(रक्षाबन्धनः 13 अगस्त 2011)
(पूज्य बापू जी के सत्संग-अमृत से)
भारतीय संस्कृति का रक्षाबन्धन-महोत्सव, जो श्रावणी पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है, आत्मनिर्माण, आत्मविकास का पर्व है। आज के दिन पृथ्वी ने मानो हरी साड़ी पहनी है, सुंदर पुष्प खिले हैं। अपने हृदय को भी प्रेमाभक्ति से, सदाचार-संयम से पूर्ण करने के लिए प्रोत्साहित करने वाला यह पर्व है।
आज रक्षाबन्धन के पर्व पर एक दूसरे को आयु, आरोग्य और पुष्टि की वृद्धि की भावना से राखी बाँधते हैं। अपना उद्देश्य ऊँचा बनाने का संकल्प लेकर ब्राह्मण लोग जनेऊ बदलते हैं। समुद्र का तूफानी स्वभाव श्रावणी पूनम के बाद शांत होने लगता है। इससे जो समुद्री व्यापार करते हैं, वे नारियल फोड़ते हैं।
रक्षाबंधन का उत्सव श्रावणी पूनक को ही क्यों रखा गया ? भारतीय संस्कृति में संकल्पशक्ति के सदुपयोग की सुंदर व्यवस्था है। ब्राह्मण कोई शुभ कार्य कराते हैं तो कलावा (रक्षासूत्र) बाँधते हैं ताकि आपके शरीर में छुपे दोष या कोई रोग, जो आपके शरीर को अस्वस्थ कर रहे हों, उनके कारण आपका मन और बुद्धि भी निर्णय लेने में थोड़े अस्वस्थ न रह जायें। सावन के महीने में सूर्य की किरणें धरती पर कम पड़ती हैं, किस्म-किस्म के जीवाणु बढ़ जाते हैं, जिससे किसी को दस्त, किसी को उल्टियाँ, किसी को अजीर्ण, किसी को बुखार हो जाता है तो किसी का शरीर टूटने लगता है। इसलिए रक्षाबंधन के दिन एक-दूसरे को रक्षासूत्र बाँधकर तन-मन-मति की स्वास्थ्य-रक्षा का संकल्प किया जाता है। रक्षासूत्र में कितना मनोविज्ञान है, कितना रहस्य है !
अपना शुभ संकल्प और शरीर के ढाँचे की व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए यह श्रावणी पूनम का रक्षाबंधन महोत्सव है।
'आज के दिन रक्षासूत्र बाँधने से वर्ष भर रोगों से हमारी रक्षा रहे, बुरे कर्मों से रक्षा रहे' – ऐसा एक दूसरे के प्रति सत्संकल्प करते हैं। रक्षाबंधन के दिन बहन-भैया के ललाट पर तिलक-अक्षत लगाकर संकल्प करती है कि 'जैसे शिवजी त्रिलोचन हैं, ज्ञानस्वरूप हैं, वैसे ही मेरे भाई में भी विवेक-वैराग्य बढ़े, मोक्ष का ज्ञान, मोक्षमय प्रेमस्वरूप ईश्वर का प्रकाश आये। मेरा भाई इस सपने जैसी दुनिया को सच्चा मानकर न उलझे, मेरा भैया साधारण चर्मचक्षुवाला न हो, दूरद्रष्टा हो। 'क्षणे रूष्टः क्षणे तुष्टः' न हो, जरा-जरा बात में भड़कने वाला न हो, धीर-गम्भीर हो। मेरे भैया की सूझबूझ, यश, कीर्ति और ओज-तेज अक्षुण्ण रहें।' भैया को राखी बाँधी और मुँह में मीठा किया, भाई गदगद हो गया।
बहन का शुभसंकल्प होता है और भाई का बहन के प्रति सदभाव होता है। भैया को भी बहन के लिए कुछ करना चाहे। अभी तो चलो साड़ी, वस्त्र या कुछ दक्षिणा दे दी जाती है परंतु यह रक्षाबंधन-महोत्सव दक्षिणा या कोई चीज देने से वही सम्पन्न नहीं हो जाता। आपने बहन की शुभकामना ली है तो आप भी बहन के लिए शुभ भाव रखें कि 'अगर मेरी बहन के ऊपर कभी भी कोई कष्ट, विघ्न-बाधा आये तो भाई के नाते बहन के कष्ट में दौड़कर पहुँच जाना मेरा कर्तव्य है।' बहन की धन-धान्य, इज्जत की दृष्टि से तो रक्षा करे, साथ ही बहन का चरित्र उज्जवल रहे ऐसा भाई सोचे और भाई का चरित्र उज्जवल बने ऐसा सोचकर बहनें अपने मन को काम में से राम की तरफ ले जायें। इस भाई-बहन के पवित्र भाव को उजागर करने न जाने कितने लोगों ने युद्ध टाल दिये, कितनी नरसंहार की कुचेष्टाएँ इस धागे ने बचा लीं।
सर्वरोगोपशमनं सर्वाशुभविनाशनम्।
सकृत्कृते नाब्दमेकं येन रक्षा कृता भवेत्।।
'इस पर्व पर धारण किया हुआ रक्षासूत्र सम्पूर्ण रोगों तथा अशुभ कार्यों का विनाशक है। इसे वर्ष में एक बार धारण करने से वर्ष भर मनुष्य रक्षित हो जाता है।'
(भविष्य पुराण)
यह पर्व समाज के टूटे हुए मनों को जोड़ने का सुंदर अवसर है। इसके आगमन से कुटुम्ब में आपसी कलह समाप्ति होने लगते हैं, दूरी मिटने लगती है, सामूहिक संकल्पशक्ति साकार होने लगती है।
श्रावणी पूर्णिमा अर्थात् रक्षाबंधन-महोत्सव बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है। हजार दो हजार वर्ष, पाँच हजार वर्ष, लाख दो लाख वर्ष नहीं, करोड़ों वर्ष प्राचीन है यह उत्सव। देव-दानव युद्ध में वर्षों के युद्ध के बाद भी निर्णायक परिस्थितियाँ नहीं आ रही थीं, तब इन्द्र ने गुरू बृहस्पति जी से कहा कि 'युद्ध से भागने की भी स्थिति नहीं है और युद्ध में डटे रहना भी मेरे बस का नहीं है। गुरुवर ! आप ही बताओ क्या करें?' इतने में इन्द्र की पत्नी शचि ने कहाः ''पतिदेव ! कल मैं आपको अपने संकल्प सूत्र में बाँधूँगी।"
ब्राह्मणों के द्वारा वेदमंत्र का उच्चारण हुआ, ॐकार का गुंजन हुआ और शचि ने अपना संकल्प जोड़कर वह सूत्र इन्द्र की दायीं कलाई में बाँध दिया तो इन्द्र का मनोबल, निर्णयबल, भावबल, पुण्यबल बढ़ गया। उस संकल्पबल ने ऐसा जौहर दिखाया कि इन्द्र दैत्यों को परास्त करके देवताओं को विजयी बनाने में सफल हो गये।
सब कुछ देकर त्रिभुवनपति को अपना द्वारपाल बनाने वाले बलि को लक्ष्मी जी ने राखी बाँधी थी। राखी बाँधने वाली बहन अथवा हितैषी व्यक्ति के आगे कृतज्ञता का भाव व्यक्त होता है। राजा बलि ने पूछाः "तुम क्या चाहती हो ?" लक्ष्मी जी ने कहाः "वे जो तुम्हारे नन्हें-मुन्ने द्वारपाल हैं, उनको आप छोड़ दो।"
भक्त के प्रेम से वश होकर जो द्वारपाल की सेवा करते हैं, ऐसे भगवान नारायण को द्वारपाल के पद से छुड़ाने के लिए लक्ष्मी जी ने भी रक्षाबंधन-महोत्सव का उपयोग किया।
बहने इस दिन ऐसा संकल्प करके रक्षासूत्र बाँधें कि 'हमारे भाई भगवत्प्रेमी बनें।' और भाई सोचें कि 'हमारी बहन भी चरित्रप्रेमी, भगवत्प्रेमी बने।' अपनी सगी बहन व पड़ोस की बहन के लिए अथवा अपने सगे भाई व पड़ोसी भाई के प्रति ऐसा सोचें। आप दूसरे के लिए भला सोचते हो तो आपका भी भला हो जाता है। संकल्प में बड़ी शक्ति होती है। अतः आप ऐसा संकल्प करें कि हमारा आत्मस्वभाव प्रकटे।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2010, पृष्ठ संख्या 14,15 अंक 212
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