मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 25 (मुमुक्षु-व्यवहार प्रकरण)



मुमुक्षु-व्यवहार प्रकरण

पहला सर्ग
विचार द्वारा स्वयं ज्ञात और पिता द्वारा उपदिष्ट तत्त्वज्ञान में विश्वास न कर रहे
श्री शुकदेवजी को जनक के उपदेश से विश्रान्तिप्राप्ति का वर्णन।
श्रीरामचन्द्रजी ने जिस शम, दम आदि साधनसम्पत्ति का वर्णन किया है, वह किस प्रकार से व्यवहार कर रहे मुमुक्षुओं को प्राप्त होती है और उससे किस प्रकार तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है, इस प्रकार प्रत्येक का विवेचन कर उनके उपदेश के लिए दूसरे मुमुक्षुव्यहवहारप्रकरण का आरम्भ करते हुए श्रीवाल्मीकि जी बोलेः इस प्रकरण में सर्वप्रथम, जिन्हें थोड़ा बहुत (अपरिपक्व) वैराग्य आदि में प्रवृत्ति न हो, यह दर्शाने के लिए श्री शुकदेव जी का आख्यायिका द्वारा साधन सम्पत्ति की दृढ़ता का स्वरूप दर्शा रहे 'आचार्यदैव विद्या विदिता साधिष्ठं पापत्' (आचार्य से ही ज्ञात विद्या श्रेष्ठतम होती है) इस श्रुति के अनुसार कुलगुरु श्रीवसिष्ठजी को, श्रीरामचन्द्रजी को उपदेश देने के लिए, इतिहास स्मरण और तत्त्वोपदेश की भूमिका द्वारा उत्साहित कर रहे एवं स्वप्रयोजन सिद्धिरूप श्रवण के लिए शीघ्रता कर रहे श्रीविश्वामित्र ही पहले बोले, ऐसा कहते हैं।
सभा में आये हुए सिद्धों द्वारा बड़े दीर्घ स्वर से पूर्वोक्त वचन कहने पर अपने सामने स्थित एवं अधिकार की सीमा में स्थित श्रीरामचन्द्रजी से श्रीविश्वामित्रजी प्रीतिपूर्वक() बोलेः हे ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ रामचन्द्र, तुम्हारे लिये और ज्ञातव्य कुछ भी नहीं है, अर्थात् जो तुम्हें ज्ञात न हो और अवश्य ज्ञातव्य हो, ऐसी कोई वस्तु नहीं है।
मुख्य अधिकारी दुर्लभ है, इसलिए रामचन्द्रजी में श्रीविश्वामित्रजी की प्रीति हुई और वे स्वयं ब्रह्मविद्या के महान् रसज्ञ थे, इसलिए आगे कही जाने वाली ब्रह्मविद्या की चर्चा में उनकी प्रीति थी, अतएव वे प्रीति से बोले।
तुम सार और असार का विवेचन करने में अति दक्ष अपनी बुद्धि से सम्पूर्ण हेयोपादेयरहस्य को जान चुके हो अर्थात् उक्त बुद्धि से तुम्हें परमार्थसारभूत अखण्ड अद्वितिय चिदघन परमात्मतत्त्व भी ज्ञात हो गया है।।1,2।।
यदि उक्त परमात्म तत्त्व का ज्ञान हो गया हो, तो विश्रान्ति क्यों नहीं प्राप्त हुई ?
स्वभावतः निर्मल तुम्हारे बुद्धिरूपी दर्पण में केवल तनिक अविश्वास और सन्देहरूपी मलिनता के निराकरण की आवश्यकता है, क्योंकि अपनी बुद्धि से परमात्मतत्त्व ज्ञात होने पर भी शास्त्र और आचार्य आदि के संवाद के बिना विश्वास नहीं होता। कहा भी है कि 'बलवदपि शिक्षितानामात्मन्यप्रत्ययं चेतः' (भली भाँति शिक्षित लोगों का भी चित्त अपने विषय में विश्वास नहीं करता)। भगवान वेदव्यास जी के सुपुत्र श्रीशुकदेव जी की() बुद्धि की नाईं तुम्हारी बुद्धि ने भी ज्ञातव्य वस्तु को जान लिया है।
यहाँ पर श्रीवेदव्यासजी और श्रीशुकदेव जी पूर्व द्वापर के अन्त में उत्पन्न हुए लिये जाते हैं क्योंकि प्रत्येक द्वापर के अन्त में व्यास जी का अवतार होता है, यह प्रसिद्ध है।
अब केवल मात्र विश्रान्ति की उसे अपेक्षा है।।3,4।। श्रीरामचन्द्रजी ने कहाः भगवन् श्री व्यासजी के पुत्र श्रीशुकदेवजी की अपने ही विचार से ज्ञातव्य तत्त्व में कैसे विश्रान्ति नहीं हुई और गुरु के उपदेश द्वारा प्राप्त संवादिनी बुद्धि से फिर कैसे उनको विश्रान्ति प्राप्त हुई ?।।5।। श्रीविश्वामित्रजी ने कहाः हे रामचन्द्र, मैं तुमसे श्रीव्यासजी के पुत्र शुकदेव जी का जीवनवृतान्त कहता हूँ, तुम इसे सुनो। यह तुम्हारे जीवनवृतान्त के तुल्य है और सुनने वालों के मोक्ष का कारण है। जो  ये अंजन पर्वत के सदृश और सूर्य के समान तेजस्वी श्रीव्यासदेव जी तुम्हारे पिता जी के बगल में सुवर्ण के आसन पर बैठे हैं, इनका चन्द्रमा के समान सुन्दर, महाबुद्धिमान, सर्वशास्त्रज्ञ और मूर्तिमान् यज्ञ के सदृश शुकदेवनामक पुत्र हुआ। तुम्हारे समान अपने हृदय में सदाबारबार इस लोकयात्रा का(संसारीस्थिति का) विचार कर रहे उनके हृदय में भी ऐसा ही विवेक उत्पन्न हुआ। वे महामनस्वी श्रीशुकदेवजी अपने उस विवेक से चिरकाल तक भलीभाँति विचारकर परमार्थ सत्यरूप अद्वितीय, चिदघन परमात्मतत्त्व को प्राप्त हो गये। स्वयं प्राप्त परमात्मतत्त्वस्वरूप वस्तु में उनका मन विश्रान्त नहीं हुआ, उन्हें आत्मतत्त्व में, यही वस्तु है, ऐसा विश्वास नहीं हुआ। विश्वास न होने से विश्रान्ति भी नहीं मिली। विश्रान्ति न मिलने में अविश्वास ही कारण है। जैसे वर्षा की भिन्न जलधाराओं में चातक प्रीति नहीं करता, उनसे विरत रहता है, वैसे ही केवल उनका मन चंचलता का त्यागकर जन्म-मरणरूपी महान दुःख के कारण विषयभोगों से विरक्त हो गया। एक समय निर्मलमति शुकदेवजी ने मेरू पर्वत पर एकान्त स्थान में बैठे हुए अपने पिता श्रीकृष्णद्वैपायन जी से बड़े भक्ति भाव के साथ पूछाः पूज्यतम, यह संसाररूपी आडम्बर(‡) किस क्रम से उत्पन्न हुआ, कब यह उच्छिन्न होता है, यह कितना बड़ा है, कितने काल तक रहेगा और यह संसार है किसका ? क्या देह का है या इन्द्रियों का है या मन का है अथवा प्राण का है या देहेन्द्रियादिसंघात का है या उनसे अन्य विकारी का है अथवा निर्विकार चिन्मात्र का है ?।।6-14।।
‡ अन्य की वंचना के लिए की गई कृत्रिम चेष्टा आडम्बर है।
पुत्र द्वारा यों पूछे जाने पर आत्मतत्त्वज्ञ महामुनि श्रीव्यासजी ने अपने पुत्र से सम्पूर्ण वक्तव्य आद्योपान्त भलीभाँति कहा। पिताजी के उपदेश के अनन्तर श्री शुकदेव जी ने यह सब तो मैं पहले ही जानता था, इससे कुछ अपूर्व बात नहीं ज्ञात हुई, यह सोचकर पिताजी के वाक्य का शुभबुद्धि से विशेष आदर नहीं किया। भगवान् व्यासदेव जी ने भी पुत्र का ऐसा अभिप्राय जानकर उनसे फिर कहाः मैं उक्त तत्त्व से अतिरिक्त तत्त्व को नहीं जानता। पृथिवी में जनक नाम के महाराज हैं, वे ज्ञातव्य तत्त्व को भलीभाँति जानते हैं, उनसे तुम वेद्य (जानने योग्य) आत्मतत्त्व को भलीभाँति जान पाओगे।।15-18।।
पिताजी के यों कहने पर श्रीशुकदेव जी सुमेरू पर्वत से पृथिवी में आये और महाराज जनक से संरक्षित विदेहनगरी में पहुँचे। द्वारपालों ने महात्मा जनक को सूचना दी कि राजन्, दरवाजे पर वेदव्यासजी के सुपुत्र श्रीशुकदेवजी स्थित हैं। जनक शुकदेव जी का चरित सुन चुके थे, अतएव सहसा उपदेश देने में श्रीव्यासजी का वाक्यों का जैसे अनादर किया वैसे ही मेरे उपदेश का अनादर होने से उनकी अनुकृतार्थता न हो, यह विचारकर उनके वैराग्य आदि साधनों की और विश्वास की स्थिरता की परीक्षा के लिए उपेक्षा के साथ, अच्छा, आये हैं, तो क्या हुआ ? रहें। ऐसा कहकर सात दिन तक चुपचाप रह गये। सात दिन के अनन्तर उन्होंने शुकदेव जी को घर के आँगन के अन्दर प्रवेश कराने की अनुमति दी, वहाँ पर भी पूरे सात दिन तक वैसे ही उन्मना अर्थात् तत्त्वजिज्ञासा की उत्कण्ठा से अनादर की ओर कुछ ध्यान न देकर बैठे रहे। तदुपरान्त जनक ने शुक को अन्तःपुर में प्रवेश कराने की आज्ञा दी। वहाँ पर भी जब तक तुम्हारी भोजन आदि द्वारा पूजा नहीं हो जाती तब तक राजा नहीं दिखाई देंगे, इस बहाने से राजा ने चन्द्रमा के सदृश सुन्दर मुखवाले शुकदेवी का अन्तःपुर में यौवनमदमत्त स्त्रियों द्वारा विविध भोगपूर्ण भोजनों से सात दिन तक लालन पालन किया। जैसे मन्द वायु बद्धमूल वृक्ष को नहीं उखाड़ सकता, वैसे ही वे भोग, वे दुःख व्यासदेव जी के पुत्र के मन को विकृत न कर सके। वहाँ पर पूर्ण चन्द्र के सदृश सुन्दर श्रीशुकदेवजी भोग और अनादर में समान (हर्ष-विषादरहित) अतएव स्वस्थ, वागादि इन्द्रियों को अपने वश में किए हुए एवं प्रसन्नमन रहे। इस प्रकार परीक्षा द्वारा श्रीशुकदेवजी के तत्त्वज्ञान होने तक स्थिर रहने वाले विचार, वैराग्य आदि की दृढ़तारूपी स्वभाव को जानकर राजा जनक ने आदर से समीप में लाये गये प्रसन्नचित्त श्री शुकदेव जी को देखकर प्रणाम किया।।19-27।। राजा ने बड़ी शीघ्रता से शुकदेव का स्वागत करते हुए कहाः महाभाग, आपने जगत में प्रसिद्ध परमपुरुषार्थ के साधनभूत आवश्यक सभी कार्य कर डाले हैं, अतएव आप कृतकृत्य हैं। भगवन, सम्पूर्ण सुखलव आत्मसुख के अन्तर्गत हैं, आत्मसुख के प्राप्त हो जाने से ही आपके सभी मनोरथ सिद्ध हो गये हैं। आपकी क्या इच्छा है ?
श्रीशुकदेव जी ने कहाः गुरुदेव, यह संसाररूपी आडम्बर किस क्रम से उत्पन्न हुआ है और कैसे इसका उच्छेद होता है, यह भली भाँति मुझसे कहिए।।28,29।। श्रीविश्वामित्रजी ने कहाः यों पूछने पर जनक ने  श्रीशुकदेवजी से उसी तत्त्व का उपदेश दिया जिसका कि पहले उनके पिता महात्मा श्रीवेदव्यास जी ने दिया था। श्रीशुकदेव जी ने कहाः मैंने यह बात अपने विवेक से पहले ही जान ली थी और जब मैंने अपने पिता जी से पूछा, तो उन्होंने भी यही कहा। हे वक्ताओं में श्रेष्ठ महाराज, आपने भी यही बात कही। सम्पूर्ण उपनिषदों में स्थित महावाक्यों का भी यही अखण्ड वाक्यार्थ उपनिषद के तात्पर्य का निर्णय करने वाले सूत्र, भाष्य आदि शास्त्रों में दिखाई देता है। वह यह कि निन्दित संसार अन्तःकरण से उत्पन्न हुआ है और अन्तःकरण का आत्यान्तिक विनाश होने से नष्ट हो जात है, अतः यह निस्सार है, ऐसा तत्त्वज्ञानियों का निश्चय है(ф)।।30-33।।
ф उक्त श्लोक का विशद अर्थ यों हैः स्व में अज्ञान से उपहित आत्मा में विविध प्रकार के प्रपंच की कल्पना करने वाला विकल्प है अर्थात् अन्तःकरण, जो कि अनन्त काम, कर्म और वासनाओं के बीजों से परिपूर्ण है, सुषुप्ति अवस्था में केवल समष्टि तथा व्यष्टि संस्कारों से अवशिष्ट रहकर अव्याकृत में लीन हो जाता है और जीवभाव की उपाधि है। उस अन्तःकरण से प्रलय-क्रम से विपरीत क्रम से अर्थात् पहले अपंचीकृत आकाश आदि की उत्पत्ति के क्रम से समष्टिहिरण्यगर्भरूप से, तदनन्तर पंचीकरण द्वारा विराटरूप से, तदुपरान्त अन्नादि के क्रम से व्यष्टिस्थूलदेहरूप से और उसके अन्दर व्यष्टि लिंगदेहरूप से आविर्भूत हुआ यह निन्दित संसार महाअनर्थरूप है। यह केवल कर्म और उपासना के अनुष्ठान से व्यष्टिभाव की जननी वासना का विनाश होने पर समष्टिहिरण्यगर्भरूप से अवशिष्ट रहता है तथा श्रवण आदि के परिपाक से उत्पन्न तत्त्वसाक्षात्कार से वासनासहित कार्यकारणरूप अविद्या का नाश होने पर मूलोच्छेदपूर्वक अन्तःकरण का आत्यान्तिक विनाश होने के कारण सर्वथा नष्ट हो जाता है। मूलस्थित दग्धशब्द निन्दा का वाचक है।
अथवा-स्वप्रकाशरूप आत्मा में तीनों कालों में बाधित होने और मिथ्या होने के कारण यह संसार प्रथमतः दग्धप्राय अतएव निस्सार है, फिर साक्षात्काररूपी प्रलयाग्नि से, चारों ओर से परिवेष्टित होने पर कैसे रह सकता है, यह भाव है।
श्री शुकदेव जी ने कहाः हे महाबाहो, जिसे मैंने स्वयं ही पहले विचार द्वारा जाना है, क्या वही सत्य तत्त्व है ? यदि वही सत्य तत्त्व है, तो वह जिस प्रकार निःसन्देहरूप से मेरे हृदय में जम जाय, उस प्रकार उसका मुझे उपदेश दीजिए। यह तत्त्वपदार्थ है या वह तत्त्वपदार्थ है, यों अविश्वास से नाना विषयों में चक्कर काट रहे चित्त ने मुझे भ्रम में डाल रक्खा है। चित्त द्वारा इस जगत में भ्रमित मैं आपसे शान्ति लाभ कर सकूँगा।।34।। श्रीजनक जी ने कहाः मुनिश्रेष्ठ, आपने स्वयं विचारपूर्वक जिस तत्त्व को जाना है और जिसका गुरुमुख से श्रवण किया है, उससे अतिरिक्त दूसरा कोई ज्ञातव्य तत्त्व नहीं है।।35।।
दृढ़ निश्चय होने के लिए पुनः उसी बात को कहते हैं।
हे शुकदेव, इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सर्वव्यापक, चिन्मय एकमात्र परम पुरुष परमात्मा ही है, उसके सिवा अन्य कुछ नहीं है। वही अद्वितीय परमात्मा अपने संकल्प से संसाररूप बन्धन में पड़ा है और जब वह संकल्प रहित हो जाता है तब मुक्त हो जाता है।।36।। मुनिश्रेष्ठ, आपने ज्ञातव्य तत्त्व को भली भाँति जान लिया है। आप बड़े महात्मा हैं, क्योंकि आपको तत्त्वनिश्चयदशा में भोग भोगने से पूर्व ही सम्पूर्ण दृश्य प्रपंच से वैराग्य हो गया है। भगवन्, आप बालक होते हुए भी विषयों के त्याग में शूरवीर होने  के कारण महावीर हैं, अतएव दीर्घरोग के तुल्य भोगों से आपकी मति विरक्त हो गयी है, अब आप क्या सुनना चाहते हैं ? जिसे सुनने के लिए आप व्यग्र थे, आपके उस जिज्ञासित विषय को मैं आपसे कह चुका। इस समय क्या सुनने के लिए आप इच्छुक हैं ? उसे मुझसे कहिये। आपके पितृचरण व्यासजी सम्पूर्ण ज्ञानों के महासागर हैं()।
यह प्रशंसा निश्चय को दृढ़ करने के लिए है।
श्रीवेदव्यासजी का शिष्य मैं श्री व्यासजी से भी बढ़कर हूँ, क्योंकि उनके पुत्र और शिष्य आप मेरे शिष्य हुए हैं। आपमें भोगों की इच्छा इतनी अल्प मात्रा में है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उक्त भोगेच्छा की न्यूनता से आप मुझसे भी कहीं बढ़कर हैं।()।।37-40।।
इस श्लोक में भी जो प्रशंसा की गई है, वह भी निश्चय की दृढ़ता के लिए ही है।
ब्रह्मन्, आपको जो पाना था, उसे आप पा गये हैं। इस समय आपका चित्त परिपूर्ण है आप सब दृश्य वस्तु में निमग्न नहीं हैं, दृश्य वस्तु में निमग्न होना ही संसारपतन है, क्योंकि 'उदरमन्तरं कुरुते अथ तस्य भयं भवति' (जो तनिक भी आत्मा में भेद करता है उसे भय होता है) ऐसी श्रुति है। अतः आप मुक्त हो गये हैं, इसलिए कोई और भी ज्ञातव्य वस्तु है, ऐसी भ्रान्ति का त्याग कीजिए।।41।।
महात्मा जनक द्वारा आप सर्वव्यापक चिन्मय अद्वितीय परमात्मा हैं – यों उपदिष्ट श्री शुकदेवजी दृश्यरूप मल से रहित परमात्मा में चित्तसमाधानपूर्वक चुपचाप स्थित हो गये। उनके शोक, भय, खेद, सब नष्ट हो गये, इच्छा न मालूम कहाँ चली गयी एवं सब सन्देह कट गये। यों निस्संशय होकर श्री शुकदेवजी सात्त्विक देवताओं से आक्रान्त होने के कारण चित्तविक्षेप के हेतुओं के न रहने से समाधि के अनुकूल मेरु के शिखर पर समाधि के लिए गये। वहाँ वे दस हजार वर्ष तक निर्विकल्प समाधि लगाकर तेलरहित दीपक के समान परमात्मा में लीन हो गये-विदेहमुक्त हो गये। विषयासक्ति और उसके हेतु अज्ञान का विनाश होने से परम शुद्ध अतएव संचित और आगामी पुण्य और पाप के असंपर्क एवं विनाश में निर्मलस्वरूप और प्रारब्ध कर्मों का नाश होने के कारण अशुद्ध देह आदि की निवृत्ति होने से पावन हुए महात्मा श्रीशुकदेवजी निर्मल परमपावन परमात्मवस्तु में वासनारहित होकर जैसे जलबिन्दु समुद्र में मिल जाता है वैसे ही एकता को प्राप्त हो गये अर्थात् भेदक उपाधि के नष्ट होने पर वास्तव में अखण्डैक्य को प्राप्त हो गये।।42-45।।

पहला सर्ग समाप्त
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