आठवाँ
सर्ग
पूर्व सर्ग में प्रचुर उदाहरणों
द्वारा वर्णित दैवमिथ्यात्व का, उपजीव्यविरोध आदि युक्तियों से भी, समर्थन।
इस प्रकार दैव
का निराकरण कर पौरुष की स्वतन्त्रता का समर्थन करने पर भी विश्वास न होने के कारण
भ्रम में पड़ रहे और पहले स्वयं विस्तार से वर्णित (►) एवं
अनेक श्रुति, स्मृति, पुराण और इतिहास में प्रसिद्ध दैव का अपलाप करना कठिन ही
नहीं असंभव है यों कि समझ रहे श्रीरामचन्द्रजी को मुखाकृति आदि से ताड़कर जब तक
श्रीरामचन्द्रजी को दैव की स्वतन्त्रता में उपजीव्यविरोध नहीं दिखलाता जायेगा तब
तक उन्हें विश्वास नहीं होगा, इसलिए उसको दिखलाने की इच्छा से श्रीवसिष्ठजी ने
कहाः
हे
श्रीरामचन्द्र, जिसकी न जाति है या न अनुगत शरीर के अवयवों का संगठन ही है, न कर्म
हैं, न चेष्टाएँ और न किसी प्रकार का पराक्रम ही है उस दैव का कैसा स्वरूप है इस
बात को निर्णयपूर्वक यथार्थरूप से कोई नहीं बतला सकता, चूँकि उसे बताना कठिन ही
नहीं असम्भव है, इसलिए मिथ्याज्ञान के समान उसकी केवल लोकप्रसिद्धिमात्र है।।1।।
►
वैराग्य प्रकरण सर्ग 25 में –
अत्रैव
दुर्विलासानां चूड़ामणिरिहाऽपरः । करोत्यत्तीति लोकेऽस्मिन् दैवं कालश्च कथ्यते।।
तेनेयमखिला
भूतसन्ततिः परिपेलवा। तापेन हिममालेव नीते विधुरतां मृशम्।।
नृत्यतो
हि कृतान्तस्य नितान्तमिव रागिणः। नित्यं यितिकान्तायां मुने परमकामिता।।
(सर्ग
25)
किस अधिष्ठान को
लेकर दैव भ्रान्ति होती है ? ऐसी शंका होने पर अधिष्ठान को दिखलाते हुए परस्पर
व्यवहार का स्पष्टीकरण करते हैं। अपने कर्मफल की प्राप्ति होने पर इस कर्म का इस
क्रम से अनुष्ठान किया था, इसलिए इस प्रकार फल प्राप्त हुआ, ऐसे जो वाग्व्यवहार होते
हैं, वे ही दैवनाम से लोक में प्रसिद्धि को प्राप्त हुए हैं। उन वाग व्यवहारों में
मन्दबुद्धि पुरुष यह दैव है, इस प्रकार का भ्रान्ति से निश्चय करते हैं जैसे कि
भ्रान्ति से रस्सी में यह सर्प है, ऐसा निश्चय गृहीत होता है। जैसे अतीत काल के
दुष्कर्म वर्तमान काल के शुभ कर्मों से शोभा को प्राप्त होते हैं, वैसे ही
पूर्वजन्म के दुष्कर्म इस जन्म के शुभ कर्मों से शुभफलप्रद हो जाते हैं, इसलिए
पुरुष को प्रयत्नपूर्वक उद्योगी होना चाहिए। जिस मन्दमतिका मूढ़ों द्वारा अनुमान
से सिद्ध दैव है, अर्थात् जो दुर्मति मूढ़ों द्वारा कल्पित दैव को मानता है, उस
दुर्मति को मैं भाग्य से नहीं ही जलूँगा ऐसा निश्चय कर अग्निकुण्ड में कूद पड़ना
चाहिए। यदि कर्ता धर्ता सब कुछ दैव ही है, तो पुरुष की चेष्टा से क्या प्रयोजन है
? स्नान, दान, उठना, बैठना, बोलना आदि सभी व्यापारों को दैव ही कर देगा। मनुष्य को
शास्त्रों का उपदेश देने से किस फल की सिद्धि होगी, क्योंकि यह पुरुष तो बोलने के
लिए भी स्वतन्त्र नहीं है दैव जैसा चाहता है वैसा उससे नाच नचाता है, फिर इस संसार
में किस को क्या उपदेश दिया जाय ? इस लोक में शव को छोड़कर अन्य किसी में भी
चेष्टा का अभाव नहीं देखा गया है, चेष्टा से ही फलप्राप्ति होती है, दैव से नहीं,
इसलिए दैव निरर्थक है। जैसे लिखना, काटना आदि कार्यों में लेखनी, छुरा आदि और अंग
परस्पर सम्बद्ध होते हैं, सम्बद्ध हुए दोनों में से एक में ही क्रियाकारिता देखी
जाती है, दूसरे में नहीं, वैसे ही हस्त आदि के रहने पर उनसे ही ग्रहण आदि क्रिया
होगी दैव उनसे अन्यथा सिद्ध होने के कारण करण नहीं हो सकता और अतएव हाथ, पैर, मन,
बुद्धि आदि के सदृश क्रिया के करणत्वरूप से भी दैव की कल्पना की आशा नहीं करनी
चाहिए। बच्चे से लेकर विद्वानों तक को मन और बुद्धि के सदृश भी इस दैव का अनुभव
नहीं होता, इसलिए भी दैव सदा असत् ही है, क्योंकि उस के अस्तित्व का किसी को भी
अनुभव नहीं होता। किंच, दैव की सिद्धि में कर्ता आदि ही दैव शब्द से कहे जायें तो
दैव केवल कर्ता आदि का दूसरा नाम ही ठहरा। द्वितीय पक्ष में क्रिया में उपयोग रहित
किसी दूसरे की दैव इस नाम से व्यर्थ ही कल्पना करनी होगी। यदि कहिए कि सभी
पाण्डित्य आदिरूप समान फल की अभिलाषा से पढ़ते हैं, उनमें से कुछ ही को अध्ययनफल
पाण्डित्य आदि प्राप्त होते हैं सबको नहीं, इस विषमता में किसी न किसी निमित्त की
अवश्य कल्पना करनी चाहिए। कार्य की जो विषमता देखी जाती है वह दैव की कल्पना में
प्रमाण है, यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि कार्यवैषम्य को दैव की कल्पना में
प्रमाण मानो, तो कार्यवैषम्य से पूर्व जन्म के पौरुष की ही कल्पना क्यों नहीं करते
? अप्रसिद्ध दैव की कल्पना क्या आवश्यकता है ? जैसे मूर्तियुक्त हम लोगों का
अमूर्त आकाश से संयोग नहीं हो सकता वैसे ही अमूर्त दैव का अन्य कारण के साथ
सम्बन्ध नहीं हो सकता, अतः मूर्त का ही परस्पर संयोग दिखाई देता है, अतः दैव कोई
पदार्थ नहीं है। यदि प्राणियों को व्यापार में लगाने वाला दैव नामक कोई होता तो तीनों
लोकों में सब प्राणी दैव ही सब कुछ करेगा ऐसा निश्चय करके सो जाते। दैव से प्रेरित
हुआ मैं दैव के संकल्प से सिद्ध ऐसा कार्य करता हूँ, यह वचन आश्वासनमात्र है
परमार्थतः दैव कोई पदार्थ नहीं है। मूर्ख लोगों ने अपने मन से दैव की कल्पना कर
रखी है, जो लोग दैव पर निर्भर रहे उनका सर्वनाश ही हुआ है, बुद्धिमान पुरुष तो
पौरुष का अवलम्बन कर उत्तम पद को प्राप्त हुए हैं। भला कहिए तो सही जो लोग शूरवीर
हैं, जो पराक्रमशाली हैं, जो बुद्धिमान हैं और जो विद्वान हैं क्या वे इस लोक में
दैव की प्रतीक्षा करते हैं ?।।2-17।।
यदि कहिए
ज्योतिषी जो ग्रहों का वर्णन करते हैं, वही दैव है, सो ठीक नहीं, क्योंकि ग्रह तो
अपनी गतिविशेष से पौरुष और उसके फल का सूचन ही करते हैं, फल के कारण नहीं है, इस
अभिप्राय से कहते हैं।
ज्योतिषियों
द्वारा जिसकी बहुत बड़ी आयु का निर्णय किया गया है, यदि वह सिर फटने पर भी जीवित
रहे, तो दैव उत्तम कारण है। हे रामचन्द्रजी, ज्योतिषियों ने जिसके विषय में यह
बड़ा भारी विद्वान होगा ऐसा निर्णय किया है, वह यदि बिना पढ़ाये ही विद्वान हो
जाय, तब दैव को उत्तम कारण कहना चाहिए। हे राम, देखो, इन महामुनि
श्रीविश्वामित्रजी ने दैव को दूर फेंककर पौरुष के अवलम्बन से ही ब्राह्मणत्व
प्राप्त किया, अन्य उपाय से नहीं। हम लोगों ने एवं अन्यान्य और लोगों ने जो कि
मुनि बने हैं, चिरकाल के प्रयत्न से ही आकाशगति प्राप्त की है।।18-21।।
जो इन्द्र आदि
देव हैं, वे भी पौरुष से पराजित हुए थे, यह बात प्रसिद्ध है।
हिरण्यकशिपु आदि
दैत्यराजों ने अपने पुरुषप्रयत्न से ही देवताओं को तहस नहस कर तीनों भुवनों में
साम्राज्य किया था और इन्द्र आदि देवराजों ने पौरुष के अवलम्बन से ही शत्रुसेना को
काटकर और जर्जरितकर इस विशाल जगत् को दानवों से छीना था। हे रामजी, राल एवं मधुमक्खी
का छत्ता आदि के लेपन आदिरूप प्रसिद्ध पौरुषयुक्ति से बाँस की टोकरी में चिरकाल तक
बड़ी खूबी के साथ पानी रक्खा जाता है, इसमें पौरुष ही कारण है, दैव नहीं।
आत्मीयजनों का भरण-पोषण, जबरदस्ती दूसरे के राष्ट्र को छीन लेना, क्रोध से दूसरे
को दण्ड देना, भोग-विलास एवं अन्यान्य रोगादिनिवृत्ति आदिरूप परिश्रमसाध्य
पुरुषार्थों के प्रति पराक्रम, मणि, मन्त्र और औषधि में जैसी शक्ति देखी जाती है
वैसी दैव में शक्ति नहीं है, वे सब पौरुष से ही सिद्ध होते हैं। हे साधुचरित
श्रीरामजी, सम्पूर्ण कारणों और कार्यों से रहित अपने भ्रम से बने हुए के सदृश
मिथ्यारूप असत्य दैव की उपेक्षा कर तुम उत्तम पौरुष का अवलम्बन करो।।22-26।।
आठवाँ सर्ग
समाप्त
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