अठारहवाँ
सर्ग
मुख्य, अमूल्य और आनुंषगिक फलों के साथ इस ग्रन्थ के गुणों का निरूपण।
मुख्य, अमूल्य और आनुंषगिक फलों के साथ इस ग्रन्थ के गुणों का निरूपण।
इस प्रकार विषय
और प्रयोजन से प्रकरणभेद का वर्णन कर सम्पूर्ण ग्रन्थ के गुणों का वर्णन कर रहे
श्रीवसिष्ठजी तत् तत् दृष्टान्तों के उपन्यास में ग्राह्य अंश और तात्पर्य को,
ग्रन्थ शैली के ज्ञान के लिए कहते हैं।
हे रघुवंशतिलक,
जैसे जोते हुए उपजाऊ खेत में उचित समय में बोये गये उत्तम बीज से अवश्यम्भावी
सत्फल प्राप्त होता है, वैसे ही पूर्वोक्त छः प्रकरणों से युक्त इस मोक्षसंहिता के
केवल हृदयंगम करने से ज्ञान प्राप्त होता है।।1।।
अनेक शाखाओं के
भेद से विभिन्न अनेक श्रुतियों के विद्यमान रहते उन्हें छोड़कर पुरुषबुद्धि से
विरचित इसी को आप परम उपादेय क्यों कहते हैं ? ऐसी शंका होने पर कहते हैं।
यदि पुरुषबुद्धि
से विरचित शास्त्र युक्तियों द्वारा तत्त्व का निर्णायक हो, तो उसका भी ग्रहण करना
चाहिए। युक्तियों द्वारा तत्त्व का निर्णय न करने वाले आर्ष ग्रन्थ का (वेद का) भी
त्याग करना चाहिए। पुरुष को सदा न्याय से युक्त (युक्ति-युक्त) का ही अनुसरण करना
चाहिए। भाव यह कि यद्यपि श्रुतियाँ पुरुषबुद्धिविरचित शास्त्र की अपेक्षा अत्यन्त
पूज्यतम हैं तथापि उनका अभिप्राय नितान्त गुढ़ है, अतः उनसे सहसा ज्ञान नहीं होता,
इसलिए साधारण अधिकारियों को उनका ग्रहण नहीं करना चाहिए, सार के ज्ञाता सत्पुरुषों
के अनुभवमूलक युक्तियों से पूर्ण इस शास्त्र का अभिप्राय अत्यन्त साफ है, अतः इससे
शीघ्र ज्ञान होता है, इसका अवश्य सादर सेवन करना चाहिए। युक्तियों से पूर्ण वचन
बालक का भी हो, तो उसको ले लेना चाहिए और युक्तियों से शून्य वचन ब्रह्माजी का ही
क्यों न हो पर उसका तृण के समान त्याग कर देना चाहिए।।2,3।।
यदि कोई कहे कि
पुरुषबुद्धि से विरचित शास्त्र ही ग्राह्य है, तो हमारे पूर्वजों के बनाये हुए ही
किन्हीं अन्य ग्रन्थों को सुनेंगे, इसको क्यों सुने ? इस पर कहते हैं।
जो पुरुष यह
कुआँ हमारे बाप-दादों का बनाया हुआ है यह सोचकर सामने का गंगाजल छोड़कर कुएँ का जल
पीता है, उस अतिरागी को कौन शिक्षा दे सकता है ?।।4।।
अन्य की अपेक्षा
इसमें अतिशय दिखलाते हैं।
जैसे प्रातःकाल
होने पर अवश्य ही अवकाश होता है, वैसे ही इसके भी केवल चित्त में स्थित करने मात्र
से सुन्दर स्वच्छ विवेक होगा।।5।।
गुडजिह्विकान्याय
से आनुषंगिक फलों को दर्शाने की इच्छा से श्रीवसिष्ठजी पहले शब्दव्युत्पत्तिरूप
प्रथम फल कहते हैं।
विद्वान पुरुष
के मुँह से अन्त तक इसका श्रवण कर और स्वयं ही मोटा-मोटी इसका ज्ञान प्राप्त कर
विचार से धीरे-धीरे बुद्धि में संस्कार प्राप्त होने पर पहले उन्नत लता के समान
सभा को अत्यन्त विभूषित करने वाली शुद्धवाक्यता हृदय में उत्पन्न होती है।।6,7।।
अर्थव्युत्पत्तिरूपी
चतुरता भी इसका दूसरा फल है, ऐसा कहते हैं।
महत्त्वरूपी गुण
से शोभित होने वाली वह दूसरी चतुरता उत्पन्न होती है जिससे राजा और देवताओं के
तुल्य पूजनीय विद्वान भी बड़ा प्रेम करते हैं। जैसे सुन्दर नेत्रवाला पुरुष रात्रि
के समय दीपक को हाथ में लेकर पदार्थों का ज्ञाता होता है वैसे ही उससे बुद्धिमान
पुरुष सर्वत्र पूर्वापर का ज्ञाता हो जाता है। जैसे शरद ऋतु से परिपूर्ण दिशा का
कुहरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही बुद्धि के लोभ, मोह आदि दोष शनैः शनैः अत्यन्त
क्षीण हो जाते हैं। हे श्रीरामजी, आपकी बुद्धि भी मलरहित (निर्मल) हो गई है, अब
आपको केवल विवेकाभ्यास की अपेक्षा है। अपने अभ्यास के बिना किया कुछ भी फल नहीं
देता। विवेकाभ्यास से मन शरतकाल में महान् सरोवर के तुल्य अतिप्रसाद से युक्त और
मन्दर पर्वत से रहित समुद्र के समान क्षोभरहित हो जाता है। हे श्रीरामचन्द्रजी, इस
ग्रन्थ के अभ्यास से जिसमें व्यामोहरूपी काजल की गन्ध भी नहीं है ऐसी रत्नदीपक की
लौ के समान जिसका अज्ञानरूप आवरण नष्ट हो गया है अतएव पदार्थों के विभाग से युक्त
प्रज्ञा अत्यन्त दैदीप्यमान हो जाती है। जैसे कवच और शिरत्राण आदि से सुसज्जित
योद्धा को बाण छिन्न-भिन्न नहीं कर सकते, वैसे ही दीनता, दरिद्रता आदि दोषों से
भरी हुई दृष्टियाँ इस ग्रन्थ के अभ्यास से धन आदि विषयों में असारता ज्ञात होने के
कारण मर्मच्छेदन नहीं कर सकती। प्रस्तुत ग्रन्थ का ज्ञाता भयहेतुओं के सामने खड़ा
क्यों न हो, फिर भी जैसे बाण पत्थर की चट्टान को नहीं काट सकते वैसे ही भीषण
सांसारिक भय उसके हृदय को पीड़ित नहीं कर सकते। क्रमशः दैव और पौरूष की प्रधानता
के हेतु जन्म और कर्मों की आदिता कैसे होगी अर्थात् संसार में जन्म के प्रथम होने
पर पौरूष की प्रधानता और कर्म के प्रथम होने पर दैव की प्रधानता कैसे होगी ?
इत्यादि सन्देह दिन में अन्धकार की नाईं शान्त हो जाते हैं, कारण कि इस ग्रन्थ के
सुनने से दोनों में (जन्म और कर्म में) अविद्यामूलक मिथ्यात्व का निश्चय हो जाता
है। रात्रि की नाईं अविद्या के नष्ट होने एवं ज्ञानरूपी आलोक के प्राप्त होने पर
सदा सब पदार्थों में शान्ति (राग-द्वेष आदि से क्षोभ न होना) हो जाती है। इस ग्रन्थ
का विचार करने वाले पुरुष के हृदय में समुद्र की सी गम्भीरता, मेरू पर्वत की सी
निश्चलता और चन्द्रमा की सी शीतलता प्राप्त होती।।8-18।।
इस प्रकार
आनुषंगिक (गौण) फलों को दर्शा कर मुख्य फल दर्शाते हैं।
भूमिका के क्रम
से सम्पूर्ण विशेषताओं के शान्त होने पर पुरुष की वह जीवन्मुक्ति परिपुष्ट हो जाती
है, जिसका वाणी से वर्णन नहीं हो सकता। जैसे सम्पूर्ण पदार्थों को शीतल करने वाली
तथा अत्यन्त प्रकाश करने वाली शरत्काल की चाँदनी अत्यन्त शोभा को प्राप्त होती है,
वैसे ही इस ग्रन्थ का विचार करने वाले पुरुष की सम्पूर्ण पदार्थों को शीतल करने
वाली तथा परमात्मा का दर्शन कराने वाली बुद्धि अत्यन्त प्रकाश को प्राप्त होती है।
हृदयरूपी आकाश में शम से प्रकाशयुक्त विवेकरूप निर्मल सूर्य के उदित होने पर विविध
अनर्थों के हेतु काम, क्रोध आदि धूमकेतु कभी उदित नहीं होते, इसमें कोई सन्देह
नहीं है। जैसे शरदऋतु में वृष्टि करने में अनिच्छुक मेघमालाएँ उन्नत पर्वत में
स्थित होती हैं, स्वच्छता को प्राप्त होती हैं और शान्त हो जाती हैं, वैसे ही इस
ग्रन्थ का विचार करने से विषयों में तृष्णारहित सौम्य पुरुष चंचलतारहित उन्नत
स्वात्मपद में स्थित हो जाते हैं, शुद्धि को प्राप्त होते हैं और शान्त होते हैं।
जैसे दिन होने पर पिशाचों की लीला समाप्त हो जाती है, वैसे ही दूसरों का द्वेष आदि
करने वाली मुख को दीन बनाने वाली कुटिल अश्लीलवचनता की निवृत्ति हो जाती है। जैसे
चित्र में लिखी गई लता को हवा कँपा नहीं सकती, वैसे ही धर्मरूपी (शम, दमरूपी अथवा(♠)
परमात्मरूपी) भीत जिसमें एकाग्रता पूर्वक लीन हुई अतएव धैर्य की पराकाष्ठा को
प्राप्त हुई बुद्धि को मानसिक व्यथाएँ (चिन्ताएँ) विचलित नहीं कर सकती।
♠
विश्वरूपी चित्र का आधार होने से धर्म में (परमात्मा में) भीत्तित्त्व का आरोप
होता है।
तत्त्वज्ञानी
पुरुष विषयों में आसक्तिरूपी मोहगर्त में नहीं पड़ता, भला बतलाइये तो सही, जिसे
मार्ग ज्ञात होगा वह गड्डे की ओर क्यों दौड़ेगा ? जैसे पतिव्रता नारी अन्तःपुर के
आँगन में ही प्रसन्न रहती है, इधर उधर नहीं जाती, वैसे ही सत् शास्त्रों के परिज्ञान
से उत्तम चरित्रवाले लोगों की बुद्धि शास्त्र के अनुकूल यथायोग्य प्राप्त कर्म में
ही रमण करती है। असंगबुद्धिवाला पुरुष, करोड़ों लाख जगतों में जितने परमाणु हैं,
उनमें से प्रत्येक ब्रह्माण्डों को अपने अन्तःकरण में देखता है, कारण कि उसे माया
की अघटित घटना में अत्यन्त पटुता का ज्ञान हो जाता है। मोक्ष के उपाय के ज्ञान से
जब पुरुष शुद्ध अन्तःकरणवाला हो जाता है, तब उसे विविध भोग न तो क्लेश पहुँचाते
हैं और न आनन्द ही देते हैं। प्रत्येक परमाणु में जो सम्पूर्ण सर्गवर्ग असंकीर्ण
होकर जलतरंगों की नाईं आविर्भूत और तिरोभूत होते हैं, उन्हें असंगबुद्धि पुरुष
देखता रहता है। वह प्राप्त हुए अनिष्ट कार्यों के लिए द्वेष नहीं करता और निवृत्त
हुए इष्ट कार्यों की प्राप्ति के लिए इच्छुक नहीं होता, कार्य के फल आदि के स्वरूप
का ज्ञाता होता हुआ भी वह उसे न जानने वाले वृक्ष के समान रहता है। जो कुछ मिल गया
उससे निर्वाह करने वाला वह सर्वसाधारण लोगों की नाईं दिखाई देता है, इष्ट या
अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर उसके चित्त में तनिक भी विकार नहीं होता। हे
श्रीरामजी, इस सम्पूर्ण शास्त्र को बँचवा कर और मोटा मोटी जानकर फिर तात्पर्य के पर्यालोचनपूर्वक
प्रत्येक श्लोक का विवेचन कीजिए। इसे आप केवल उक्ति ही न समझिए, किन्तु ब्रह्मा
आदि देवताओं के शाप और वरदान के समान इसका फल अवश्य प्राप्त होता है। माधुर्य तथा
उपमा, यमक आदि अर्थालंकार और शब्दालंकारों से विभूषित कवितामय और रसमय यह सुन्दर
शास्त्र आयास के बिना ही ज्ञात हो जाता है। इसमें दृष्टान्तों द्वारा अर्थ का
प्रतिपादन किया गया है, थोड़ी बहुत भी व्यत्पत्ति वाला पुरुष इसे स्वयं ही जान
लेता है। जो इसे स्वयं नहीं जान सकता, उसे पण्डित के मुख से इसको सुनना चाहिए।
इसके सुनने, विचार करने और जानने पर मनुष्य को मोक्षप्राप्ति के लिए तपस्या,
ध्यान, जप आदि किसी की भी आवश्यकता नहीं रहती, कारण कि तपस्या, ध्यान, जप आदि का
फल इसके फल से गतार्थ हो जाता है, यह भाव है। इस ग्रन्थ का खूब अभ्यास करने एवं
पुनः पुनः इसके पर्यालोचन से चित्तसंस्कारपूर्वक अपूर्व पाण्डित्य होता है। यद्यपि
अन्य ग्रन्थों के अभ्यास से भी पाण्डित्य होता है, तथापि वह चित्तसंस्कारपूर्वक
नहीं होता, इसलिए इस ग्रन्थ के विचार से जनित पाण्डित्य को अपूर्व कहा है। जैसे
सूर्योदय से पिशाच स्वयं नष्ट हो जाता है, वैसे ही मैं और जगत् इस प्रकार का
अतिप्रौढ़ द्रष्टा और दृश्य रूप पिशाच अनायास नष्ट हो जाता है, अर्थात् द्रष्टा
दृश्य दोनों के शान्त होने से चिन्मात्र शुद्ध आत्मा अवशिष्ट रहता है। मैं और जगत्
इत्याकारक भ्रम नष्ट हो जाता है, केवल अधिष्ठान ही शेष रह जाता है, जैसे स्वप्न
मोह के ज्ञात होने पर वह भ्रम पैदा नहीं करता, वैसे ही यह भी भ्रम पैदा नहीं करता।
जैसे संकल्प द्वारा निर्मित नगर में पुरुष को हर्ष और विषाद नहीं होते अर्थात्
संकल्पनिर्मित नगर के पूर्णतया बन जाने पर हर्ष नहीं होता और उसके भंग हो जाने से
विषाद नहीं होता, वैसे ही यह जगतभ्रम कल्पनामात्र है, ऐसा ज्ञात होने पर फिर यह
क्लेशकारक नहीं होता। यह चित्र लिखित सर्प है, वास्तविक सर्प नहीं है, यों ज्ञात
होने पर चित्रसर्प चित्रसर्प
दर्शनजनितभयप्रद नहीं होता, वैसे ही दृश्यरूपी सर्प का परिज्ञान होने पर यह
सुखप्रद अथवा दुःखप्रद नहीं होता। जैसे यह चित्रलिखित सर्प है, ऐसा ज्ञान होने से
चित्र सर्प की सर्पता नष्ट हो जाती है, वैसे ही संसार के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान
होने पर अधिष्ठानपरिशेषपूर्वक संसार शान्त हो जाता है।।19-41।।
यह प्रपंच अति
विस्तीर्ण है, इसका करोड़ों कुदालियों से भी छेदन नहीं हो सकता यह अनायास कैसे नष्ट
होगा ? ऐसी शंका कर ज्ञान का प्रभाव ही वैसा है इस अभिप्राय से कहते हैं।
फूलों और
पल्लवों के (नवीन पत्तों के) मलने में (नख और सुई आदि से उन्हें छेदने में) भले ही
कुछ प्रयत्न करना पड़े, पर परमपदप्राप्ति में तनिक भी यत्न नहीं करना पड़ता।।42।।
ऐसी याद बात है
तो पहले पौरूष का समर्थन क्यों किया ?
ज्ञान के
प्रतिबन्धक राग, असंभावना, विपरीतभावना आदि पुरुषापराध के निराकरण के लिए पौरूष का
समर्थन किया है। फूल की पांखुड़ी के मर्दन में भी अंगों में व्यापार होता है,
परमार्थपदप्राप्ति में बुद्धि व्यापार का भी रोध हो जाता है अंग-प्रत्यंगों के
व्यापार की तो कौन कहे ? सुखकर आसन में बैठे हुए, यथायोग्य भोगों का भोग कर रहे,
शास्त्रविरूद्ध मार्ग से विमुख एवं देश, काल तथा यथायोग्य सत्संग के अनुसार इस
शास्त्र का तथा उपनिषद् आदि का सुखपूर्वक विचार कर रहे पुरुष को फिर माता के उदर में
निवास और प्रसवसमय के क्लेश नहीं भोगने पड़ते। ऐसे प्रशंसनीय और सुलभ शास्त्र के
रहने पर भी जो पापात्मा नरक आदि क्लेशों से भयभीत न होकर भोगों में आसक्त है, वे
अधम माता के मल के कीड़े हैं, उनका नाम लेना भी उचित नहीं है, क्योंकि वे आत्मघाती
हैं।।43-47।। हे श्रीरामचन्द्रजी, मुझसे कहे जा रहे इस शास्त्र को आप सुनिये, यह
शास्त्र जिनकी बुद्धि अत्यन्त परिशुद्ध है, उनका हृदयभूत है या विवेकबुद्धि से
गृहीत होने वाले सारतर पदार्थों की चरमसीमारूप है या इस शास्त्र का विषय बुद्धि से
भी बढ़कर सारतर प्रत्यगतभूत आत्मतत्त्व है और यह ज्ञान का विस्तार करने वाला। जिस
दृष्टान्त से यह शास्त्र सुना जाता है और जिस संकेत से इस ग्रन्थ का यथार्थरूप से
विचार किया जाता है, उस अवतरणिका को आप सुनिये। जिस अर्थ से सादृश्य से बोध किया
जाता है, बोधोपकाररूप फल को देने वाला उसको विद्वान लोग दृष्टान्त कहते हैं।
(दृष्टान्त – दृष्टः अन्तः सादृश्य बलेन प्रकृतार्थनिर्णयो येन सः। जिससे सादृश्य
के बल से प्रस्तुत अर्थ का निश्चय होता है, वह दृष्टान्त है।) हे श्रीरामचन्द्रजी
जैसे रात्रि में दीपक के बिना घर में स्थित घट, पट आदि पदार्थों का परिज्ञान नहीं
होता वैसे ही दृष्टान्त के बिना अपूर्व (अननुभूत) अर्थ का परिज्ञान नहीं
होता।।48-51।।
दृष्टान्तों में
विलक्षित सादृश्य के विवेक के लिए त्याज्य अंश को दिखलाते हैं।
हे काकुत्स्थ,
जिन जिन दृष्टान्तों द्वारा मैं आपको बोध करता हूँ वे सब स्मरण (जन्मवान्) अतएव
मिथ्या हैं, ज्ञातव्य परमार्थ सत्य और कारण रहित (नित्य) है। मिथ्याभूत मिट्टी,
सुवर्ण आदि से बने हुए दृष्टान्तों से ब्रह्म का बोध कराया जाता है। इससे
जन्मत्त्व आदि दृष्टान्तधर्म हेय हैं, यह निष्कर्ष निकला।।52।।
परब्रह्म के
दृष्टान्तों में ही यह नियम है, अन्य दृष्टान्तों में यह नियम लागू नहीं है। - ऐसा
कहते हैं।
केवल एक
परब्रह्म को छोड़कर सम्पूर्ण उपमान और उपमेयों का कार्यत्व, कारणत्व आदि से सदृश्य
पहले कहा गया है। भाव यह है कि जैसे विचार आदि से बिम्ब का ग्राहक ज्ञान उत्पन्न
होता है यह कहा जाता है, वैसे ज्ञान से बिम्ब उत्पन्न होता है, यह नहीं कहना
चाहिए, क्योंकि ब्रह्म की उत्पत्ति नहीं कह सकते हैं।।53।।
जो पूर्व श्लोक
में 'परम ब्रह्म को छोड़ कर' कहा है, उसे विशेषरूप से स्पष्ट रूप करते हैं।
मैं यहाँ
ब्रह्मोपदेश में आपसे जो दृष्टान्त कहता हूँ, उसमें एक देश का साधर्म्य लेकर
प्रस्तुत अर्थ का निर्णय किया जाता है। भाव यह कि जगदरूप विवर्त के अधिष्ठान
ब्रह्म के बोधन में सर्परूप विवर्त के अधिष्ठान का बोधक रज्जुदृष्टान्त अधिष्ठान
का विवर्त होता है, केवल इसी एक अंश में दिया जाता है, दार्ष्टान्तिक ब्रह्म में
रहने वाले नित्यत्व, सुखित्व आदि सम्पूर्ण अंशों में नहीं।।54।।
दृष्टान्त का एक
देश में ही ग्रहण क्यों होता है ? ऐसी कोई शंका न कर बैठे, इसलिए सर्वांश में
सादृश्य की प्रसिद्धि ही नहीं है, इस अभिप्राय से कहते हैं।
यहाँ
ब्रह्मतत्त्व के ज्ञापन में जो-जो दृष्टान्त दिया जाता है वह स्वप्न में प्रतीत
पदार्थ की नाईं मिथ्याभूत जगत् के अन्तर्गत ही है वास्तविक नहीं है, क्योंकि दूसरी
परमार्थसत्य और चिदानन्दस्वरूप वस्तु है ही नहीं, यह आशय है।।55।। ऐसा होने पर
निराकार ब्रह्म में साकार दृष्टान्त कैसे ? ब्रह्म सद्वितीय है या अद्वितीय ? यदि
सद्वितीय है, तो सिद्धान्त की हानि होगी। यदि अद्वितीय है, तो गुरु शास्त्र आदि के
अभाव से ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होगी, इस प्रकार के विकल्पों से उत्पन्न मूर्खजनों
की उक्तियों को अवसर नहीं मिलता।।56।।
इससे दृष्टान्त
के अनुमान द्वारा बोधक होने से दृष्टान्त, हेतु, व्याप्ति आदि के मिथ्या होने पर
व्याप्यत्वासिद्धि, स्वरूपासिद्धि इत्यादि और प्रपंच से सम्बन्ध रखने वाले हेतुओं
से सत्यत्व आदि के साधन में विरूद्धत्व आदि हेत्वाभासता के प्रयोजक दोष होगे, यों
तार्किकों को विवाद के लिए अवसर भी नहीं दिया गया, ऐसा कहते हैं।
असिद्ध, विरूद्ध
आदि दूषण देने में दक्ष तार्किकों के दृष्टान्त-दोषों से, दूषणीय जगत् के
स्वप्नतुल्य होने के कारण, वस्तु में कुछ भी दोष नहीं होता। साध्य की सिद्धि होने
तक हेतु आदि जगत् के पदार्थों में जो बोध्य-बोधक व्यवहार होता है, वह व्यावहारिक
सत्यतामात्र से भी उत्पन्न हो जाता है, यह भाव है।।57।।
हेतु आदि भूत
जगत् की स्वप्नोमता का साधर्म्यप्रदर्शन द्वारा उपपादन करते हैं।
उत्पत्ति के
पूर्वकाल में और विनाश के उत्तरकाल में अवस्तुभूत(अभावग्रस्त) यह जगत् वर्तमानकाल
में भी विचार करने पर अवस्तुभूत ही है, अतः जैसे जाग्रत पदार्थ हैं वैसे ही स्वप्न
पदार्थ भी हैं, दोनों में मिथ्यात्व का साम्य है, यह बात बालकों तक की समझ में आ
सकती है।।58।।
यदि शंका हो कि
प्रतिभासिक सत्तावाले स्वप्न से व्यावहारिक सत्तावाले की तुलना कैसे हो सकती है ?
इस पर उन दोनों में परस्पर कार्यकारणता के प्रदर्शन से और लौकिक व्यवहार से तुलना
है, ऐसा कहते हैं।
जाग्रतकाल में
विजययात्रा करनी चाहिए अथवा नहीं, यों यात्रा के विषय में सन्देह होने पर
देवताप्रार्थनापूर्वक सोये हुए पुरुष का स्वप्न में यात्रा करनी चाहिए ऐसा संकल्प
होने पर चिरकाल तक पूजा, मन्त्रजप, स्तुति आदि से विजययात्रा के अनुकूल वर मिलने
या शत्रुओं के प्रति मुनिशाप आदि देखने पर प्रातःकाल यात्रा करने से शत्रुओं पर
विजय देखी जाती है और स्वप्न में औषधि की प्राप्ति से जाग्रतावस्था में रोगशान्ति
देखी जाती है। यों स्वप्नसादृश्य होने के कारण सम्पूर्ण जगत् की व्यवस्था
स्वप्नरूप ही है, अतएव जाग्रत में स्वप्नदृष्टान्त यथार्थ ही हैं। मोक्ष के उपायों
की रचना करने वाले महामुनि वाल्मीकि जी ने अन्य भी पूर्व रामायण आदि जिन ग्रन्थों
की रचना की है, उनमें भी दृष्टान्तों की बोध्य के साम्य के बोधन में यही केवल एक
व्यवस्था प्रसिद्ध है अर्थात् जिस अंश में साम्य संभव हो उसी अंश के साम्यज्ञापन
में व्यवस्था प्रसिद्ध है।।59-60।।
कोई कहे कि यदि
ऐसा है, तो इस ग्रन्थ के श्रोता, जगत् की जो स्वप्न तुल्यता कही गई है, उसे सहसा
क्यों नहीं जान लेते, इस विषय में विवाद क्यों करते हैं ? इस पर अध्यात्मशास्त्र
के श्रवण से उत्पन्न संस्कार न होने से उन्हें जगत् में सत्यत्व-भ्रम है, अतः
उन्हें शीघ्र जगत् की स्वप्नतुल्यता प्रतीत नहीं होती, ऐसा कहते हैं।
सम्पूर्ण
शास्त्र सुनने पर जगत् की स्वप्नतुल्यता ज्ञात होती है, उसका बोध शीघ्र नहीं कराया
जाता, क्योंकि वाणी क्रमशः अपना कार्य करती है। शास्त्रश्रवण में जो लोग आलस्य
करते हैं, उन्हें जगत की स्वप्नतुल्यता प्रतीत नहीं होती, यह भावार्थ है। चूँकि यह
जगत् स्वप्न, मनोरथ और ध्यान से कल्पित नगर के सदृश है इसलिए वे ही दृष्टान्त यहाँ
पर दिये गये हैं, अन्य नहीं है।।61,62।।
यदि जगत् में
स्वप्नादि दृष्टान्त देने पर सर्वांश विवक्षित हो, तो ब्रह्म में भी कटक, कुण्डल
आदि के उपादान सुवर्ण का दृष्टान्त देने पर, सुवर्ण की सी परिणामिता क्यों न
विवक्षित होगी ? इस पर कहते हैं।
बोध के लिए
अपरिणामी ब्रह्म में जो परिणामी सुवर्ण आदि का दृष्टान्त दिया जाता है, वहाँ पर
उपमाप्रयुक्त प्रयत्नों से सर्वांश में सादृश्य नहीं हो सकता। भाव यह कि 'तदेतत्
ब्रह्मापूर्वमनपरबाह्यम्', 'एकमेवाद्वितीयम्' इत्यादि श्रुतियों से चित् शक्ति के
परिणाम शून्य, प्रतिसंक्रमरहित, शुद्ध और अनन्त होने, 'अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽम्'
इत्यादि स्मृतियों से असंग, उदासीन ब्रह्म में परिणाम हेतु का स्पर्श न होने और
चित् का जड़ के आकार में होना संभव नहीं है इत्यादि युक्तियों से ब्रह्म का परिणाम
न होने के कारण अपरिणामी ब्रह्म में जो परिणामी सुवर्णादि के तुल्य कारणता की उपमा
दी जाती है वहाँ पर उपमाप्रयुक्त प्रयत्नों से भी सर्वांश में साधर्म्य का लाभ
होना संभव नहीं है।।63।।
उक्त अर्थ को ही
स्पष्ट करते हैं।
विवादरहित
बुद्धिमान् पुरुष को बोध के लिए उपमान से उपमेय का एक अंश में साधर्म्य स्वीकार
करना चाहिए।।64।।
लोक में भी 'मणि
दीपक के सदृश दिखाई देती है' इत्यादि स्थल में अविवक्षित अंश का सादृश्यज्ञान नहीं
देखा जाता, ऐसा कहते हैं।
पदार्थों के
प्रदर्शन में प्रकाशमात्ररूप दीपक के सिवा स्थान (दिया), तेल, बत्ती आदि किसी का
उपयोग नहीं होता। एकदेश में सादृश्य होने से उपमान उपमेय का ज्ञान कराता है, जैसे
'मणिर्दीप इव' (मणि दीपक के समान है) इस दृष्टान्त से उपमान दीप केवल प्रभा से
(प्रकाश से) उपमेय मणि का बोध करा देता है।।65।।
इस शास्त्र के
सम्पूर्ण दृष्टान्तों का उपयोग कहते हैं।
दृष्टान्त के
अंशमात्र से बोध्य का (ज्ञेय ब्रह्म का) बोधोदय होने पर 'तत्त्वमसि' आदि
महावाक्यों के अर्थ के निश्चय का उपादेयरूप से ग्रहण करना चाहिए। भाव यह कि स्वप्न
आदि दृष्टान्तों से जगत् का मिथ्यात्व प्रतीत होने पर जीवात्मा के आकाश, सूर्य आदि
दृष्टान्तों के और ब्रह्म के मिट्टी, सुवर्ण आदि दृष्टान्तों के भी पदार्थ परिशोधन
द्वारा बोध्यरूप लक्ष्य अर्थ के लिए और उसका बोध होने पर कार्यसहित अविद्या के
विनाश के लिए अवश्य उपादेय होने से सम्पूर्ण श्रुति, और शास्त्रों के महातात्पर्य
का विषय 'अहं ब्रह्मास्मि' (मैं ब्रह्म हूँ) इस प्रकार का महावाक्य के अर्थ का
निश्चय ग्राह्य है।।66,67।।
'मैं गोरा हूँ,
स्थूल हूँ' इत्यादि प्रत्यक्ष से, औषधपान, आरोग्यलाभ आदि प्रवृत्ति के फलदर्शनरूप
लिंग से, अन्य के व्यवहार के साम्यरूप उपमान से, सम्पूर्ण व्यावहारिक महाजनवाक्यों
से, 'ब्राह्मणो यजेत्' (ब्राह्मण यज्ञ करे) इत्यादि श्रुति, स्मृति, धर्मशास्त्रों
तथा अनेक तार्किकों की युक्तियों से देह और उससे भिन्न कर्तृत्व, भोक्तृत्व
स्वभाववाला आत्मा जाना जाता है, ऐसी परिस्थिति में प्रत्यक्ष आदि अनेक प्रमाणों से
विरूद्ध अर्थका केवल महावाक्य से कैसे ग्रहण करते हैं, ऐसी आशंका होने पर कहते
हैं।
कुतार्किकता को
प्राप्त होकर विद्वानों के अनुभव का अपलाप करने वाले अपवित्र देहात्मभावविषयक होने
और अपवित्र कुत्ते, सूअर आदि की योनिप्रद होने के कारण अपवित्र विकल्पों से
अर्थात् ब्रह्म प्रमाण सहित है या प्रमाण रहित ? यदि सप्रमाण है, तो अद्वैत की
हानि होगी, यदि अप्रमाण है, तो प्रमेय की हानि होगी इत्यादि विकल्पों से परम
पुरुषार्थ को प्राप्त कराने वाली प्रबुद्धता का विनाश नहीं करना चाहिए। देह आदि
में जिस प्रकार आत्मत्व का असंभव है, वह प्रकार आगे कहा जायेगा।।68।।
सभी लोग
प्रतिबन्धशून्य स्वेच्छाविहारजनित सुख के प्रार्थी हैं, अतः दयालु परमहितैषी
चार्वाक आदि का तथा स्त्री, पुरुष, मित्र आदि का विविध विचित्र दृष्टभोगसुखजनक
स्वाभाविक स्वप्रीति के विषयों में प्रवर्तक संसार में सारता आदि का प्रतिपादक वचन
कैसे हेय है ? तपस्याजनित क्लेश, संयम, धनव्यय तथा परिश्रम कराने वाले, इष्ट
पुत्र, धन, स्त्री आदि का वियोग कराने वाला तथा संन्यास भिक्षाटन आदि हजारों दृष्ट
अनर्थों से परिपूर्ण निर्विषय आत्ममात्रपरिशेषरूप परम दारिद्रयभूत मोक्षफल को देने
वाली जीवब्रह्म की एकता बोधक होने से शत्रु के वाक्य से तुल्य अचेतन
श्रुतिप्रतिपादित महावाक्य कैसे उपादेय है, ऐसी शंका होने पर कहते हैं।
ठीक है, विचार न
करने से ही वैसा प्रतीत होता है। आपाततः वैरिरूप से ज्ञात हुए वेद का वाक्य विचार
से तो नित्य निरतिशय आनन्द आत्मरूप परमपुरुषार्थ का अनुभव कराने वाला है, अतः
अनुभवनिष्ठ हम लोगों में, वह सम्पूर्ण प्रमाणों में सर्वोत्तम है, यों समादृत है।
परमार्थभूत वैदिक पुरुषार्थ से विरहित वचन यदि परम प्रिय स्त्री का भी कहा हो, तो
मरण, नरक, आदि अनेक अनर्थों का हेतु होने से प्रलापमात्र ही है, वह न तो वेद है, न
आप्त पुरुष का वाक्य है और न प्रमाण ही है।।69।।
यदि ऐसी बात है,
तो कपिल, कणाद, जैमिनि आदि ने वेदार्थ के ज्ञाता होने पर भी, पुरुषार्थ और उसके
उपायभूत तत्त्व का निरूपण अन्यथा ही कैसे किया और आप अन्यथा ही उसका निरूपण कैसे
कर रहे हैं, आपके कथन में कौन सी विलक्षणता है ? ऐसी शंका होने पर कहते हैं।
हे
श्रीरामचन्द्रजी, जिस बुद्धि से तत्त्वसाक्षात्कारजनित जीवन्मुक्तिरूप शुभ भाग्य
होता है, वैसी हमारी बुद्धि है, उस बुद्धि से पूर्वोक्त रीति से अपरोक्षानुभवयोग्य
परमपुरुषार्थ जिससे प्राप्त होता है, वैसी सम्पूर्ण श्रुतियों की-आध्यात्मिक
शास्त्रों की – एक वाक्यता (एक महावाक्य के अर्थ में पर्यवसान) फलित होती है। उससे
भिन्न श्रुति के तात्पर्य का अविषय, केवल तर्क आदि से ही पुष्ट (विकसित) सांख्य,
कणाद आदि का ज्ञान है। हमारा प्रमाण उससे सर्वथा विलक्षण महावाक्यार्थरूप
अपरोक्षानुभव योग्य अर्थवाला है, उनका वैसा नहीं है। भाव यह कि उनकी मति कुतर्कों
से कुण्ठित हो गई है, अतएव वे श्रुति के तात्पर्य का निश्चय करने योग्य बुद्धि से
विरहित है।।70।।
अठारहवाँ सर्ग
समाप्त
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