अपने हृदय से ये सब बातें निकाल दें कि 'हम जितात्मा नहीं बन सकते... हम पापी हैं.. हम बीड़ी-सिगरेट पीते हैं, शराब पीते हैं..... हम गृहस्थी हैं.....क्या करें !'
अपने में दोषों का आरोपण करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मत चलाइये। दोष अपने में मानेंगे तो दोष बलवान हो जायेंगे और आप दुर्बल हो जायेंगे, फिर आप थके-हारे एवं निराश होकर बैठ जायेंगे।
वास्तव में महादोषी व्यक्ति भी उस परमात्मा का अंश है, अकाल पुरुष का सनातन सपूत है। 'दोष हैं तो मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ एवं प्रकृति में हैं और ये सब बदलने वाले हैं। मुझमें दोष नहीं हैं।' ऐसा समझकर बदलने वाले को बदलने वाला जान लें और उसके साथ तादात्म्य कर बैठने की जो गलती है, उसे निकालने के लिए पक्का संकल्प करके कटिबद्ध हो जायें तो आप जितात्मा हो सकते हैं।
श्रीरामकृष्ण परमहंस के पास एक शराबी आया करता था। उनको देखे बिना उसे चैन नहीं पड़ता था लेकिन वह शराब के बिना वह रह भी नहीं सकता था। उसके कुटुम्बियों ने देखा कि उसे संत के प्रति श्रद्धा हो गयी है। आसक्ति वैसे तो महादुर्जय है, उसे मिटाना कठिन है, लेकिन वही आसक्ति यदि सच्चे संत के प्रति हो जाये तो वह संसारसागर से तारने वाली हो जाती है।
कुटुम्बियों ने रामकृष्ण के श्रीचरणों में प्रार्थना कीः "बाबाजी ! वे हमारे कुटुम्ब के बड़े हैं लेकिन शराब बहुत पीते हैं। सुबह होते ही सबसे पहले बस, बोतल खोलते हैं। वे आपके पास आते हैं। कृपया आप उन्हें जरा मना कीजिये कि वे शराब न पियें।"
श्री रामकृष्ण ने उस व्यक्ति को बुलाकर पूछाः
"क्या तुम शराब पीते हो ?"
"जी महाराज ! आप बोलें तो मैं भोजन न करूँ, पानी न पीऊँ... आप जो बोलेंगे मैं वह सब कर सकता हूँ, केवल शराब मत छुड़वाइयेगा। महाराज ! उसके बिना मैं नहीं जी सकता।"
"ठीक है भाई ! तू भले शराब पी, लेकिन एक काम कर।"
"जब भी शराब पीने की इच्छा हो तो पहले माँ काली को भोग लगा कर तू पिया कर। मेरी इतनी बात तो तू मानेगा न ?"
"जी महाराज ! यह तो मैं कर लूँगा लेकिन पीने में कोई रोक नहीं है न ?"
"नहीं, पीने में कोई रोकटोक नहीं है।"
वह शराब की बोतल छुपाकर ले गया मंदिर में। मन-ही-मन बोलाः 'माता जी ! आपको भोग लगाने के लिए शराब लाया हूँ।' ऐसा कहकर वह ज्यों ही बोतल निकालने लगा, त्यों ही कोई दर्शनार्थी आ गया। चुपचाप बोतल अंदर रख ली। थोड़ी देर बाद मंदिर खाली देखकर पुनः बोतल निकालने लगा तो फिर कोई आ गया। ऐसा करते-करते काफी समय बीत गया। सोचा, 'बाद में आयेंगे।' बाद में आया तो फिर वही हाल ! ऐसा करते-करते तीन दिन हो गये। गया रामकृष्ण परमहंस के पास और बोलाः
"महाराज ! आपने यह क्या जादू कर दिया है ? तीन दिन से शराब नहीं पी सका।"
"तीन दिन से नहीं पी !"
"नहीं महाराज ! माता जी को भोग लगता ही नहीं तो मैं कैसे पीता ! यह आपने क्या कर दिया !"
"भैया जब तुम तीन दिन तक बिना शराब के रह गये तो 30 दिन तक भी रह सकते हो, 30 महीने तक भी रह सकते हो और 30 साल तक भी रह सकते हो। हिम्मत करो और भगवन्नाम का जप करो।"
रामकृष्ण परमहंस ने उसको हिम्मत दे दी और उसकी शराब सदा के लिए छूट गयी। वह शराबी में से अनन्य भक्त हो गया रामकृष्ण परमहंस का।
नजरों से वे निहाल हो जाते हैं,
जो संतों की निगाहों में आ जाते हैं।
आपका दृढ़ संकल्प एवं महापुरुषों की करूणा आपको अनके दोषों से बचाकर निर्दोष नारायण तत्त्व की ओर अग्रसर करने में सहायक होती है।
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, फरवरी 2011, पृष्ठ संख्या 12, 13 अंक 164
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