मैंने सुना है एक चुटकुला। कोई नया-नया चोर कहीं से एक बढ़िया, पानीदार, आभासम्पन्न, तेज घोड़ी चुरा लाया। सोचा कि ऐसी बढ़िया घोड़ी पर सवार करके गाँव में घूमूँगा तो लोग समझ जाएंगे और मैं पकड़ा जाऊँगा। ढोर बाजार में जाकर इसे बेच दूँ। पैसे मिलेंगे। एक दो-साथी बना लूँगा फिर दूसरी घोड़ियाँ ले आएँगे। खूब पैसे कमाएँगे।
कामना और संकल्प उसके बढ़ गये।
घोड़ी लेकर वह पहुँचा बाजार में। अपराधी मानस था। चोरी का माल था। रंगेहाथ पकड़े जाने का डर था। भीतर से खोखला हो गया था। दबी आवाज में धीरे-धीरे लोगों से बोलताः
"घोड़ी चाहिए घोड़ी ? पानीदार घोड़ी है।"
एक आदमी मामला समझ गया। रोब भरी आवाज में पूछाः
"कितने में देगा रे ?"
चोर तो सोचता रह गया। कितने में बेचूँ ? घोड़ों की लेन-देन उसके बाप दादों ने भी नहीं की थी। वह हक्का बक्का रह गया। वह आदमी बोलाः
"घोड़ी दिखती तो अच्छी है लेकिन सवारी करके देखना पड़ेगा। तू मेरा यह हुक्का पकड़। मैं एक चक्कर लगाकर आता हूँ।"
वह घोड़ी लेकर रवाना हो गया। चोर ने वापस बुलाया तो उसने कहाः "जिस भाव में तु लाया था उसी भाव में मैं लिये जा रहा हूँ। चिन्ता मत कर।"
चोर की घोड़ी तो गई, हाथ में हुक्का रह गया। घर पहुँचा तो किसी ने पूछाः "तू तो घोड़ी बेचने गया था ! क्या हुआ ?"
पोपला मुँह बनाकर चोर बोलाः "घोड़ी तो गई और मेरा कलेजा जलाने के लिय यह हुक्का रह गया हाथ में।"
ऐसे ही समय की धारा बहती चली जाती है और कलेजा जलाने वाली कामनाएँ अन्तःकरण में पड़ी रह जाती है। देह रूपी घोड़ा रवाना हो जाता है और सूक्ष्म शरीर में कामनारूपी हुक्का कलेजा जलाता रहता है। फिर जीव प्रेत होकर भटकता है।
देह छूट जाये और कोई कामना नहीं रहे तो जीव विदेही हो जाये, ब्रह्मस्वरूप हो जाय। कामना रह गई और देह छूट गई, दूसरी देह नहीं मिली तो जीव प्रेत होकर भटकता है। खाने- पीने की वासना है लेकिन बिना देह के खा-पी नहीं सकता। भोगने की वासना है लेकिन भोग नहीं सकता। फिर वासना तृप्त करने के लिए दूसरों के शरीर में घुसता है, वहाँ भी झाड़-फूँकवाले लोग उसकी पिटाई करते हैं।
पिटाई किसकी होती है ? इच्छा, कामना, वासना की ही पिटाई होती है। पूजा किसकी होती है ? निष्कामता की पूजा होती है। जिनके अन्तःकरण से वासना-कामना निवृत्त हो जाती है, वे महापुरूष होकर पूजे जाते हैं, वे साक्षात् शिवस्वरूप हो जाते हैं। ऐसे सत्पुरूषों के लिए ही कहा हैः
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।
गुरूर्साक्षात्परब्रह्म तस्मैं श्रीगुरवे नमः।।
गुरू ब्रह्म कैसे ? वे हमारे हृदय में ज्ञान भरते है। गुरू विष्णु कैसे ? वे हमारे ज्ञान की पुष्टि करते हैं। गुरू महेश कैसे ? वे हमारे चित्त में छुपी हुई कामनाओं को भस्म करते हैं।
स्रोत:- आश्रम से प्रकाशित पुस्तक " सामर्थ्य स्रोत" से लिया गया प्रसंग
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