बीसवाँ सर्ग
बाल्यावस्था
अतिमूर्खता, असामर्थ्य और परतन्त्रता आदि से दुःखपूर्ण भले ही हो, पर यौवन अवस्था
में ये बातें नहीं है, उसमें नानाभोग भोगने से उत्पन्न आनन्द ही आनन्द रहता है,
इसलिए वह सुख की कारण है, ऐसी शंका करके यौवन की अत्यन्त अनर्थकारिता का वर्णन
करने के लिए कहते हैं। श्रीरामचन्द्रजी ने कहाः मुनिवर, बाल्यावस्था के अनन्तर
पुरुष बाल्यावस्था के अनर्थों को त्यागकर भोग भोगने के उत्साह से या आने वाले
कामरूप पिशाच से दूषितचित्त होकर नरकपात के लिए ही यौवानरूढ़ होता है। मूर्ख पुरुष
यौवनावस्था में अनन्त चेष्टावाले अतएव चंचल अपने चित्त की राग, द्वेष आदि
वृत्तियों का अनुभव करता हुआ एक दुःख से दूसरे दुःख को प्राप्त होता है अर्थात्
दुःख परम्परा का भोग करता है।।1,2।।
माण्डव्य
ऋषि ने व्यवस्था कर रक्खी है कि चौदह वर्ष तक किये गये दुष्कर्मों से नरक प्राप्ति
नहीं होती, इसलिए बाल्यावस्था से नरकपतन नहीं होता, लेकिन यौवनावस्था तो नरकपतन की
ही हेतु है, यह भाव है। चित्तरूपी बिल में वास करने वाला तथा अनेक प्रकार के
भ्रमों को पैदा करने वाला कामरूपी पिशाच विवश पुरुष के विवेक का तिरस्कार कर उसे
अपने वश में कर लेता है।।3।। जैसे निधि आदि को देखने के लिए बालकों के हाथ में
रक्खा हुआ सिद्धांजन चंचल वृत्तिवाली नेत्रप्रभाओं के अनावरण को – भूमि, शिला आदि
के व्यवधान को हटाकर निधि देखने की सामर्थ्य देता है, वैसे ही यौवनावस्था में अवश
चित्त युवतियों के चित्त से भी चंचल नाना प्रकार की चिन्ताओं के कपाट खोल देता है
अर्थात् यौवनावस्था में पुरुष को विविध चिन्ताओं का सामना करना पड़ता है।।4।।
मुनिवर, यौवनावस्था में स्त्री, जुआ, कलह आदि व्यसनों को उत्पन्न करने वाले राग,
लोभ आदि दोष – काम, चिन्ता आदि के वशीभूत चित्तवाला होने से काममय और चिन्तामय
पुरुष को नष्ट कर डालते हैं और वे दोष यौवन द्वारा ही प्राप्त होते हैं। महानरक की
हेतुभूत और सदा भ्राँति पैदा करने वाली यौवनावस्था से जिन लोगों का विनाश नहीं हुआ,
उनका दूसरा किसी से विनाश नहीं हो सकता। श्रृंगार आदि नौ रसों से और कटु, तिक्त
आदि छः रसों से पूर्ण आश्चर्यजनक अनेक वृत्तान्तों से परिपूर्ण भीषण यौवनभूमिको
जिसने पार कर लिया, वही पुरुष धीर कहा जाता है।।5-7।। क्षण भर के लिए दैदीप्यमान,
चंचल मेघों के गर्जन से गूँज उठती, वैसे ही यौवनावस्था भी स्वल्पकाल के लिए उज्जवल
है। घोर गर्जनाओं के समान अभिमानपूर्ण उक्तियों से युक्त अमंगलमय यह यौवन मुझे भला
नहीं लगता। मुनिवर, भोग के समय मीठा अतएव बड़ा भला लगने वाला, अन्त में दुःखदायी
होने के कारण नीम के समान कडुवा, दोषरूप, निन्दा के हेतुभूत सम्पूर्ण दोषों का भूषण
(सब दोषों में श्रेष्ठ), शराब के नशे सदृश यौवन मुझे अच्छा नहीं लगता।।8,9।। यौवन
है तो निरा असत्य पर सत्य – सा प्रतीत होता है, शीघ्र ही लोगों को अपनी वंचना का
शिकार बना डालता है – धोखा दे देता है – और स्वप्न दुष्ट स्त्री के समान है, इसलिए यौवन मुझे नहीं
रूचता।।10।। यौवन एक क्षणभर के लिए सुन्दर प्रतीत होने वाली सम्पूर्ण वस्तुओं में,
गन्धर्वनगर (♣) के सदृश, सर्वश्रेष्ठ है और सभी लोगों
को क्षणमात्र के लिए अच्छा लगता है, इसलिए यह मुझे अच्छा नहीं लगता।।11।।
♣ जिसे गन्धर्वनगर दिखाई देता है उसकी मृत्यु हो जाती है। इससे
गन्धर्वनगर का दर्शन मृत्यु का चिह्न है, यह सिद्ध है। इसलिए गन्धर्वनगर के पक्ष
में 'सम्पूर्ण आयु के अन्त में' ऐसा अर्थ करना चाहिए।
प्रत्यंचा
से छोड़ा गया बाण जितने समय लक्ष्य का वेध
करता है, केवल उतने समय तक सुखदायक, शेष सम्पूर्णकाल में दुःख देने वाला और नित्य
सन्तापरूपी दोष देने वाला यौवन मुझे अच्छा नहीं लगता।।12।। यौवन केवल आपाततः जब तक
विचार न किया जाय तभी तक रमणीय प्रतीत होता है, इसमें शुद्धचित्तता का सर्वथा अभाव
रहता है। यह वेश्या स्त्री के समागम के समान नीरस है, इसलिए मुझे अच्छा नहीं
लगता।।13।। जैसे प्रलय काल में सबको दुःख देने वाले बड़े-बड़े उत्पात चारों ओर से
उमड़ पड़ते हैं वैसे ही युवावस्था में भी, सबको दुःख देने वाले जो कोई कार्य हैं,
वे सब समीप में आ जाते हैं अर्थात् युवावस्था में परदुःखदायी अनेक दुष्कर्म होते
हैं।।14।। हृदय में अन्धकार करने वाली यौवनयुक्त अज्ञान-रात्रि से विशाल आकारवाले
भगवान महादेवजी भी निश्चय भयभीत रहते हैं, इसीलिए ही वे सदा विवेक ज्ञान-रूपी
चन्द्रमा को धारण करते हैं। यदि नहीं डरते, तो क्यों धारण करते ? यह भाव है।।15।। यह यौवनकालीन मोह शुभ आचरण को भुलाने वाली एवं बुद्धि को
कुण्ठित करने वाली (बुद्धिनाश करने वाली) भ्रान्ति की प्रचुरमात्रा में सृष्टि
करता है।।16।। जैसे वनाग्नि से वृक्ष जलाया जाता है, वैसे ही युवावस्था में
प्रियतमा के वियोग से उत्पन्न दुःसह शोकाग्नि से जीव जलाया जाता है।।17।। बुद्धि
दोषों के निराकरण से कितनी ही निर्मल क्यों न हो, कितनी ही उदार क्यों न हो और
गुणों के आधान से कितनी ही पवित्र क्यों न हो, पर जैसे वर्षा ऋतु में नदियाँ मलिन
हो जाती हैं, वैसे ही यौवन में मलिन हो जाती है अर्थात् जैसे निर्मल पवित्र, शीतल
और मधुर जलवाली नदी वर्षा ऋतु में मलिन हो जाती है, वैसे ही निर्मल, उदार और
पवित्र बुद्धि भी युवावस्था में मलिन हो जाती है।।18।। बड़ी-बड़ी लहरों से युक्त
भीषण नदी लाँघी जा सकती है, पर भोगतृष्णा से चंचल इन्द्रियोंवाली यौवन से अस्थिर
चित्तवृत्ति वश में नहीं की जा सकती है।।19।। वह मनोहारिणी कान्ता, उसके वे विशाल
स्तन, वे मनोज्ञ हावभाव और वह सुन्दर मुख युवावस्था में ऐसी-ऐसी अनेक चिन्ताओं से
मनुष्य शिथिल हो जाता है।।20।। इस संसार में सज्जन लोग चंचल भोगतृष्णा से
प्रपीड़ित युवा पुरुष का आदर सत्कार नहीं करते, केवल यही बात नहीं है, किन्तु वे
कटे हुए और सूखे तिनके के समान उसका तिरस्कार करते हैं।।21।।
मनस्वियों
के लिए मानहानि मरण के समान क्लेशकारक है, इस अभिप्राय से कहते हैं।
यौवन
अभिमान से महाराज के समा जड़ और दोषरूप मोतियों को धारण करने वाले अविवेकी पुरुष
के अधःपतन के लिए नित्य बन्धन का स्तम्भ है या वैसे ही यौवन भी अभिमान से मत्त और
विविध दोषों से पूर्ण पुरुष का अधःपतन कर देता है। मुनिवर, खेद है कि मनुष्यों का
यौवन वनस्वरूप है, प्रियतम स्त्री, पुत्र आदि इष्ट पदार्थों की अप्राप्ति और
वियोग-जनित सन्ताप से पैदा हुआ शोष और रोदन उसके वृक्ष हैं, मन उक्त वृक्षों की
बड़ी जड़ है और दोषरूपी साँप उन वृक्षों के खोखलों में निवास करते हैं।।22,23।
मुनिवर, आप यौवन को दुष्ट चिन्तारूपी भ्रमरों का आवासभूत कमल समझिय। वह विषय
सुखकणरूपी मधु-बिन्दुओं और रागादिरूपी केसरों से भरा हुआ है, और दुष्ट संकल्परूपी
पंखुड़ियों से व्याप्त है। अर्थात् जैसे कमल के ऊपर भ्रमर मँडराते हैं, वह मकरन्द
और केसर से खचाखच भरा रहता है और चारों ओर से पंखुड़ियों से घिरा रहता है, वैसे ही
युवावस्था में मनुष्य के चित्त में अनेक दुष्ट चिन्ताएँ मँडराती हैं, बुरे संकल्प
घेरे रहते हैं और विषयसुखकण और राग का साम्राज्य छाया रहता है।।24।। यौवन पुण्य और
पाप रूपी या लौकिक कार्यरूपी, पतन के हेतु होने से, कुत्सित पंखवाले, हृदयरूपी
तालाब के तीरपर विचरने वाले आधि-व्याधिरूपी पक्षियों का निवासस्थान है। नवयौवन
असंख्य एवं वृद्धि को प्राप्त होने वाली तुच्छ संकल्प-विकल्परूप लहरों का अवधिरहित
(असीम) या अन्त में जरा आदि दुःख देने वाला सागर हैं। अर्थात् जैसे असीम समुद्र
असंख्य और क्रमशः वृद्धि को प्राप्त होने वाली जलमय तरंगों का एकमात्र आश्रय है,
वैसे ही अन्त में जरा, मरण आदि दुःख का स्थान नवयौवन भी असंख्य और लगातार बढ़ने
वाली संकल्प-विकल्प-परम्परा का एकमात्र आश्रय है। जैसी संकल्प-विकल्प-परम्पराएँ
यौवनकाल में होती हैं, वैसी अन्यकाल में नहीं होती, यह आशय है। यौवन आँधी के समान
है। जैसे धूलि से अन्धकारपूर्ण आँधी मकड़ी के सम्पूर्ण जालों को तहस-नहस करने में
सिद्धहस्त होती है, वैसे ही रजोगुण और तमोगुण से पूर्ण विषम यौवन सत्संगति,
शास्त्राभ्यास आदि अनेक प्रयत्नों से उत्पन्न होने वाले सदगुणों की (प्रसाद,
प्रकाश, विवेकदृष्टि की अभिवृद्धि आदि की) स्थिरता को नष्ट करने में बड़ा दक्ष है।
यौवन अतिरूक्ष पांसुओं के (आँधी में उड़ने वाले धूलकणों के) समान है। जैसे इधर-उधर
उड़ रहे अपवित्र तृण-पत्तों से अधिक दुःखदायक अतिरूक्ष धूलिकण लोगों के मुँह को
धूलि-धूसर कर देते हैं और आकाश में बहुत ऊँचे स्थान में चढ़ते हैं, वैसे ही
विषयोन्मुख चंचल इन्द्रियों द्वारा अधिक कष्टदायक रूक्ष यौवन भी विषयवासना से
उत्पन्न रोगों से लोगों के मुँह को घूसर (रक्तशून्य सफेद) कर देता है और दोषों की
परम सीमा में आरूढ़ होता है।।25-28।। मनुष्यों का यौवनोल्लास (यौवन की अभिवृद्धि)
दोषों को जगाता है, उत्पन्न करता है और गुणों का मूलोच्छेद करता है। अतएव वह पापों
की वृद्धि करने के कारण पापों का विलास है।।29।। मुनिवर, मनुष्यों का नवयौवन
चन्द्रमा के सदृश है। जैसे चन्द्रमा कमल के पराग में आसक्त भँवरी को कमल में
बाँधकर मोहित कर देता है।।30।। शरीररूपी छोटे बन में उत्पन्न हुई बड़ी रमणीय
यौवनरूपी मंजरी जब उत्कर्ष को प्राप्त होती है बढ़ती है तब अपने से संबद्ध मनरूपी
भ्रमर को उन्मत्त कर डालती है। अर्थात् जैसे छोटी वाटिका या कुंज में उत्पन्न
रमणीय फूलों का गुच्छा जब बढ़ता है, तब उसमें बैठे भँवरों को मोहित कर देता
है।।31।। मुनिवर, शरीररूपी मरूभूमि में कामरूपी सूर्य के ताप से प्रतीत हो रही
यौवनरूपी मृगतृष्णा के प्रति जल की इच्छा से दौड़ रहे मृग गड्ढे गिर पड़ते हैं, वैसे ही शरीर में काम के सन्ताप
से भासित यौवन के प्रति दौड़ रहा मन विषयों में फँस जाता है।।32।। शरीररूपी रात्रि
की चाँदनी, मनरूपी सिंह की अयाल (गर्दन के बाल) और जीवनरूपी समुद्र की लहरी
युवावस्था से मुझे सन्तोष नहीं होता।।33।। जो यह युवावस्था है, यह देहरूपी जंगल
में कुछ दिनों के लिए फली-फूली शरद ऋतु है, यह शीघ्र ही क्षय को प्राप्त हो
जायेगी। अतएव इस पर आप लोगों को विश्वास नहीं करना चाहिए। (भगवान श्रीरामचन्द्रजी
का अपने अनुचरों के प्रति यह कथन है)।।34।।
उक्त
अर्थ का ही छः श्लोकों से विशदरूप से वर्णन करते हैं।
जैसे
अभागे पुरुष के हाथ से चिन्तामणि (अभीष्ट पदार्थ देने वाला रत्न) तत्काल चला जाता
है, वैसे ही शरीर से युवावस्थारूपी पक्षी जल्दी भाग खड़ा होता है।।35।। जब यौवन
अपनी चरम सीमा में आरूढ़ हो जाता है, तब केवल नाश के लिए ही सन्तापयुक्त कामनाएँ
वृद्धि को प्राप्त होती है।।36।। तभी तक राग-द्वेषरूपी पिशाच विशेषरूप से इधर-उधर
घूमते फिरते है, जब तक यह यौवनरूपी रात्रि सम्पूर्णतया नष्ट नहीं हो जाती।
राग-द्वेष आदि सम्पूर्ण दोषों की जननी युवावस्था ही है, यह भाव है।।37।। जैसे
विविध बालक्रीडाएँ करने वाले, क्षणभर में नष्ट होने वाले मरणासन्न पुत्र में लोगों
की करूणा होती है, वैसे ही विविध चित्तविकारों (मनोरथों) से बढ़ी-चढ़ी, थोड़े समय
तक रहकर नष्ट हो जाने वाली बेचारी युवावस्था पर भी करूणा करो। जो मनुष्य क्षणभर
में विनष्ट होने वाले यौवन से मूढ़तावश फूला नहीं समाता, वह मनुष्य होता हुआ भी
निरा पशु ही है, क्योंकि वह महामूढ़ है। जो मनुष्य अभिमान युक्त अज्ञान के कारण
मदोन्मत्त युवावस्था को उपादेय (सारयुक्त) वस्तु समझकर उस पर आसक्त होता है उस
दुर्बुद्धि को शीघ्र ही पश्चात्ताप भोगना पड़ता है।।38-40।। मुनिवर, इस जगत में वे
लोग पूजनीय हैं, वे ही महात्मा हैं और वे ही पुरुष हैं, जिन्होंने अहिंसा, सत्य,
अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि की हानि के बिना सुखपूर्वक यौवनरूपी संकट को पार कर दिया।
बड़े-बड़े मगरों से पूर्ण सागर सुखपूर्वक तैरा जा सकता है, परन्तु रागद्वेष आदि
रूप महातरंगों के कारण उमड़ा हुआ और अनेक दोषों से युक्त निन्दनीय यौवन के पार
जाना कठिन है।।41-42।।
बाल्यावस्था
और वृद्धावस्था में अज्ञान और अशक्ति से पुरुषार्थ साधन नहीं हो सकता और युवावस्था
विविध दोषों से परिपूर्ण होने के कारण पुरुषार्थ साधन के योग्य नहीं है, ऐसी
परिस्थितियों में पुरुष को कभी भी साधनसम्पत्ति मे मोक्ष की आशा नहीं है, ऐसी
आशंका कर सम्पूर्ण यौवनों की निन्दा नहीं की जाती, किन्तु दुर्योधन की ही निन्दा
की जाती है। सुयौवन का तो पुरुषार्थ में ही पर्यवसान होता है, ऐसा लक्षण द्वारा दिखलाते
हुए उसकी दुर्लभता को दिखलाते हैं।
ब्रह्मन
विनय से अलंकृत, साधुओं के आश्रम के समान शांतिप्रद, करुणापूर्ण और शम, दम आदि
विविध गुणों से युक्त यौवन इस संसार में इस मनुष्य जन्म में भी वैसे ही दुर्लभ है
जैसे की आकाश में वन। अर्थात् आकाश में वन की स्थिति अतिदुर्लभ है, वैसे ही इस
संसार में विनययुक्त, पूज्य मुनिजनों में रहने वाला, दया से परिपूर्ण और शम, दम
आदि गुणों से परिवृत सुयौवन मनुष्यजन्म में भी अतिदुर्लभ है, फिर अन्य योनियों में
तो कहना ही क्या है ?।।43।।
बीसवाँ सर्ग समाप्त
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ