सोलहवाँ
सर्ग
साधुसंगतिरूप
चतुर्थ द्वारपाल का वर्णन तथा चारों में से
प्रत्येक
के सेवन में भी पुरुषार्थहेतुता का वर्णन।
साधुसमागमरूप
चतुर्थ द्वारपाल का वर्णन कर रहे और चारों में से प्रत्येक के विषय में किया गया
प्रबल पुरुषप्रयत्न पुरुषार्थपद है, ऐसा दर्शाते हुए श्रीवसिष्ठजी बोलेः
हे महामते, इस
लोक में श्रेष्ठ साधुसमागम मनुष्यों के संसारसागर से उत्तरण में विशेषरूप से सब
जगहों में (सम्पूर्ण अवस्थाओं में) उपकार करता है। साधुसंगतिरूपी वृक्ष के उत्पन्न
हुए विवेकरूपी सफेद फूल की जो महात्मा रक्षा करते हैं, वे मोक्षफलरूप सम्पत्ति के
भाजन होते हैं। साधु पुरुषों का समागम होने पर आत्मीय जन और धन से शून्य दुःखपूर्ण
स्थान धन और जन से परिपूर्ण हो जाता है, मृत्यु भी उत्सव में परिणत हो जाती है और
आपत्तियाँ सम्पत्तियाँ की तरह मालूम होती है। इस संसार में आपत्तिरूपी कमलिनी के
लिए हेमन्त ऋतुरूप और मोहरूपी कुहरे के लिए वायुरूप केवल श्रेष्ठ साधुसमागम ही
सर्वोत्कृष्ट है। हे रामचन्द्रजी, आप साधुसमागम को बुद्धि को अत्यन्त बढ़ाने वाला,
अज्ञानरूपी वृक्ष का उच्छेद करने वाला और मानसिक व्याथाओं को दूर करने वाला
जानिये। जैसे उद्यान को सींचने से फल-फूलों के गुच्छे प्राप्त होते हैं, वैसे ही
साधुसंगम से मनोहर और निर्मल विवेकरूपी परम दीप उत्पन्न होता है। साधुसंगतिरूपी
विभूतियाँ नित्य बढ़ाने वाले अविनाशी और बाध रहित उत्तम सुख को देती हैं। कितनी ही
बड़ी आपत्ति को प्राप्त क्यों न हो और कितनी ही बड़ी पराधीनता को प्राप्त क्यों न
हो फिर भी मनुष्यों को क्षणभर के लिए भी साधु संगति का त्याग नहीं करना चाहिए।
साधुसंगति सन्मार्ग की दीपक है और हृदयान्धकार को दूर करने वाली ज्ञानरूपी सूर्य
की प्रभा है। जिसने शीतल और स्वच्छ साधुसंगतिरूपी गंगा में स्नान किया है, उसको
दानों से, तीर्थों से, तपस्याओं से और यज्ञों से क्या प्रयोजन है ? जिनके राग नष्ट
हो गये हैं, सन्देह कट चुके हैं एवं चिद्जड़ग्रन्थि नष्ट हो चुकी हैं, ऐसे साधु
पुरुष यदि विद्यमान हैं, तो तप और तीर्थ करने से क्या प्रयोजन है ? जैसे दरिद्र
पुरुष मणियों को बड़े प्रेम से देखते हैं, वैसे ही जिनका चित्त विश्रान्तिसुख से
परिपूर्ण है, ऐसे धन्य साधु पुरुषों के बड़े प्रयत्न से दर्शन करने चाहिए। जैसे
अप्सराओं के समूह में विष्णु के समागम और अपनी सर्वोत्कृष्ट सुन्दरता से युक्त
लक्ष्मी शोभित होती है, वैसे ही जिन बुद्धिमानों की मति सत्समागम रूप सौन्दर्य से
युक्त है, वह भी सदा विराजमान रहती है। जिस धन्य पुरुष ने साधुसंगति का परित्याग
नहीं किया, ब्रह्म की प्राप्ति के लिए प्रयत्न कर रहे लोगों में ब्रह्म की प्रथम
प्राप्ति से वह अपनी शिरोभूषणता (सर्वोत्कृष्टता) प्रसिद्ध कर लेता है। जिनकी
अन्तःकरण और उसके धर्मों में तादात्म्यसंसर्गाध्यासरूप चिदजड़-ग्रन्थि छिन्न-भिन्न
हो गई है, उन ब्रह्मज्ञानी एवं सर्वसम्मत साधुओं की दान, सम्मान, सेवा आदि सब
प्रयत्नों से सेवा करनी चाहिए, क्योंकि वे लोग भवसागर में डूबे हुए लोगों के तारण
के उपाय हैं। जिन लोगों ने नरकरूपी अग्नि को बुझाने के लिये जल बरसाने वाले मेघरूप
सन्त-महात्माओं को तिरस्कार की दृष्टि से देखा, वे लोग नरकरूपी अग्नि की सूखी
लकड़ी बन गये, अर्थात् सूखी लकड़ियों की नाईं नरकाग्नि ने उन्हें जला डाला।
सज्जनसंगतिरूपी औषधियों से दरिद्रता, मृत्यु, दुःख आदि विषयक सन्निपात समूल नष्ट
हो जाता है।।1-17।।
सम्पूर्ण
द्वारपालों की एक ही साथ प्रशंसा करने की इच्छा से पूर्वोक्त का अनुवाद करते हैं।
सन्तोष, सत्संगति, विचार और शान्ति ये ही चार संसारसागर में मग्न हुए लोगों के
तरने के उपाय हैं। सन्तोष सम्पूर्ण लाभों से सर्वश्रेष्ठ लाभ है, सत्संगति परम गति
है, विचार परम ज्ञान है और शम परम सुख है अर्थात् सन्तोष के तुल्य कोई लाभ नहीं
है, सत्संग के तुल्य कोई गति नहीं है, आत्मविचार के समान ज्ञान नहीं है और शान्ति
के तुल्य और सुख नहीं है। ये चार संसार के समूल विनाश के लिए निर्मल उपाय हैं,
इनका जिन्होंने खूब अभ्यास किया, वे मोहरूपी जल से लबालब भरे हुए संसारसागर से तर
गये।।18-20।।
यदि सबका अभ्यास
करने की सामर्थ्य न हो, तो एक के उत्तम अभ्यास से भी चारों का अभ्यास हो जाता है,
ऐसा कहते हैं।
हे मतिमानों में
श्रेष्ठ, उनमें से निर्मल उदयवाले एक का अभ्यास होने पर भी शेष चारों का अभ्यास हो
जाता है। एक-एक भी इन सबकी उत्पत्तिभूमि है, जनक है, अतः सबकी सिद्धि के लिए एक का
प्रयत्नपूर्वक आश्रय लेना चाहिए। जैसे तरंगों से शून्य (प्रशान्त) सागर में
बड़े-बड़े व्यापारिक जहाज बिना किसी धक्का-मुक्की के बड़ी सावधानी से चलते हैं,
वैसे ही शान्ति से स्वच्छ पुरुष में सत्संगति, सन्तोष और विचार बड़ी सावधानी से
प्रवृत्त होते हैं। जैसे कल्पवृक्ष के आश्रय में स्थित पुरुष को लौकिक सम्पत्तियाँ
प्राप्त होती हैं, वैसे ही विचार, सन्तोष, शान्ति और साधुसंगति से सुशोभित पुरुष
को ज्ञानसम्पत्तियाँ प्राप्त होती है, वैसे ही विचार, सन्तोष, शान्ति और साधुसंगति
से सुशोभित पुरुष को ज्ञानसम्पत्तियाँ प्राप्त होती हैं। जैसे परिपूर्ण पूर्णिमा
में सौन्दर्य आदि गुण प्राप्त होते हैं। जो राजा सदा विचार के लिए मन्त्रियों को निमन्त्रित
करता है या मन्त्रित सन्धि, विग्रह आदि पदार्थों को गुप्त रखता है, उस राजा को
जैसे विजयलक्ष्मी प्राप्त होती है, वैसे ही सत्संग, सन्तोष, शान्ति और विचार से
युक्त सदबुद्धि पुरुष को ज्ञानसम्पत्ति प्राप्त होती है। इसलिए हे रघुकुलतिलक,
पुरुषप्रयत्न से मन को नित्य अपने वश में कर इनमें से एक गुण का प्रयत्नपूर्वक
उपार्जन करना चाहिए। प्रयत्नपूर्वक अपने चित्तरूपी हाथी को अपने वश में कर जबतक
हृदय में एक गुण की प्राप्ति नहीं की जाती तब तक उत्तम गति दुर्लभ है। हे
श्रीरामजी, जब तक आपका चित्त गुणों के उपार्जन के लिए आग्रहवान् न हो, तब तक
प्रयत्नपूर्वक दाँतों को दाँतों से पीसना चाहिए अर्थात् गुणार्जन के लिए अत्यन्त
उद्योग करना चाहिए।।21-29।।
सात्त्विक देव
आदि जन्म के लिए प्रयत्न करना चाहिए, देव आदि जन्म प्राप्त होने पर बिना परिश्रम
के ज्ञान होगा, इस शंका पर कहते हैं।
हे महाबाहो, आप
चाहे देवता होइये या यक्ष होइये, पुरुष होइये अथवा वृक्ष होइये पर जब तक आपका
चित्त गुणों के उपार्जन के लिए आग्रहवान न होगा तब तक उत्तम गति का कोई उपाय नहीं
है। फलदायक एक ही गुण के दृढ़ होने पर दोषाधीन चित्त के सम्पूर्ण दोष शीघ्र ही
क्षीण हो जाते हैं।।30-31।।
परस्पर
विरोधियों में एक की वृद्धि होने पर उसके सजातीय कुल की वृद्धि होने से अन्य का
क्षीण होना प्रसिद्ध ही है, ऐसा कहते हैं।
गुणों की
अभिवृद्धि होने पर दोषों पर विजय पाने वाले गुणों की वृद्धि होती है और दोषों के
बढ़ने पर गुणविनाशक दोष बढ़ते हैं। इस मनोमोहरूपी वन में, सब प्राणियों में वेगवती
वासनारूपी नदी सदा बहती है, पुण्य और पाप उसके बड़े-बड़े तट हैं। अपने प्रयत्न से
दूसरे तट का निरोध कर उक्त वासनारूपी नदी जिस तट की ओर फेंकी जाती है, उसी तट से
बहती है, अतएव हे रामजी, आपको जैसा अभीष्ट हो, वैसा कीजिए। हे शुभमते, आप अपनी
वासनारूपी नदी मनरूपी वन में क्रमशः पुण्य तट की ओर प्रवृत्त कीजिए, ऐसा करने से
आप तनिक भी पापप्रवाह से नहीं बहाये जायेंगे।।32-35।।
सोलहवाँ सर्ग
समाप्त
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