कार्तिक मास में सूर्य-मन्दिर में दीपदान का फल
ब्रह्माजी बोले - विष्णों ! जो कार्तिक मास में सूर्यदेव के मन्दिर में दीप प्रज्वलित करता है, उसे सम्पूर्ण यज्ञों का फल प्राप्त होता है एवं वह तेज में सूर्य के समान तेजस्वी होता है। अब मैं आपको भद्र ब्राह्मण की कथा सुनाता हूँ, जो समस्त पापों का नाश करने वाली है, उसे आप सुने
प्राचीन काल में महिष्मती नाम की एक सुन्दर नगरी में नागशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। भगवान सूर्य की प्रसन्नता से उसके सौं पुत्र हुए। सबसे छोटे पुत्र का नाम था भद्र। वह सभी भाइयों में अत्यन्त विलक्षण विद्वान था। वह भगवान सूर्य के मन्दिर में नित्य दीपक जलाया करता था। एक दिन उसके भाइयों ने उससे बडे आदर से पूछा - “भद्र! हम लोग देखते है कि तुम भगवान सूर्य को न तो कभी पुष्प, धूप, नैवेद्य आदि अर्पण करते हो और न कभी ब्राह्मण-भोजन कराते हो, केवल दिन-रात मन्दिर में जाकर दीप जलाते रहते हो, इसमें क्या कारण है ? तुम हमें बताओ।” अपने भाइयों की बात सुनकर भद्र बोला - भातृगण ! इस विषय में आप लोग एक आख्यान सुनें
प्राचीन काल में राजा इक्ष्वाकु के पुरोहित महर्षि वसिष्ठ थे। उन्होंने राजा इक्ष्वाकु से सरयु-तट पर सूर्यभगवान का एक मन्दिर बनवाया। वे वहाँ नित्य गन्ध-पुष्पादि उपचारों से भक्तिपूर्वक भगवान सूर्य की पूजा करते और दीपक प्रज्वलित करते थे। विशेषकर कार्तिक मास में भक्तिपूर्वक दीपोत्सव किया करते थे तब मैं भी अनेक कुष्ठ आदि रोगों से पीडित हो उसी मन्दिर के समीप पडा रहता और जो कुछ मिल जाता, उसी से अपना पेट भरता। वहाँ के निवासी मुझे रोगी और दीन-हीन जानकर मुझे भोजन दे देते थे। एक दिन मुझमें यह कुत्सित विचार आया कि मैं रात्रि के अन्धकार में इस मन्दिर में स्थित सूर्यनारायण के बहुमूल्य आभूषणों को चुरा लूँ। ऐसा निश्चयकर मैं उन भोजकों की निद्रा की प्रतीक्षा करने लगा। जब वे भोजक सो गये, तब मै धीरे-धीरे मन्दिर में गया और वहाँ देखा कि दीपक बुझ चुका है। तब मैनें अग्नि जलाकर दीपक प्रज्वलित किया और उसमें घृत डालकर प्रतिमा से आभूषण उतारने लगा, उसी समय वे देवपुत्र भोजक जग गये और मुझे हाथ में दीपक हाथ में दीपक लिया देखकर पकड लिया। मैं भयभीत हो विलापकर उनके चरणों पर गिर पडा। दयावश उन्होंने मुझे छोड़ दिया, किन्तु वहाँ घूमते हुए राजपुरुषों ने मुझे फिर बाँध लिया और ये मुझसे पूछने लगे - ‘अरे दुष्ट! तुम दीपक हाथ में लेकर मन्दिर में क्या कर रहे थे? जल्दी बताओ’, मैं अत्यन्त भयभीत हो गया। उन राजपुरुषों के भय से तथा रोग से आक्रान्त होने के कारण मन्दिर में ही मेरे प्राण निकल गये। उसी समय सूर्यभगवान के गण मुझें विमान में बैठाकर सूर्यलोक ले गये और मैंने एक कल्पतक वहाँ सुख भोगा और फिर उत्तम कुल में जन्म लेकर आप सबका भाई बना। बन्धुओं! यह कार्तिक मास में भगवान सूर्य के मन्दिर में दीपक जलाने का फल है। यद्यपि मैंने दुष्टबुद्धि से आभूषण चुराने की दृष्टि से मन्दिर में दीपक जलाया था तथापि उसी के फल स्वरूप इस उत्तम ब्राह्मणकुल में मेरा जन्म हुआ तथा वेद-शास्त्रों का मैंने अध्ययन किया और मुझे पूर्वजन्मों की स्मृति हुई। इस प्रकार उत्तम फल मुझे प्राप्त हुआ। दुष्टबुद्धि से भी घी द्वारा दीपक जलाने का ऐसा श्रेष्ठ फल देखकर मैं अब नित्य भगवान सूर्य के मन्दिर में दीपक प्रज्वलित करता रहता हूँ। भाईयों। मैनें कार्तिक मास में यह दीपदान का संक्षेप में माहात्म्य आप लोगों को सुनाया।
ब्रह्माजी बोले - विष्णों ! जो कार्तिक मास में सूर्यदेव के मन्दिर में दीप प्रज्वलित करता है, उसे सम्पूर्ण यज्ञों का फल प्राप्त होता है एवं वह तेज में सूर्य के समान तेजस्वी होता है। अब मैं आपको भद्र ब्राह्मण की कथा सुनाता हूँ, जो समस्त पापों का नाश करने वाली है, उसे आप सुने
प्राचीन काल में महिष्मती नाम की एक सुन्दर नगरी में नागशर्मा नाम का एक ब्राह्मण रहता था। भगवान सूर्य की प्रसन्नता से उसके सौं पुत्र हुए। सबसे छोटे पुत्र का नाम था भद्र। वह सभी भाइयों में अत्यन्त विलक्षण विद्वान था। वह भगवान सूर्य के मन्दिर में नित्य दीपक जलाया करता था। एक दिन उसके भाइयों ने उससे बडे आदर से पूछा - “भद्र! हम लोग देखते है कि तुम भगवान सूर्य को न तो कभी पुष्प, धूप, नैवेद्य आदि अर्पण करते हो और न कभी ब्राह्मण-भोजन कराते हो, केवल दिन-रात मन्दिर में जाकर दीप जलाते रहते हो, इसमें क्या कारण है ? तुम हमें बताओ।” अपने भाइयों की बात सुनकर भद्र बोला - भातृगण ! इस विषय में आप लोग एक आख्यान सुनें
प्राचीन काल में राजा इक्ष्वाकु के पुरोहित महर्षि वसिष्ठ थे। उन्होंने राजा इक्ष्वाकु से सरयु-तट पर सूर्यभगवान का एक मन्दिर बनवाया। वे वहाँ नित्य गन्ध-पुष्पादि उपचारों से भक्तिपूर्वक भगवान सूर्य की पूजा करते और दीपक प्रज्वलित करते थे। विशेषकर कार्तिक मास में भक्तिपूर्वक दीपोत्सव किया करते थे तब मैं भी अनेक कुष्ठ आदि रोगों से पीडित हो उसी मन्दिर के समीप पडा रहता और जो कुछ मिल जाता, उसी से अपना पेट भरता। वहाँ के निवासी मुझे रोगी और दीन-हीन जानकर मुझे भोजन दे देते थे। एक दिन मुझमें यह कुत्सित विचार आया कि मैं रात्रि के अन्धकार में इस मन्दिर में स्थित सूर्यनारायण के बहुमूल्य आभूषणों को चुरा लूँ। ऐसा निश्चयकर मैं उन भोजकों की निद्रा की प्रतीक्षा करने लगा। जब वे भोजक सो गये, तब मै धीरे-धीरे मन्दिर में गया और वहाँ देखा कि दीपक बुझ चुका है। तब मैनें अग्नि जलाकर दीपक प्रज्वलित किया और उसमें घृत डालकर प्रतिमा से आभूषण उतारने लगा, उसी समय वे देवपुत्र भोजक जग गये और मुझे हाथ में दीपक हाथ में दीपक लिया देखकर पकड लिया। मैं भयभीत हो विलापकर उनके चरणों पर गिर पडा। दयावश उन्होंने मुझे छोड़ दिया, किन्तु वहाँ घूमते हुए राजपुरुषों ने मुझे फिर बाँध लिया और ये मुझसे पूछने लगे - ‘अरे दुष्ट! तुम दीपक हाथ में लेकर मन्दिर में क्या कर रहे थे? जल्दी बताओ’, मैं अत्यन्त भयभीत हो गया। उन राजपुरुषों के भय से तथा रोग से आक्रान्त होने के कारण मन्दिर में ही मेरे प्राण निकल गये। उसी समय सूर्यभगवान के गण मुझें विमान में बैठाकर सूर्यलोक ले गये और मैंने एक कल्पतक वहाँ सुख भोगा और फिर उत्तम कुल में जन्म लेकर आप सबका भाई बना। बन्धुओं! यह कार्तिक मास में भगवान सूर्य के मन्दिर में दीपक जलाने का फल है। यद्यपि मैंने दुष्टबुद्धि से आभूषण चुराने की दृष्टि से मन्दिर में दीपक जलाया था तथापि उसी के फल स्वरूप इस उत्तम ब्राह्मणकुल में मेरा जन्म हुआ तथा वेद-शास्त्रों का मैंने अध्ययन किया और मुझे पूर्वजन्मों की स्मृति हुई। इस प्रकार उत्तम फल मुझे प्राप्त हुआ। दुष्टबुद्धि से भी घी द्वारा दीपक जलाने का ऐसा श्रेष्ठ फल देखकर मैं अब नित्य भगवान सूर्य के मन्दिर में दीपक प्रज्वलित करता रहता हूँ। भाईयों। मैनें कार्तिक मास में यह दीपदान का संक्षेप में माहात्म्य आप लोगों को सुनाया।
इतनी कथा सुनाकर ब्रह्माजी बोले - विष्णों! दीपक जलाने का फल भद्र ने अपने भाइयों को बताया। जो पुरुष सूर्य के नामों का जप करता हुआ मन्दिर में कार्तिक के महीने में दीपदान करता है, वह आरोग्य, धन-सम्पत्ति, बुद्धि, उत्तम संतान और जातिस्मरत्व को प्राप्त करता है। षष्ठी और सप्तमी तिथि को जो प्रयत्नपूर्वक सूर्यमन्दिर में दीपदान करता है, वह उत्तम विमान में बैठकर सूर्यलोक को जाता है। इसलिये भगवान सूर्य के मन्दिर में भक्तिपूर्वक दीप प्रज्वलित करना चाहिये। प्रज्वलित दीपकों को न तो बुझाये और न उनका हरण करे। दीपक हरण करने वाला पुरुष अन्धमूषक होता है। इस कारण कल्याण की इच्छावाला पुरुष दीप प्रज्वलित करे, हरे नह
(स्रोत - भविष्य पुराण, ब्रह्म पर्व, अध्याय ११८)
(स्रोत - भविष्य पुराण, ब्रह्म पर्व, अध्याय ११८)