मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

बुधवार, 19 सितंबर 2012

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 17


छब्बीसवाँ सर्ग
वैराग्य की उत्पत्ति के लिए विविध दोषों द्वारा कालाधीन संसार की अनेक दुर्दशाओं का वर्णन।

काल ऐसा करे उससे तुम्हारा क्या बिगड़ता है, ऐसी आशंका कर काल आदि सब वस्तुओं में आगे अपनी दोषदृष्टि दर्शाने वाले श्रीरामचन्द्रजी उसके फलभूत वैराग्य को दिखलाते हैं।
श्रीरामचन्द्रजी ने कहाः मुनिश्रेष्ठ, जब इस संसार में पूर्वोक्त काल आदि का इस प्रकार का चरित्र है तब भला बतलाइये तो सही इसमें मेरे जैसे मनुष्यों का विश्वास कैसे हो सकता है ? मुनिवर, यह बड़े दुःख का विषय है कि शब्द आदि विषयों के विस्तार में दक्ष इन दैव आदि (पूर्व जन्म के कर्म आदि) से प्रपंच-रचनाओं द्वारा मोहित हुए हम लोग विक्रीत पुरुषों (गुलामों) के समान एवं वनमृगों के समान स्थित हैं अर्थात् जैसे विक्रीत पुरुष (क्रीतदास) अपनी इच्छा से कोई काम भी नहीं कर सकता और जैसे व्याधों द्वारा मधुर ध्वनि से विमोहित मृग कुछ भी चेष्टा नहीं कर सकते हैं वैसे ही दैव आदि द्वारा मोहित हम लोगों की अवस्था है। यह काल सदा अपना पेट भरने में ही लगा है और इसका चरित्र बड़ा गर्हित है, यह जिन लोगों की भोगतृष्णा और जीविततृष्णा पूर्ण नहीं हुई है, उन्हें आपत्तियों से परिपूर्ण संसार में गिराता है। मुनिश्रेष्ठ, जैसे अग्नि उष्ण और प्रकाशपूर्ण ज्वालाओं से दाह्य पदार्थों को जला देती है, वैसे ही यह संहारकारी काल भी दुराशाओं से हृदय को जलाता है और दुष्ट चारित्र्य से बाहर भी जलाता है। कालमर्यादारूप कृतान्त की प्रिय भार्या इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति कराने वाली यह नियति, स्त्री होने के कारण, स्वभावतः चंचल है, यह समाधि में तत्पर लोगों के ऊपर भी हाथ फेर लेती है और उनके धैर्य की तो यह महाशत्रु  है, उसे टिकने नहीं देती। जैसे साँप वायु को निगल जाता है, वैसे ही यह क्रूर कर्म करने वाला कृतान्त तरुण शरीर को बुढ़ापे में पहुँचाकर सब प्राणियों को निरन्तर निगलता रहता है। यह काल निर्दयों का राजा है, किसी आर्त प्राणी के ऊपर भी दया नहीं करता। सब प्राणियों पर दया करने वाला उदार पुरुष तो इस संसार में दुर्लभ हो गया है।।1-6।। मुनिवर, संसार में जितने भी प्राणी हैं, उनमें किसी का भी ऐश्वर्य पूर्ण नहीं है, सभी तुच्छ ऐश्वर्य वाले हैं। जितने भी विषय हैं, वे सभी भयानक हैं। उनसे अनन्त दुःख की ही प्राप्ति होती है। आयु अत्यन्त चंचल है, उसके जाने में कुछ भी विलम्ब नहीं होता और बाल्यावस्था मोह में ही बीत जाती है। सभी संसारी पुरुष विषयों के अनुसन्धान से ही कलंकित (मलिनचित्त) है, बन्धु-बान्धव संसाररूप बन्ध के लिए रज्जूरूप हैं। सभी भोग संसाररूपी महारोग हैं, अर्थात् जैसे अपथ्यसेवन से रोग नष्ट नहीं होता, वैसे ही भोगों के सेवन से संसाररूपी महारोग बना रहता है, अतएव उन्हें मूर्तिमान महारोग ही समझना चाहिए। सुख आदि की तृष्णाएँ मृगतृष्णा के अनुरूप हैं। इन्द्रियाँ ही अपनी शत्रु हैं, सत्य, ज्ञान आदिरूप वस्तु (ब्रह्म) अज्ञानवश असत्यता (देहादिता) को प्राप्त हो गयी है। बन्धन का हेतु होने से मन आत्मा का शत्रु है एवं मन में अहम् ऐसा अभिमान करने से मनोभूत हुआ उक्त आत्मा आत्मा को आत्मभूत मन से ही दुःखी करता है। अहंकार (अभिमानप्रधान अन्तःकरण) आत्मा के कलंक का कारण है, अर्थात् स्वरूप को दूषित कर देता है, बुद्धियों (अध्यवसायात्मक वृत्तियाँ) बड़ी मृदु हैं, आत्मनिष्ठा की दृढ़ता से रहित हैं, क्रिया अर्थात् शारीरिक प्रवृत्तियाँ क्लेशकारिणी हैं। लीलाएँ (मानसिक चेष्टाएँ) स्त्री पर ही केन्द्रित हो गई हैं, अर्थात् उनकी विषय केवल स्त्री ही हो गई हैं। वासनाओं के विषय ही लक्ष्य हो गये हैं याने विषयों की ओर ही वासनाएँ दौड़ती हैं। आत्मस्फूर्तिरूप चमत्कार नष्ट हो गये हैं, स्त्रियाँ दोषों की पताका के सदृश हो गई हैं और सम्पूर्ण विषय नीरस हो गये हैं। मुनिवर, सत् पदार्थ ब्रह्म कार्यकारण-संघातरूप से (देह, इन्द्रिय आदि रूप से) जाना जाता है, अर्थात् संसारी लोग देह, इन्द्रिय आदि को ही आत्मा समझते हैं, चित्त अहंकार में प्रविष्ट किया गया है अर्थात् लोगों का चित्त अहंकार से परिपूर्ण है, जितने पदार्थ हैं वे नाश से ग्रस्त हैं (विनाशी हैं)। उक्त अनित्य पदार्थों का जिसमें लय होता है, उस आत्मा को कोई नहीं जानता। श्रेष्ठतम बुद्धि ने सभी के अन्तःकरण को व्याकुल कर रक्खा है, किसी का अन्तःकरण सुखी नहीं है, केवल दुःख ही दुःख छाया है, रागरूपी रोग दिन-दिन बढ़ रहा है, वैराग्य का कोई पता नहीं। आत्मदर्शनशक्ति रजोगुण से नष्ट हो गई है और तमोगुण बढ़ रहा है, सत्वगुण का कोई पता नहीं एवं तत्त्वपदार्थ अत्यन्त दूर है। जीवन अत्यन्त अस्थिर है, मृत्यु आने के लिए तत्पर ही है, धैर्य का सर्वथा विनाश हो गया है और लोगों का तुच्छ विषयों में अनुराग नित्य बढ़ता जा रहा है। मति मूर्खता से मलिन  हो गई है, शरीर का अन्तिम परिणाम एकमात्र नाश ही है अर्थात् उसको अवश्य नष्ट होना है, शरीर में बुढ़ापा मानों प्रकाशित हो रहा है और पाप खूब दमदमा रहा है। दिन-प्रतिदिन जवानी प्रयत्नपूर्वक भाग रही है, सत्संगति का कहीं पता नहीं है, जिससे दुःख से छुटकारा प्राप्त हो जाये, ऐसी कोई गति नहीं है और सत्यता का उदय तो किसी में भी नहीं दिखाई देता। अन्तःकरण मोहजाल से अत्यन्त आच्छादित सा हो गया है, दूसरे को सुखी देखकर होने वाले सन्तोष का कहीं पता ही नहीं है, उज्जवल करूणा का कहीं उदय नहीं होता और नीचता न मालूम कहाँ से चली आ रही है। धीरता अधीरता में परिणत हो गई है, सम्पूर्ण जीवों का जन्म और मरण या उर्ध्वगमन और अधोगमन ही एकमात्र काम है, दुर्जन का संग पद-पद पर अतिसुलभ है, सज्जन की संगति अतिदुर्लभ है। सम्पूर्ण पदार्थ उत्पत्ति-विनाशशील हैं और वासना पदार्थों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होती। वही संसार में बन्धन कराने वाली है। काल नित्य प्राणियों के झुण्ड के झुण्ड को न मालूम कहाँ ले जाता है। दिशाएँ भी जिन्हें काल से हरे जाने का भय नहीं है, नहीं दिखाई देती, नष्ट हो जाती हैं, देश भी अदेश हो जाता है अर्थात नष्ट हो जाता है और पर्वत भी टूट जाते हैं, फिर मेरे सदृश जन्तु की स्थिरता में क्या विश्वास है ? सन्मात्रस्वभाववावाला ईश्वर आकाश को भी खा जाता है, चौदहों भुवनों को नष्ट कर देता है और पृथिवी भी उसी से नष्ट हो जाती है, फिर मेरे जैसे जीव की स्थिरता में क्या विश्वास है ? समुद्र भी सूख जाते हैं, तारे भी टूट पड़ते हैं और सिद्ध भी नष्ट कर देता है, फिर मेर जैसे जन की स्थिरता में क्या विश्वास है ? बड़े-बड़े पराक्रमी दैत्यों को भी ईश्वर नष्ट कर देता है, ध्रुव के जीवन का भी कोई निश्चय नहीं है और अमर भी (देवता भी) मारे जाते हैं, फिर मेरे जैसे जीव की स्थिरता में क्या विश्वास हो सकता है ? वह इन्द्र को भी अपने मुँह से चबा डालता है, यम को भी अपने कार्य से विरत कर देता है याने नष्ट कर देता है और उसी से वायु भी अभाव को प्राप्त हो जाता है, फिर मेरे जैसे प्राणी में स्थिरता की क्या आशा ? चन्द्रमा भी शून्यता को (अभाव को) प्राप्त हो जाता है, सूर्य के भी खण्ड-खण्ड हो जाते हैं, अग्नि भी भग्न हो जाती है अर्थात् शान्त हो जाती है, फिर मेरे जैसे प्राणी में स्थिरता की क्या आशा ? ब्रह्मा की भी अवधि है अर्थात् ब्रह्मा की भी समाप्ति का अवसर नियत है, अजन्मा विष्णु का भी संहार होता है और शिवजी भी नहीं रहते, फिर मेरे जैसे मनुष्य की स्थिरता की आशा केवल दुराशा ही है। काल का भी जो विनाश करता है, नियति को भी नष्ट कर डालता है, और अनन्तआकाश को नष्ट कर देता है, वह भला मुझे कहाँ छोड़ेगा, इसलिए मेरे जैसे जीवों की स्थिरता का कभी भी विश्वास नहीं हो सकता। जिसका कानों से श्रवण नहीं होता, वाणी से कथन नहीं होता और नेत्रों से दर्शन नहीं होता ऐसे अज्ञातस्वरूप एवं भ्रान्ति उत्पन्न करने वाले किसी सूक्ष्म तत्त्व से चौदहों भुवन अपनी आत्मा में माया द्वारा दिखलाये जा रहे हैं। अहंकारांश को प्राप्त होकर सबके मध्य में निवास करने वाला वह तत्त्व तीनों लोकों में स्थित प्राणियों में से जिसे नष्ट नहीं करता, ऐसी कोई वस्तु है ही नहीं।।7-32।।
उसकी सर्वनाशकता का उपपादन करने के लिए निरंकुश स्वतन्त्रता कहते हैं।
जैसे पर्वत शिखर से वेगपूर्वक बहता हुआ जल गोल पत्थरों को नीचे की ओर ले जाता है, वैसे ही अवश (ξ) रथभूत सूर्य को ईश्वर चट्टान, पर्वत और परिखाओं में हाँकता है। जैसे पका हुआ अखरोट का फल कठिन छिलके से घिरा रहता है, वैसे ही वह मध्य में स्थित देवता, असुर आदि का निवास पृथ्वीरूप गेंद को देवताओं के निवासभूत ज्योतिश्चक्र से चारों ओर से व्याप्त किये हुए हैं।
ξ 'य आदित्ये तिष्ठन्' इत्यादि श्रुति से अपने में अधीष्ठित ईश्वर से प्रेरित होने वाला एवं चट्टान, पहाड़ आदि दुर्गम स्थानों में किरणरूपी घोड़े के पैरों से चलते हुए सूर्य में रथ की कल्पना की गई है।
स्वर्ग में देवता, भूलोक में मनुष्य और पाताल में सर्पों की उसी ने कल्पना कर रक्खी है, वह जब इच्छा होती है, तभी उन्हें जीर्ण-शीर्ण दशा को प्राप्त करा देता है। भाव यह है कि इस जगत् का अत्यन्त पराधीन होना बड़ा भारी दोष है, ऐसे अन्याधीन जगत् में आस्था करना मूर्खता ही है। जगत् के अधिपति के साथ हुए रण में विजयी अतएव पराक्रम पूर्ण कामदेव अनुचित रूप से जगत को अपने वश में कर अपना प्रभाव दिखा रहा है। जैसे मत्त गजराच मद से चारों ओर दिशाओं को सुगन्धित करता है, वैसे ही वसन्तऋतु पुष्पवृष्टि द्वारा चारों ओर दिशाओं को सुगन्धित कर चित्त को चंचल कर देती है। अनुरागयुक्त महिलाओं के चंचल लोचनों के कटाक्ष विक्षेप के लक्ष्य बने हुए मन को महान विवेक भी स्वस्थ नहीं कर सकता। दूसरों का उपकार करने वाली, दूसरों के दुःख से अति सन्तप्त और अपनी आत्मा को शान्ति देने वाली शीतल बुद्धि से युक्त ज्ञानी पुरुष ही सुखी है, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। उत्पन्न होकर नष्ट होने वाले कालरूपी बड़वाग्नि के मुँह में गिरने वाले जीवनरूपी सागर के तरंग के समान पदार्थों को कौन गिन सकता है ? जैसे सागर में उत्पन्न होकर बड़वाग्नि के मुँह में गिरकर नष्ट होने वाले अनेक कल्लोलों को कोई नहीं गिन सकता वैसे ही संसार में उत्पन्न होकर काल के मुँह में गिरने वाले असंख्य जीवों को गिन सकने की किसमें शक्ति है ? दोषरूपी झाड़ियों में स्थित मृगों या पक्षियों के तुल्य सभी मनुष्य अज्ञान से दुराशारूपी जाल में बँधकर जन्मरूपी जंगल में विनष्ट हो गये हैं अर्थात् जैसे झाड़ियों में बैठे हुए मृग या पक्षी स्वाद लोलुपता के कारण अज्ञान से जाल में फँस कर नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही दोषपूर्ण मनुष्य अज्ञान से दुराशाबद्ध होकर जन्मरूपी जंगल में नष्ट हो जाते हैं। इन संसारी लोगों की आयु विविध जन्मों में पूर्वोक्त दोषों से होने वाले कुकर्मों से (काम्य और निषिद्ध कर्मों से) नष्ट हो जाती है। उनका फल जो स्वर्ग, नरक आदि है वह आकाश में वृक्ष हो और उस वृक्ष में लता भी हो, उस लता से गले में फाँसी देकर मनुष्य लटका दिया जाये, उसके समान अन्त में पतन कराने वाला ही है। उसकी निवृत्ति के लिए उपाय करना तो दूर रहा, परन्तु उसका विचार करने वाले लोग भी हमें नहीं दिखलाई देते।।33-42।। ऋषिवर, इस संसार में चंचल और मंद बुद्धि से युक्त लोग आज उत्सव है, यह सुहावनी ऋतु है, इसमें यात्रा करनी चाहिए, ये हमारे बान्धव हैं, विशिष्ट भोगों से युक्त यह सुख है, यों वृथा ही अनेक संकल्प-विकल्प कर नष्ट हो जाते हैं।।43।।

छब्बीसवाँ सर्ग समाप्त
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