मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

सत्कर्म करो

महाभारत के युद्ध की एक घटना है। भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं-
"हे युधिष्ठिर ! अब तुम विजेता हुए हो तो अब राजतिलक का दिन निश्चित कर तुम राज्य भोगो।"
तब युधिष्ठिर कहते हैं- "मुझसे अब राज्य नहीं भोगा जाएगा। मैं अब तप करना चाहता हूँ। मुझे राज्यसुख की आकांक्षा नहीं है। तप करके फिर आकर राज्य सँभालूँगा।"
तब भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
"नहीं, तुमसे फिर राज्य नहीं होगा क्योंकि अब कलियुग का प्रभाव शुरू हो चुका है। इसलिए तुम थोड़े समय राज्य करो, फिर तप करना।"
युधिष्ठिर को यह बात समझ में नहीं आयी। वे कहने लगेः "पहले तप करूँगा, बाद में राज्य करूँगा।"
तब श्रीकृष्ण पुनः बोलेः "फिर राज्य नहीं हो सकेगा।"
युधिष्ठिर के चित्त में राज्य करने की रूचि न थी। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- "तुम पाँचों भाई वन में जाओ और जो कुछ भी दिखे वह आकर मुझे बताओ। मैं तुम्हें उसका प्रभाव बताऊँगा।"
पाँचों भाई वन में गये।

युधिष्ठिर महाराज ने देखा कि किसी हाथी की दो सूँड है। यह देखकर आश्चर्य का पार न रहा।
अर्जुन दूसरी दिशा में गये। वहाँ उन्होंने देखा कि कोई पक्षी है, उसके पंखों पर वेद की ऋचाएँ लिखी हुई हैं पर वह पक्षी मुर्दे का मांस खा रहा है। यह भी आश्चर्य है !
भीम ने तीसरा आश्चर्य देखा कि गाय ने बछड़े को जन्म दिया है और बछड़े को इतना चाट रही है कि बछड़ा लहुलुहान हो जाता है।
सहदेव ने चौथा आश्चर्य देखा कि छः सात कुएँ हैं और आसपास के कुओं में पानी है किन्तु बीच का कुआँ खाली है। बीच का कुआँ गहरा है फिर भी पानी नहीं है।
पाँचवे भाई नकुल ने भी एक अदभुत आश्चर्य देखा कि एक पहाड़ के ऊपर से एक बड़ी शिला लुढ़कती-लुढ़कती आती और कितने ही वृक्षों से टकराई पर उन वृक्षों के तने उसे रोक न सके। कितनी ही अन्य शिलाओं के साथ टकराई पर वह रुक न सकीं। अंत में एक अत्यंत छोटे पौधे का स्पर्श होते ही वह स्थिर हो गई।

पाँचों भाईयों के आश्चर्यों का कोई पार नहीं ! शाम को वे श्रीकृष्ण के पास गये और अपने अलग-अलग दृश्यों का वर्णन किया।

1 :-- युधिष्ठिर कहते हैं- "मैंने दो सूँडवाला हाथी देखा तो मेरे आश्चर्य का कोई पार न रहा।"

तब श्री कृष्ण कहते हैं-
"कलियुग में ऐसे लोगों का राज्य होगा जो दोनों ओर से शोषण करेंगे। बोलेंगे कुछ और करेंगे कुछ। ऐसे लोगों का राज्य होगा। इससे तुम पहले राज्य कर लो।

2 :-- अर्जुन ने आश्चर्य देखा कि पक्षी के पंखों पर वेद की ऋचाएँ लिखी हुई हैं और पक्षी मुर्दे का मांस खा रहा है। इसी प्रकार कलियुग में ऐसे लोग रहेंगे जो बड़े-बड़े कहलायेंगे। बड़े पंडित और विद्वान कहलायेंगे किन्तु वे यही देखते रहेंगे कि कौन-सा मनुष्य मरे और हमारे नाम से संपत्ति कर जाये। संस्था के व्यक्ति विचारेंगे कि कौन सा मनुष्य मरे और संस्था हमारे नाम से हो जाये। पंडित विचार करेंगे कि कब किसका श्राद्ध है ? चाहे कितने भी बड़े लोग होंगे किन्तु उनकी दृष्टि तो धन के ऊपर (मांस के ऊपर) ही रहेगी।

"परधन परमन हरन को वैश्या बड़ी चतुर।"

ऐसे लोगों की बहुतायत होगी, कोई कोई विरला ही संत पुरूष होगा।

3 :-- भीम ने तीसरा आश्चर्य देखा कि गाय अपने बछड़े को इतना चाटती है कि बछड़ा लहुलुहान हो जाता है। कलियुग का आदमी शिशुपाल हो जायेगा। बालकों के लिए ममता के कारण इतना तो करेगा कि उन्हें अपने विकास का अवसर ही नहीं मिलेगा। किसी का बेटा घर छोड़कर साधु बनेगा तो हजारों व्यक्ति दर्शन करेंगे किन्तु यदि अपना बेटा साधु बनता होगा तो रोयेंगे कि मेरे बेटे का क्या होगा ? इतनी सारी ममता होगी कि उसे मोहमाया और परिवार में ही बाँधकर रखेंगे और उसका जीवन वहीं खत्म हो जाएगा। अंत में बिचारा अनाथ होकर मरेगा। वास्तव में लड़के तुम्हारे नहीं हैं, वे तो बहुओं की अमानत हैं, लड़कियाँ जमाइयों की अमानत हैं और तुम्हारा यह शरीर मृत्यु की अमानत है। तुम्हारी आत्मा-परमात्मा की अमानत हैं। तुम अपने शाश्वत संबंध को जान लो बस !

4 :-- सहदेव ने चौथा आश्चर्य यह देखा कि पाँच सात भरे कुएँ के बीच का कुआँ एक दम खाली ! कलियुग में धनाढय लोग लड़के-लड़की के विवाह में, मकान के उत्सव में, छोटे-बड़े उत्सवों में तो लाखों रूपये खर्च कर देंगे परन्तु पड़ोस में ही यदि कोई भूखा प्यासा होगा तो यह नहीं देखेंगे कि उसका पेट भरा है या नहीं। दूसरी और मौज-मौज में, शराब, कबाब, फैशन और व्यसन में पैसे उड़ा देंगे। किन्तु किसी के दो आँसूँ पोंछने में उनकी रूचि न होगी और जिनकी रूचि होगी उन पर कलियुग का प्रभाव नहीं होगा, उन पर भगवान का प्रभाव होगा।

5 :-- पाँचवा आश्चर्य यह था कि एक बड़ी चट्टान पहाड़ पर से लुढ़की, वृक्षों के तने और चट्टाने उसे रोक न पाये किन्तु एक छोटे से पौधे से टकराते ही वह चट्टान रूक गई। कलियुग में मानव का मन नीचे गिरेगा, उसका जीवन पतित होगा। यह पतित जीवन धन की शिलाओं से नहीं रूकेगा न ही सत्ता के वृक्षों से रूकेगा। किन्तु हरिनाम के एक छोटे से पौधे से, हरि कीर्तन के एक छोटे से पौधे मनुष्य जीवन का पतन होना रूक जायेगा।

इसलिए पांडवो ! तुम पहले थोड़े समय के लिए राज्य कर लो। कलियुग का प्रभाव बढ़ेगा तो तुम्हारे जैसे सज्जनों के लिए राज्य करना मुश्किल हो जाएगा। फिर तप करते-करते सीधे स्वर्ग में जाना, स्वर्गारोहण करना।"

"अभी पवित्र पुरूषों के लिए भगवन्नाम कीर्तन, सत्संग ध्यान, निर्भयता और नारायण की प्रसन्नता के कार्यों को करते-करते स्वर्गारोहण करना जरूरी है। जुल्म करना तो पाप है किन्तु जुल्म सहना दुगना पाप है। पाप करना तो पाप है किन्तु पापी और हिंसकों से घबराकर उन्हें छूट देना महापाप है।"
हरि ॐ

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

मूर्तिपूजा - भगवद्भाव जगाने का प्रभावी रास्ता...

नास्तिक सुधारक के घर में पनपी हुई एक फैशनेबल लड़की हार-शृंगार से देह को सजाकर मंदिर में गई। मंदिर का द्वार आते ही वह चीखी।
"मैं मर गई रे... मुझे बचाओ.... बचाओ... बड़ा डर लगता है !"
सास ने पूछाः "आखिर क्या हुआ ?"
"मुझे बहुत डर लगता है। मैं अंदर नहीं आ सकती। मुझे घर ले चलो। मेरा दिल धड़कता है... मेरा तन काँपता है।"
"अरे ! बोल तो सही, है क्या ?"
"वह देखो, मंदिर के द्वार पर दो-दो शेर मुँह फाड़कर खड़े हैं। मैं कैसे अंदर जाऊँगी ?"
सास ने कहाः "बेटी ! ये दो शेर हैं, लेकिन पत्थर के हैं। ये काटेंगे नहीं... कुछ नहीं करेंगे।"
वह लड़की अकड़कर बोलीः "जब पत्थर के शेर कुछ नहीं करेंगे तो मंदिर में तुम्हारा पत्थर का भगवान भी क्या करेगा ?"

उस पढ़ी लिखी मूर्ख स्त्री ने तर्क तो दे दिया और भोले-भाले लोगों को लगेगा कि बात तो सच्ची है। पत्थर के सिंह काटते नहीं, कुछ करते नहीं तो पत्थर के भगवान क्या देंगे ? जब ये मारेंगे नहीं तो वे भगवान सँवारेंगे भी नहीं। उस कुतर्क करने वाली लड़की को पता नहीं कि पत्थर के सिंह बिठाने की और भगवान की मूर्ति प्रतिष्ठित करने की प्रेरणा जिन ऋषियों ने दी है, वे ऋषि-महर्षि-मनीषियों की दृष्टि कितनी महान और वैज्ञानिक थी ! पत्थर की प्रतिमा में हम भगवद् भाव करते हैं तो हमारा चित्त भगवदाकार होता है। पत्थर की प्रतिमा में भगवद भाव हमारे चित्त का निर्माण करता है, चैतन्य के प्रसाद में जागने का रास्ता बनाता है।

मूर्तिपूजा करते-करते, परमात्मा के गीत गाते-गाते मीरा परम चैतन्य में जाग गई थी। आखिर उस मूर्ति में समा गई थी। गौरांग समा गये थे जगन्नाथजी के श्रीविग्रह में। एक किसान की लड़की नरो श्रीनाथ जी के आगे दूध धरती थी। श्रीनाथ जी उसके हाथ से दूध लेकर पीते थे। थी तो वह भी मूर्ति।

तुम्हारे अन्तःकरण में कितनी शक्ति छिपी हुई है ! मूर्ति भी तुमसे बोल सकती है। इतनी तो तुम्हारे चित्त में शक्ति है और चित्त के अधिष्ठान में तो अनंत-अनंत ब्रह्माण्ड विलसित हो रहे हैं। यह ज्ञान जगाने के लिए मंदिर का देवदर्शन प्रारंभिक कक्षा है। भले बाल मंदिर है, फिर भी अच्छा ही है।

उस मूर्ख लड़की से कहना चाहिएः "जब तू चलचित्र देखकर हँसती है, नाचती है, रोती है, हालाँकि प्लास्टिक की पट्टी के सिवाय कुछ भी नहीं है, फिर भी ‘आहा..... अदभुत...’ कहकर तू उछलती रहती है। परदे पर तो कुछ नहीं, सचमुच में गुन्डा नहीं, पुलिस नहीं... पुलिस के कपड़े पहन कर अभिनय किया है। रिवोल्वर भी सच्ची नहीं होती। फिर भी गोली मारते हैं, किसी को हथकड़ियाँ लगती हैं, डाकू डाका डालकर भागता है, उसके पीछे पुलिस की गाड़ियाँ दौड़ती हैं। ड्रायवर स्टीयरिंग घुमाते हैं..... ॐऽऽऽऽ.....ॐ, तब तुम सीट पर बैठे-बैठे घूमते हो कि नहीं घूमते हो ?जबकि पर्दे पर प्रकाश के चित्रों के अलावा कुछ नहीं है।

ऐसा झूठा चलचित्र का माहौल भी तुम्हारे दिल को और बदन को घुमा देता है तो ऋषियों के ज्ञान और उनके द्वारा प्रचलित मूर्तिपूजा भक्तों के हृदयों को भाव से, प्रार्थना से, परमात्म-प्रेम से भर इसमें क्या आश्चर्य है ?

ब्रह्मवेत्ता ऋषि-महर्षियों द्वारा रचित शास्त्रों के अनुसार मंत्रानुष्ठान पूर्वक विधि सहित मंदिर में भगवान की मूर्ति स्थापित की जाती है। फिर वेदोक्त-शास्त्रोक्त विधि के अनुसार प्राण-प्रतिष्ठा होती है। वहाँ साधु-संत-महात्मा आते जाते हैं। मूर्ति में भगवदभाव के संकल्प को दुहराते हैं।
हजारों-हजारों भक्त अपनी भक्ति-भावना का अभिषेक उस देव मूर्ति में करते हैं ।ऐसी मूर्ति से भाविक भक्तों को अमूर्त तत्त्व का आनन्द मिल जाय, तो इसमें क्या सन्देह है ?

बड़े बड़े मकानों में रहने वाले सभी लोग सही माने में बड़े नहीं होते। बड़ी-बड़ी कब्रों के अन्दर सड़ा गला मांस और बदबू होती है, बिच्छू और बैक्टीरिया ही होते हैं। बड़ी गाड़ियों में घूमने आदमी बड़ा नहीं होता, बड़ी कुर्सी पर पहुँचने से भी वह बड़ा नहीं होता। अगर बड़े से बड़े परमात्मा के नाते वह सेवा करता है, उसके नाते ही अगर बंगले में प्रारब्ध वेग से रहता है तो कोई आपत्ति नहीं। लेकिन इन चीजों के द्वारा जो परमेश्वर का घात करके अपने अहं को पोसता है, वह बड़ा नहीं कहा जाता।

-परम पूज्य संत श्री आसाराम जी "बापू" की "योगयात्रा" पुस्तिका से

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

अब कब तक उन गंदी नालियों से गुजरते रहोगे ?

हरी ॐ,
शुकदेव जी का जन्म हुआ तब वे सोलह वर्ष के थे। जन्मते ही वे घर छोड़कर जंगल की ओर जाने लगे। पिता वेदव्यासजी उनके पीछे पीछे जा रहे हैं, पुकार रहे हैं-

"पुत्र ! पुत्र !! सुनो। कहाँ जाते हो ? रूको... रूको.... मैं तुम्हारा पिता हूँ। मेरी बात सुनो।"

पुत्र ने सोचा कि, 'आखिर पिता भी जैसे तैसे नहीं हैं। वन में जाना है तो उनकी आशिष लेकर ही जाना उचित है। उनको प्रार्थना कर देता हूँ।"

शुकदेवजी ने पिता से कहाः "मैं आपको एक कथा सुनाता हूँ। फिर मुझे वापस बुलाना उचित समझें तो बुलाइये। पिताजी ! सुनिये।

किसी गाँव के बाहर नदी किनारे एक ब्रह्मचारी युवक प्रातःकाल उठकर हररोज सन्ध्या-वन्दन, उपासना, योगाभ्यास आदि करता था। जप-ध्यानादि के बाद जब उसे भूख लगती तो वह एक समय भिक्षापात्र लेकर नगर में मधुकरी करता था। उस ब्रह्मचारी का संयम, साधना, ओज, तेज बढ़ता चला गया। उसी गाँव में एक कुलटा स्त्री नववधु होकर आयी थी। दो मंजिल वाला उसका मकान था। ब्रह्मचारी जब भिक्षा लेने नगर में निकलता तो वह कुलटा खिड़की से उसे निहारती।
एक दिन उस युवती का पति बाहर जाने को निकल गया तब युवती ने ब्रह्मचारी को खिड़की से झाँककर बुलाया और कहाः
"इधर आओ। मैं तुम्हें भिक्षा देती हूँ।"
वह निर्दोष ब्रह्मचारी युवक सहज स्वभाव से भिक्षा लेने ऊपर पहुँच गया। युवक के अंदर आते ही उस कुलटा ने दरवाजा बन्द कर दिया। युवक से अनधिकार चेष्टा करने की कोशिश की। ब्रह्मचारी घबराया। मन ही मन भगवान से प्रार्थना कीः
"हे प्रभु ! मेरी साधना अधूरी न रह जाय। हे मेरे मालिक ! तू ही मेरा रक्षक है। काम तो वैसे ही तीर लिये खड़ा होता है। फिर यह कामिनी अपना प्रयास कर रही है।
हे राम ! तू कृपा कर। मैं मारा जा रहा हूँ। तू कृपा करेगा तो ही बच पाऊँगा। हे
प्रभु कृपा कर...... कृपा कर.....।"
उस ब्रह्मचारी की भीतरी प्रार्थना अन्तर्यामी परमात्मा ने सुन ली। उस युवती का पति बाहर जाने को घर से निकला था। संयोगवश उसे पेट में गड़बड़ी महसूस हुई और संडास जाने के लिए घर वापस लौट आया। घर का दरवाजा खटखटाया और पत्नी को पुकारा।
पत्नी ने पति की आवाज पहचानी और वह घबराई। अब इस युवक साधु का क्या किया जाय ?उसने तुरन्त निर्णय कर लिया और युवक को संडास की मोरी में दबा दिया। पत्नी ने दरवाजा खोला। पति को संडास जाना था तो वह संडास गया। मल-मूत्र-विष्टा का त्याग किया। फिर नहाधोकर अपनी पत्नी को भी साथ लेकर बाहर चला गया।

वह नवयुवक ब्रह्मचारी बेचारा उस संडास की मोरी में सरकता सरकता एक दिन के बाद नीचे आया। उस कुलटा ने अपनी इज्जत बचाने के लिए उस बेचारे को मोरी में उलटा धकेल दिया था। सिर नीचे और पाँव ऊपर, जैसे माता के गर्भ में बच्चा उल्टा होकर पड़ा रहता है। इस प्रकार वह धीरे धीरे सरकते हुए एक दिन के बाद जब नीचे उतरा तब भंगी को उसके सिर के बाल दिखाई दिये। उसको बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने युवक को बाहर खींच लिया। युवक तो बेहोश हो गया था। भंगी को संतान नहीं थी। वह उसे अपने घर में ले गया। मूर्छित ब्रह्मचारी का इलाज किया। काफी कोशिशों के बाद युवक होश में आया। होश में आया तो वह भागकर अपनी झोंपड़ी में आया। नदी में अच्छी तरह स्नान किया। फिर आसन, प्राणायाम, ध्यान, जपादि करके स्वस्थ हुआ।
पिता जी ! उस युवक को फिर से भूख लगी। दो चार दिन के बाद भिक्षा हेतु उसे नगर में आना ही पड़ा। तब तक वह कुलटा स्त्री भी अपने घर वापस लौट आयी थी।
पिताजी ! वह युवक उस मोहल्ले में से अब गुजरेगा ही नहीं लेकिन अगर वह अनजाने में उस मोहल्ले से गुजरे और वह कुलटा स्त्री उसे पूरी पकवान खिलाने को बुलाय तो वह वहाँ जायगा क्या ? वह स्त्री उसे बार-बार अनुनय विनय करे, अच्छे अच्छे कपड़े देने का, सुन्दर वस्त्राभूषण देने का प्रलोभन दे तो वह जायेगा क्या ? नहीं, वह युवक ब्रह्मचारी उस कुलटा के पास कदापि नहीं जाएगा। क्योंकि उसे एक बार संडास की मोरी का अनुभव याद है, नाली से गुजरने की पीड़ा की स्मृति है।

पिताजी ! उस ब्रह्मचारी की तो एक ही बार मोरी से गुजरने का अनुभव याद है इससे हजारों हजारों प्रलोभनों के बावजूद भी वह कुलटा के पास नहीं जाता जबकि मैं तो हजारों हजारों नालियों से, माताओं के गर्भों में घूमता घूमता आया हूँ।
पिताजी !मुझे क्षमा कीजिए, मुझे जाने दीजिए, संसार के कीचड़ से मुझे बचने दीजिए। मुझे कई जन्मों से स्मरण है कि माता की गर्भरूपी मोरी कैसी गन्दी होती है।
उस कुलटा स्त्री के संडास की मोरी तो एक दिन की थी लेकिन यहाँ माता के गर्भरूपी मोरी में तो नौ महीने और तेरह दिन तक उल्टा होकर लटकना पड़ता है। वहाँ मल-मूत्र-विष्टा सतत बनी रहती है। माँ तीखा पदार्थ खाती है तो बच्चे की कोमल चमड़ी पर जलन होती है। उसकी पीड़ा तो बच्चा ही जानता है। माँ की गन्दी योनि के मार्ग से बाहर निकलते समय बच्चे को जो पीड़ा होती है उसका क्या बयान किया जाय ? माँ की अपेक्षा दस गुना अधिक पीड़ा बच्चे की होती है। बच्चा बेचारा बेहोश का हो जाता है।

हे पिता जी ! ऐसी पीड़ाओं से मैं केवल एक ही बार नहीं गुजरा हूँ लेकिन हजारों, लाखों, करोड़ों, अरबों बार गुजरा हूँ। अब आप मुझे क्षमा करो। मुझे उस गन्दी नालियों में ले जाने वाले संसार की ओर न घसीटो।"
संसार और चित्तवृत्तियों का बहुत पसारा मत करो। बहुत पसारा करने से फिर गंदी मोरियों से पसार होना पड़ेगा, नालियों से पसार होना पड़ेगा। कभी दो पैरवाली माँ की नाली से पसार होंगे कभी चार पैरवाली माँ की नाली से पसार होंगे, कभी आठ पैरवाली माँ की नाली से, कभी सौ पैरवाली माँ की नाली से। आज तक ऐसी कई प्रकार की माँ की नालियों से पसार होते आये हैं युगों से। अब कब तक उन नालियों से गुजरते रहोगे ? अब उन नालियों से उपराम हो जाओ। अब तो उस परमात्मा से मिलो, फिर कभी किसी नाली से गुजरना न पड़े।

-परम पूज्य संत श्री आसाराम जी "बापू" के 'निश्चिंत जीवन' पुस्तिका से,