ग्यारहवाँ
सर्ग
ज्ञानप्राप्ति
का विस्तार, श्रीरामचन्द्रजी के वैराग्य की स्तुति और वक्ता तथा प्रश्नकर्ता के
लक्षण आदि का प्रधानतः वर्णन।
श्रीवसिष्ठजी ने
कहाः हे पुण्यचरित, ज्ञान का पृथिवी पर अवतरण, अपने जन्म, ज्ञानावरोध, पुनः
ज्ञानप्राप्ति आदि और श्री ब्रह्माजी का कार्य यह सब मैं आपसे कह चुका हूँ। अब
आपका चित्त महान् पुण्य के उदय से उस ज्ञान के सुनने के लिए अति उत्कण्ठित हो रहा
होगा।।1,2।।
उक्त
पुण्यपरिपाक की किन लक्षणों से पहचान करनी चाहिए एवं उस लक्ष्यभूत पदार्थ के उपदेश
की प्रणालियाँ कैसी हैं? इस बात को प्राचीन कथा के विस्तार के श्रवण द्वारा जानने
के इच्छुक श्रीरामचन्द्रजी ने कहाः
ब्रह्मन्,
सृष्टि करने के अनन्तर भगवान् ब्रह्मजी की बुद्धि इस लोक में ज्ञान के अवतारण के
लिए किस प्रकार हुई ? कृपया उस प्रकार को विस्तार से कहिए।।3।। श्रीवसिष्ठजी ने
कहाः राजकुमार, जैसे सागर में तरंग बार बार उत्पन्न होती है वैसे ही प्रचुर
क्रियाशक्ति से सम्पन्न ब्रह्मा अपने पूर्वजन्म की विद्या, कर्म और वासनाओं के
प्रकर्ष से परम ब्रह्म में उत्पन्न हुए। उन्होंने विविध प्राणियों की सृष्टि करने
के अनन्तर सृष्ट लोगों को इस प्रकार जन्म, मरण, नरकक आदि से अपने अज्ञान के कारण
दुःखी देखकर वर्तमान सृष्टि के दृष्टान्त से अतीत, वर्तमान और भविष्यकाल की सृष्टि
की सम्पूर्ण अवस्थाओं का अनुमान कर लिया। विशेषरूप से स्वर्ग और मोक्ष के साधनों
के अनुष्ठान के योग्य सत्ययुग आदि समय के क्षीण होने पर लोगों में सिक्का जमाने
वाले अज्ञान का प्राबल्य देखकर भगवान ब्रह्माजी को बड़ी दया आई। तदुपरान्त भगवान
ब्रह्माजी ने मेरी सृष्टि कर और बार बार उपदेश द्वारा मुझे ज्ञानसम्पन्न बनाकर
लोगों के अज्ञान की शान्ति के लिए मुझे पृथिवी में भेजा। भगवान ब्रह्मा ने इस लोक
में जैसे मुझे भेजा वैसे ही सनक, सनन्दन, सनत्कुमार, नारद आदि अनेक अन्यान्य
महर्षियों को अधिकार के अनुसार पुण्य कर्मकाण्ड के उपदेश और ज्ञानकाण्ड के उपदेश
द्वारा मन और अज्ञान रूपी महाव्याधि के वशीभूत लोगों का उद्धार करने के लिए भेजा।
प्राचीन काल में सत्ययुग के बीतने पर कालक्रम से पृथ्वी पर वैदिक या राग, लोभ आदि
से अनुपहत कर्मकाण्ड का ह्रास होने पर कर्मकाण्ड के संचालन और मर्यादा के रक्षण के
लिए पृथक पृथक देशों का विभाग कर राजाओं की कल्पना की गई। पृथवी में राजाओं की कल्पना
होने पर राजाओं और प्रजाओं के धर्म का नियन्त्रण करने में समर्थ स्मृतिशास्त्र और
यज्ञ की विधि के प्रतिपादक श्रोतसूत्र और गृह्यसूत्र तथा श्रौतगृह्यप्रयोगों का
धर्म, अर्थ और काम की सिद्धि के लिए निर्माण किया गया। इस कालचक्र के परिवर्तित
होने पर फिर कर्मकाण्डक्रम नष्टभ्रष्ट हो गया, प्रतिदिन लोग भोजनमात्रपरायण और
विषयों के अर्जन में तत्पर हो गये। ऐसी अवस्था में राजाओं के देश या भोग्यपदार्थों
के लिए परस्पर युद्ध होने लगे, इस प्रकार पृथ्वी में अनेक प्राणियोंको दण्ड भोगना
पड़ा(◄)।
◄ अथवा
मूलस्थित 'द्वन्द्व' शब्द का अर्थ शीतोष्ण आदि द्वन्द्व करना चाहिए। उनके परिहार
में उपायभूत विषयों के सम्पादन के लिए प्राणी राजाओं के दण्डनीय हुए, कारण कि
विषयों की सिद्धि धनमूलक है और धन के लिए राजाओं ने प्रजा पर कर लगाया।
पहले युद्ध के
बिना ही पृथ्वी के पालन में समर्थ होते हुए भी तदनन्तर राजा युद्ध के बिना पृथ्वी
पर शासन करने के लिए समर्थ नहीं हुए, इसका फल यह हुआकि प्रजाओं के साथ राजा दीनता
को प्राप्त हो गये। भाव यह कि देह में आत्मत्त्वबुद्धि से युद्ध आदि में देह का
नाश होने पर आत्मा का नाश हो जायेगा, इस भय से वे दीनता को प्राप्त हो गये।
तदनन्तर उन लोगों की दीनता को दूर करने के लिए और आत्मज्ञान के प्रचार के लिए हम
लोगों ने ज्ञानवर्धक बड़े-बड़े दर्शनों का उपदेश किया। इस अध्यात्म विद्या का पहले
राजाओं में उपदेश हुआ तदनन्तर इसका और लोगों में प्रसार हुआ, इस कारण श्रीवेदव्यास
आदि ने इसको राजविद्या कहा है। हे राघव, राजा लोग राजविद्या, राजगुह्य आदि नामों
से प्रसिद्ध उत्तम अध्यात्मज्ञान को जानकर अत्यन्त आनन्द को प्राप्त हुए, तदनन्तर
उनमें किंचित भी दुःख नहीं रहा। कालक्रम से निर्मल कीर्ति वाले अनेक राजाओं के
कीर्तिशेष होने पर इन महाराज श्रीदशरथजी से आप श्रीरामचन्द्र इस पृथ्वी में
उत्पन्न हुए हैं।।4-19।।
परन्तप, आपके
अतिनिर्मल मन में 'श्मशानमापदं दैन्यम्' इत्यादि से आगे कहे जाने वाले दृष्ट
निमित्तों के बिना ही पवित्रतम ज्ञानोत्पादन समर्थ वह उत्तम वैराग्य उत्पन्न हुआ
है।।20।।
हे
श्रीरामचन्द्र, सम्पूर्ण विवेकी पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ रूप से विख्यात साधु का
सब विषयों में दृष्टनिमित्तपूर्वक ही राजस(╧) वैराग्य होता
है। श्रीरामजी, सत्पुरुषों को भी आश्चर्य में डालने वाला अपने विवेक से उत्पन्न
आपका यह सात्त्विक (╪) वैराग्य किसी निमित्त के बिना ही उत्पन्न हुआ है,
ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया है।
╧ रजोगुण
का कार्य दुष्ट दुःख के अनुभव से होता है अतएव राजस कहलाता है।
╪ केवल
विवेकमात्र से उत्पन्न हुआ है अतएव सात्विक है।
बीभत्स
(घृणाजनक) विषयों को देखकर किसको वैराग्य नहीं होता, किन्तु सत्पुरुषों का का
उत्तम वैराग्य विवेक से ही होता है। वे महापुरुष हैं, वे महाविद्वान हैं और उन्हीं
का चित्त गंगाजल के समान निर्मल है, जिन्हें निमित्त के बिना ही वैराग्य होता
है।।21-24।। हे परन्तप, केवल अपने विवेक से उत्पन्न तत्त्वपदार्थ के प्रति
अभिमुखता से अन्य विषयों से विरक्त बुद्धि से युक्त पुरुष वैसा शोभित होता है जैसे
कि वरमाला से युवा पुरुष शोभित होता है। विवेक से
इस संसार रचना की दुःखरूपता का विचार कर जो लोग वैराग्य को प्राप्त होते
हैं, वे श्री श्रेष्ठ पुरुष हैं। अपने विलक्षण विवेक से ही इस इन्द्रजालतुल्य
प्रपंच का पुनः पुनः विचार कर हठपूर्वक इस मायिक बाह्य जगत के साथ देह, इन्द्रिय,
प्राण, मन, बुद्धि और अविद्या का परित्याग करना चाहिए। श्मशानभूमि, आपत्तियों और
दीनता को देखकर किसे वैराग्य न होगा ? वही वैराग्य परम श्रेय का साधन है, जो स्वतः
उत्पन्न होता है। जैसे खूब जोता गया अतएव कोमल हुआ खेत बीज बोने के योग्य होता है
वैसे ही स्वाभाविक वैराग्यरूपी अत्यन्त महत्त्व को प्राप्त हुआ आप आत्मज्ञान के
उपदेश के योग्य पात्र हैं।।25-29।।
'तपः प्रभावाद्
देवप्रसादाच्च' (तप के प्रताप से और देवता की प्रसन्नता से 'यस्य देवे परा भक्तिः'
(जिसकी देवता पर परम भक्ति होती है) और ईश्वरानुग्रहादेव पुसामद्वैतवासना।
प्रसादादेव रूद्रस्य भवानीसहितस्य तु। अध्यात्मविषयं ज्ञानं जायते बहुजन्मभिः।'
(ईश्वर की अनुकम्पा से लोगों की अद्वैतवासना होती है। श्रीभगवती पार्वती जी सहित
भगवान् महादेवजी के प्रसाद से ही बहुत जन्मों के पश्चात् अध्यात्म ज्ञान होता है)
इत्यादि श्रुति और स्मृतियों का अनुसरण करते हुए कहते हैं।
परम प्रभु भगवान
श्रीमहादेव जी की प्रसन्नता से आप जैसे सज्जनों की शुभ बुद्धि विवेक की ओर अग्रसर
होता है।।30।।
'तमेतं
वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषन्ति यज्ञेन दानेन तपसानाशकेन' (उस परमात्मतत्त्व को
ब्राह्मण लोग वेदाध्ययन, यज्ञ, दांन और अविनाशी तप से जानने की इच्छा करते हैं)
इत्यादि श्रुति के अनुसार कहते हैं। गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म,
नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकारण, उपनयन, चार वेदव्रत, समावर्तन, विवाह, पाँच
महायज्ञों का अनुष्ठान, अष्टका, पार्वण, श्राद्ध, उपाकरण, उत्सर्जन, चैत्र और
आश्विन में होने वाली नवसस्येष्टि – ये सात पाकयज्ञ, अग्न्याधान, अग्निहोत्र, दर्श
– पौर्णमास, चातुर्मास्य, आग्रयणेष्टि, निरूढ पशुबन्ध, सौत्रामणी – ये सात
हविर्यज्ञ, अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडसी, वाजपेय, अतिरात्र,
आत्मोर्याम – ये सात सोमयज्ञ, ये चालीस संस्कार और सब भूतों में दया, क्षान्ति,
अनसूया, शौच, आयासाभाव, मांगल्य, कार्पण्यका अभाव, अस्पृहा – ये आठ गुण जिसके हों
वह सायुज्य को प्राप्त होता है – यों गौतमस्मृति में दर्शाये गये।
कर्मकाण्ड के
क्रम से, विपुल तपस्या से, इन्द्रिय, प्राण और मन के नियमन से, दान से,
तीर्थयात्राओं से और चिरकाल तक विचार करने से पापराशि के क्षीण होने के अनन्तर
परमात्मचिन्तन करने पर काकतालीयन्याय से (कौए के आने और ताल के गिरने के समान)
संयोगतः सम्पन्न साधनों के संमिलन से प्राणी की बुद्धि विवेक की ओर अग्रसर होती
है।।31,32।।
ऐसी परिस्थिति
में ब्रह्मजिज्ञासा के प्रयोजक विचार का उदय ही दुर्लभ है, यह भाव है।
जब तक परमपदका
साक्षात्कार नहीं करते तब तक चक्र के समान लोगों को घुमाने वाले राग-द्वेष आदि से
आवृत्त लोग कर्मकाण्डपरायण होकर इस संसार में पुनः पुनः जन्म-मरणरूप परम्परा को
प्राप्त होते हैं।।33।।
श्रुति भी है
'मन्तरे वर्तमान स्वयं धीराः' (अविद्या में स्थित अपने को पण्डित मानने वाले मूढ
जन अन्धों से ले जाये जा रहे अन्धों की नाईं पतन को प्राप्त होते हैं)।
इस संसार को
असार और दुःखरूप जानकर और संसारमयी बुद्धि का परित्याग कर विद्वान लोग
बन्धन-स्तम्भ से निर्मुक्त हाथियों की नाईं परब्रह्म को प्राप्त होते हैं। हे
श्रीरामचन्द्रजी, वह संसार सृष्टि-विषम और असीम है। देहाध्यास से युक्त महान जीव
भी कृमि, कीट आदि के सदृश ही है। ज्ञान के बिना परम पद को प्राप्त नहीं हो सकते।
रघुवंशशिरोमणे, विवेकी लोग ज्ञानरूपी नौका से ही सुदुस्तर संसार सागर को एक पलकभर
में पार कर गये हैं। संसाररूपी सागर से जीव को पार कराने वाले वक्ष्यमाण (आगे कहे
जाने वाले) ज्ञानरूप उपाय को विचाराभ्यासपरायण तथा विवेक, वैराग्य आदि से युक्त
बुद्धि से एकाग्र होकर सुनिये। इस अनिन्दित ज्ञानयुक्ति के बिना अनन्त विक्षेपों
से पूर्ण ये सांसारिक दुःखभीतियाँ चिरकाल तक हृदय को सन्तप्त करती हैं। हे राघव,
साधुजनों में शीत, वात, धूप आदि दुःखद्वन्द्व ज्ञानयुक्ति को छोड़कर किस उपाय से
सह्य होते हैं ? अर्थात् ज्ञान से अतिरिक्त किसी उपाय से सह्य नहीं होते ? जैसे अग्नि की ज्वालाएँ तृण को जला डालती है,
वैसे ही मूढ़ पुरुष को पदपद में (क्षण-क्षण में) दुःख-चिन्ताएँ प्राप्त होती हैं
और जला डालती है। जैसे वर्षाकाल में सींचे गये वन को अग्नि जला नहीं सकती, वैसे ही
जिसने ज्ञातव्य वस्तु को जान लिया है, ऐसे विवेकशील प्राज्ञ पुरुष को मानसिक
व्यथाएँ सन्ताप नहीं पहुँचा सकती। शारीरिक और मानसिक पीड़ारूपी बवंडर से परिपूर्ण
संसाररूपी मरूस्थल में प्रसिद्ध वायु के तेज चलने पर भी तत्त्वज्ञानी पुरुष
कल्पवृक्ष की नाईं उखाड़ा नहीं जा सकता यानी पीड़ित नहीं होता। इसलिए तत्त्वपदार्थ
के ज्ञान के लिए बुद्धिमान पुरुष को श्रुति आदि प्रमाण देने में अतिकुशल
आत्मतत्त्वज्ञ बुद्धिमान पुरुष से ही अनुगमन, साष्टांग प्रणाम, सेवा आदिरूप
प्रयत्न से विनयपूर्वक प्रश्न करना चाहिए। जिज्ञासु द्वारा पूछे गये, श्रुति आदि
प्रमाण देने में निपुण और विशुद्ध चित्त वाले वक्ता के वाक्य वैसे ग्रहण करने
चाहिए जैसे कि रँगने के लिए घोले गये पक्के रंग में डुबाया गया वस्त्र रंग को पकड़
लेता है फिर उसे कभी नहीं छोड़ता।।34-44।।
हे वक्ताओं में श्रेष्ठ
श्रीरामजी, जो पुरुष तत्त्ववस्तु को नहीं जानता अतएव जिसका वचन ग्राह्य नहीं है,
ऐसे पुरुष से जो प्रश्न करता है, उससे बढ़कर मूर्ख दूसरा कोई नहीं है। पूछे गये
तत्त्वज्ञ प्रामाणिक वक्ता के उपदेश का जो प्रयत्न से आचरण नहीं करता, उससे बढ़कर
नराधम दूसरा नहीं है। व्यवहार से वक्ता की अज्ञता और तत्त्वज्ञाता का पहले निर्णय
कर जो पुरुष प्रश्न करता है, वह प्रश्नकर्ता महामति है। जो मूर्ख (परीक्षा द्वारा)
प्रकृष्ट वक्ता का निर्णय किये बिना प्रश्न करता है, वह अधम प्रश्नकर्ता है और वह
आत्मज्ञानरूप महान अर्थ का पात्र नहीं हो सकता अर्थात् उसे कभी तत्त्वज्ञान
प्राप्त नहीं हो सकता। प्राज्ञ पुरुष को चाहिए कि उक्त और अनुक्त का विवेचन कर
निश्चय करने में जिसकी बुद्धि समर्थ हो और जो निन्दनीय न हो ऐसे पुरुष के लिए
पृष्ट वस्तु का उपदेश दे पशु के जाड्य आदि धर्मों से युक्त अधम को कभी तत्त्व का
उपदेश न दे।।45-49।। प्रश्नकर्ता की श्रुति आदि प्रमाणों से निर्णीत पदार्थ के
ग्रहण की योग्यता का विचार किये बिना जो तत्त्व का उपदेश देता है, उसको प्राज्ञ
पुरुष मूढ़तर कहते हैं।।50।। हे रघुनन्दन, आप अत्यन्त श्रेष्ठ प्रश्नकर्ता है और
मैं उपदेश देना जानता हूँ, इसलिए हमारा यह समागम सदृश है। हे शब्दार्थ के ज्ञाता
श्रीरामजी, जिस पदार्थ का मैं उपदेश देता हूँ उसको आप 'यह तत्त्व वस्तु है' ऐसा
निश्चय कर प्रयत्नपूर्वक अपने हृदय में ज्यों-का-त्यों पूर्णरूप से धारण कीजिए। हे
श्रीरामचन्द्रजी, आप कुल, दया, दाक्षिण्य आदि गुणों और सदाचार आदि से महान हैं,
विरक्त हैं एवं तत्त्वज्ञ हैं, मुझसे जो कहा जायेगा वह जैसे वस्त्र में घोला हुआ
रंग बैठ जाता है वैसे आपके हृदय के अन्तस्तर में बैठ जायेगा। आपकी उक्त पदार्थ के
ग्रहण में निपुण मेघा है और परम तत्त्व का विचार करने वाली प्रतिभा भी है। मेघा और
प्रतिभा से सम्पन्न आपकी प्रज्ञा जैसे सूर्य की किरणें जल के अन्दर प्रवेश कर जाती
हैं, वैसे ही प्रतिपाद्य अर्थ (तत्त्वज्ञान) में प्रवेश करती है। मैं जो कुछ कहूँ,
उसे आप ग्रहण कीजिए और प्रयत्नपूर्वक उसे अपने हृदय में स्थान दीजिए। यदि ऐसा आप न
कर सकें, तो आपको मुझसे पूछना ही नहीं चाहिए, क्योंकि ऐसा पूछना निरर्थक
है।।51-55।।
हे
श्रीरामचन्द्रजी, संसाररूपी वन का बन्दर मन बड़ा ही चपल है, उसको संस्कार द्वारा
अपने वश में कर परमार्थतत्त्व का श्रवण करना चाहिए और फिर उसको प्रयत्न से हृदय में
धारण करना चाहिए। विवेकशून्य, शास्त्र के अभ्यास से उत्पन्न ज्ञान से रहित एवं
असाधु पुरुषों में प्रीति रखने वाले पुरुष से अति दूर होकर चिरकालतक महात्माओं की
सेवा करनी चाहिए। सदा सन्त-महात्माओं की संगति से विवेक उत्पन्न होता है। भोग और
मोक्ष विवेकरूपी वृक्ष के ही फल कहे गये हैं। मोक्षद्वार के चार द्वारपाल कहे गये
हैं – शम, विचार, सन्तोष और चौथा साधुसंगम। पहले तो इन चारों का ही प्रयत्नपूर्वक
सेवन करना चाहिए। यदि चारों को सेवन की शक्ति न हो तो तीन का सेवन करना चाहिए। तीन
का सेवन न हो सकने पर दो का सेवन करना चाहिए। इनका भली भाँति सेवन होने पर ये
मोक्षरूपी राजगृह में मुमुक्षु का प्रवेश होने के लिए द्वार खोलते हैं। यदि दो के
सेवन की भी शक्ति न हो, तो सम्पूर्ण प्रयत्न से प्राणों की बाजी लगाकर भी इनमें से
एक का अवश्य आश्रय लेना चाहिए। यदि एक वश में हो जाता है, तो शेष ती भी वश में हो
जाते हैं। जैसे अन्य तेजस्वियों में सूर्य सर्वश्रेष्ठ है वैसे ही विवेकवान पुरुष
सब लोगों में सिर के आभूषण के समान आदरणीय है। वह शास्त्र के श्रवण, मनन और
निदिध्यासन का और ज्ञान का योग्य पात्र है। जैसे अधिक शीत पड़ने से जल घनीभूत होकर
बर्फ बन जाता है, वैसे ही अविवेकियों की मूर्खता घनता को प्राप्त होकर अति कठिन हो
जाती है।।56-63।। हे रघुकुलतिलक, आप तो जैसे सूर्य का उदय होने पर कमल विकसित होता
है, वैसे ही सौजन्य आदि गुण एवं शास्त्रार्थ की दृष्टि से विकसित अन्तःकरणवाले
हैं। हे सदबुद्धि श्रीरामजी, जैसे मृग आदि जन्तु ऊपर कान करके (कान खड़े करके)
वीणा के शब्द को सुनते हैं वैसे ही आप इस ज्ञानमय वाणी को सुनने और समझने के योग्य
हैं। हे श्रीरामचन्द्रजी, आप वैराग्य के अभ्यास आदि से सम्पूर्ण विनय आदि रूप
सम्पत्तियों का उपार्जन कीजिए, जिनके प्राप्त होने पर नाश नहीं होता। पहले
संसाररूप बन्धन से छुटकारा पाने के लिए शास्त्राभ्यास और सज्जन संगतिपूर्वक तपस्या
और इन्द्रियनिग्रह से प्रज्ञा को (विवेक के ग्रहण और धारण में निपुण बुद्धि को) ही
बढ़ावें।।56-67।।
प्रज्ञा की
अभिवृद्धि में शास्त्राभ्यास ही उपाय है, इस अभिप्राय से कहते हैं।
संस्कृत
(विशुद्ध) बुद्धि से जो कुछ शास्त्र का अवलोकन, चिन्तन आदि किया जाता है, उसी को
इस मूर्खता के विनाश का हेतु समझो। यह संसाररूपी विषवृक्ष आपत्तियों का एकमात्र घर
है यह अज्ञानी पुरुष को सदा मोह में डालता है, इसलिए अज्ञान का यत्न से विनाश करना
चाहिए। दुराशा से साँप की-सी कुटिल गति को धारण करने वाली हृदय में हजारों
विक्षेपरूप से व्याप्त मूर्खता से बुद्धि अग्नि में सबसे रक्खे हुए चमड़े की भाँति
संकोच को प्राप्त होती है अर्थात् संकुचित कमल की नाईं मलिनता को प्राप्त होती है।
जैसे मेघरहित और सम्पूर्ण निर्मल मण्डलवाले चन्द्रमा में दृष्टि प्रसन्नता को
प्राप्त होती है वैसे ही यह पूर्वोक्त वस्तुदृष्टि (वस्तु यानी परमार्थरूप तत्त्व
जिसमें देखा जाता है) अर्थात् सूक्ष्मबुद्धि प्राज्ञ में, यथार्थवस्तु की एकरसता
को प्राप्त होकर प्रसन्नता को प्राप्त होती है। जिसकी पूर्वापर के विचार से और
अतिसूक्ष्म अर्थ के ग्रहण में अत्यन्त पटु तथा चतुरता से शोभित बुद्धि विकासयुक्त
हो, इस लोक में वही 'पुरुष' कहा जाता है।।68-72।।
मेरी बुद्धि
विकासयुक्त है या नहीं, यों सन्देह कर रहे श्रीरामचन्द्रजी को आश्वासन देते हुए
श्रीवसिष्ठजी कहते हैं।
हे श्रीरामजी,
आप भी विकसित, अज्ञान का त्याग कर रहे अतएव विशुद्ध शान्ति आदि गुणों से शोभित एवं
परमतत्त्व के विचार से शीतल बुद्धि से विराजमान है।।73।।
ग्यारहवाँ सर्ग
समाप्त
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ