दूसरा
सर्ग
श्रीरामचन्द्रजी
को उपदेश देने के लिए प्रार्थित श्रीवसिष्ठजी को श्रीविश्वामित्रजी का प्रोत्साहन
करना।
श्रीशुकदेव जी
की आख्यायिका की प्रकृत में संगति दिखला रहे एवं श्रीरामचन्द्रजी को उपदेश देने के
लिए श्रीवसिष्ठजी को उत्साहित कर रहे श्रीविश्वामित्रजी बोलेः श्रीरामचन्द्र, जिस
प्रकार व्यासपुत्र श्री शुकदेव जी के केवल मनोमालिन्य का मार्जन आवश्यक है।।1।।
पूर्वोक्त बात
का ही सम्पूर्ण मुनियों की सम्मति से समर्थन करने के लिए 'मुनीश्वराः' सब मुनियों
का संबोधन है।
हे मुनिवरों,
श्रीरामचन्द्रजी ने ज्ञातव्य वस्तु सम्पूर्णतया जान ली है, क्योंकि सुमति श्रीराम
को भोग रोगों की नाईं रूचिकर नहीं हो रहे हैं। जिसने ज्ञातव्य वस्तु को जान लिया
है, उसके मन का यही निश्चित लक्षण है कि उसको फिर सम्पूर्ण भोग भले नहीं लगते।
अज्ञान से उत्पन्न संसाररूपी बन्धन भोगों की वासना से दृढ़ हो जाता है और जगत् में
भोगवासना के शान्त होने पर बन्धन भी क्षीण हो जाता है।।2,3।। हे राम, विद्वान लोग
वासनाक्षय को 'मोक्ष' कहते हैं और विषयों में वासना की दृढ़ता को बन्ध कहते हैं
अर्थात् जितनी ही विषयवासना क्षीण होती जायेगी, उतना ही संसार से (बन्ध से)
छुटकारा मिलता जायेगा। वासना के सर्वथा क्षीण होने पर सर्वतः मुक्ति हो जाती है।
मुनिवरों, मनुष्य को आत्मतत्त्व का आपात ज्ञान (सामान्य ज्ञान) प्रायः अल्प श्रवण
आदि प्रयास से भी पाया जाता है, (अर्थात् अपरोक्ष दृकस्वरूप आत्मा का केवल दृश्य
विवेक से भी अच्छा परिचय प्राप्त हो जाता है) पर विषयों में विराग तो क्लेश से ही
होता है। जो व्यक्ति भलीभाँति (राग आदि से अप्रतिहत होकर) आत्मदर्शी होता है वही
यथार्थ आत्मज्ञानी (तत्त्वज्ञान से उत्पन्न अविद्याध्वंसरूपी फल वाला) है, वही
यथार्थ ज्ञातज्ञेय (ज्ञातव्य तत्त्व का ज्ञाता है) और वही पण्डित है। सामान्यरूप
से आत्मदर्शी पुरुष वैसा नहीं है, कारण कि उससे मूढ़ता बिलकुल नष्ट हो जाती। उक्त
महात्मा पुरुष को भोग हठात् अच्छे नहीं लगते। जिसे यश, पूजा, लाभ आदि उद्देश्यों
के बिना ही भोग अच्छे नहीं लगते वह सांसारिक जीवन्मुक्त कहलाता है, भाव यह कि दम्भ
से जो लोग भोग का त्याग किया जाता है, उससे इष्टसिद्धि नहीं होती।।4,5।।
वैराग्य, बोध और
उपरति की अभिवृद्धि में वैराग्य आदि परस्पर सहायक हैं, अतः ज्ञान के अतिशय परिपाक
से ही मूलोच्छेद होने के कारण आत्यान्तिक राग का नाश होता है, ऐसा कहते हैं।
जैसे मरूभूमि
में लता नहीं उगती वैसे ही जब तक ज्ञातव्य तत्त्व का ज्ञान नहीं होता तब तक विषयों
में वैराग्य नहीं होता।।9।।
इस प्रकार
व्यतिरेकप्रकर्ष से अन्वयप्रकर्ष लक्षित होता है, अर्थात् ज्ञातव्य तत्त्व का
ज्ञान होने पर ही विषयों में वैराग्य होता है, क्योंकि 'रसोऽप्यस्य परं दृष्टा
निवर्तते' ऐसा भगवान का वचन है।
मुनिवृन्द,
इसलिए आप लोग श्रीरामचन्द्रजी को निश्चय ज्ञातज्ञेय (जिसने ज्ञातव्य तत्त्व को जान
लिया है) जानिये, क्योंकि इन्हें ये मनोहर विषय अनुरंजित (प्रसन्न) नहीं कर रहे
हैं।।10।।
यदि
श्रीरामचन्द्रजी तत्त्वज्ञानी हैं, तो उन्हें उपदेश देने के लिए श्रीवसिष्ठजी की
वक्ष्यमाण (कही जाने वाली) प्रार्थना क्यों करते हैं, इस पर कहते हैं।
हे मुनिनायकों,
श्रीरामचन्द्रजी जिस तत्त्व को जानते हैं, उसे श्रीगुरुमुख से यही वस्तु है, ऐसा
सुनकर श्रीरामजी का चित्त अवश्य विश्रान्ति को प्राप्त होगा ही, अन्यान्य अधिकारी
पुरुष भी उपदेश सुनकर विश्रान्ति को प्राप्त होंगे। इस प्रकार सबके उपकार के लिए
हम वसिष्ठजी की प्रार्थना करते हैं, यह भाव है अथवा श्रीरामचन्द्रजी ने जिस तत्त्व
को स्वयं विचार से जाना है, उसमें उन्हें यही वस्तु है, ऐसा दृढ़ विश्वास न होने
के कारण वह अप्राप्त सा ही है, गुरुमुख से उसे सुनकर श्रीरामचन्द्रजी उसमें
विश्वास होने के कारण अवश्य चित्तविश्रान्ति(♥) को
प्राप्त होंगे।।11।। जैसे शरत्काल की शोभा मेघरहित निर्मल आकाशमात्र की अपेक्षा
करती है वैसे ही शरत्-शोभा के समान निर्मल श्रीरामचन्द्रजी की बुद्धि द्वैतनिरास
में विश्वास द्वारा केवल अद्वितीय चिन्मात्र के अवशेष की अपेक्षा करती है। यहाँ पर
महात्मा श्रीरामचन्द्रजी की चित्तविश्रान्ति के लिए ये श्रीमान् भगवान वसिष्ठजी
युक्ति का उपदेश देने की कृपा करें।।12,13।।
♥
अभिप्रायः यह है श्रीरामचन्द्रजी परमतत्त्व को जानते ही हैं लोकहित के लिए वे गुरु
उपदेश के प्रार्थी हैं। उनका आशय यह है कि इसी बहाने अन्यान्य अधिकारी जन भी उपदेश
सुनकर मेरी नाईं चित्तविश्रान्ति को प्राप्त हों। अथवा श्रीरामचन्द्रजी परमतत्त्व
क्या है ? इस बात को मन ही मन में खूब जानकर भी दृढ़ विश्वास के न होने के कारण
अनात्मज्ञ के समान असुखी हैं, उन्हें विश्वास दिलाने के लिए यही तत्त्व है, उपदेश
की आवश्यकता है। उपदेश देने के उपरान्त अविश्वास हट जायेगा और परम विश्रान्ति
प्राप्त हो जायेगी।
यदि प्रश्न हो
कि आप ही उपदेश क्यों नहीं देते ? तो इस प्रकार कहते हैं।
ये महात्मा
सम्पूर्ण रघुवंशियों के नियन्ता (शिक्षक) तथा कुलगुरु, सर्वज्ञ, सर्वसाक्षी एवं
तीनों कालों में मोह आदि से अनभिभूत हैं। भगवन् वसिष्ठजी, आपके और मेरे वैर को
शान्त करने के लिए और महामति मुनियों के कल्याण के लिए, देवदार के वृक्षों से
आवृत्त निषध पर्वत के शिखरपर, भगवान ब्रह्माजी ने स्वयं पहले जिस ज्ञान का उपदेश
दिया था, उसका आपको स्मरण है ? ब्रह्मन, जिस युक्तिपूर्वक ज्ञान से यह सांसारिक
वासना जैसे सूर्य के उदय से रात्रि नष्ट हो जाती है वैसे ही निस्सन्देह नष्ट हो
जाती है आप उसी उपपत्तियुक्त ज्ञातव्य वस्तु का समीप में स्थित (शिष्यभूत)
श्रीरामचन्द्रजी को शीघ्र उपदेश दीजिए, जिससे ये अवश्य विश्रान्ति को प्राप्त हो
जायेंगे।।14-18।। भगवन्, यह अल्पफल देने वाला महान् परिश्रम नहीं है।
श्रीरामचन्द्रजी निष्पाप हैं, अतः जैसे निर्मल दर्पण में प्रयत्न के बिना ही मुँह
प्रतिबिम्बित हो जाता है, वैसे ही श्रीरामचन्द्रजी को प्रयत्न के बिना तत्त्वबोध
प्राप्त हो जायेगा। सज्जनशिरोमणे, वही ज्ञान है, वही शास्त्रार्थ है और वही
प्रशंसनीय पाण्डित्य है, जिसका कि विरक्त सत्शिष्य के लिए उपदेश दिया जाता
है।।19,20।।
पात्र में यदि
उसका दान न किया जाय, तो व्यर्थ होने के कारण वह निन्दनीय ही होगा, यह भाव है।
वैराग्यशून्य
असत् शिष्य के लिए जो कुछ भी उपदेश दिया जाय, वह कुत्ते के चमड़े से बने पात्र में
रक्खे हुए गाय के दूध की नाईं अपवित्रता को प्राप्त हो जाता है। हे प्रभो, वीतराग,
भय तथा क्रोध से अपरोक्ष परमात्मतत्त्व में विश्रान्ति हो ही जाती है।।21,22।।
श्रीविश्वामित्रजी के यों कहने पर व्यास, नारद आदि सम्पूर्ण मुनियों ने भी उनके
कथन की साधुवादपूर्वक खूब प्रशंसा की। तदुपरान्त महाराज दशरथ की बगल में बैठे हुए
ब्रह्माजी के पुत्र अतएव ब्रह्माजी के समान महातेजस्वी महामुनि भगवान् वसिष्ठजी
बोले। भाव यह कि वसिष्ठजी ब्रह्माजी के पुत्र थे, अतएव ब्रह्माजी के तुल्य
महातेजस्विता आदि गुणगणों से विभूषित थे, इसलिए दिव्य मुनियों की मण्डली के सम्मुख
ब्रह्माजी की नाईं बोले।।24।।
श्रीवसिष्ठजी ने
कहाः मुनिवर, जिस कार्य के लिए आप मुझे आदेश देते हैं, उसे मैं निर्विघ्न करता
हूँ। सामर्थ्य होते हुए भी सन्तों के वचन को टालने की किसमें शक्ति है ? जैसे लोग
दीपक से रात्रि का अन्धकार दूर करते हैं, वैसे ही श्रीराम आदि राजकुमारों के
अन्तःकरण के अज्ञान को निषध पर्वत पर उपदेश दिया था, उसका मैं ज्यों का त्यों
आद्योपान्त स्मरण करता हूँ।।25,27।। वाल्मीकि जी ने कहाः महात्मा श्रीवसिष्ठजी यों
स्पष्टतया प्रतिज्ञा कर जैसे पहलवान् या नट भूषण, वस्त्र, अस्त्र-शस्त्र आदि
सामग्री को लेकर उद्यत होता हुआ शोभित होता है वैसे ही प्रबोधप्राप्ति द्वारा
शिष्य अनुरंजन में उपायभूत दृष्टान्त, उपाख्यान, प्रमाण और तर्क आदि का अनुसन्धान,
उत्साह आदि परिकरबन्धन से व्याख्याताओं के तेज को स्वीकार कर जगत की अज्ञानता का
विनाश करने के लिए मुख्यरूप से परमात्मा के बोधक शास्त्र को कहने लगे।।28।।
दूसरा सर्ग
समाप्त
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