छठा
सर्ग
जहाँ
प्रयत्न करने पर भी कार्य विनाश होने पर प्रबल दैव कार्य विनाशक माना जाता है,
वहाँ पर विघातक अन्य पुरुष का प्रयत्न ही 'दैव' शब्द से कहा जाता है अथवा अपना
प्राक्तन बलवान पौरुष ही दैव कहा जाता है।
श्रीवसिष्ठजी ने
कहाः श्रीरामचन्द्र पौरुष से अतिरिक्त दैव कोई वस्तु नहीं है, इसलिए पूर्वजन्म में
किया गया पुरुषप्रयत्न ही दैव है। अतएव मैं दैव के आधीन हूँ, स्वतन्त्र नहीं हूँ,
ऐसी बुद्धि का सज्जन संगति एवं सत्शास्त्र के अभ्यास से सर्वथा परित्याग कर
अधिकारी मनुष्य को इस संसार सागर से अपना उद्धार करना चाहिए। जैसा जैसा प्रयत्न
होगा वैसा वैसा शीघ्र फल होगा, इसी का नाम पौरुष है और उसी को दैव भी कहते हैं,
दैव और पौरुष में कोई अन्तर नहीं है। जैसे दुःख के समय में दुःख से 'हा कष्ट' कहा
जाता है, वैसे ही 'हा कष्ट' शब्द से कहा जाता है और वही 'दैव' है। दैव अपने
प्राक्तन कर्म से भिन्न नहीं है। जैसे प्रबल पुरुष बालक को जीत लेता है, वैसे ही
वह भी प्रबल पौरुष से जीता जा सकता है। जैसे कल का दुराचरण आज के सुन्दर सदाचरण से
शुभता को प्राप्त होता है, वैसे ही प्राक्तन अशुभ कर्म की अशुभता वर्तमान शुभ कर्म
से नष्ट हो जाती है। जो लोग तुच्छ विषयसुख के लोभ में पड़कर प्राक्तन कर्मरूपी दैव
को जीतने के लिए प्रयत्न नहीं करते तथा सदा दैव के भरोसे बैठे रहते हैं, वे बेचारे
पामर और मूर्ख हैं।।1-6।।
जहाँ कहीं दैव
की प्रबलता प्रसिद्ध है, वहाँ पर भी पौरुष की ही प्रबलता है, यह कहते हैं।
यदि कहीं पर
पुरुषप्रयत्न से किया गया कर्म दैव से (भाग्य से) विनष्ट हो जाय, तो वहाँ पर भी
नाश करने वाले को पौरुष को बलवत्तर समझना चाहिए।।7।।
पुरुष के अधीन
जो विषय हैं, उन्हीं में ऐसा हो सकता है, जो पुरुष के अधीन नहीं है, वे तो दैव पर
ही निर्भर हैं – इस पर कहते हैं।
जहाँ एक टहनी
में लगे हुए दो फलों में एक फल खोखला (रसशून्य) होता है वहाँ पर उसके रस का उपभोग
करने वाले मनुष्य या कीड़े आदि का, पूर्वजन्म का या इस जन्म का प्रयत्न ही (पौरुष
ही) उसके रस का विनाशक होता है। यहाँ पर जगत में संसिद्ध पदार्थ भी विनाश को
प्राप्त हो जाते हैं, वहाँ पर विनाश करने वाले का प्रयत्न अधिक बलवान है, यह समझना
चाहिए। पूर्वजन्म के और इस जन्म के कर्म (पौरुष) दो भेड़ों की भाँति परस्पर लड़ते
हैं, उनमें जो बलवान होता है, वही दूसरे को क्षणभर में पछाड़ देता है। राजवंश के न
रहने पर मन्त्री आदि द्वारा प्रेरित अलंकृत हाथी किसी भिक्षुक को लाकर जो बलात्
राजा बना देता है, वह मन्त्री, हाथी और नगरवासियों के प्रयत्न का महान् बल है। भाव
यह कि भिक्षुक का राज्य प्राप्ति के अनुकूल पूर्वजन्म का पुण्य होने पर भी मन्त्री
आदि का पौरुष भी उसमें अन्यतर कारण कहा जा सकता है। यदि मन्त्री लोक हाथी को भेजना
आदि उद्योग न करते, तो भिक्षुक का लड़का कदापि राजा न हो सकता। निस्सन्देह
मंत्रियों को पुरुषप्रयत्न भिक्षुक के राज्यलाभ में सहकारी कारण है और भिक्षुक का
बलवान पुण्य मुख्य कारण है। यह अवश्य स्वीकार करना होगा कि पुरुषप्रयत्न ही एक ऐसी
चीज है जो साधारण व्यक्ति को भी बड़ा से बड़ा पद प्रदान कर सकती है। जैसे
पुरुषप्रयत्न से भक्षण करने योग्य अन्न को मुँह में दबाकर फिर दाँतों से चूर चूर
किया जाता है वैसे ही बलवान पुरुष पौरुष का अवलम्बन कर दुर्बल को पीस डालता है। अतः
प्रयत्नशील महाबली पुरुषों के अल्प बलवाले पुरुष उपभोग होते हैं, इसलिए वे उनको
ढेले के सदृश अपनी इच्छानुसार कर्म में नियुक्त करते हैं। असमर्थ और अल्पबुद्धि
पुरुष बलवान् और बुद्धिमान् पुरुष के पौरुष को तत् तत् पुरुषप्रयत्न को, चाहे वह
दृश्य हो चाहे अदृश्य, अपनी अज्ञानता के वश उसे 'दैव' या अदृष्ट समझता है। उन
समर्थ प्राणियो में जो अधिक बलवान प्राणी होता है, वह औरों का नियन्ता होता है, यह
बात सभी विद्यमान प्राणियों में परस्पर स्पष्ट है, दैव कोई वस्तु नहीं है, यह
निश्चित है। भाव यह कि पूर्वोक्त समर्थ पुरुषों की अपेक्षा अधिक समर्थ अन्य पुरुष
भी हैं, वे उनके ऊपर शासन करते हैं। अतएव वर्तमान प्राणियों में इस प्रकार
पुरुषप्रयत्न ही दिखाई देता है, उससे अन्य कुछ नहीं दिखाई देता। अतः दैव कोई
पदार्थ नहीं है, यही समझना युक्तियुक्त है। शास्त्र, मन्त्री, हाथी और नगरवासियों
की एकमत्य को प्राप्त हुई स्वाभाविक बुद्धि ही भिक्षुक को राजा बनाने वाली और
प्रजा की रक्षिका है।।8-16।।
अन्य के पौरुष
से अन्य को फल की प्राप्ति होने पर व्यभिचार की आशंका कर कहते हैं।
अथवा, जहाँ कहीं
अलंकृत हाथी से भिक्षुक राजा बनाया जाता है, वहाँ पर भिक्षुक का पूर्वजन्म का
प्रबल पौरुष भी कारण है। इस जन्म में किया गया प्रबल पुरुषप्रयत्न अपने बल से
पूर्वजन्म के पौरुष को नष्ट कर देता है और पूर्वजन्म का प्रबल पौरुष इस जन्म के
पौरुष को अपने बल से नष्ट कर देता है। वही पौरुष सदा विजयी होता है, जो उद्वेग से
रहित है। इसी जन्म का ही पौरुष उद्वेगशून्य हो सकता है, पूर्वजन्म का नहीं,
क्योंकि वह पहले ही विच्छिन्न हो चुका है, यह भाव है।।17,18।। दोनों (ऐहिक और
प्राक्तन) पौरुषों में से ऐहिक पौरुष ही प्रत्यक्षतः बलवान है, इसलिए जिस प्रकार
युवक द्वारा बालक जीता जा सकता है, वैसे ही इस जन्म के प्रयत्नों द्वारा दैव
(पूर्वजन्म का प्रयत्न) जीता जा सकता है।।19।।
ओले आदि गिरने
से खेती के विनाश आदि में इससे विपरीत ही (पौरुष से दैव ही प्रबल) देखा जाता है,
ऐसी आशंका करके उक्त दृष्टान्त भी हमारे अभीष्ट की ही सिद्धि करता है, ऐसा कहते हैं।
जैसे मेघ
किसानों द्वारा वर्ष भर में कमाई गई खेती को एक ही दिन में विनष्ट कर देता है, यह
मेघ का ही पुरुषार्थ है, वैसे ही और जगह भी समझना चाहिए जो अधिक प्रयत्न करता है,
उसकी जीत होती ही है। वस्तुतः तो वहाँ पर भी किसान का पूर्व जन्म का पुरुषप्रयत्न
ही अदृष्ट कारण है। क्रमशः उपार्जित धन का विनाश हो जाने पर भी खेद नहीं करना चाहिए
जहाँ पर अपना कुछ वश नही चलता, वहाँ पर क्या खेद करना ? वहाँ पर पुनः उद्योग करना
ही उचित है। जिस कार्य को हम लोग कर नहीं सकते, जो हमारी शक्ति के बाहर है, उसके
लिए यदि हम दुःख करें, तो हमने मृत्यु का विनाश नहीं किया, वह कभी न कभी हमें मार
डालेगा, यों सोच कर प्रतिदिन रोना चाहिए। इस संसार के सम्पूर्ण पदार्थ देश, काल,
क्रिया और द्रव्य के अनुसार स्फूर्ति को प्राप्त होते हैं, जिस विषय में मनुष्य
अधिक प्रयत्न करता है, उसमें विजयी होता है।।20-23।।
जिस देश में जिस
काल में प्रयत्न विफल हो जाय, उसका त्याग कर दूसरे देश में, दूसरे काल में, दूसरी
क्रिया से और दूसरे द्रव्य से पुनः प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि पूर्व आदि दिशाओं
में विघ्न आने पर भी श्रीविश्वामित्रजी के तप की उत्तर दिशा में सिद्धि हुई थी, यह
तात्पर्य है।
इसलिए अधिकारी
मनुष्य को पुरुषार्थ का अवलम्बन कर, सत् शास्त्रों के अभ्यास और सत्संगति द्वारा
बुद्धि को निर्मल बना कर संसाररूप सागर से अपना उद्धार करना चाहिए। ये इस जन्म और
पूर्व जन्म के दोनों पौरुष पुरुषरूपी अरण्य में उत्पन्न फल देने में समर्थ वृक्ष
हैं, उनमें से जो अधिक बलवान होता है, वह विजयी होता है। यहाँ पर जड़ का उच्छेद
होने से एक के सूखने पर दूसरे का उगना जय है। जो पुरुष अपने ऐहिक शुभ कर्मों से
पूर्वजन्म के तुच्छ कर्म का विनाश नहीं करता, वह अज्ञानी जीव अपने सुख और दुःख में
असमर्थ है, भाव यह कि ऐसे लोग अपने दुःख के परिहार और सुख के उत्पादन में अत्यन्त उदासीन हैं। वह
पुरुष ईश्वर की प्रेरणा से पुण्य और पाप के बिना ही स्वर्ग अथवा नरक को जाता है,
वह सदा पराधीन रहता है, वह सचमुच पशु ही है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो
पुरुष उदार स्वभाव से प्रयत्न करने में कुशल और सदाचारी हैं, वे पुरुष जैसे सिंह
अपने उद्यम से पिंजड़े से निकल जाता है, वैसे ही जगन्मोह से निकल जाते हैं। जो
पुरुष कर्म का त्यागकर कोई पुरुष (ईश्वर) मुझे प्रेरित कर रहा है, इस प्रकार
अनर्थकारिणी कुकल्पना में स्थित है, उसका दूर से ही त्याग कर देना चाहिए, वह नराधम
है।।24-29।।
(शंका-
एष ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेम्यो लोकेभ्य उन्निनीषते (यही उस पुरुष से अच्छे
कर्म करवाता है, जिसका इस लोक से उद्धार करने की इच्छा करता है) य आत्मनि तिष्ठन्
आत्मनमन्तसे यमयति (जो अन्तर्यामी आत्मा में स्थित होकर आत्मा का नियन्त्रण करता
है), ईश्वरः सर्वभूतानां हृदेशेऽर्जुन तिष्ठति (हे अर्जुन, ईश्वर सब प्राणियों के
हृदय में स्थित है) इत्यादि श्रुति और स्मृतियों से विरुद्ध ईश्वर का अपलाप कर जीव
की स्वतन्त्रता कैसे कहते हैं ?
समाधान- आप भी
'यथाकारी यथाचारी तथा भवति तथा भवति साधुकारी साधुर्भवति पापकारी पापो भवति (जैसा
करता है वैसा होता है, साधुकर्मकारी साधु होता है और पापकर्मकारी पापी होता है),
'यजेत् जुहुयाद् दद्यात्' (यज्ञ करें, हवन करें, दान दें) 'कर्त्ता,
शास्त्रार्थवत्वात्' (आत्मा कर्त्ता है, क्योंकि कर्त्ता को अपेक्षित उपायों का
बोध कराने वाला विधिशास्त्र निरर्थक हो जायगा), 'न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य
सृजति प्रभुः' (ईश्वर जीवों के न कर्तृत्व की सृष्टि करते हैं और न कर्मों की
सृष्टि करते हैं) इत्यादि श्रुति और स्मृति से विरुद्ध जीव की परतन्त्रता का
प्रतिपादन कैसे करते हैं ? अस्वतन्त्र जीव कर्ता नहीं हो सकता, क्योंकि यदि
अस्वतन्त्र को कर्ता मानेंगे, तो 'स्वतन्त्रः कर्ता' इस शास्त्र से विरोध होगा।
बलवान ईश्वर की अधीनता में स्थित पुरुष सैंकड़ों विधियों और हजारों निषेधों से न
तो किसी कर्म में प्रवृत्त किया जा सकता है और न निवृत्त किया जा सकता है। दूसरी
बात यह भी है कि ईश्वर द्वारा जबरदस्ती ब्रह्महत्या आदि दुष्कर्मों में प्रवृत्त
कराया गया जीव कैसे अपराधी होगा और स्वयं ही लोगों को बुरे कर्मों में प्रवृत्त
कराकर उन्हें नरक में गिरा रहे भगवान वैषम्य और नैर्घृण्य दोष के भागी क्यों न
होंगे ? और अन्तर्यामी ब्राह्मण के अन्त में 'नान्योऽतोऽसि द्रष्टा नान्योऽतोऽस्ति
श्रोता नान्योऽतोऽस्ति मन्ता' इत्यादि से जीव के अपलाप द्वारा ईश्वरस्वातन्त्र्यका
समर्थन कैसे संगत होगा ?
यदि कहिये केवल
अज्ञ पुरुष की दृष्टि का अवलम्बन कर कर्मकाण्डप्रवृत्ति में जीवस्वातन्त्र्यवाद
है, उसको शिथिल कर सम्पूर्ण भूतों में एकात्म्यज्ञान के लिए प्रवृत्त विवेकदृष्टि
का अवलम्बन कर ईश्वरस्वातन्त्र्यावाद है, उसके फलभूत ज्ञान से प्राप्त विवेकदृष्टि
का अवलम्बन करके 'तदेतद् ब्रह्मापूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यमयमात्मा ब्रह्म सर्वानुभूः'
(यह ब्रह्म कारण शून्य, कार्यरहित, अनन्तर, अबाह्य, सर्वरूप से सबका अनुभव करने
वाला है), 'न कर्तृत्वं न कर्माणि' इत्यादि श्रुतिवाद और स्मृतिवाद है। जैसे
स्वप्न और दर्पण आदि में काष्ठहस्ती के धावन को हस्ती की दृष्टि से देखने पर हस्ती
ही दौड़ता है न कि काष्ठ, काष्ठ की दृष्टि से देखने पर काष्ठ ही दौड़ता है न कि
हस्ती, परमार्थदृष्टि से देखने पर तो न हस्ती है, न काष्ठ है और न धावन क्रिया ही
है, केवल अविकृत पुरुष, दर्पण आदि ही हैं, वैसे ही ये वाद है, तो मोक्ष के उपाय के
प्रवर्तक श्रीवसिष्ठ जी का प्रस्तुत उपदेश अज्ञ पुरुषों के लिए है, इसलिए यहाँ पर ईश्वरस्वातन्त्र्यवाद का
निराकरण उचित ही है। भगवान श्रीशंकराचार्यजी का भाष्य भी है -
'तमेतमविद्याख्यमात्मनोशास्त्राणि विधिनिषेधमोक्षपराणि' (इस अविद्यारूप आत्मा और
अनात्मा के अन्योन्याध्यास का अवलम्बन कर सभी प्रमाण, प्रमेय आदि लौकिक व्यवहार और
विधि, निषेध तथा मोक्षपरक सम्पूर्ण शास्त्र भी प्रवृत्त हैं)।
इस प्रकार
अज्ञानी जीव की दृष्टि से सिद्ध जीवस्वातन्त्र्य – पक्ष में प्राप्त कर्मों के
अनुसार नियन्त्रण करने वाले ईश्वर में वैषम्य और नैर्घृण्य दोष नहीं है, यह भाव
है।
संसार में
हजारों जो व्यवहार हैं, उनमें लाभ और हानि हुआ करते हैं। उनमें राग और द्वेष का
त्यागकर शास्त्रानुसार प्रयत्न करना चाहिए। कभी विच्छिन्न न हुई शास्त्रानुकूल
अपनी मर्यादा का त्याग न कर रहे पुरुष को जैसे सागर में रत्न प्राप्त होते हैं,
वैसे ही सम्पूर्ण अभीष्ट प्राप्त होते हैं। जिनसे सुखप्राप्ति और दुःखनिवृत्ति
होती है, उन अवश्य कर्तव्य कार्यों में प्रयत्नपूर्वक सदा तत्पर रहने को ही
विद्वान लोग पौरुष कहते हैं, उक्त तत्परता यदि शास्त्रानुसार हो, तो वह
परमपुरुषार्थ की साधक होती है। देहसंचालनरूप क्रिया से (गुरु सेवारूप कार्य से),
सज्जनों के समागम एवं आत्मस्वरूप का प्रतिपादन करने वाले सत्शास्त्रों के अभ्यास
से असंभावना, विपरीत भावना आदि दोषों के निराकरणपूर्वक तीक्षण हुई बुद्धि से आत्मा
का जो स्वयं उद्धार किया जाता है, वह स्वार्थसाधकता है। विद्वान लोग अन्तरहित एवं
अज्ञानकृत विषमता से शून्य परमार्थ वस्तु को (ब्रह्म) जानते हैं। उक्त परमार्थ
वस्तु जिनसे प्राप्त हो, उन शास्त्र और साधुओं की सदा सेवा करनी चाहिए। जो दोनों
लोकों में हित करने वाला पुरुष प्रयत्न है, देवलोक के भोग से अवशिष्ट वही पूर्वजन्म
का पौरुष देवलोक से यहाँ आये हुए पुरुष का 'दैव' कहलाता है। यह ठीक है, इसमें किसी
प्रकार का सन्देह नहीं है और इसकी हम निन्दा भी नहीं करते हैं। जो लोग मूढ़ों
द्वारा अपनी कपोलकल्पना से गढ़े हुए 'दैव' को मानते हैं, वे विनाश को प्राप्त हो
गये हैं, यों हम उनकी निन्दा करते हैं। सदा अपने पुरुषप्रयत्न से ही दोनों लोकों
में हित होता है, जैसे कलका दुष्कर्म आज के सत्कर्म से शोभा को प्राप्त होता है,
वैसे ही वर्तमान जन्म के शुभ कर्मों से पूर्वजन्म के दुष्कर्म शोभा को प्राप्त हो
जाते हैं। जो मनुष्य प्रयत्नपूर्वक शुभ कार्य में संलग्न होता है, उसका फल हाथ में
रक्खे हुए आँवले के समान पौरुष से ही साफ देखा गया है। जो प्रत्यक्ष का त्यागकर
दैवरूप मोह में निमग्न होता है वह परम मूढ़ है। हे श्रीरामचन्द्र, इसलिए अपनी कोरी
कपोलकल्पना से उत्पन्न अतएव मिथ्याभूत सम्पूर्ण कारण और प्रयोजनों से रहित 'दैव'
की उपेक्षा कर अपने पौरुष का अवलम्बन करो।।30-39।।
वह पौरुष क्या
है, जिसके अवलम्बन के लिए आप उपदेश देते हैं ? इस पर कहते हैं।
वेद-शास्त्रों
द्वारा और महापुरुषों के शुभ आचार से अति विस्तृत विविध देश धर्मों द्वारा समर्थित
जो चित्तशुद्धिरूप और ज्ञानरूप अति प्रसिद्ध फल है, उसकी हृदय में अति उत्कट
अभिलाषा होने पर उसको प्राप्त करने की इच्छा से चित्त में क्रिया होती है, उसके
अनन्तर इन्द्रिय, हाथ, पैर आदि में क्रिया होती है, तब पुरुष श्रवण, मनन आदि करता
है, इसी को पौरुष कहते हैं। अधिकारी पुरुष का जन्म पुरुषार्थ की सिद्धि होने पर ही
सफल होता है, अन्यथा नहीं, यह जानकर सदा आत्मप्रयत्न में संलग्न रहना चाहिए।
तदुपरान्त इस प्रयत्नपरायणता को सत्शास्त्रों के अभ्यास, सन्त महात्माओं और
विद्वानों की सेवा द्वारा आत्मज्ञानरूप फलप्राप्ति से सफल बनाना चाहिए। यदि पौरुष
का अवलम्बन किया जाय, तो वह अवश्य दैव को जीत लेता है, इस प्रकार दैव और पौरुष के
बलाबल के विचार से भव्य शम, दम आदि साधनों से सम्पन्न एवं श्रेष्ठ पुरुषों की सेवा
में नित्य संलग्न अधिकारी पुरुषों का श्रवण, मनन आदि करता है, इसी को पौरुष कहते
हैं। अधिकारी पुरुष का जन्म पुरुषार्थ की सिद्धि होने पर ही सफल होता है, अन्यथा
नहीं, यह जानकर सदा आत्मप्रयत्न में संलग्न रहना चाहिए। तदुपरान्त प्रयत्नपरायणता
को सत्शास्त्रों के अभ्यास, सन्त महात्माओं और विद्वानों की सेवा द्वारा
आत्मज्ञानरूप फलप्राप्ति से सफल बनाना चाहिए। यदि पौरुष का अवलम्बन किया जाय, तो
वह अवश्य दैव को जीत लेता है, इस प्रकार दैव और पौरुष के बलाबल के विचार से भव्य,
शम, दम आदि साधनों से सम्पन्न एवं श्रेष्ठ पुरुषों की सेवा में नित्य संलग्न
अधिकारी पुरुषों को श्रवण, मनन आदि द्वारा तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए उद्यम
करना चाहिए। यह अधिकारी जीव को इस जन्म में सम्पादन करने योग्य सहज पौरुष ही परम
पुरुषार्थलाभ का हेतु है, ऐसा निश्चय कर सदा आनन्दमग्न सर्वोत्कृष्ट
ब्रह्मवेत्ताओं की शुश्रुषारूप अमोघ मधुर उत्तम औषधि से विविध जन्ममरणपरम्परारूप
भवरोग को शान्त करें।।40-43।।
छठा
सर्ग समाप्त
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ