत्तान्त सुनाया यद्यपि इन बातों को भगवान श्रीकृष्ण पहले से ही जानते थे। परीक्षित ! सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने सब सुनकर मनुष्यों की सी लीला करते हुए अपनी आँखों में आँसू भर लिये और विलाप करने लगे कि 'अहो ! हम लोगों पर तो बहुत बड़ी विपत्ती आ पड़ी !' इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामाजी और बलरामजी के साथ हस्तिनापुर से द्वारका लौट आये और शतधन्वा मारने तथा उससे मणि छीनने का उद्योग करने लगे। जब शतधन्वा को यह मालूम हुआ कि भगवान श्रीकृष्ण मुझे मारने का उद्योग कर रहे हैं, तब वह बहुत डर गया और अपने प्राण बचाने के लिए उसने कृतवर्मा से सहायता माँगी। तब कृतवर्मा ने कहा - 'भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं। मैं उनका सामना नहीं कर सकता। भला, ऐसा कौन है, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक और परलोक में सकुशल रह सके ? तुम जानते हो कि कंस उन्हीं से द्वेष करने के कारण राज्यलक्ष्मी को खो बैठा और अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। जरासन्ध जैसे शूरवीर को भी उनके सामने सत्रह बार मैदान में हारकर बिना रथ के ही अपनी राजधानी लौट जाना पड़ा था।' जब कृतवर्मा ने उसे इस प्रकार टका सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने सहायता के लिए अक्रूर जी से प्रार्थना की। उन्होंने कहा - 'भाई ! ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान भगवान का बल पौरूष जानकर भी उनसे वैर विरोध ठाने। जो भगवान खेल-खेल में ही इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते है इस बात को माया से मोहित ब्रह्मा आदि विश्व विधाता भी नहीं समझ पाते, जिन्होंने सात वर्ष की अवस्था में जब वे निरे बालक थे, एक हाथ से ही गिरिराज गोवर्द्धन को उखाड़ लिया और जैसे नन्हें-नन्हें बच्चे बरसाती छत्ते को उखाड़ हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेल में सात दिनों तक उसे उठाय रखा, मैं तो उन भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ। उनके कर्म अदभुत हैं। वे अनन्त अनादि, एकरस और आत्मस्वरूप हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ। जब इस प्रकार अक्रूर जी ने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने स्यमन्तक मणि उन्हीं के पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलने वाले घोड़े पर सवार होकर वहाँ से बड़ी फुर्ती से भागा। परीक्षित ! भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथ पर सवार हुए, जिस पर गरूड़चिन्ह से चिन्हित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेगवाले घोड़े जुते हुए थे। अब उन्होंने अपने श्वसुर सत्राजित को मारने वाले शतधन्वा का पीछा किया। मिथिलापुरी के निकट एक उपवन में शतधन्वा का घोड़ा गिर पड़ा, अब वह उसे छोड़कर पैदल ही भागा। वह अत्यन्त भयभीत हो गया था। भगवान श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े। शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिए भगवान ने पैदल ही दौड़कर अपने तीक्ष्ण धार वाले चक्र से उसका सिर उतार लिया और
उसके वस्त्रों में स्यमंतक मणि को ढूँढा। परन्तु जब मणि नहीं मिली तब भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े भाई बलराम जी के पास आकर कहा - 'हमने शतधन्वा को व्यर्थ ही मारा। क्योंकि उसके पास स्यमंतक मणि तो है ही नहीं। बलराम जी ने कहा - 'इसमे सन्देह नहीं कि शतधन्वा ने स्यमंतक मणि को किसी न किसी के पास रख दिया है। अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ। मैं विदेहराज से मिलना चाहता हूँ, क्योंकि वे मेरे बहुत ही
प्रिय मित्र हैं।' परीक्षित ! यह कहकर यदुवंश शिरोमणि बलराम जी मिथिला नगरी में चले गये। जब मिथिला नरेश ने देखा कि पूजनीय बलरामजी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्द से भर गया। उन्होंने झटपट अपने आसन से उठकर अनेक सामग्रियों से उनकी पूजा की। इसके बाद भगवान बलराम जी कई वर्षों तक मिथिला पुरी में ही रहे। महात्मा जनक ने बड़े प्रेम और सम्मान से उन्हें रखा। इसके बाद समय पर धृतराष्ट के पुत्र दुर्योधन ने बलराम जी से गदायुद्ध की शिक्षा ग्रहण की। अपनी प्रिय सत्यभामा का प्रिय कार्य करके भगवानश्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वा को मार डाला गया, परन्तु स्यमंतकमणि उसके पास न मिली। इसके बाद उन्होंने भाई बन्धुओं के साथ अपने श्वसुर सत्राजित की वे सब और्ध्वदेहिक क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणी का परलोक सुधरता है। अक्रूर और कृतवर्मा ने शतधन्वा को सत्राजित के वध के लिए उत्तेजित किया था। इसलिए जब उन्होंने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण ने शतधन्वा को मार डाला है, तब वे अत्यंत भयभीत होकर द्वारका से भाग खड़े हुए। परिक्षित ! कुछ लोग ऐसा मानते है कि अक्रूर के द्वारका से चले जाने पर द्वारकावासियों को बहुत प्रकार के अनिष्टों और अरिष्टों का सामना करना पड़ा। परन्तु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे पहले कही हुई बातों को भूल जाते हैं। भला, यह भी कभी सम्भव है कि जिन भगवान श्रीकृष्ण में समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके निवासस्थान द्वारका में उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाय। उस समय नगर के बड़े-बूढ़े लोगों ने कहा - 'एक बार काशी नरेश के राज्य में वर्षा नहीं हो रही थी, सूखा पड़ गया था। तब उन्होंने अपने राज्य में आये हुए अक्रूर के पिता श्वफल्क को अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी। तब उस प्रदेश में वर्षा हुई। अक्रूर भी श्वफल्क के ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है। इसलिए जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती है तथा किसी प्रकार का कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते।' परीक्षित ! उन लोगों की बात सुनकर भगवान ने सोचा कि 'इस उपद्रव का यही कारण नहीं है' यह जानकर भी भगवान ने दूत भेजकर अक्रूर को ढुँढवाया और आने पर उनसे बातचीत की। भगवान ने उनका खूब स्वागत सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेम की बातें कहकर उनसे सम्भाषण किया। परीक्षित ! भगवान सबके चित्त का एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इसलिए उन्होंने मुस्कराते हुए अक्रूर से कहा - 'चाचा जी ! आप दान धर्म के पालक हैं। हमें यह बात पहले से ही मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तक मणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देने वाली है। आप जानते ही हैं कि सत्राजित के कोई पुत्र नहीं है। इसलिए उनकी लड़की के लड़के उनके नाती ही उन्हें तिलाँजली और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और जो कुछ बच रहेगा उसके उत्तराधिकारी होंगे। इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से यद्यपि स्यमन्तक मणि हमारे पुत्रों को ही मिलनी चाहिए, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे। क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरों के लिए उस मणि को रखना अत्यन्त कठिन भी है। परन्तु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी है कि हमारे बड़े भाई बलराम जी मणि के सम्बन्ध में मेरी बात का पूरा विश्वास नहीं करते। इसलिए महाभाग्यवान अक्रूर जी ! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्टमित्र बलराम जी, सत्यभामा और जाम्बती का सन्देह दूर कर दीजिए और उनके हृदय में शान्ति का संचार कीजिए। हमें पता है कि उसी मणि के प्रताप से आजकल आप लगातार ही ऐसे यज्ञ करते रहते हैं, जिसमें सोने की वेदियाँ बनती हैं। परीक्षित ! जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सान्तवना देकर उन्हें समझाया-बुझाया, तब अक्रूर जी ने वस्त्र में लपेटी हुई सूर्य के मान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान श्रीकृष्ण को दे दी। भगवान श्रीकृष्ण ने वह स्यमंतक मणि अपने जाति-भाईयों को दिखाकर अपना कलंक दूर कर दिया और उसे अपने पास रखने में समर्थ होने पर भी पुनः अक्रूर जी को लौटा दिया। सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण के पराक्रम से परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकों का मार्जन करने वाला तथा परम  मंगलमय है। जो इसे पढ़ता, सुनता अथवा स्मरण करता है, वह हर प्रकार की अपकीर्ति और पापों से छूटकर शान्ति का अनुभव करता है।
 कथा यहाँ पर से सुने http://www.mediafire.com/?g7cctlcvms8fl

 यदि कोई मनुष्य अनिच्छा से भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की गणेश चतुर्थी के चन्द्रमा को देख ले तो उसे निम्न मंत्र से पवित्र किया हुआ जल पीना चाहिए । ऐसा करने से वह तत्काल शुद्ध हो भूतल पर निष्कलंक बना रहता है । जल को पवित्र करने का मंत्र इस प्रकार है -
सिहः प्रसेनमवधीत सिंहो जाम्बवता हतः । सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तकः ॥
सुंदर सलोने कुमार! इस मणि के लिए सिंह ने प्रसेन को मारा है और जाम्बवान ने उस सिंह का संहार किया है, अतः तुम रोओ मत । अब इस स्यमन्तक मणि पर तुम्हारा ही अधिकार है ।  - ब्रह्मवैवर्त पुराण, अध्याय ७८

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 17


छब्बीसवाँ सर्ग
वैराग्य की उत्पत्ति के लिए विविध दोषों द्वारा कालाधीन संसार की अनेक दुर्दशाओं का वर्णन।

काल ऐसा करे उससे तुम्हारा क्या बिगड़ता है, ऐसी आशंका कर काल आदि सब वस्तुओं में आगे अपनी दोषदृष्टि दर्शाने वाले श्रीरामचन्द्रजी उसके फलभूत वैराग्य को दिखलाते हैं।
श्रीरामचन्द्रजी ने कहाः मुनिश्रेष्ठ, जब इस संसार में पूर्वोक्त काल आदि का इस प्रकार का चरित्र है तब भला बतलाइये तो सही इसमें मेरे जैसे मनुष्यों का विश्वास कैसे हो सकता है ? मुनिवर, यह बड़े दुःख का विषय है कि शब्द आदि विषयों के विस्तार में दक्ष इन दैव आदि (पूर्व जन्म के कर्म आदि) से प्रपंच-रचनाओं द्वारा मोहित हुए हम लोग विक्रीत पुरुषों (गुलामों) के समान एवं वनमृगों के समान स्थित हैं अर्थात् जैसे विक्रीत पुरुष (क्रीतदास) अपनी इच्छा से कोई काम भी नहीं कर सकता और जैसे व्याधों द्वारा मधुर ध्वनि से विमोहित मृग कुछ भी चेष्टा नहीं कर सकते हैं वैसे ही दैव आदि द्वारा मोहित हम लोगों की अवस्था है। यह काल सदा अपना पेट भरने में ही लगा है और इसका चरित्र बड़ा गर्हित है, यह जिन लोगों की भोगतृष्णा और जीविततृष्णा पूर्ण नहीं हुई है, उन्हें आपत्तियों से परिपूर्ण संसार में गिराता है। मुनिश्रेष्ठ, जैसे अग्नि उष्ण और प्रकाशपूर्ण ज्वालाओं से दाह्य पदार्थों को जला देती है, वैसे ही यह संहारकारी काल भी दुराशाओं से हृदय को जलाता है और दुष्ट चारित्र्य से बाहर भी जलाता है। कालमर्यादारूप कृतान्त की प्रिय भार्या इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति कराने वाली यह नियति, स्त्री होने के कारण, स्वभावतः चंचल है, यह समाधि में तत्पर लोगों के ऊपर भी हाथ फेर लेती है और उनके धैर्य की तो यह महाशत्रु  है, उसे टिकने नहीं देती। जैसे साँप वायु को निगल जाता है, वैसे ही यह क्रूर कर्म करने वाला कृतान्त तरुण शरीर को बुढ़ापे में पहुँचाकर सब प्राणियों को निरन्तर निगलता रहता है। यह काल निर्दयों का राजा है, किसी आर्त प्राणी के ऊपर भी दया नहीं करता। सब प्राणियों पर दया करने वाला उदार पुरुष तो इस संसार में दुर्लभ हो गया है।।1-6।। मुनिवर, संसार में जितने भी प्राणी हैं, उनमें किसी का भी ऐश्वर्य पूर्ण नहीं है, सभी तुच्छ ऐश्वर्य वाले हैं। जितने भी विषय हैं, वे सभी भयानक हैं। उनसे अनन्त दुःख की ही प्राप्ति होती है। आयु अत्यन्त चंचल है, उसके जाने में कुछ भी विलम्ब नहीं होता और बाल्यावस्था मोह में ही बीत जाती है। सभी संसारी पुरुष विषयों के अनुसन्धान से ही कलंकित (मलिनचित्त) है, बन्धु-बान्धव संसाररूप बन्ध के लिए रज्जूरूप हैं। सभी भोग संसाररूपी महारोग हैं, अर्थात् जैसे अपथ्यसेवन से रोग नष्ट नहीं होता, वैसे ही भोगों के सेवन से संसाररूपी महारोग बना रहता है, अतएव उन्हें मूर्तिमान महारोग ही समझना चाहिए। सुख आदि की तृष्णाएँ मृगतृष्णा के अनुरूप हैं। इन्द्रियाँ ही अपनी शत्रु हैं, सत्य, ज्ञान आदिरूप वस्तु (ब्रह्म) अज्ञानवश असत्यता (देहादिता) को प्राप्त हो गयी है। बन्धन का हेतु होने से मन आत्मा का शत्रु है एवं मन में अहम् ऐसा अभिमान करने से मनोभूत हुआ उक्त आत्मा आत्मा को आत्मभूत मन से ही दुःखी करता है। अहंकार (अभिमानप्रधान अन्तःकरण) आत्मा के कलंक का कारण है, अर्थात् स्वरूप को दूषित कर देता है, बुद्धियों (अध्यवसायात्मक वृत्तियाँ) बड़ी मृदु हैं, आत्मनिष्ठा की दृढ़ता से रहित हैं, क्रिया अर्थात् शारीरिक प्रवृत्तियाँ क्लेशकारिणी हैं। लीलाएँ (मानसिक चेष्टाएँ) स्त्री पर ही केन्द्रित हो गई हैं, अर्थात् उनकी विषय केवल स्त्री ही हो गई हैं। वासनाओं के विषय ही लक्ष्य हो गये हैं याने विषयों की ओर ही वासनाएँ दौड़ती हैं। आत्मस्फूर्तिरूप चमत्कार नष्ट हो गये हैं, स्त्रियाँ दोषों की पताका के सदृश हो गई हैं और सम्पूर्ण विषय नीरस हो गये हैं। मुनिवर, सत् पदार्थ ब्रह्म कार्यकारण-संघातरूप से (देह, इन्द्रिय आदि रूप से) जाना जाता है, अर्थात् संसारी लोग देह, इन्द्रिय आदि को ही आत्मा समझते हैं, चित्त अहंकार में प्रविष्ट किया गया है अर्थात् लोगों का चित्त अहंकार से परिपूर्ण है, जितने पदार्थ हैं वे नाश से ग्रस्त हैं (विनाशी हैं)। उक्त अनित्य पदार्थों का जिसमें लय होता है, उस आत्मा को कोई नहीं जानता। श्रेष्ठतम बुद्धि ने सभी के अन्तःकरण को व्याकुल कर रक्खा है, किसी का अन्तःकरण सुखी नहीं है, केवल दुःख ही दुःख छाया है, रागरूपी रोग दिन-दिन बढ़ रहा है, वैराग्य का कोई पता नहीं। आत्मदर्शनशक्ति रजोगुण से नष्ट हो गई है और तमोगुण बढ़ रहा है, सत्वगुण का कोई पता नहीं एवं तत्त्वपदार्थ अत्यन्त दूर है। जीवन अत्यन्त अस्थिर है, मृत्यु आने के लिए तत्पर ही है, धैर्य का सर्वथा विनाश हो गया है और लोगों का तुच्छ विषयों में अनुराग नित्य बढ़ता जा रहा है। मति मूर्खता से मलिन  हो गई है, शरीर का अन्तिम परिणाम एकमात्र नाश ही है अर्थात् उसको अवश्य नष्ट होना है, शरीर में बुढ़ापा मानों प्रकाशित हो रहा है और पाप खूब दमदमा रहा है। दिन-प्रतिदिन जवानी प्रयत्नपूर्वक भाग रही है, सत्संगति का कहीं पता नहीं है, जिससे दुःख से छुटकारा प्राप्त हो जाये, ऐसी कोई गति नहीं है और सत्यता का उदय तो किसी में भी नहीं दिखाई देता। अन्तःकरण मोहजाल से अत्यन्त आच्छादित सा हो गया है, दूसरे को सुखी देखकर होने वाले सन्तोष का कहीं पता ही नहीं है, उज्जवल करूणा का कहीं उदय नहीं होता और नीचता न मालूम कहाँ से चली आ रही है। धीरता अधीरता में परिणत हो गई है, सम्पूर्ण जीवों का जन्म और मरण या उर्ध्वगमन और अधोगमन ही एकमात्र काम है, दुर्जन का संग पद-पद पर अतिसुलभ है, सज्जन की संगति अतिदुर्लभ है। सम्पूर्ण पदार्थ उत्पत्ति-विनाशशील हैं और वासना पदार्थों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती। वही संसार में बन्धन कराने वाली है। काल नित्य प्राणियों के झुण्ड के झुण्ड को न मालूम कहाँ ले जाता है। दिशाएँ भी जिन्हें काल से हरे जाने का भय नहीं है, नहीं दिखाई देती, नष्ट हो जाती हैं, देश भी अदेश हो जाता है अर्थात नष्ट हो जाता है और पर्वत भी टूट जाते हैं, फिर मेरे सदृश जन्तु की स्थिरता में क्या विश्वास है ? सन्मात्रस्वभाववावाला ईश्वर आकाश को भी खा जाता है, चौदहों भुवनों को नष्ट कर देता है और पृथिवी भी उसी से नष्ट हो जाती है, फिर मेरे जैसे जीव की स्थिरता में क्या विश्वास है ? समुद्र भी सूख जाते हैं, तारे भी टूट पड़ते हैं और सिद्ध भी नष्ट कर देता है, फिर मेर जैसे जन की स्थिरता में क्या विश्वास है ? बड़े-बड़े पराक्रमी दैत्यों को भी ईश्वर नष्ट कर देता है, ध्रुव के जीवन का भी कोई निश्चय नहीं है और अमर भी (देवता भी) मारे जाते हैं, फिर मेरे जैसे जीव की स्थिरता में क्या विश्वास हो सकता है ? वह इन्द्र को भी अपने मुँह से चबा डालता है, यम को भी अपने कार्य से विरत कर देता है याने नष्ट कर देता है और उसी से वायु भी अभाव को प्राप्त हो जाता है, फिर मेरे जैसे प्राणी में स्थिरता की क्या आशा ? चन्द्रमा भी शून्यता को (अभाव को) प्राप्त हो जाता है, सूर्य के भी खण्ड-खण्ड हो जाते हैं, अग्नि भी भग्न हो जाती है अर्थात् शान्त हो जाती है, फिर मेरे जैसे प्राणी में स्थिरता की क्या आशा ? ब्रह्मा की भी अवधि है अर्थात् ब्रह्मा की भी समाप्ति का अवसर नियत है, अजन्मा विष्णु का भी संहार होता है और शिवजी भी नहीं रहते, फिर मेरे जैसे मनुष्य की स्थिरता की आशा केवल दुराशा ही है। काल का भी जो विनाश करता है, नियति को भी नष्ट कर डालता है, और अनन्तआकाश को नष्ट कर देता है, वह भला मुझे कहाँ छोड़ेगा, इसलिए मेरे जैसे जीवों की स्थिरता का कभी भी विश्वास नहीं हो सकता। जिसका कानों से श्रवण नहीं होता, वाणी से कथन नहीं होता और नेत्रों से दर्शन नहीं होता ऐसे अज्ञातस्वरूप एवं भ्रान्ति उत्पन्न करने वाले किसी सूक्ष्म तत्त्व से चौदहों भुवन अपनी आत्मा में माया द्वारा दिखलाये जा रहे हैं। अहंकारांश को प्राप्त होकर सबके मध्य में निवास करने वाला वह तत्त्व तीनों लोकों में स्थित प्राणियों में से जिसे नष्ट नहीं करता, ऐसी कोई वस्तु है ही नहीं।।7-32।।
उसकी सर्वनाशकता का उपपादन करने के लिए निरंकुश स्वतन्त्रता कहते हैं।
जैसे पर्वत शिखर से वेगपूर्वक बहता हुआ जल गोल पत्थरों को नीचे की ओर ले जाता है, वैसे ही अवश (ξ) रथभूत सूर्य को ईश्वर चट्टान, पर्वत और परिखाओं में हाँकता है। जैसे पका हुआ अखरोट का फल कठिन छिलके से घिरा रहता है, वैसे ही वह मध्य में स्थित देवता, असुर आदि का निवास पृथ्वीरूप गेंद को देवताओं के निवासभूत ज्योतिश्चक्र से चारों ओर से व्याप्त किये हुए हैं।
ξ 'य आदित्ये तिष्ठन्' इत्यादि श्रुति से अपने में अधीष्ठित ईश्वर से प्रेरित होने वाला एवं चट्टान, पहाड़ आदि दुर्गम स्थानों में किरणरूपी घोड़े के पैरों से चलते हुए सूर्य में रथ की कल्पना की गई है।
स्वर्ग में देवता, भूलोक में मनुष्य और पाताल में सर्पों की उसी ने कल्पना कर रक्खी है, वह जब इच्छा होती है, तभी उन्हें जीर्ण-शीर्ण दशा को प्राप्त करा देता है। भाव यह है कि इस जगत् का अत्यन्त पराधीन होना बड़ा भारी दोष है, ऐसे अन्याधीन जगत् में आस्था करना मूर्खता ही है। जगत् के अधिपति के साथ हुए रण में विजयी अतएव पराक्रम पूर्ण कामदेव अनुचित रूप से जगत को अपने वश में कर अपना प्रभाव दिखा रहा है। जैसे मत्त गजराच मद से चारों ओर दिशाओं को सुगन्धित करता है, वैसे ही वसन्तऋतु पुष्पवृष्टि द्वारा चारों ओर दिशाओं को सुगन्धित कर चित्त को चंचल कर देती है। अनुरागयुक्त महिलाओं के चंचल लोचनों के कटाक्ष विक्षेप के लक्ष्य बने हुए मन को महान विवेक भी स्वस्थ नहीं कर सकता। दूसरों का उपकार करने वाली, दूसरों के दुःख से अति सन्तप्त और अपनी आत्मा को शान्ति देने वाली शीतल बुद्धि से युक्त ज्ञानी पुरुष ही सुखी है, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। उत्पन्न होकर नष्ट होने वाले कालरूपी बड़वाग्नि के मुँह में गिरने वाले जीवनरूपी सागर के तरंग के समान पदार्थों को कौन गिन सकता है ? जैसे सागर में उत्पन्न होकर बड़वाग्नि के मुँह में गिरकर नष्ट होने वाले अनेक कल्लोलों को कोई नहीं गिन सकता वैसे ही संसार में उत्पन्न होकर काल के मुँह में गिरने वाले असंख्य जीवों को गिन सकने की किसमें शक्ति है ? दोषरूपी झाड़ियों में स्थित मृगों या पक्षियों के तुल्य सभी मनुष्य अज्ञान से दुराशारूपी जाल में बँधकर जन्मरूपी जंगल में विनष्ट हो गये हैं अर्थात् जैसे झाड़ियों में बैठे हुए मृग या पक्षी स्वाद लोलुपता के कारण अज्ञान से जाल में फँस कर नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही दोषपूर्ण मनुष्य अज्ञान से दुराशाबद्ध होकर जन्मरूपी जंगल में नष्ट हो जाते हैं। इन संसारी लोगों की आयु विविध जन्मों में पूर्वोक्त दोषों से होने वाले कुकर्मों से (काम्य और निषिद्ध कर्मों से) नष्ट हो जाती है। उनका फल जो स्वर्ग, नरक आदि है वह आकाश में वृक्ष हो और उस वृक्ष में लता भी हो, उस लता से गले में फाँसी देकर मनुष्य लटका दिया जाये, उसके समान अन्त में पतन कराने वाला ही है। उसकी निवृत्ति के लिए उपाय करना तो दूर रहा, परन्तु उसका विचार करने वाले लोग भी हमें नहीं दिखलाई देते।।33-42।। ऋषिवर, इस संसार में चंचल और मंद बुद्धि से युक्त लोग आज उत्सव है, यह सुहावनी ऋतु है, इसमें यात्रा करनी चाहिए, ये हमारे बान्धव हैं, विशिष्ट भोगों से युक्त यह सुख है, यों वृथा ही अनेक संकल्प-विकल्प कर नष्ट हो जाते हैं।।43।।

छब्बीसवाँ सर्ग समाप्त
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