मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

हर दोष से छूटना संभव, केवल......(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)


अपने हृदय से ये सब बातें निकाल दें कि 'हम जितात्मा नहीं बन सकते... हम पापी हैं.. हम बीड़ी-सिगरेट पीते हैं, शराब पीते हैं..... हम गृहस्थी हैं.....क्या करें !'

अपने में दोषों का आरोपण करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मत चलाइये। दोष अपने में मानेंगे तो दोष बलवान हो जायेंगे और आप दुर्बल हो जायेंगे, फिर आप थके-हारे एवं निराश होकर बैठ जायेंगे।

वास्तव में महादोषी व्यक्ति भी उस परमात्मा का अंश है, अकाल पुरुष का सनातन सपूत है। 'दोष हैं तो मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ एवं प्रकृति में हैं और ये सब बदलने वाले हैं। मुझमें दोष नहीं हैं।' ऐसा समझकर बदलने वाले को बदलने वाला जान लें और उसके साथ तादात्म्य कर बैठने की जो गलती है, उसे निकालने के लिए पक्का संकल्प करके कटिबद्ध हो जायें तो आप जितात्मा हो सकते हैं।

श्रीरामकृष्ण परमहंस के पास एक शराबी आया करता था। उनको देखे बिना उसे चैन नहीं पड़ता था लेकिन वह शराब के बिना वह रह भी नहीं सकता था। उसके कुटुम्बियों ने देखा कि उसे संत के प्रति श्रद्धा हो गयी है। आसक्ति वैसे तो महादुर्जय है, उसे मिटाना कठिन है, लेकिन वही आसक्ति यदि सच्चे संत के प्रति हो जाये तो वह संसारसागर से तारने वाली हो जाती है।

कुटुम्बियों ने रामकृष्ण के श्रीचरणों में प्रार्थना कीः "बाबाजी ! वे हमारे कुटुम्ब के बड़े हैं लेकिन शराब बहुत पीते हैं। सुबह होते ही सबसे पहले बस, बोतल खोलते हैं। वे आपके पास आते हैं। कृपया आप उन्हें जरा मना कीजिये कि वे शराब न पियें।"

श्री रामकृष्ण ने उस व्यक्ति को बुलाकर पूछाः

"क्या तुम शराब पीते हो ?"

"जी महाराज ! आप बोलें तो मैं भोजन न करूँ, पानी न पीऊँ... आप जो बोलेंगे मैं वह सब कर सकता हूँ, केवल शराब मत छुड़वाइयेगा। महाराज ! उसके बिना मैं नहीं जी सकता।"

"ठीक है भाई ! तू भले शराब पी, लेकिन एक काम कर।"

"जब भी शराब पीने की इच्छा हो तो पहले माँ काली को भोग लगा कर तू पिया कर। मेरी इतनी बात तो तू मानेगा न ?"

"जी महाराज ! यह तो मैं कर लूँगा लेकिन पीने में कोई रोक नहीं है न ?"

"नहीं, पीने में कोई रोकटोक नहीं है।"

वह शराब की बोतल छुपाकर ले गया मंदिर में। मन-ही-मन बोलाः 'माता जी ! आपको भोग लगाने के लिए शराब लाया हूँ।' ऐसा कहकर वह ज्यों ही बोतल निकालने लगा, त्यों ही कोई दर्शनार्थी आ गया। चुपचाप बोतल अंदर रख ली। थोड़ी देर बाद मंदिर खाली देखकर पुनः बोतल निकालने लगा तो फिर कोई आ गया। ऐसा करते-करते काफी समय बीत गया। सोचा, 'बाद में आयेंगे।' बाद में आया तो फिर वही हाल ! ऐसा करते-करते तीन दिन हो गये। गया रामकृष्ण परमहंस के पास और बोलाः

"महाराज ! आपने यह क्या जादू कर दिया है ? तीन दिन से शराब नहीं पी सका।"

"तीन दिन से नहीं पी !"

"नहीं महाराज ! माता जी को भोग लगता ही नहीं तो मैं कैसे पीता ! यह आपने क्या कर दिया !"

"भैया जब तुम तीन दिन तक बिना शराब के रह गये तो 30 दिन तक भी रह सकते हो, 30 महीने तक भी रह सकते हो और 30 साल तक भी रह सकते हो। हिम्मत करो और भगवन्नाम का जप करो।"

रामकृष्ण परमहंस ने उसको हिम्मत दे दी और उसकी शराब सदा के लिए छूट गयी। वह शराबी में से अनन्य भक्त हो गया रामकृष्ण परमहंस का।

नजरों से वे निहाल हो जाते हैं,

जो संतों की निगाहों में आ जाते हैं।

आपका दृढ़ संकल्प एवं महापुरुषों की करूणा आपको अनके दोषों से बचाकर निर्दोष नारायण तत्त्व की ओर अग्रसर करने में सहायक होती है।

स्रोतः लोक कल्याण सेतु, फरवरी 2011, पृष्ठ संख्या 12, 13 अंक 164

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गुरु बिन ब्रह्मानंद तो क्या सांसारिक सुख भी दुर्लभ !


परमेश्वर का साक्षात्कार एकमात्र गुरु से सम्भव है। जब तक गुरु की कृपा से हमारी अंतःशक्ति नहीं जागती, अंतःज्योति नहीं प्रकाशती, अंतर का दिव्य ज्ञानचक्षु नहीं खुलता तब तक हमारी जीवदशा नहीं मिटती। अतः अंतःविकास के लिए, दिव्यत्व की प्राप्ति के लिए हमें मार्गदर्शक की यानी पूर्ण सत्य के ज्ञाता एवं शक्तिशाली सदगुरु की अत्यंत आवश्यकता है। जैसे प्राण बिना जीना सम्भव नहीं, उसी तरह गुरु बिना ज्ञान नहीं, शक्ति का विकास नहीं, अंधकार का नाश नहीं, तीसरे नेत्र का उदय नहीं। गुरु की जरूरत मित्र से, पुत्र से, बंधु से और पत्नी से भी अधिक है। गुरु की जरूरत द्रव्य से, कल-कारखानों से, कला से और संगीत से भी अधिक है। अधिक क्या कहूँ, गुरु की जरूरत आरोग्य और प्राण से भी ज्यादा है। गुरु की महिमा रहस्यमय और अति दिव्य है। वे मानव को नया जन्म देते हैं, ज्ञान की प्रतीति कराते हैं, साधना बताकर ईश्वरानुरागी बनाते हैं।

गुरु वे हैं जो शिष्य की अंतःशक्ति को जगाकर उसे आत्मानंद में रमण करते हैं। गुरु की व्याख्या यह है – जो शक्तिपात द्वारा अंतःशक्ति कुण्डलिनी को जगाते हैं, यानी मानव-देह में पारमेश्वरी शक्ति को संचारित कर देते हैं, जो योग की शिक्षा देते हैं, ज्ञान की मस्ती देते हैं, भक्ति का प्रेम देते हैं, कर्म में निष्कामता सिखा देते हैं, जीते जी मोक्ष देते हैं, वे परम गुरु शिव से अभिन्नरूप हैं। वे शिव, शक्ति, राम, गणपति, माता-पिता हैं। वे सभी के पूजनीय परम गुरु शिष्य की देह में ज्ञानज्योति को प्रज्जवलित करते हुए अनुग्रहरूप कृपा करते हैं और लीलाराम होकर रहते हैं। गुरु के प्रसाद से नर नारायण रूप बनकर आनंद में मस्त रहता है। ऐसे गुरू महामहिमावान हैं, उनको साधारण जड़ बुद्धिवाले नहीं समझ सकते।

साधारणतया गुरुजनों का परिचय पाना, उन्हें समझना महाकठिन है। किसी ने थोड़ा चमत्कार दिखाया तो हम उसे गुरु मान लेते हैं, थोड़ा प्रवचन सुनाया तो उसे गुरु मान लेते हैं, किसी ने मंत्र दिया या तंत्र विधि बतलायी तो उसे गुरु मान लेते हैं। इस तरह अनेक जनों में गुरुभाव करके अंतःसमाधान से हम वंचित रह जाते हैं। अंत में हमारी श्रद्धा भंग हो जाती है और फिर हम गुरुत्व को भी पाखण्ड समझने लगते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि हम सच्चे गुरुजनों से दूर रह जाते हैं। पाखण्डी गुरु से धोखा खाकर हम सच्चे गुरु की अवहेलना करने लग जाते हैं।

साक्षात्कारी गुरु को साधारण समझकर उनको त्यागो मत। गुरु की महानता तब समझ में आती है जब तुम पर गुरुदेव की पूर्ण कृपा होती है। गुरु अपने शिष्यों को एक ऊँचे स्तर पर ले जा के, सत्यस्वरूप बताकर शिव में मिला के शिव ही बना देते हैं।

ऐसे गुरुजनों को गुरु मानकर, उन तत्त्ववेत्ताओं से दीक्षा पाना क्या परम सौभाग्य नहीं हैं ! उनके दिये हुए शब्द ही चैतन्य मंत्र हैं। वे चितिमय परम गुरु मंत्र द्वारा, स्पर्श द्वारा या दृष्टि द्वारा शिष्य में प्रवेश करते हैं। इसीलिए गुरु-सहवास (सान्निध्य), गुरु-आश्रमवास, गुरु सेवा, गुरु गुणगान, गुरुजनों से प्रेमोन्मत्त स्थिति में बाहर बहने वाले चिति-स्पन्दनों का सेवन शिष्य को पूर्ण सिद्धपद की प्राप्ति करा देने में समर्थ हैं, इसमें क्या आश्चर्य !

स्वामी मुक्तानंद

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2011, पृष्ठ संख्या 13, अंक 222

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