तीसरा
सर्ग
श्रीरामचन्द्रजी की शंका के
निराकरण के बहाने स्थूल आदि जगत के अध्यारोप और अपवाद से प्रत्यगात्मरूप विषय की
सिद्धि।
इस प्रकार पूर्व
वृत्तान्त का सम्पूर्णतया स्मरणकर विस्तारपूर्वक उसको कहने के लिए प्रस्तुत
श्रीवसिष्ठजी सदगुरुस्मरणरूप मंगल करते हुए एवं विद्या के सम्प्रदाय की शुद्धि को
दर्शाते हुए शिष्य श्रीरामचन्द्रजी के ध्यान को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए पुनः
प्रतिज्ञा करते हैं।
श्रीवसिष्ठजी ने
कहाः मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रजी, पहले सृष्टि के आरम्भ में भगवान् श्री ब्रह्माजी
ने सांसारिक सकल दुःखों की निवृत्ति के लिए जिस ज्ञान का उपदेश दिया था, उसी को
मैं कहता हूँ, उससे अन्य नहीं।।1।।
इससे
संप्रदायशुद्धि कही।
इस प्रकार
प्रतिज्ञापूर्वक अपने उपदेश श्रवण की ओर श्रीरामचन्द्रजी का ध्यान आकृष्ट किया
गया, मन में अन्य जिज्ञासा के रहने पर श्रीगुरु के उपदेश पर ध्यान नहीं रहेगा, अतः
सूचीकटाहन्याय से पहले उत्पन्न सन्देह की निवृत्ति के लिए प्रार्थना कर रहे
श्रीरामचन्द्रजी ने कहाः भगवन्, श्रीव्यासजी के अवशिष्ट लोगों के समान जीवभाव में
दिखलाई देने से एवं शुकदेव जी की मुक्ति सुनने से उत्पन्न हुए इस सन्देह को पहले
क्षणभर में दूर कर दीजिये, इस सन्देह की निवृत्ति के अनन्तर विस्तीर्ण मोक्षसंहिता
को कहिएगा।।2।।
उक्त सन्देह को
ही दर्शाते हैं।
श्रीशुकदेवजी के
पिता और गुरु महामति सर्वज्ञ ये व्यासजी कैसे विदेहमुक्त न हुए और इनके पुत्र
श्रीशुकदेवजी कैसे मुक्त हो गये ?।।3।।
यदि कहिए कि यह
सन्देह ही नहीं बन सकता है, सो नहीं कह सकते, क्योंकि आत्यान्तिक दुःख विनाश से
उपलक्षित (युक्त) निरतिशय स्वप्रकाशमात्र शेष रहना ही विदेहमुक्ति है और वही ज्ञान
का फल है। वह यदि सर्वज्ञ श्रीव्यासजी को प्राप्त नहीं हुई, तो ज्ञान अनित्यफल हो
जायगा अर्थात् ज्ञान से मुक्तिरूप फल अवश्यंभावी न होगा। दूसरी बात यह भी है कि
यदि ज्ञान से अज्ञान निःशेष नष्ट हो गया, तो भृगु आदि के समान जीवन नहीं रह सकेगा,
क्योंकि अज्ञानरूप उपादान के नष्ट होने से कार्य नहीं रह सकता और जीवन न रहने पर
ब्रह्मविद्या के उपदेश न रहने से ब्रह्मविद्या का प्रवर्तक सम्प्रदाय ही विच्छिन्न
हो जायेगा। यदि ज्ञान से अज्ञान उच्छिन्न न हुआ, तो मोक्षअभाव सिद्ध ही है। कर्म
के तुल्य ज्ञान अदृष्ट के द्वारा मरण के पश्चात फल नहीं देता, क्योंकि वह कर्म के
तुल्य विधेय नहीं है, कारण कि ज्ञान तीनों कालों में अखण्डरूप से स्थित है, इस
प्रकार जीवन्मुक्ति की सिद्धि नहीं हो सकती, यह सारांश है। इस प्रकार
श्रीरामचन्द्रजी द्वारा पूछे गये भगवान् वसिष्ठ, जब तक श्रीरामचन्द्रजी बन्ध की
अविद्याजन्यता, विद्या का स्वरूप और उसके साक्षी अपरिच्छिन्न सर्वाधार
चैतन्यस्वरूप को नहीं जानते, तब तक जीवन्मुक्ति में इनका विश्वास नहीं हो सकता,
इसलिए पहले उनका उपपादन कर, तदुपरान्त इनके प्रश्न का समाधार करूँगा, यों विचार कर
सुबोध होने के कारण पहले साक्षी में स्थूलप्रपंचपरम्परा का अध्यारोप दिखलाते हैं।
श्रीवसिष्ठजी ने
कहाः सम्पूर्ण जगत् का प्रकाशक सूर्य अर्क कहलाता है। सूर्य (◙) आदि
सम्पूर्ण जगत् का प्रकाशक परमात्मा परमार्क हुआ। उक्त परमार्क रूपी प्रकाश के
अन्दर त्रिजगतरूपी (अनन्त कोटि ब्रह्माण्डरूपी) त्रसरेणु (◘) स्थित
हो होकर लीन हो गये हैं, उनकी गिनती नहीं हो सकती।।4।।
◙
"यैन सूर्यस्तपति तेजसिद्धः", "न तत्र सूर्यो भाति न
चन्द्रतारकम्" अर्थात् जिस परमात्मारूप तेजसे दीप्त होकर सूर्य तपता है और उस
तेजस्वरूप परमात्मा में न सूर्य प्रकाशित होता है, न चन्द्रमा और न तारे ही प्रकाश
को प्राप्त होते हैं, इत्यादि श्रुति-स्मृतियाँ हैं।
◘
त्र्यणुक। परमाणुद्वयेनाणुस्त्रसरेणुस्तु ते त्रयः (ब्र. वै. पु.), अणुर्द्वौ
परमाणुस्यात्त्रसरेणुस्त्रयः (भा.3/12/5) अर्थात् दो परमाणु = एक अणु और तीन अणु =
त्रसरेणु।
जो कोटि कोटि
त्रिजगते इस समय विद्यमान हैं, उनमें भी कोई किन्हीं की गिनती नहीं कर सकता।।5।।
परमात्मारूपी
महासागर में जगतसृष्टिरूपी जो तरंग होंगे, उनकी गिनती करने के लिए भी वाणी में
सामर्थ्य नहीं है। इस कथन से भूत, भविष्यत और वर्तमान जगत का अध्यारोप दर्शाया।
पूछे गये विषय की उपेक्षा कर अन्य विषय को कह रहे श्रीगुरुजी का गूढ़ आशय मैंने
भली-भाँति जान लिया, यों गुरु की उत्साहवृद्धि के लिए अपनी कुशलता को सूचित कर रहे
श्रीरामचन्द्रजी उक्त भूत, भविष्यत और वर्तमान सृष्टियों में कुछ विलक्षणता कहते
हैं।
श्रीरामचन्द्रजी
ने कहाः जो जगत्सृष्टिपरम्पराएँ अतीत हो गयी हैं और जो आगामी हैं, उनका विचार करना
तो ठीक है, परन्तु वर्तमान जो सृष्टियाँ हैं वे किसके सदृश हैं, अर्थात् वे न भूत
के सदृश हैं और न भविष्यत के सदृश हैं। वर्तमान सृष्टिपरम्परा में दोनों की समानता
नहीं है, अतः उनकी श्रेणी में वर्तमान सृष्टि की विवेचना करना ठीक नहीं है। आशय यह
कि यद्यपि वर्तमान सृष्टियाँ विशेषरूप से (तत्तदव्यक्तित्त्वरूप से) असंख्य हैं,
तथापि कालतः न्यनूसंख्यक होने के कारण विदित ही हैं। इस प्रकार आपने यह दर्शाया कि
अनन्त आगन्तुकों का उपादान आत्मतत्त्व अनन्त, अद्वितीय, अनागन्तुक और चैतन्यस्वरूप
है। यह मैं जान गया हूँ।।6,7।।
इस प्रकार
अतिगूढ़ अभिप्राय के परिज्ञान द्वारा उसमें विशेष बात के कथन से श्रीराम द्वारा
प्रोत्साहित पूर्वोक्त स्थूल प्रपंच के मिथ्यात्वबोधन के लिए सूक्ष्म प्रपंचमात्रता
ही है, यों दर्शाने वाले वसिष्ठजी कहते है।
पशु-पक्षी,
मनुष्य, देवता आदि प्राणियों में से जो जिस स्थान पर और जब भी नाश को प्राप्त होता
है, वह प्रत्यगात्मा उसी स्थान में तभी वक्ष्यमाण (कहे जाने वाले) त्रिजगत् को
देखता है। अर्थात् न तो दूसरे स्थान में देखता है और न कालान्तर में।।8।।
वह किस सामग्री
से और किस स्वरूप से युक्त होकर देखता है ? इस पर कहते हैं।
आतिवाहिक (●) नामक
चित्त, अहंकार, मन, बुद्धि, दस इन्द्रियों और प्राण से घटित वासनामय सूक्ष्मशरीर
से अपने हृदयरूपी आकाश ही वासनामय त्रिजगत
का अनुभव करता है और भ्रान्ति से वासनामय तत्-तत् शरीरों को क्रमशः प्राप्त होता
है। वस्तुतः वह पूर्वोक्त चिदाकाशस्वरूप अतएव जन्मादिविविकाररहित है।।9।।
●
अतिवहनम्-अतिवाहः अर्थात् धूम, अर्चिरादि मार्गों के अभिमानी देवताओं द्वारा परलोक
में पहुँचाना, उक्त कर्म में जो दक्षहै, वह आतिवाहिक कहलाता है।
शंका – तेन
प्रद्योतेनैष आत्मा निष्कामति चक्षुषो वा मूर्घ्नो वाऽन्येभ्यो वा
शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रान्तं प्राणोऽनुत्क्रामति।
(उस हृदय के
अग्रभाग के प्रकाशन के साथ निकलता हुआ आत्मा चक्षु से या मस्तक से अथवा अन्यान्य
शरीर-प्रदेशों से निकलता है, उसके निकलने पर प्राण भी उसका अनुसरण करता है) और
'उत्क्रान्तं स्थितं वाऽपि' (निकल रहे या स्थित) इत्यादि अनेक श्रुति और स्मृतियों
के विरूद्ध मृत का अपने हृदय में ही परलोकदर्शन कैसे कहते हैं ?
समाधान – कर्म
और उपासना से होने वाले भावी व्यवहार दृष्टि से वे श्रुतियों और स्मृतियाँ हैं
अर्थात् कर्म और उपासना से होने वाले भावी फल के अनुसार बाहर निकलने के मार्ग अनेक
प्रकार के हैं, यह दर्शाने के लिए उक्त श्रुति और स्मृतियाँ हैं – जिसे सूर्यलोक
में जाना होता है वह चक्षु से, जिसे ब्रह्मलोक में जाना होता है वह ब्रह्मरन्ध्र
से और जिसे अन्यान्य स्थानों में जाना होता है वह अन्यान्य शरीर के अवयवों से
निष्क्रान्त होता है। यहाँ पर तो परमार्थदृष्टि से 'अस्मिन् द्यावापृथिवी अन्तरेव
समाहिते' (इस हृदयाकाश में द्यौ और पृथिवी भली-भाँति स्थित हैं) इस श्रुतिवाद के
समान हृदय में ही परलोककी कल्पना की जाती है। आत्मा के व्यापक होने से उसका आवास
हृदय भी अपरिच्छिन्न हुआ, अतः हृदय-साक्षी में हृदयरूप परिच्छेद को दूरकर
निष्क्रियत्व और प्रपंच में केवल वासनामयत्य का ज्ञान कराने के लिए, परलोक के समान
उत्क्रमण और गमन की भी वहीं पर (हृदय में ही) कल्पनामात्र से उपपत्ति हो सकती है,
अतः उक्त श्रुति और स्मृति से कोई विरोध नहीं है।
एक स्थान में
दर्शाई गई युक्ति को सर्वत्र दर्शाते हैं।
इसी प्रकार
करोड़ों प्राणी मर चुके हैं, मरते हैं और मरेंगे, वे मृत्यु के पहले जीवन-दशा में
जिस सम्पूर्ण जगत का दर्शन करते हैं-दृश्यसमूह देखते हैं-उनमें से जिस दृश्य में
उनकी वासना (संस्कार) जड़ पकड़ लेती है, मृत्युकाल में उनके हृदयाकाश में वही
दृश्य उदित होता है, मरण के अनन्तर उन्हें वही दृश्य जगत् (योनि) प्राप्त होता है
(☼)।
सारांश यह कि यह सम्पूर्ण जगत वासनाविशेष के विलास से अतिरिक्त कुछ नहीं है।।10।।
☼ 'यद्
यद् भवन्ति तदाभवन्ति' (व्याघ्र, सिंह आदि जो पहले हुए थे वे फिर आकर वे होते
हैं। करोड़ों युगों का व्यवधान पड़ने पर
भी संसारी जीव की पहले भावित वासना नष्ट नहीं होती) 'यं यं स्मरन् भावम्' (जिस जिस
भाव का स्मरण कर अन्त में जीवन त्याग करता है उस भाव को प्राप्त होता है) इत्यादि
श्रुति और स्मृतियाँ इस विषय में प्रमाण हैं।
इस प्रकार जगत्
के वासनामय होने पर जो फलित हुआ अर्थात् परमार्थ दृष्टि से उसमें भ्रमरूपता
प्राप्त हुई, उसका वर्णन कहते हैं।
यह जगत् संकल्प
से निर्मित की नाईं, मनोराज्य के विलास की नाईं, इन्द्रजाल से रचित माला की नाईं,
उपन्यास के अर्थ के प्रतिभास की नाईं, वातरोग से प्रतीत होने वाले भूकम्प की नाईं,
बालक को डराने के लिए कल्पित भूत की नाईं, निर्मल आकाश में कल्पित मुक्तावली की
(मोतीमाला की) नाईं, नावकी गति से प्रतीत होने वाली वृक्षों की गति की नाईं,
स्वप्न में देखे गये नगर की नाईं, अन्यत्र दृष्ट के स्मरण से आकाश में कल्पित
पुष्प की नाईं भ्रमकल्पित है। मृत पुरुष इसका अपने हृदय में स्वयं अनुभव करता
है।।11-13।।
ऐसी परिस्थिति
में भगवान वेदव्यासजी का वैधर्म्याच्च न स्वप्नादिवत् (जाग्रत और स्वप्न आदि में
अबाधितविषयत्व और बाधितविषयत्वरूप विलक्षणता है, अतएव जाग्रत-ज्ञान स्वप्नादिज्ञान
के समा निर्विषय नहीं है) यह सूत्र कैसे संगत होगा एवं भोक्ता के जाग्रतकाल में
स्वप्न से विपरीत जो चिरकाल तक नियत व्यवहार आदि होते हैं और जो उनमें सत्यता
प्रतीत होती है, उसकी क्या गति होगी ? इस पर कहते हैं।
जीव ने
जीवनावस्था में जो जगत् देखा था, मृत्यु के अनन्तर उसी का उसको स्मरण होता है और
फिर जन्म होने पर उसी का वह अनुभव करता है। जगत् यद्यपि पूर्वोक्त प्रकार से असत्
है, फिर भी अति परिचय से दृढ़ता को प्राप्त होकर जीवाकाश में प्रकाशित होता
है।।14।।
अव्यवस्थितस्वभाव
का होने के कारण भी जगत् मिथ्या है, ऐसा दर्शाने के लिए कहते हैं।
जन्म, जन्म से
लेकर मरण तक की चेष्टाएँ और मरण का अनुभव करने वाला जीव उसी में इहलोक की कल्पना
करता है, जैसा की ऊपर बतलाया गया है और मरण के अनन्तर उसी में परलोक की कल्पना
करता है। वासना के अन्दर अन्य अनेक देह और उनके मध्य में और अन्यान्य देह इस संसार
में, ये केले के तने त्वचा के समान एक के पीछे एक और एक के पीछे एक इस प्रकार
शोभित होते हैं।।15,16।।
इस प्रकार
मिथ्यात्व के सिद्ध होने पर प्रपंच के निषेध से अवशिष्ट आत्मा की सिद्धि है, इस
अभिप्राय से कहते हैं।
न पृथिवी आदि
पंच महाभूत हैं, न जगत् और जगत् का क्रम (सृष्टिक्रम) ही है अर्थात् ये सब मिथ्या
है, फिर भी मृत और जीवित जीवों को इनमें जगत्-भ्रम होता है। ज्ञान के बिना इनका
उच्छेद नहीं हो सकता। इस प्रकार प्रपंच के निषेध से अवशिष्य आत्मा की सिद्धि
हुई।।17।।
मूलोच्छेद के
बिना, केवल अपलापमात्र से, उसकी निवृत्ति नहीं हो सकती, ऐसा मन में रखकर अविद्या
में उच्छेद्यत्व को बतलाने के लिए सूक्ष्मरूप से व्यत्पादित्त प्रपंच में कारणीभूत
अविद्यामात्रता ही है, ऐसा कहते हैं।
मूढ़ों द्वारा
तैरने के अयोग्य, विविध शाखा-प्रशाखाओं से युक्त अतएव अनन्त यह अविद्या लगातार हो
रहे सृष्टिरूप तरंगों से युक्त विशाल नदी है।।18।।
अविद्या आदि
सम्पूर्ण पदार्थों की कल्पना का अधिष्ठान कहते हैं।
हे राम,
अतिविस्तृत परमार्थ सत्य (परमात्मा) रूपी महासागर में वे प्राचीन और नूतन
सृष्टिरूपी तरंग बार-बार प्रचुरमात्र में चक्कर काटते हैं, उत्पत्ति और लय को
प्राप्त होते हैं उनमें से कुछ तो कुल, क्रम, मन और गुणों से सर्वथा समान होते
हैं, कुछ आधी समानता रखते हैं और कुछ बिल्कुल निराले (अत्यन्त विलक्षण) होते
हैं।।19,20।।
प्रस्तुत शंका
के समाधान के उपोदघात (भूमिका) रूप से जगत् की व्यवस्था और प्रस्तुत शास्त्र के
विषय को कहकर शंका के समाधान का उपक्रम करते हैं।
अठारह पुराण और
महाभारत आदि के निर्माणरूप कार्यों से प्रसिद्ध यथोचित्त जन्म, शास्त्रविज्ञान और
ब्रह्मविद्या से उपलक्षित सर्वशास्त्रविशारद ये वेदव्यासजी उक्त सृष्टिरूपी तरंगों
में बत्तीसवें हैं, ऐसा मैं स्मरण करता हूँ।।21।।
उन बत्तीसों में
भी आवान्तर भेद कहते हैं।।
उन अनके तरंगों
से ब्रह्मविद्, ब्रह्मविद्वर, ब्रह्मविद्वरीयान् और ब्रह्मविद्वरिष्ठ इस प्रकार
प्रसिद्ध चार भेदों में चतुर्थ स्थान में न पहुँचने के कारण अल्पबुद्धि बारह तरंग
कुल, आकार, जीवन, चेष्टा आयु सर्वांश में समान हैं, दस ज्ञानादि विषय में भी समान
हैं, और शेष वंश में विलक्षण हैं(□)। पूर्वसदृश और उनसे विलक्षण
व्यास तथा वाल्मीकि आगे होंगे, यही बात भृगु, अंगिरा और पुलस्त्य आदि अन्यान्य
ऋषियों के विषय में दुहराई जा सकती है अर्थात् वे भी पूर्वसदृश और उनसे विलक्षण
होंगे। मनुष्य, देवर्षि और देवता बार बार उत्पन्न और विलीन हुए हैं, होते हैं और
होंगे।
□
तात्पर्य यह है कि सृष्टि के आरम्भ से श्रीरामचन्द्रजी के समय तक अनेक बार अनेक
व्यास जन्मे हैं। उनमें सभी व्यास न द्वैपायन थे और न महाभारतआदि के कर्ता थे।
इसलिए कहा जा सकता है कि कोई कोई वंश और कार्य के समान थे और कोई कोई अर्धसमान थे
इत्यादि। महाभारत आदि ग्रन्थों के कर्ता द्वैपायन व्यास प्रत्येक द्वापर में
अवतीर्ण होते हैं। पूर्व मन्वन्तर के आरम्भ से लेकर वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के
आरम्भ तक 32 द्वापर व्यतीत हो गये हैं, उनमें 32 व्यासावतार हुए हैं। उन बत्तीस
अवतारों में से इनके दस अवतार हमारे प्रत्यक्ष हैं और अन्यान्य अवतार परोक्ष में
हुए हैं।
ये लोग पहले भी
इस प्रकार के आकार से सम्पन्न थे, इस समय भी वैसे ही हैं इसके पश्चात भी इस देह की
अपेक्षा भिन्न-भिन्न देहों में जन्म ग्रहण करेंगे।।22-24।।
हे राम,
ब्रह्मकल्प का अवयवरूप यह त्रेतायुग इस समय है। पहले अनेक बार हो गया है और आगे भी
होगा। जैसे इन त्रेता युगों में कितनी ही बार तुमने रामरूप धारण किया था एवं आगे
आने वाले त्रेतायुगों में कितनी बार तुम रामरूप में अवतार लोगे, इसकी कोई सीमा
नहीं है। मैं भी कितनी बार वसिष्ठमूर्ति धारण कर चुका हूँ, इस समय भी वसिष्ठरूप
में विद्यमान हूँ और आगे भी कितनी ही बार वसिष्ठरूप में अवतीर्ण होऊँगा। इन रूपों
में कोई पूर्व के तुल्य होंगे और कोई उनसे भिन्न। यही बात अन्यान्य साधारण लोगों
के विषय में कही जा सकती है। मैंने अदभुत कर्म करने वाले दीर्घदर्शी महामुनि इन
श्रीव्यासजी का क्रमशः यह दसवाँ अवतार देखा है अर्थात् इन्हें दस बार जन्मते देखा
है। हे राम, हम लोग कितनी ही बार व्यास, वाल्मीकि के साथ एकत्रित हुए और कितनी ही
बार ये हम लोग पृथक-पृथक उत्पन्न हुए। हम लोगों ने कभी सदृशरूप में और कभी
भिन्नरूप में जन्म ग्रहण किया। हम लोग आगे भी कितनी बार भिन्न आकारों में और समान
अभिप्रायों में जन्म ग्रहण करेंगे। कभी हम लोगों ने अभिज्ञ होकर जन्म ग्रहण किया
है और कभी अनभिज्ञ होकर। ये व्यासजी इस जगत् में और आठ बार उत्पन्न होकर
महाभारतनामक इतिहास का प्रचार, वेदविभाग, कुलप्रथा का पालन और ब्रह्मा के अधिकार
को प्राप्त कर विदेहमोक्ष को प्राप्त होंगे।।25-30।।
श्रीव्यासदेव जी
की वर्तमान काल में भी जीवन्मुक्तता दिखलाते हैं।
इस समय भी ये
श्रीव्यासजी वीतशोक, निर्भय, सब प्रकार की कल्पनाओं से शून्य, प्रशान्तचित्त,
निर्वाण सुख को प्राप्त अर्थात् बन्धन से विनिर्मुक्त हैं, अतएव ये जीवनमुक्त कहे
गये हैं। कभी जीवन्मुक्त प्राणी वित्त, बन्धु, बान्धव, अवस्था, कर्म, विद्या,
विज्ञान और चेष्टाओं से तुल्य होते हैं और कभी तुल्य नहीं होते, कभी सैंकड़ों बार
उनका जन्म होता है और कभी बहुत कल्पों में एक बार भी उनका जन्म नहीं होता। इस माया
का अन्त नहीं है। जैसे तौलने के लिए पुनः पुनः बराबर तराजू में भरी जाती हुई
धान्यराशि में पहले जिस क्रम से बीज रहे थे, उस क्रम से नहीं रहते, ऊपर नीचे हो
जाते हैं वैसे ही यह बहुत से प्राणियों का समूह विपर्यासको (परिवर्तन को) –
पूर्वजन्म के क्रम तथा अवयवसंनिवेश की अपेक्षा विपरीत क्रम और देहसंगठन को –
प्राप्त होता है। कालरूप महासागर तरंग पूर्वजन्म के अवयव संगठन अथवा क्रम से भिन्न
अवयवसंगठन अथवा क्रम से सृष्टि के रूप में आविर्भूत होते हैं।।31-35।।
जीवन्मुक्त
पुरुष योगबल से आधिकारिक विविध शरीर धारण करने पर भी मुक्तिस्वरूप से च्युत नहीं
होता, ऐसा कहते हैं।
अविद्यारूपी
आवरण से रहित विद्वान समाहित चित्त, विकल्पविरहित स्वरूपभूत सार से ओतप्रोत
अर्थात् चिन्मय एवं परम शान्तिरूपी अमृत से तृप्त रहता है। चंचलता, विकल्प, असार
देहआदि रूपता, अशान्ति और अतृप्ति अविद्यारूपी आवरण से होती है उक्त आवरण के नष्ट
हो जाने से चित्त समाहित हो जाता है विकल्प नष्ट हो जाते हैं, चिन्मयता प्राप्त हो
जाती है और परमशान्तिरूपी सुधा से तृप्ति प्राप्त हो जाती है। निष्कर्ष यह कि
जीवन्मुक्ति ही ज्ञान का फल है और वह ज्ञान से ही होती है, अन्य कर्म आदि से
नहीं।।36।।
तीसरा
सर्ग समाप्त
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ