नास्तिक सुधारक के घर में पनपी हुई एक फैशनेबल लड़की हार-शृंगार से देह को सजाकर मंदिर में गई। मंदिर का द्वार आते ही वह चीखी।
"मैं मर गई रे... मुझे बचाओ.... बचाओ... बड़ा डर लगता है !"
सास ने पूछाः "आखिर क्या हुआ ?"
"मुझे बहुत डर लगता है। मैं अंदर नहीं आ सकती। मुझे घर ले चलो। मेरा दिल धड़कता है... मेरा तन काँपता है।"
"अरे ! बोल तो सही, है क्या ?"
"वह देखो, मंदिर के द्वार पर दो-दो शेर मुँह फाड़कर खड़े हैं। मैं कैसे अंदर जाऊँगी ?"
सास ने कहाः "बेटी ! ये दो शेर हैं, लेकिन पत्थर के हैं। ये काटेंगे नहीं... कुछ नहीं करेंगे।"
वह लड़की अकड़कर बोलीः "जब पत्थर के शेर कुछ नहीं करेंगे तो मंदिर में तुम्हारा पत्थर का भगवान भी क्या करेगा ?"
उस पढ़ी लिखी मूर्ख स्त्री ने तर्क तो दे दिया और भोले-भाले लोगों को लगेगा कि बात तो सच्ची है। पत्थर के सिंह काटते नहीं, कुछ करते नहीं तो पत्थर के भगवान क्या देंगे ? जब ये मारेंगे नहीं तो वे भगवान सँवारेंगे भी नहीं। उस कुतर्क करने वाली लड़की को पता नहीं कि पत्थर के सिंह बिठाने की और भगवान की मूर्ति प्रतिष्ठित करने की प्रेरणा जिन ऋषियों ने दी है, वे ऋषि-महर्षि-मनीषियों की दृष्टि कितनी महान और वैज्ञानिक थी ! पत्थर की प्रतिमा में हम भगवद् भाव करते हैं तो हमारा चित्त भगवदाकार होता है। पत्थर की प्रतिमा में भगवद भाव हमारे चित्त का निर्माण करता है, चैतन्य के प्रसाद में जागने का रास्ता बनाता है।
मूर्तिपूजा करते-करते, परमात्मा के गीत गाते-गाते मीरा परम चैतन्य में जाग गई थी। आखिर उस मूर्ति में समा गई थी। गौरांग समा गये थे जगन्नाथजी के श्रीविग्रह में। एक किसान की लड़की नरो श्रीनाथ जी के आगे दूध धरती थी। श्रीनाथ जी उसके हाथ से दूध लेकर पीते थे। थी तो वह भी मूर्ति।
तुम्हारे अन्तःकरण में कितनी शक्ति छिपी हुई है ! मूर्ति भी तुमसे बोल सकती है। इतनी तो तुम्हारे चित्त में शक्ति है और चित्त के अधिष्ठान में तो अनंत-अनंत ब्रह्माण्ड विलसित हो रहे हैं। यह ज्ञान जगाने के लिए मंदिर का देवदर्शन प्रारंभिक कक्षा है। भले बाल मंदिर है, फिर भी अच्छा ही है।
उस मूर्ख लड़की से कहना चाहिएः "जब तू चलचित्र देखकर हँसती है, नाचती है, रोती है, हालाँकि प्लास्टिक की पट्टी के सिवाय कुछ भी नहीं है, फिर भी ‘आहा..... अदभुत...’ कहकर तू उछलती रहती है। परदे पर तो कुछ नहीं, सचमुच में गुन्डा नहीं, पुलिस नहीं... पुलिस के कपड़े पहन कर अभिनय किया है। रिवोल्वर भी सच्ची नहीं होती। फिर भी गोली मारते हैं, किसी को हथकड़ियाँ लगती हैं, डाकू डाका डालकर भागता है, उसके पीछे पुलिस की गाड़ियाँ दौड़ती हैं। ड्रायवर स्टीयरिंग घुमाते हैं..... ॐऽऽऽऽ.....ॐ, तब तुम सीट पर बैठे-बैठे घूमते हो कि नहीं घूमते हो ?जबकि पर्दे पर प्रकाश के चित्रों के अलावा कुछ नहीं है।
ऐसा झूठा चलचित्र का माहौल भी तुम्हारे दिल को और बदन को घुमा देता है तो ऋषियों के ज्ञान और उनके द्वारा प्रचलित मूर्तिपूजा भक्तों के हृदयों को भाव से, प्रार्थना से, परमात्म-प्रेम से भर इसमें क्या आश्चर्य है ?
ब्रह्मवेत्ता ऋषि-महर्षियों द्वारा रचित शास्त्रों के अनुसार मंत्रानुष्ठान पूर्वक विधि सहित मंदिर में भगवान की मूर्ति स्थापित की जाती है। फिर वेदोक्त-शास्त्रोक्त विधि के अनुसार प्राण-प्रतिष्ठा होती है। वहाँ साधु-संत-महात्मा आते जाते हैं। मूर्ति में भगवदभाव के संकल्प को दुहराते हैं।
हजारों-हजारों भक्त अपनी भक्ति-भावना का अभिषेक उस देव मूर्ति में करते हैं ।ऐसी मूर्ति से भाविक भक्तों को अमूर्त तत्त्व का आनन्द मिल जाय, तो इसमें क्या सन्देह है ?
बड़े बड़े मकानों में रहने वाले सभी लोग सही माने में बड़े नहीं होते। बड़ी-बड़ी कब्रों के अन्दर सड़ा गला मांस और बदबू होती है, बिच्छू और बैक्टीरिया ही होते हैं। बड़ी गाड़ियों में घूमने आदमी बड़ा नहीं होता, बड़ी कुर्सी पर पहुँचने से भी वह बड़ा नहीं होता। अगर बड़े से बड़े परमात्मा के नाते वह सेवा करता है, उसके नाते ही अगर बंगले में प्रारब्ध वेग से रहता है तो कोई आपत्ति नहीं। लेकिन इन चीजों के द्वारा जो परमेश्वर का घात करके अपने अहं को पोसता है, वह बड़ा नहीं कहा जाता।
-परम पूज्य संत श्री आसाराम जी "बापू" की "योगयात्रा" पुस्तिका से
"मैं मर गई रे... मुझे बचाओ.... बचाओ... बड़ा डर लगता है !"
सास ने पूछाः "आखिर क्या हुआ ?"
"मुझे बहुत डर लगता है। मैं अंदर नहीं आ सकती। मुझे घर ले चलो। मेरा दिल धड़कता है... मेरा तन काँपता है।"
"अरे ! बोल तो सही, है क्या ?"
"वह देखो, मंदिर के द्वार पर दो-दो शेर मुँह फाड़कर खड़े हैं। मैं कैसे अंदर जाऊँगी ?"
सास ने कहाः "बेटी ! ये दो शेर हैं, लेकिन पत्थर के हैं। ये काटेंगे नहीं... कुछ नहीं करेंगे।"
वह लड़की अकड़कर बोलीः "जब पत्थर के शेर कुछ नहीं करेंगे तो मंदिर में तुम्हारा पत्थर का भगवान भी क्या करेगा ?"
उस पढ़ी लिखी मूर्ख स्त्री ने तर्क तो दे दिया और भोले-भाले लोगों को लगेगा कि बात तो सच्ची है। पत्थर के सिंह काटते नहीं, कुछ करते नहीं तो पत्थर के भगवान क्या देंगे ? जब ये मारेंगे नहीं तो वे भगवान सँवारेंगे भी नहीं। उस कुतर्क करने वाली लड़की को पता नहीं कि पत्थर के सिंह बिठाने की और भगवान की मूर्ति प्रतिष्ठित करने की प्रेरणा जिन ऋषियों ने दी है, वे ऋषि-महर्षि-मनीषियों की दृष्टि कितनी महान और वैज्ञानिक थी ! पत्थर की प्रतिमा में हम भगवद् भाव करते हैं तो हमारा चित्त भगवदाकार होता है। पत्थर की प्रतिमा में भगवद भाव हमारे चित्त का निर्माण करता है, चैतन्य के प्रसाद में जागने का रास्ता बनाता है।
मूर्तिपूजा करते-करते, परमात्मा के गीत गाते-गाते मीरा परम चैतन्य में जाग गई थी। आखिर उस मूर्ति में समा गई थी। गौरांग समा गये थे जगन्नाथजी के श्रीविग्रह में। एक किसान की लड़की नरो श्रीनाथ जी के आगे दूध धरती थी। श्रीनाथ जी उसके हाथ से दूध लेकर पीते थे। थी तो वह भी मूर्ति।
तुम्हारे अन्तःकरण में कितनी शक्ति छिपी हुई है ! मूर्ति भी तुमसे बोल सकती है। इतनी तो तुम्हारे चित्त में शक्ति है और चित्त के अधिष्ठान में तो अनंत-अनंत ब्रह्माण्ड विलसित हो रहे हैं। यह ज्ञान जगाने के लिए मंदिर का देवदर्शन प्रारंभिक कक्षा है। भले बाल मंदिर है, फिर भी अच्छा ही है।
उस मूर्ख लड़की से कहना चाहिएः "जब तू चलचित्र देखकर हँसती है, नाचती है, रोती है, हालाँकि प्लास्टिक की पट्टी के सिवाय कुछ भी नहीं है, फिर भी ‘आहा..... अदभुत...’ कहकर तू उछलती रहती है। परदे पर तो कुछ नहीं, सचमुच में गुन्डा नहीं, पुलिस नहीं... पुलिस के कपड़े पहन कर अभिनय किया है। रिवोल्वर भी सच्ची नहीं होती। फिर भी गोली मारते हैं, किसी को हथकड़ियाँ लगती हैं, डाकू डाका डालकर भागता है, उसके पीछे पुलिस की गाड़ियाँ दौड़ती हैं। ड्रायवर स्टीयरिंग घुमाते हैं..... ॐऽऽऽऽ.....ॐ, तब तुम सीट पर बैठे-बैठे घूमते हो कि नहीं घूमते हो ?जबकि पर्दे पर प्रकाश के चित्रों के अलावा कुछ नहीं है।
ऐसा झूठा चलचित्र का माहौल भी तुम्हारे दिल को और बदन को घुमा देता है तो ऋषियों के ज्ञान और उनके द्वारा प्रचलित मूर्तिपूजा भक्तों के हृदयों को भाव से, प्रार्थना से, परमात्म-प्रेम से भर इसमें क्या आश्चर्य है ?
ब्रह्मवेत्ता ऋषि-महर्षियों द्वारा रचित शास्त्रों के अनुसार मंत्रानुष्ठान पूर्वक विधि सहित मंदिर में भगवान की मूर्ति स्थापित की जाती है। फिर वेदोक्त-शास्त्रोक्त विधि के अनुसार प्राण-प्रतिष्ठा होती है। वहाँ साधु-संत-महात्मा आते जाते हैं। मूर्ति में भगवदभाव के संकल्प को दुहराते हैं।
हजारों-हजारों भक्त अपनी भक्ति-भावना का अभिषेक उस देव मूर्ति में करते हैं ।ऐसी मूर्ति से भाविक भक्तों को अमूर्त तत्त्व का आनन्द मिल जाय, तो इसमें क्या सन्देह है ?
बड़े बड़े मकानों में रहने वाले सभी लोग सही माने में बड़े नहीं होते। बड़ी-बड़ी कब्रों के अन्दर सड़ा गला मांस और बदबू होती है, बिच्छू और बैक्टीरिया ही होते हैं। बड़ी गाड़ियों में घूमने आदमी बड़ा नहीं होता, बड़ी कुर्सी पर पहुँचने से भी वह बड़ा नहीं होता। अगर बड़े से बड़े परमात्मा के नाते वह सेवा करता है, उसके नाते ही अगर बंगले में प्रारब्ध वेग से रहता है तो कोई आपत्ति नहीं। लेकिन इन चीजों के द्वारा जो परमेश्वर का घात करके अपने अहं को पोसता है, वह बड़ा नहीं कहा जाता।
-परम पूज्य संत श्री आसाराम जी "बापू" की "योगयात्रा" पुस्तिका से