तेरहवाँ सर्ग
इस प्रकार विषयों की असारता का प्रतिपादन कर विषय-सम्पादन में
हेतुभूत श्री-धनसम्पत्ति-भी असार ही है, ऐसे प्रतिपादन करने के लिए इस सर्ग का
आरम्भ करते हैं।
श्रीरामचन्द्रजी ने कहाः हे मुनिश्रेष्ठ, इस संसार में
धनसम्पत्ति स्थिर और विविध सुखों की हेतु होने के कारण उत्कृष्ट है, ऐसा मूढ़
व्यक्तियों ने ही मान रक्खा है, वस्तुतः वह न स्थिर है, और न उत्कृष्ट ही है। वह
नितान्त अनर्थ देने वाली और मोह की हेतु है अर्थात वध, बन्धन, नरक आदि विविध क्लेश
देती है, तनिक भी सुख नहीं देती अथवा प्राप्त होने पर मोह में डालती है, नष्ट होने
पर क्लेश देती है या गर्हित धन ही देती है, विवेक नहीं देती।।1।। जैसे वर्षाकाल
में नदी ऊपर को उछलने कूदने वाली बड़ी बड़ी अनेक मलिन तरंगों को धारण करती है,
वैसे ही उक्त सम्पत्ति उत्साह से बढ़े हुए अनन्त मनोरथों से युक्त अतएव अत्यन्त
आकुल अनेक मूढ़ लोगों को अपने वश में कर अपनी ओर खींचती है। हे मुनिवर, चिन्ताएँ
श्री की पुत्रियाँ हैं। जैसे नदी से असंख्य तरंगे उत्पन्न होती हैं, फिर वे वायु की सहायता से बढ़ती हैं वैसे ही
श्री से असंख्य चिन्तारूपी पुत्रियों की उत्पत्ति होती है, तदुपरान्त विविध
दुश्चेष्टाओं द्वारा उनकी वृद्धि होती है।।2,3।। जैसे अज्ञान से आग को पैर से कुचल
कर जली हुई कोई अभागिन एक जगह चरण नहीं रख सकती, किन्तु हाथ पैर पटकती हुई इधर-उधर
घूमती है, उसकी चेष्टा एक सी नहीं रहती, वैसे ही श्री भी शास्त्रप्रतिपादित सदाचार
से रहित पुरुष को प्राप्त कर इधर-उधर घूमती-फिरती है, कभी एक जगह स्थिर नहीं
रहती।।4।। जैसे दिये की लौ छूने से दाह उत्पन्न करती है और काजल को धारण करती है,
वैसे ही यह श्री भी जुआ, चोरी आदि से इसके कुछ हिस्से का क्षय होने पर श्रीमानों
को सन्तप्त करती है, वैसे ही यह श्री भी जुआ, चोरी आदि से इसके कुछ हिस्से का क्षय
होने पर श्रीमानों को सन्तप्त करती है और बीच में ही (अनवसर में ही) अपना या अपने
उपभोक्ता का नाश कर डालती है।।5।। दुःख से उपार्जित भी यह मूढ़ श्री राजाओं की
प्रकृति के समान गुण और अवगुणों को विचार के बिना ही जो कोई उसके समीप में रहता
है, उसी का अवलम्बन कर लेती है अर्थात जैसे प्रायः मूढ़ राजा लोग धार्मिक गुणवानों
के साथ प्रीति नहीं करते, जिस किसी समीपस्थ के साथ प्रीति कर लेते हैं, वैसे ही
दुःख से उपार्जित यह श्री गुणवान धार्मिकों के ही उपभोग के लिए नहीं होती, किन्तु
गुण और अवगुणों के विचार के बिना जिसको समीप में पाती है उसी से लिपट जाती है।।6।।
जिन कर्मों का फल धन, राज्यलाभ आदि और लोभ, हिंसा, मिथ्याभाषण आदि दोषरूप सर्पविष
के वेगों के विस्तार के लिए होता है उन्हीं युद्ध जुआ, व्यापार आदि कर्मों से यह
बढ़ती है – यज्ञ, दान आदि से नहीं, उनसे तो बढ़ने के बदले घटती है, क्योंकि उनमें
इसका व्यय होता है।।7।। तभी तक लोग अपने और पराये लोगों पर दया, दक्षिण्य, स्नेह
आदि करते हैं, जब तक कि जैसे वायु से बर्फ कड़ा हो जाता है, वैसे ही श्री द्वारा
वे कठोर नहीं हो जाते। सम्पत्ति प्राप्त होते ही लोग अपने और पराये जनों पर दया और
स्नेह का भाव छोड़कर कठोर बन जाते है, यह भाव है।।8।। जैसे धूलि की मुट्ठी मणियों
को मलिन कर देती है, वैसे ही बड़े-बड़े विद्वान शूरवीर, दूसरे के उपकार न भूलने
वाले, दक्ष और मृदुभाषी पुरुषों को भी धन-सम्पत्ति मलिन कर देती है।।9।। भगवन्
सम्पत्ति की वृद्धि से दुःख ही होता है सुख नहीं होता अर्थात् जैसे विषलता केवल
मृत्यु का ही कारण होती है, वैसे ही श्री भी सुख की कारण न होकर दुःख की ही कारण
होती है। रक्षा करने पर भी वह मृत्यु के साधनों को जुटाती है। अर्थात् जैसे विषलता
के समीप रक्षण, अवेक्षण आदि करने के लिए जाने पर भी मृत्यु लाभ की संभावना रहती
है, वैसे ही सम्पत्ति की रक्षा करने पर भी अपने विनाश की पूरी सम्भावना है।।10।।
कोई-कोई श्रीमान लोग भी बड़े धार्मिक और यशस्वी देखे जाते हैं
ऐसी परिस्थिति में श्री की प्राप्ति होने तक ही गुणियों में गुण रहते हैं, यह कैसे
कहा ? इस पर कहते हैं।
हे मुने, इस लोक में लोग जिसकी निन्दा नहीं करते ऐसा श्रीमान्,
आत्मश्लाघा न करने वाला शूरवीर पुरुष और सब पर समानभाव से दृष्टि रखने वाला स्वामी
ये तीन पुरुष दुर्लभ है, अर्थात् श्रीमान् की किसी न किसी तरह लोग अवश्य निन्दा
करते हैं शूर अवश्य ही अपनी प्रशंसा करता है, निग्रह और अनुग्रह में समर्थ स्वामी
सब पर समदृष्टि नहीं हो सकता।।11।। हे मुनिवर, अज्ञ लोगों ने जिस श्री को सुख की
हेतु समझ रक्खा है, वह दुःखरूप सर्पों की दुर्गम और भीषण गुफा है एवं महामोहरूपी
हाथियों का आवास रूप विन्ध्याचल का मैदान है अर्थात् यह श्री महादुःखदायिनी और
महामोह से आवृत्त करने वाली है।।12।। सत्कर्मरूपी कमल के लिए रात्रि है। (जैसे
रात्रि में कमल संकुचित हो जाते हैं, वैसे ही श्री प्राप्त होने पर सत्कर्मों का
ह्रास हो जाता है), दुःख रूपी कुँई (कमलिनी) के लिए चन्द्रिका (चाँदनी) अर्थात्
जैसे चाँदनी में कमलिनी (नीलोत्पल) विकसित होती है, वैसे ही श्री के प्राप्त होने
पर दुःखों का खूब विकास होता है और दयादृष्टिरूपी या परमार्थदृष्टिरूपी दीपक के
लिए झकझोर वायु और बड़ी-बड़ी तरंगों से युक्त नदी हैं। (जैसे झंझावात औऱ तरंगों से
युक्त नदीं को झोंकों से दीपक बुझ जाता है, वैसे ही श्री की प्राप्ति होने पर
दयादृष्टि या परमार्थदृष्टि बन्द हो जाती है।)।।13।। यह भय और भ्रान्तिरूपी मेघ के
लिए पुरोवात (पूर्वी हवा) है, (जैसे पूर्वी हवा मेघ की वृद्धि की हेतु है, वैसे ही
श्री भी भय और भ्रान्ति की जननी है) विषादरूपी (खेदरूपी) विष को बढ़ाने वाली है,
संशय और संक्षोभ आदि की क्षेत्र है और दुःखदायक भय को पैदा करने में सर्पिणी है या
खेद के लिए भयरूपी भोग से (सर्पशरीर से) युक्त सर्पिणी है।।14।। वैराग्यरूपी लताओं
के लिए तुषार है, काम आदि चित्तविकार रूपी उल्लुओं के लिए अँधेरी रात है,
विवेकरूपी चन्द्रमा के लिए राहू की दाढ़ है और सौजन्यरूपी कमल के लिए चाँदनी है
अर्थात् जैसे तुषार से लताएँ सूख जाती हैं वैसे ही सम्पत्ति प्राप्त होने पर
सौजन्य का संकोच हो जाता है।।15।। यह श्री इन्द्रधनुष के समान चंचल (अचिरस्थायी)
रंगों से मनोहर एवं बिजली के समान चपल और उत्पन्न होते ही नष्ट होने वाली है और
प्रायः जड़ (मूर्ख) ही इसके आश्रय है।।16।। यह चपलता में जंगली नेवलियों से भी
बढ़कर है, दुष्कुल में सम्पन्न हुई है, अच्छे कुल में संपन्न नहीं है। वंचना में
उग्र मृगतृष्णिका को जीतने वाली है अर्थात् यह वंचना में इतनी दक्ष है कि क्षण भर
भी एक स्थान पर न रहने वाली यह जलतरंग और दीपशिखा से (दीये की लौ से) भी बढ़कर
भंगुर है और अनगिनत दुर्दशाओं की जननी है।।18।। यह युद्ध के लिए उत्सुक मनुष्यरूपी
गजेन्द्रों का विनाश करने वाली सिंहनी के समान है। बड़ी शीतल तथा स्वयं तीक्ष्ण और
तीक्ष्णहृदयवाले (क्रूर हृदय वाले) लोगों के पास रहने वाली तलवार के समान है।।19।।
मृत्यु द्वारा हरे गये लोगों को चाहने वाली, अनेक मानसिक व्यथाओं से व्याप्त (अनेक
मानिसक व्यथाएँ जिसमें चोर के समान छिपी रहती हैं) अभव्य लक्ष्मी से दुःख को
छोड़कर कुछ भी सुख नहीं देखता।।20।। जिस पुरुष की अलक्ष्मी द्वारा (सप्तनीरूप
दरिद्रता द्वारा) स्वयं दूर निकाली गई चिरकाल तक सपत्नी द्वारा उपभुक्त उसी को फिर
आदर से आलिंगन सा करती है, यह बड़े खेद की बात है, यह मानवती नहीं है, किन्तु
निर्लज्ज और दुष्टता इसकी कभी जाती नहीं।।21।। यह लक्ष्मी मनोहर है, अतएव
चित्तवृत्ति को अपनी ओर खींचती है, मरण, पतन आदि के कारण साहसिक कर्मों से प्राप्त
होती है और बिजली के समान क्षण भर में नष्ट हो जाती है, अतः यह सर्पों से लिपटी
हुई गड्डे में उत्पन्न हुई पुष्पलता के समान है।।22।।
तेरहवाँ सर्ग समाप्त
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