मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

रविवार, 30 सितंबर 2012

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 26 (मुमुक्षु-व्यवहार प्रकरण)


दूसरा सर्ग
श्रीरामचन्द्रजी को उपदेश देने के लिए प्रार्थित श्रीवसिष्ठजी को श्रीविश्वामित्रजी का प्रोत्साहन करना।

श्रीशुकदेव जी की आख्यायिका की प्रकृत में संगति दिखला रहे एवं श्रीरामचन्द्रजी को उपदेश देने के लिए श्रीवसिष्ठजी को उत्साहित कर रहे श्रीविश्वामित्रजी बोलेः श्रीरामचन्द्र, जिस प्रकार व्यासपुत्र श्री शुकदेव जी के केवल मनोमालिन्य का मार्जन आवश्यक है।।1।।
पूर्वोक्त बात का ही सम्पूर्ण मुनियों की सम्मति से समर्थन करने के लिए 'मुनीश्वराः' सब मुनियों का संबोधन है।
हे मुनिवरों, श्रीरामचन्द्रजी ने ज्ञातव्य वस्तु सम्पूर्णतया जान ली है, क्योंकि सुमति श्रीराम को भोग रोगों की नाईं रूचिकर नहीं हो रहे हैं। जिसने ज्ञातव्य वस्तु को जान लिया है, उसके मन का यही निश्चित लक्षण है कि उसको फिर सम्पूर्ण भोग भले नहीं लगते। अज्ञान से उत्पन्न संसाररूपी बन्धन भोगों की वासना से दृढ़ हो जाता है और जगत् में भोगवासना के शान्त होने पर बन्धन भी क्षीण हो जाता है।।2,3।। हे राम, विद्वान लोग वासनाक्षय को 'मोक्ष' कहते हैं और विषयों में वासना की दृढ़ता को बन्ध कहते हैं अर्थात् जितनी ही विषयवासना क्षीण होती जायेगी, उतना ही संसार से (बन्ध से) छुटकारा मिलता जायेगा। वासना के सर्वथा क्षीण होने पर सर्वतः मुक्ति हो जाती है। मुनिवरों, मनुष्य को आत्मतत्त्व का आपात ज्ञान (सामान्य ज्ञान) प्रायः अल्प श्रवण आदि प्रयास से भी पाया जाता है, (अर्थात् अपरोक्ष दृकस्वरूप आत्मा का केवल दृश्य विवेक से भी अच्छा परिचय प्राप्त हो जाता है) पर विषयों में विराग तो क्लेश से ही होता है। जो व्यक्ति भलीभाँति (राग आदि से अप्रतिहत होकर) आत्मदर्शी होता है वही यथार्थ आत्मज्ञानी (तत्त्वज्ञान से उत्पन्न अविद्याध्वंसरूपी फल वाला) है, वही यथार्थ ज्ञातज्ञेय (ज्ञातव्य तत्त्व का ज्ञाता है) और वही पण्डित है। सामान्यरूप से आत्मदर्शी पुरुष वैसा नहीं है, कारण कि उससे मूढ़ता बिलकुल नष्ट हो जाती। उक्त महात्मा पुरुष को भोग हठात् अच्छे नहीं लगते। जिसे यश, पूजा, लाभ आदि उद्देश्यों के बिना ही भोग अच्छे नहीं लगते वह सांसारिक जीवन्मुक्त कहलाता है, भाव यह कि दम्भ से जो लोग भोग का त्याग किया जाता है, उससे इष्टसिद्धि नहीं होती।।4,5।।
वैराग्य, बोध और उपरति की अभिवृद्धि में वैराग्य आदि परस्पर सहायक हैं, अतः ज्ञान के अतिशय परिपाक से ही मूलोच्छेद होने के कारण आत्यान्तिक राग का नाश होता है, ऐसा कहते हैं।
जैसे मरूभूमि में लता नहीं उगती वैसे ही जब तक ज्ञातव्य तत्त्व का ज्ञान नहीं होता तब तक विषयों में वैराग्य नहीं होता।।9।।
इस प्रकार व्यतिरेकप्रकर्ष से अन्वयप्रकर्ष लक्षित होता है, अर्थात् ज्ञातव्य तत्त्व का ज्ञान होने पर ही विषयों में वैराग्य होता है, क्योंकि 'रसोऽप्यस्य परं दृष्टा निवर्तते' ऐसा भगवान का वचन है।
मुनिवृन्द, इसलिए आप लोग श्रीरामचन्द्रजी को निश्चय ज्ञातज्ञेय (जिसने ज्ञातव्य तत्त्व को जान लिया है) जानिये, क्योंकि इन्हें ये मनोहर विषय अनुरंजित (प्रसन्न) नहीं कर रहे हैं।।10।।
यदि श्रीरामचन्द्रजी तत्त्वज्ञानी हैं, तो उन्हें उपदेश देने के लिए श्रीवसिष्ठजी की वक्ष्यमाण (कही जाने वाली) प्रार्थना क्यों करते हैं, इस पर कहते हैं।
हे मुनिनायकों, श्रीरामचन्द्रजी जिस तत्त्व को जानते हैं, उसे श्रीगुरुमुख से यही वस्तु है, ऐसा सुनकर श्रीरामजी का चित्त अवश्य विश्रान्ति को प्राप्त होगा ही, अन्यान्य अधिकारी पुरुष भी उपदेश सुनकर विश्रान्ति को प्राप्त होंगे। इस प्रकार सबके उपकार के लिए हम वसिष्ठजी की प्रार्थना करते हैं, यह भाव है अथवा श्रीरामचन्द्रजी ने जिस तत्त्व को स्वयं विचार से जाना है, उसमें उन्हें यही वस्तु है, ऐसा दृढ़ विश्वास न होने के कारण वह अप्राप्त सा ही है, गुरुमुख से उसे सुनकर श्रीरामचन्द्रजी उसमें विश्वास होने के कारण अवश्य चित्तविश्रान्ति() को प्राप्त होंगे।।11।। जैसे शरत्काल की शोभा मेघरहित निर्मल आकाशमात्र की अपेक्षा करती है वैसे ही शरत्-शोभा के समान निर्मल श्रीरामचन्द्रजी की बुद्धि द्वैतनिरास में विश्वास द्वारा केवल अद्वितीय चिन्मात्र के अवशेष की अपेक्षा करती है। यहाँ पर महात्मा श्रीरामचन्द्रजी की चित्तविश्रान्ति के लिए ये श्रीमान् भगवान वसिष्ठजी युक्ति का उपदेश देने की कृपा करें।।12,13।।
अभिप्रायः यह है श्रीरामचन्द्रजी परमतत्त्व को जानते ही हैं लोकहित के लिए वे गुरु उपदेश के प्रार्थी हैं। उनका आशय यह है कि इसी बहाने अन्यान्य अधिकारी जन भी उपदेश सुनकर मेरी नाईं चित्तविश्रान्ति को प्राप्त हों। अथवा श्रीरामचन्द्रजी परमतत्त्व क्या है ? इस बात को मन ही मन में खूब जानकर भी दृढ़ विश्वास के न होने के कारण अनात्मज्ञ के समान असुखी हैं, उन्हें विश्वास दिलाने के लिए यही तत्त्व है, उपदेश की आवश्यकता है। उपदेश देने के उपरान्त अविश्वास हट जायेगा और परम विश्रान्ति प्राप्त हो जायेगी।
यदि प्रश्न हो कि आप ही उपदेश क्यों नहीं देते ? तो इस प्रकार कहते हैं।
ये महात्मा सम्पूर्ण रघुवंशियों के नियन्ता (शिक्षक) तथा कुलगुरु, सर्वज्ञ, सर्वसाक्षी एवं तीनों कालों में मोह आदि से अनभिभूत हैं। भगवन् वसिष्ठजी, आपके और मेरे वैर को शान्त करने के लिए और महामति मुनियों के कल्याण के लिए, देवदार के वृक्षों से आवृत्त निषध पर्वत के शिखरपर, भगवान ब्रह्माजी ने स्वयं पहले जिस ज्ञान का उपदेश दिया था, उसका आपको स्मरण है ? ब्रह्मन, जिस युक्तिपूर्वक ज्ञान से यह सांसारिक वासना जैसे सूर्य के उदय से रात्रि नष्ट हो जाती है वैसे ही निस्सन्देह नष्ट हो जाती है आप उसी उपपत्तियुक्त ज्ञातव्य वस्तु का समीप में स्थित (शिष्यभूत) श्रीरामचन्द्रजी को शीघ्र उपदेश दीजिए, जिससे ये अवश्य विश्रान्ति को प्राप्त हो जायेंगे।।14-18।। भगवन्, यह अल्पफल देने वाला महान् परिश्रम नहीं है। श्रीरामचन्द्रजी निष्पाप हैं, अतः जैसे निर्मल दर्पण में प्रयत्न के बिना ही मुँह प्रतिबिम्बित हो जाता है, वैसे ही श्रीरामचन्द्रजी को प्रयत्न के बिना तत्त्वबोध प्राप्त हो जायेगा। सज्जनशिरोमणे, वही ज्ञान है, वही शास्त्रार्थ है और वही प्रशंसनीय पाण्डित्य है, जिसका कि विरक्त सत्शिष्य के लिए उपदेश दिया जाता है।।19,20।।
पात्र में यदि उसका दान न किया जाय, तो व्यर्थ होने के कारण वह निन्दनीय ही होगा, यह भाव है।
वैराग्यशून्य असत् शिष्य के लिए जो कुछ भी उपदेश दिया जाय, वह कुत्ते के चमड़े से बने पात्र में रक्खे हुए गाय के दूध की नाईं अपवित्रता को प्राप्त हो जाता है। हे प्रभो, वीतराग, भय तथा क्रोध से अपरोक्ष परमात्मतत्त्व में विश्रान्ति हो ही जाती है।।21,22।। श्रीविश्वामित्रजी के यों कहने पर व्यास, नारद आदि सम्पूर्ण मुनियों ने भी उनके कथन की साधुवादपूर्वक खूब प्रशंसा की। तदुपरान्त महाराज दशरथ की बगल में बैठे हुए ब्रह्माजी के पुत्र अतएव ब्रह्माजी के समान महातेजस्वी महामुनि भगवान् वसिष्ठजी बोले। भाव यह कि वसिष्ठजी ब्रह्माजी के पुत्र थे, अतएव ब्रह्माजी के तुल्य महातेजस्विता आदि गुणगणों से विभूषित थे, इसलिए दिव्य मुनियों की मण्डली के सम्मुख ब्रह्माजी की नाईं बोले।।24।।
श्रीवसिष्ठजी ने कहाः मुनिवर, जिस कार्य के लिए आप मुझे आदेश देते हैं, उसे मैं निर्विघ्न करता हूँ। सामर्थ्य होते हुए भी सन्तों के वचन को टालने की किसमें शक्ति है ? जैसे लोग दीपक से रात्रि का अन्धकार दूर करते हैं, वैसे ही श्रीराम आदि राजकुमारों के अन्तःकरण के अज्ञान को निषध पर्वत पर उपदेश दिया था, उसका मैं ज्यों का त्यों आद्योपान्त स्मरण करता हूँ।।25,27।। वाल्मीकि जी ने कहाः महात्मा श्रीवसिष्ठजी यों स्पष्टतया प्रतिज्ञा कर जैसे पहलवान् या नट भूषण, वस्त्र, अस्त्र-शस्त्र आदि सामग्री को लेकर उद्यत होता हुआ शोभित होता है वैसे ही प्रबोधप्राप्ति द्वारा शिष्य अनुरंजन में उपायभूत दृष्टान्त, उपाख्यान, प्रमाण और तर्क आदि का अनुसन्धान, उत्साह आदि परिकरबन्धन से व्याख्याताओं के तेज को स्वीकार कर जगत की अज्ञानता का विनाश करने के लिए मुख्यरूप से परमात्मा के बोधक शास्त्र को कहने लगे।।28।।

दूसरा सर्ग समाप्त
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शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 25 (मुमुक्षु-व्यवहार प्रकरण)



मुमुक्षु-व्यवहार प्रकरण

पहला सर्ग
विचार द्वारा स्वयं ज्ञात और पिता द्वारा उपदिष्ट तत्त्वज्ञान में विश्वास न कर रहे
श्री शुकदेवजी को जनक के उपदेश से विश्रान्तिप्राप्ति का वर्णन।
श्रीरामचन्द्रजी ने जिस शम, दम आदि साधनसम्पत्ति का वर्णन किया है, वह किस प्रकार से व्यवहार कर रहे मुमुक्षुओं को प्राप्त होती है और उससे किस प्रकार तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है, इस प्रकार प्रत्येक का विवेचन कर उनके उपदेश के लिए दूसरे मुमुक्षुव्यहवहारप्रकरण का आरम्भ करते हुए श्रीवाल्मीकि जी बोलेः इस प्रकरण में सर्वप्रथम, जिन्हें थोड़ा बहुत (अपरिपक्व) वैराग्य आदि में प्रवृत्ति न हो, यह दर्शाने के लिए श्री शुकदेव जी का आख्यायिका द्वारा साधन सम्पत्ति की दृढ़ता का स्वरूप दर्शा रहे 'आचार्यदैव विद्या विदिता साधिष्ठं पापत्' (आचार्य से ही ज्ञात विद्या श्रेष्ठतम होती है) इस श्रुति के अनुसार कुलगुरु श्रीवसिष्ठजी को, श्रीरामचन्द्रजी को उपदेश देने के लिए, इतिहास स्मरण और तत्त्वोपदेश की भूमिका द्वारा उत्साहित कर रहे एवं स्वप्रयोजन सिद्धिरूप श्रवण के लिए शीघ्रता कर रहे श्रीविश्वामित्र ही पहले बोले, ऐसा कहते हैं।
सभा में आये हुए सिद्धों द्वारा बड़े दीर्घ स्वर से पूर्वोक्त वचन कहने पर अपने सामने स्थित एवं अधिकार की सीमा में स्थित श्रीरामचन्द्रजी से श्रीविश्वामित्रजी प्रीतिपूर्वक() बोलेः हे ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ रामचन्द्र, तुम्हारे लिये और ज्ञातव्य कुछ भी नहीं है, अर्थात् जो तुम्हें ज्ञात न हो और अवश्य ज्ञातव्य हो, ऐसी कोई वस्तु नहीं है।
मुख्य अधिकारी दुर्लभ है, इसलिए रामचन्द्रजी में श्रीविश्वामित्रजी की प्रीति हुई और वे स्वयं ब्रह्मविद्या के महान् रसज्ञ थे, इसलिए आगे कही जाने वाली ब्रह्मविद्या की चर्चा में उनकी प्रीति थी, अतएव वे प्रीति से बोले।
तुम सार और असार का विवेचन करने में अति दक्ष अपनी बुद्धि से सम्पूर्ण हेयोपादेयरहस्य को जान चुके हो अर्थात् उक्त बुद्धि से तुम्हें परमार्थसारभूत अखण्ड अद्वितिय चिदघन परमात्मतत्त्व भी ज्ञात हो गया है।।1,2।।
यदि उक्त परमात्म तत्त्व का ज्ञान हो गया हो, तो विश्रान्ति क्यों नहीं प्राप्त हुई ?
स्वभावतः निर्मल तुम्हारे बुद्धिरूपी दर्पण में केवल तनिक अविश्वास और सन्देहरूपी मलिनता के निराकरण की आवश्यकता है, क्योंकि अपनी बुद्धि से परमात्मतत्त्व ज्ञात होने पर भी शास्त्र और आचार्य आदि के संवाद के बिना विश्वास नहीं होता। कहा भी है कि 'बलवदपि शिक्षितानामात्मन्यप्रत्ययं चेतः' (भली भाँति शिक्षित लोगों का भी चित्त अपने विषय में विश्वास नहीं करता)। भगवान वेदव्यास जी के सुपुत्र श्रीशुकदेव जी की() बुद्धि की नाईं तुम्हारी बुद्धि ने भी ज्ञातव्य वस्तु को जान लिया है।
यहाँ पर श्रीवेदव्यासजी और श्रीशुकदेव जी पूर्व द्वापर के अन्त में उत्पन्न हुए लिये जाते हैं क्योंकि प्रत्येक द्वापर के अन्त में व्यास जी का अवतार होता है, यह प्रसिद्ध है।
अब केवल मात्र विश्रान्ति की उसे अपेक्षा है।।3,4।। श्रीरामचन्द्रजी ने कहाः भगवन् श्री व्यासजी के पुत्र श्रीशुकदेवजी की अपने ही विचार से ज्ञातव्य तत्त्व में कैसे विश्रान्ति नहीं हुई और गुरु के उपदेश द्वारा प्राप्त संवादिनी बुद्धि से फिर कैसे उनको विश्रान्ति प्राप्त हुई ?।।5।। श्रीविश्वामित्रजी ने कहाः हे रामचन्द्र, मैं तुमसे श्रीव्यासजी के पुत्र शुकदेव जी का जीवनवृतान्त कहता हूँ, तुम इसे सुनो। यह तुम्हारे जीवनवृतान्त के तुल्य है और सुनने वालों के मोक्ष का कारण है। जो  ये अंजन पर्वत के सदृश और सूर्य के समान तेजस्वी श्रीव्यासदेव जी तुम्हारे पिता जी के बगल में सुवर्ण के आसन पर बैठे हैं, इनका चन्द्रमा के समान सुन्दर, महाबुद्धिमान, सर्वशास्त्रज्ञ और मूर्तिमान् यज्ञ के सदृश शुकदेवनामक पुत्र हुआ। तुम्हारे समान अपने हृदय में सदाबारबार इस लोकयात्रा का(संसारीस्थिति का) विचार कर रहे उनके हृदय में भी ऐसा ही विवेक उत्पन्न हुआ। वे महामनस्वी श्रीशुकदेवजी अपने उस विवेक से चिरकाल तक भलीभाँति विचारकर परमार्थ सत्यरूप अद्वितीय, चिदघन परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो गये। स्वयं प्राप्त परमात्मतत्त्वस्वरूप वस्तु में उनका मन विश्रान्त नहीं हुआ, उन्हें आत्मतत्त्व में, यही वस्तु है, ऐसा विश्वास नहीं हुआ। विश्वास न होने से विश्रान्ति भी नहीं मिली। विश्रान्ति न मिलने में अविश्वास ही कारण है। जैसे वर्षा की भिन्न जलधाराओं में चातक प्रीति नहीं करता, उनसे विरत रहता है, वैसे ही केवल उनका मन चंचलता का त्यागकर जन्म-मरणरूपी महान दुःख के कारण विषयभोगों से विरक्त हो गया। एक समय निर्मलमति शुकदेवजी ने मेरू पर्वत पर एकान्त स्थान में बैठे हुए अपने पिता श्रीकृष्णद्वैपायन जी से बड़े भक्ति भाव के साथ पूछाः पूज्यतम, यह संसाररूपी आडम्बर(‡) किस क्रम से उत्पन्न हुआ, कब यह उच्छिन्न होता है, यह कितना बड़ा है, कितने काल तक रहेगा और यह संसार है किसका ? क्या देह का है या इन्द्रियों का है या मन का है अथवा प्राण का है या देहेन्द्रियादिसंघात का है या उनसे अन्य विकारी का है अथवा निर्विकार चिन्मात्र का है ?।।6-14।।
‡ अन्य की वंचना के लिए की गई कृत्रिम चेष्टा आडम्बर है।
पुत्र द्वारा यों पूछे जाने पर आत्मतत्त्वज्ञ महामुनि श्रीव्यासजी ने अपने पुत्र से सम्पूर्ण वक्तव्य आद्योपान्त भलीभाँति कहा। पिताजी के उपदेश के अनन्तर श्री शुकदेव जी ने यह सब तो मैं पहले ही जानता था, इससे कुछ अपूर्व बात नहीं ज्ञात हुई, यह सोचकर पिताजी के वाक्य का शुभबुद्धि से विशेष आदर नहीं किया। भगवान् व्यासदेव जी ने भी पुत्र का ऐसा अभिप्राय जानकर उनसे फिर कहाः मैं उक्त तत्त्व से अतिरिक्त तत्त्व को नहीं जानता। पृथिवी में जनक नाम के महाराज हैं, वे ज्ञातव्य तत्त्व को भलीभाँति जानते हैं, उनसे तुम वेद्य (जानने योग्य) आत्मतत्त्व को भलीभाँति जान पाओगे।।15-18।।
पिताजी के यों कहने पर श्रीशुकदेव जी सुमेरू पर्वत से पृथिवी में आये और महाराज जनक से संरक्षित विदेहनगरी में पहुँचे। द्वारपालों ने महात्मा जनक को सूचना दी कि राजन्, दरवाजे पर वेदव्यासजी के सुपुत्र श्रीशुकदेवजी स्थित हैं। जनक शुकदेव जी का चरित सुन चुके थे, अतएव सहसा उपदेश देने में श्रीव्यासजी का वाक्यों का जैसे अनादर किया वैसे ही मेरे उपदेश का अनादर होने से उनकी अनुकृतार्थता न हो, यह विचारकर उनके वैराग्य आदि साधनों की और विश्वास की स्थिरता की परीक्षा के लिए उपेक्षा के साथ, अच्छा, आये हैं, तो क्या हुआ ? रहें। ऐसा कहकर सात दिन तक चुपचाप रह गये। सात दिन के अनन्तर उन्होंने शुकदेव जी को घर के आँगन के अन्दर प्रवेश कराने की अनुमति दी, वहाँ पर भी पूरे सात दिन तक वैसे ही उन्मना अर्थात् तत्त्वजिज्ञासा की उत्कण्ठा से अनादर की ओर कुछ ध्यान न देकर बैठे रहे। तदुपरान्त जनक ने शुक को अन्तःपुर में प्रवेश कराने की आज्ञा दी। वहाँ पर भी जब तक तुम्हारी भोजन आदि द्वारा पूजा नहीं हो जाती तब तक राजा नहीं दिखाई देंगे, इस बहाने से राजा ने चन्द्रमा के सदृश सुन्दर मुखवाले शुकदेवी का अन्तःपुर में यौवनमदमत्त स्त्रियों द्वारा विविध भोगपूर्ण भोजनों से सात दिन तक लालन पालन किया। जैसे मन्द वायु बद्धमूल वृक्ष को नहीं उखाड़ सकता, वैसे ही वे भोग, वे दुःख व्यासदेव जी के पुत्र के मन को विकृत न कर सके। वहाँ पर पूर्ण चन्द्र के सदृश सुन्दर श्रीशुकदेवजी भोग और अनादर में समान (हर्ष-विषादरहित) अतएव स्वस्थ, वागादि इन्द्रियों को अपने वश में किए हुए एवं प्रसन्नमन रहे। इस प्रकार परीक्षा द्वारा श्रीशुकदेवजी के तत्त्वज्ञान होने तक स्थिर रहने वाले विचार, वैराग्य आदि की दृढ़तारूपी स्वभाव को जानकर राजा जनक ने आदर से समीप में लाये गये प्रसन्नचित्त श्री शुकदेव जी को देखकर प्रणाम किया।।19-27।। राजा ने बड़ी शीघ्रता से शुकदेव का स्वागत करते हुए कहाः महाभाग, आपने जगत में प्रसिद्ध परमपुरुषार्थ के साधनभूत आवश्यक सभी कार्य कर डाले हैं, अतएव आप कृतकृत्य हैं। भगवन, सम्पूर्ण सुखलव आत्मसुख के अन्तर्गत हैं, आत्मसुख के प्राप्त हो जाने से ही आपके सभी मनोरथ सिद्ध हो गये हैं। आपकी क्या इच्छा है ?
श्रीशुकदेव जी ने कहाः गुरुदेव, यह संसाररूपी आडम्बर किस क्रम से उत्पन्न हुआ है और कैसे इसका उच्छेद होता है, यह भली भाँति मुझसे कहिए।।28,29।। श्रीविश्वामित्रजी ने कहाः यों पूछने पर जनक ने  श्रीशुकदेवजी से उसी तत्त्व का उपदेश दिया जिसका कि पहले उनके पिता महात्मा श्रीवेदव्यास जी ने दिया था। श्रीशुकदेव जी ने कहाः मैंने यह बात अपने विवेक से पहले ही जान ली थी और जब मैंने अपने पिता जी से पूछा, तो उन्होंने भी यही कहा। हे वक्ताओं में श्रेष्ठ महाराज, आपने भी यही बात कही। सम्पूर्ण उपनिषदों में स्थित महावाक्यों का भी यही अखण्ड वाक्यार्थ उपनिषद के तात्पर्य का निर्णय करने वाले सूत्र, भाष्य आदि शास्त्रों में दिखाई देता है। वह यह कि निन्दित संसार अन्तःकरण से उत्पन्न हुआ है और अन्तःकरण का आत्यान्तिक विनाश होने से नष्ट हो जात है, अतः यह निस्सार है, ऐसा तत्त्वज्ञानियों का निश्चय है(ф)।।30-33।।
ф उक्त श्लोक का विशद अर्थ यों हैः स्व में अज्ञान से उपहित आत्मा में विविध प्रकार के प्रपंच की कल्पना करने वाला विकल्प है अर्थात् अन्तःकरण, जो कि अनन्त काम, कर्म और वासनाओं के बीजों से परिपूर्ण है, सुषुप्ति अवस्था में केवल समष्टि तथा व्यष्टि संस्कारों से अवशिष्ट रहकर अव्याकृत में लीन हो जाता है और जीवभाव की उपाधि है। उस अन्तःकरण से प्रलय-क्रम से विपरीत क्रम से अर्थात् पहले अपंचीकृत आकाश आदि की उत्पत्ति के क्रम से समष्टिहिरण्यगर्भरूप से, तदनन्तर पंचीकरण द्वारा विराटरूप से, तदुपरान्त अन्नादि के क्रम से व्यष्टिस्थूलदेहरूप से और उसके अन्दर व्यष्टि लिंगदेहरूप से आविर्भूत हुआ यह निन्दित संसार महाअनर्थरूप है। यह केवल कर्म और उपासना के अनुष्ठान से व्यष्टिभाव की जननी वासना का विनाश होने पर समष्टिहिरण्यगर्भरूप से अवशिष्ट रहता है तथा श्रवण आदि के परिपाक से उत्पन्न तत्त्वसाक्षात्कार से वासनासहित कार्यकारणरूप अविद्या का नाश होने पर मूलोच्छेदपूर्वक अन्तःकरण का आत्यान्तिक विनाश होने के कारण सर्वथा नष्ट हो जाता है। मूलस्थित दग्धशब्द निन्दा का वाचक है।
अथवा-स्वप्रकाशरूप आत्मा में तीनों कालों में बाधित होने और मिथ्या होने के कारण यह संसार प्रथमतः दग्धप्राय अतएव निस्सार है, फिर साक्षात्काररूपी प्रलयाग्नि से, चारों ओर से परिवेष्टित होने पर कैसे रह सकता है, यह भाव है।
श्री शुकदेव जी ने कहाः हे महाबाहो, जिसे मैंने स्वयं ही पहले विचार द्वारा जाना है, क्या वही सत्य तत्त्व है ? यदि वही सत्य तत्त्व है, तो वह जिस प्रकार निःसन्देहरूप से मेरे हृदय में जम जाय, उस प्रकार उसका मुझे उपदेश दीजिए। यह तत्त्वपदार्थ है या वह तत्त्वपदार्थ है, यों अविश्वास से नाना विषयों में चक्कर काट रहे चित्त ने मुझे भ्रम में डाल रक्खा है। चित्त द्वारा इस जगत में भ्रमित मैं आपसे शान्ति लाभ कर सकूँगा।।34।। श्रीजनक जी ने कहाः मुनिश्रेष्ठ, आपने स्वयं विचारपूर्वक जिस तत्त्व को जाना है और जिसका गुरुमुख से श्रवण किया है, उससे अतिरिक्त दूसरा कोई ज्ञातव्य तत्त्व नहीं है।।35।।
दृढ़ निश्चय होने के लिए पुनः उसी बात को कहते हैं।
हे शुकदेव, इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सर्वव्यापक, चिन्मय एकमात्र परम पुरुष परमात्मा ही है, उसके सिवा अन्य कुछ नहीं है। वही अद्वितीय परमात्मा अपने संकल्प से संसाररूप बन्धन में पड़ा है और जब वह संकल्प रहित हो जाता है तब मुक्त हो जाता है।।36।। मुनिश्रेष्ठ, आपने ज्ञातव्य तत्त्व को भली भाँति जान लिया है। आप बड़े महात्मा हैं, क्योंकि आपको तत्त्वनिश्चयदशा में भोग भोगने से पूर्व ही सम्पूर्ण दृश्य प्रपंच से वैराग्य हो गया है। भगवन्, आप बालक होते हुए भी विषयों के त्याग में शूरवीर होने  के कारण महावीर हैं, अतएव दीर्घरोग के तुल्य भोगों से आपकी मति विरक्त हो गयी है, अब आप क्या सुनना चाहते हैं ? जिसे सुनने के लिए आप व्यग्र थे, आपके उस जिज्ञासित विषय को मैं आपसे कह चुका। इस समय क्या सुनने के लिए आप इच्छुक हैं ? उसे मुझसे कहिये। आपके पितृचरण व्यासजी सम्पूर्ण ज्ञानों के महासागर हैं()।
यह प्रशंसा निश्चय को दृढ़ करने के लिए है।
श्रीवेदव्यासजी का शिष्य मैं श्री व्यासजी से भी बढ़कर हूँ, क्योंकि उनके पुत्र और शिष्य आप मेरे शिष्य हुए हैं। आपमें भोगों की इच्छा इतनी अल्प मात्रा में है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उक्त भोगेच्छा की न्यूनता से आप मुझसे भी कहीं बढ़कर हैं।()।।37-40।।
इस श्लोक में भी जो प्रशंसा की गई है, वह भी निश्चय की दृढ़ता के लिए ही है।
ब्रह्मन्, आपको जो पाना था, उसे आप पा गये हैं। इस समय आपका चित्त परिपूर्ण है आप सब दृश्य वस्तु में निमग्न नहीं हैं, दृश्य वस्तु में निमग्न होना ही संसारपतन है, क्योंकि 'उदरमन्तरं कुरुते अथ तस्य भयं भवति' (जो तनिक भी आत्मा में भेद करता है उसे भय होता है) ऐसी श्रुति है। अतः आप मुक्त हो गये हैं, इसलिए कोई और भी ज्ञातव्य वस्तु है, ऐसी भ्रान्ति का त्याग कीजिए।।41।।
महात्मा जनक द्वारा आप सर्वव्यापक चिन्मय अद्वितीय परमात्मा हैं – यों उपदिष्ट श्री शुकदेवजी दृश्यरूप मल से रहित परमात्मा में चित्तसमाधानपूर्वक चुपचाप स्थित हो गये। उनके शोक, भय, खेद, सब नष्ट हो गये, इच्छा न मालूम कहाँ चली गयी एवं सब सन्देह कट गये। यों निस्संशय होकर श्री शुकदेवजी सात्त्विक देवताओं से आक्रान्त होने के कारण चित्तविक्षेप के हेतुओं के न रहने से समाधि के अनुकूल मेरु के शिखर पर समाधि के लिए गये। वहाँ वे दस हजार वर्ष तक निर्विकल्प समाधि लगाकर तेलरहित दीपक के समान परमात्मा में लीन हो गये-विदेहमुक्त हो गये। विषयासक्ति और उसके हेतु अज्ञान का विनाश होने से परम शुद्ध अतएव संचित और आगामी पुण्य और पाप के असंपर्क एवं विनाश में निर्मलस्वरूप और प्रारब्ध कर्मों का नाश होने के कारण अशुद्ध देह आदि की निवृत्ति होने से पावन हुए महात्मा श्रीशुकदेवजी निर्मल परमपावन परमात्मवस्तु में वासनारहित होकर जैसे जलबिन्दु समुद्र में मिल जाता है वैसे ही एकता को प्राप्त हो गये अर्थात् भेदक उपाधि के नष्ट होने पर वास्तव में अखण्डैक्य को प्राप्त हो गये।।42-45।।

पहला सर्ग समाप्त
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गुरुवार, 27 सितंबर 2012

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 24 (वैराग्य प्रकरण)


तैंतीसवाँ सर्ग
सभा में सिद्ध पुरुषों का शुभागमन और अपनी अपनी योग्यता के अनुकूल स्थान में बैठे हुए सिद्धों द्वारा श्रीरामचन्द्रजी के वचनों की प्रशंसा।


सिद्धों द्वारा की गई श्रीरामचन्द्रजी के वचनों की श्लाघा को ही विश्कलित कर रहे महामुनि वाल्मीकि जी प्रश्न के उत्तर को सुनने की उनकी अभिलाषा और सभाप्रवेश आदिका वर्णन करने के लिए इस सर्ग का आरम्भ करते हैं।
सिद्धों ने कहाः रघुकुलतिलक श्रीरामचन्द्रजी द्वारा उक्त इन पवित्रतम प्रश्नवाक्यों का महर्षि लोग जो निर्णय करेंगे, उसे अवश्य सुनना चाहिए। हे नारद, व्यास, पुलह आदि मुनिश्रेष्ठों और सम्पूर्ण महर्षियों, आप लोग उसे निर्विघ्न सुनने के लिए शीघ्र पधारो।।1-2।।
कल्याणकारी कार्यों में बहुत विघ्न उपस्थित हो जाते हैं, इसलिए विलम्ब करना उचित नहीं है, यह भाव है।
जैसे भँवरे कमलों से खचाखच भरे हुए, सुवर्ण के सदृश पीले केसर से दैदीप्यमान एवं पवित्र कमलों के तालाब में चारों ओर से जाते हैं, वैसे ही हम लोग भी पवित्रतम, धन-सम्पत्ति से परिपूर्ण अतएव सुवर्ण से चमचमा रही महाराज दशरथ कि इस सभा में चारों ओर से जायें।।3।। श्रीवाल्मीकिजी ने कहाः सिद्धों के यों कहने पर विमानों पर रहने वाले सम्पूर्ण दिव्य मुनिजन उस विशाल सभा में जहाँ पर श्रीरामचन्द्रजी आदि थे, उतरे। उनके आगे-आगे वीणा बजा रहे देवर्षि श्रीनारदजी थे और जल से पूर्ण मेघ के समान श्याम वेदव्यासजी उनके पीछे थे।।4,5।।
उन दोनों के मध्य में दिव्य मुनिजनों की परम्परा थी, यह आशय है।
उक्त दिव्य मुनिमण्डली भृगु, अंगिरा, पुलस्त्य आदि मुनीश्वरों से विभूषित थी और च्यवन, उद्दालक, उशीर, शरलोम आदि मुनिजनों से परिवेष्टित थी। परस्पर के संघर्ष से उनके मृगचर्म मुड़कर कुरूप हो गये थे, रूद्राक्ष मालाएँ हिल रही थीं और सुन्दर कमण्डलु उनके हाथ में सुशोभित हो रहे थे। आकाश में तेज (ब्रह्मवर्चस) के विस्तार से सफेद और लाल मुनियों की पंक्ति चमक रही तारागणों की पंक्ति के समान शोभित हो रही थी और परस्पर के तेज से उनके मुखमण्डल खूब दमक रहे थे अतएव वे सूर्यपंक्ति के सदृश प्रतीत होते थे। मुनिमण्डली ने परस्पर एक दूसरे के अंग-प्रत्यंग विविध वर्ण के कर रक्खे थे, अतएव वे विभिन्न रत्नों की राशि से दिखाई दे रहे थे। परस्पर एक दूसरे की शोभा बढ़ाने वाली मुनिमण्डली मुक्तावली के समान दिखाई दे रही थी, वह मुनिमण्डली क्या थी मानों दूसरी चाँदनी की छटा थी, दूसरी सूर्य – मण्डली थी और दीर्घकाल से एक स्थान में संचित पूर्णचन्द्रों की परम्परा थी। उस मुनिमण्डली में, तारागणों में सजल मेघ के समान एक और व्यास जी विराजमान थे, तारागणों में चन्द्रमा के सदृश दूसरी ओर नारद जी विद्यमान थे, देवताओं में देवराज के सदृश महर्षि पुलस्त्य विराजमान थे और देवमण्डल में सूर्य के समान अंगिरा विराजमान थे। उक्त सिद्धसेना के आकाश से पृथिवी पर आने पर महाराज दशरथ की वह सम्पूर्ण सभा उनके स्वागत के लिए उठ खड़ी हुई। एकत्र हुए अतएव एक दूसरे की छवि को धारण किये हुए और दशों दिशाओं को प्रकाशमय कर रहे वे आकाशचारी और भूमिचर अतिशोभित हुए। उनमें से किन्हीं के हाथ में बाँस की लाठियाँ थीं, किन्हीं के हाथ में लीला-कमल थे, किन्हीं के सिर में दूब के तिनके थे और किन्हीं के केशों में चूड़ामणियाँ चमक रही थी, कोई जटाजूटों से कपिल हो रहे थे, किन्हीं का मस्तक, मालाओं से वेष्टित था, किन्हीं की कलाई में रूद्राक्ष की मालाएँ थीं, किन्हीं के हाथ में मल्लिका का मालाएँ शोभित हो रही थीं, कोई चीर वल्कलधारी थे, कोई सूक्ष्म रेशमी वस्त्र पहिरे थे किन्हीं के अंग में मूंज की मेखलाएँ लटक रही थीं और कोई मुक्तहारों से अलंकृत थे। वसिष्ठ और विश्वामित्र ने अर्घ्य, पाद्य और मधुरवचनों द्वारा क्रमशः सभी आकाशचारियों की पूजा की। आकाशचारी उन सिद्धों ने भी श्रीवसिष्ठ और विश्वामित्रजी की अर्घ्य, पाद्य और मधुर वचनों द्वारा बड़े आदर के साथ पूजा की। तदुपरान्त महाराज दशरथ का सत्कार किया। पूर्वोक्त प्रेमोचित दान, सम्मान आदि के वेग से परस्पर आदर-सत्कार प्राप्त कर सब आकाशचारी सिद्ध महात्मा और भूमिचर अपने-अपने आसनों पर बैठ गये। सामयिक वार्तालाप, प्रशंसा और पुष्पवृष्टि द्वारा खूब सत्कार किया। पूर्वोक्त सिद्ध महात्माओं के मध्य में राज्यलक्ष्मी से विभूषित श्रीरामचन्द्रजी विराजान हुए और वसिष्ठ, वामदेव, सुयज्ञ आदि मन्त्री, ब्रह्मापुत्र श्रीनारदजी, मुनिश्रेष्ठ व्यासजी, मुनिवर मरीचि, दुर्वासा, अंगिरा, क्रतु, पुलस्त्य, पुलह, मुनिराज शरलोम, वात्स्यायन, भरद्वाज, वाल्मीकि, उद्दालक, ऋचीक, शर्याति, च्यवन आदि अनेक वेद और वेदांगों के पारंगत, तत्त्वज्ञानी महात्मा विराजमान हुए। वसिष्ठ और विश्वामित्रजी के साथ देवर्षि नारद आदि ने जो कि गुरुमुख से विधिपूर्वक सांग वेदों का अध्ययन किये हुए थे, विनय से नतमस्तक श्रीरामचन्द्रजी से यह वाक्य कहा थाः बड़े आश्चर्य की बात  है कि राजकुमार श्रीरामचन्द्रजी ने कल्याण गुणों से (कहे जाने वाले उत्तमोत्तम सोलह गुणों से) शोभायमान, वैराग्यरस से परिपूर्ण एवं बड़ी उदार वाणी कही। उक्त वाणी में ये इस प्रकार के और ऐसे ही है, यों विचारकर वक्तव्य अर्थ व्यवस्था के साथ निहित हैं, पदार्थों का तत्त्वबोध भी है अर्थात् केवल कपोल कल्पना से पदार्थों की व्यवस्था नहीं की गई है, अतएव यह विद्वानों की सभा में स्थान पाने योग्य है, इसके वर्ण बिल्कुल स्फुट हैं, यह वाणी उत्कृष्ट और विपुलभाव से गम्भीर है, हृदय कोआनन्द देने वाली है, पूज्य महात्माओं के योग्य है, चित्त की चंचलता आदि दोषों से रहित हैं, जैसे इसके वर्ण स्फुट हैं वैसे ही अर्थ भी स्फुट हैं, इसके सम्पूर्ण पद व्याकरण के नियमों से संस्कृत है, यह हिताकारिणी है, ग्रस्त आदि दोषों से रहित है और तृष्णा के विनाश से उत्पन्न संतोष की सूचक है। श्रीरामचन्द्रजी द्वारा उक्त यह वाणी किसको आश्चर्यमग्न नहीं करती ? सैंकड़ों में से किसी एक-आध की ही वाणी सम्पूर्ण वक्ताओं की अपेक्षा सर्वांश में उत्कृष्ट चमत्कार से परिपूर्ण अतएव अभीष्ट (विवक्षित) अर्थ को प्रकट करने में सर्वथा समर्थ होती है। राजकुमार, आपके बिना किस पुरुष की विवेकरूपी फल से सुशोभित, कुशाग्र के समान तीव्र प्रज्ञा विचार-वैराग्यरूपी पुष्प-पल्लवों से वृद्धि को प्राप्त होगी ? श्रीरामचन्द्रजी के समान जिसके हृदय में असाधारण रीति से पदार्थों के तत्त्व का प्रकाश करानेवाली या अध्यस्त देह, इन्द्रिय आदि के साम्य से पृथक् कृत आत्मा का प्रकाश कराने वाली प्रज्ञारूपी दीपकशिखा (दीपज्योति) प्रज्जवलित होती है, वही पुरुष है। और  तो पुरुषार्थ के लिए असमर्थ अतएव स्त्रीप्राय हैं। पूर्वोक्त प्रज्ञा से हीन पुरुष रक्त, मांस आदि यन्त्ररूप देह में आत्मबुद्धि होने से रक्त, मांस, अस्थि आदि यन्त्ररूप ही शब्द, स्पर्श आदि पदार्थों का उपभोग करते हैं, उनमें सचेतन आत्मा नहीं है, यों उनमें चार्वाकता ही सिद्ध होती है, यह भाव है। अथवा यदि उनमें कोई सचेतन होता, तो वह अवश्य पुरुषार्थ के लिए यत्न करता। वे यत्न नहीं करते, वे निरे पशु हैं, वे पुनः पुनः जन्म, मरण, जरा आदि दुःखों को प्राप्त होते हैं। जैसे शत्रुनाशक श्रीरामजी विमल अन्तःकरण वाले हैं, वैसे निर्मल अन्तःकरणवाला अतएव पूर्वापर का विचार करने वाला कहीं पर बड़ी कठिनाई से कोई विरला ही दिखाई देता है। जैसे लोक में उत्कृष्ट माधुर्यवाले फलों से लदे हुए मनोहर आकृतिवाले महापुरुष विरले ही हैं। जिससे जगत् का व्यवहार यथार्थरूप से देखा गया है ऐसा केवल स्वविवेक से ही तत्त्वदर्शन पर्यन्त चमत्कार आदरणीय बुद्धिवाले इसी राजकुमार में इसी अवस्था में देखा जाता है, यह महान् आश्चर्य है। देखने में सुन्दर, सरलता से चढ़ने के योग्य एवं फल फूल और पत्तों से सुशोभित वृक्ष सभी देशों  में होते है, पर चन्दन के वृक्ष सर्वत्र नहीं होते। फल और पल्लवों से पूर्ण वृक्ष प्रत्येक वन में सदा मिलते हैं, पर अपूर्व चमत्कार वाला लोंग का वृक्ष सदा सर्वत्र सुलभ नहीं है। जैसे चन्द्रमा से शीतल चाँदनी उत्पन्न होती है, जैसे वृक्ष से बौर उत्पन्न होते हैं और जैसे फूलों से सुगन्ध परम्परा उत्पन्न होती है, वैसे ही श्रीरामचन्द्रजी से यह चमत्कार देखा गया है। हे द्विजश्रेष्ठ, अत्यन्त दुष्टात्मा दैव (पूर्वजन्म के कर्म) या उसका अनुसरण करने वाले विधाता की सृष्टि से रचित इस निन्दित संसार में सार पदार्थ अत्यन्त दुर्लभ है। जो यशस्वी लोग सदा तत्त्व के विचार में तत्पर होकर सार पदार्थ की प्राप्ति के लिए यत्न करते हैं वे ही धन्य हैं, वे ही सज्जनशिरोमणि हैं और वे ही उत्तम पुरुष हैं। तीनों लोकों में श्रीरामचन्द्रजी के सदृश विवेकी एवं उदारचित्त न कोई है और न कोई होगा, ऐसा मेरा निश्चय है।।6-45।।
श्रीरामचन्द्रजी के मनोरथ की पूर्ति अवश्य करनी चाहिए, इस बात को उनकी प्रशंसारूप उत्तम अधिकार की प्राप्ति के प्रख्यान द्वारा कहकर उसकी अपेक्षा करने में दोष कहते हैं।
सम्पूर्ण लोगों को गुण, शील, विनय आदि द्वारा और समुचित प्रष्टव्य बातों के रहस्य के उदघाटन द्वारा आनन्दित करने वाले श्रीरामचन्द्रजी के चित्त का तत्त्वजिज्ञासारूप मनोरथ यदि हमारे जैसे ज्ञानियों के उपदेश से परिपूर्ण नहीं हुआ, तो ये हम लोग ही निश्चय हतबुद्धि होंगे अर्थात् हमारी अभिज्ञता निष्फल होगी, यह आशय है।।46।।

तैंतीसवाँ सर्ग समाप्त
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इति श्री योगवासिष्ठ हिन्दीभाषानुवाद में वैराग्य प्रकरण समाप्त।
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