आधि,
व्याधि आदि अनेक क्लेशों तथा जरा मृत्यु से ग्रस्त अभिमान और
तृष्णा के मूलकारण शरीर की निन्दा।
तृष्णा भले ही दुःख की कारण हो, पर 'जीवन्नरो भद्रपशतानि पश्येत्' (जीवित पुरुष अनेक मंगलों को देखता है) इस न्याय से भी शरीर
सुख-भोग का स्थान है, ऐसी प्रसिद्धि है और शरीर पर सबका अतिशय प्रेम भी देखा जाता
है, इसलिए शरीर सुख का कारण है, ऐसी शंका करके शरीर भी दुःख का ही कारण है ऐसा
उपादान करते हैं।
श्रीरामचन्द्रजी ने कहाः महर्षि जी,
गीली आँतों (पेट में स्थित मल, मूत्र आदि की थैलियों) और नाड़ियों से व्याप्त
परिणामशील और मरणधर्म जो शरीर संसार में सबके सामने प्रकाशित हो रहा है, वह भी
केवल दुःखभोग के लिए ही है। अर्थात् मल, मूत्र, शुक्र और शोणित से आर्द्र नाड़ियों
से परिव्याप्त, विविध प्रकार के विकारों से युक्त और पतनशील यह जीवदेह केवल
दुःखभोग के लिए प्रकाशित हो रही है।।1।। युक्तिमार्ग का अवलम्बन करने पर स्पष्टरूप
से ज्ञात होता है कि यह जीव शरीर दो रूप वाला है। प्राण आदि चार कोशों का आधार
होने के कारण जिसमें आत्मचमत्कृति (अध्यस्त-चैतन्यतादात्म्य) लिपटी सी है, ऐसा यह
शरीर अज्ञ होने पर भी अभिज्ञ के समान और अभव्य होने पर भी भव्य के समान प्रतीत
होता है। यह न तो जड़ है और न चेतन ही है।(⌂)।।2।।
⌂ इस चित्त-जड़संयुक्त देह का देहभाग अज्ञ है अर्थात् जड़ है।
आत्मा इसका ज्ञाता है और वह अभिज्ञ है। अभिज्ञ के संयोग से यह जड़ देह अभिज्ञ के
समान प्रतीत होता है। इसके ही अवलम्बन से मुक्ति प्रदान होती है, इसलिए यह
अभव्य-अमंगल-होने पर भी भव्य है। इसी कारण यह अन्यान्य जड़ों से विलक्षण एवं शुद्ध
चेतनरूप आत्मा भी नहीं है।
चित्
और जड़ दृष्टियों के मध्य में क्या यह शरीर आत्मकोटि में है (चेतन है) या
अनात्मकोटि में है (जड़ है) ऐसा सन्देह होने पर निर्णय न होने से दुष्ट चित्त से
युक्त एवं विवेक रहित होने से ही विमूढ़ आत्मावाला यह शरीर मोह ही पैदा करता है।
अथवा 'प्रपश्यति' ऐसा पाठ होने पर अज्ञानी और विवेकी में से अज्ञानी इस देह में
आत्मबुद्धि करने के कारण संसार को ही देखता है, पुरुषार्थ को नहीं देख पाता,
क्योंकि वह चंचल एवं अशुद्ध चित्तवाला है।।3।। यह शरीर अल्प खाने-पीने से आनन्द को
प्राप्त होता है और अल्प शीत-उष्ण आदि के क्लेश को प्राप्त होता है, इसलिए शरीर के
समान गुणहीन, शोचनीय (शोक करने योग्य) और अधम दूसरा कोई नहीं है।।4।।
यह
शरीर उपेक्षणीय है, यह दर्शाने के लिए वृक्ष के रूपक से उसका वर्णन करते हैं।
यह
शरीर वृक्ष के तुल्य है। दो भुजाएँ इसकी शाखाएँ हैं उन्नत कन्धा इसका तना है, दो
नेत्र इसके खोखले हैं, मस्तक इसका बड़ा भारी फल है, यह दाँतरूपी पक्षियों के बैठने
के स्तम्भ के समान उत्तम रीति से खड़ा है, यह दो कर्णरूपी कठफोड़ा पक्षियों की
चोंच के आघात से जर्जरित (छिद्रयुक्त-सा) रीति से खड़ा है, हाथ और पैर इसके सुन्दर
पत्ते हैं, रोग आदि इसमें लता स्थानीय हैं। जैसे कुल्हाड़े आदि से वृक्ष काटा जाता
है, वैसे ही शस्त्र आदि से इस शरीर का भी उच्छेद, किया जा सकता है, 'द्वा सुपर्णा' इस श्रुति में
प्रसिद्ध (जीव और ईश्वररूप) पक्षियों ने जिसके हृदय में अपने निवास के लिए घोंसला
बना रक्खा है, यह उत्पन्न और विनष्ट होने वाले दाँतरूपी केसर से शोभित हासरूप
पुष्पों से हर घड़ी अलंकृत रहता है अर्थात् जैसे वसन्त आदि फूल की ऋतु आने पर
वृक्ष उत्पन्न हो हो कर मुरझाने वाले एवं केसरर से शोभित होने वाले फूलों से
अलंकृत होता है, वैसे ही यह शरीर भी हर्ष के समय में उत्पन्न होकर नष्ट होने वाले
एवं दाँतरूपी केसरों से सुशोभित होने वाले मन्दहास से शोभित होता है। सुन्दर
कान्तिरूपी छायावाला यह देहरूपी वृक्ष जीवरूपी यात्रियों का विश्राम-स्थान है। यह
किसका आत्मीय (मित्र) और किसका शत्रु है ? इस देहरूपी वृक्ष
में प्रेम और द्वेष करना व्यर्थ है अर्थात् देह के साथ जीव का कोई भी वास्वतविक
सम्बन्ध नहीं है, इसलिए यह किसी का आत्मीय नहीं है, अतः इसके प्रति आस्था और
अनास्था ही क्या ?।।5-8।।
यह
शरीर सब लोगों में आत्मरूप से प्रसिद्ध है, इसको उपेक्षणीय कैसे कहते हैं ? ऐसी शंका होने पर कहते हैं।
पूज्यवर,
संसार-सागर को पार करने के लिए पुनः पुनः गृहीत नौकारूपी देह में किसकी आत्मबुद्धि
होगी ? अर्थात् जैसे सागर को पार करने के लिए
गृहीत नौका में किसी की आत्मसंभावना का संभव नहीं है, वैसे ही संसार को पार करने
के लिए अर्थात् संसार से मुक्त होने के लिए बार बार गृहीत देह में किसकी आत्मभावना
हो सकती है ?।।9।। रोमरूपी असंख्य वृक्ष और
इन्द्रियरूपी अनेक गड्ढों से युक्त देहनामक निर्जन वन में कौन पुरुष विश्वास को
(यह चिरकाल तक निःशंक होकर रहने योग्य है, ऐसी प्रतीति को) प्राप्त होगा ?।।10।। पूज्य मुनि जी, साररहित तथा छिद्रयुक्त, मांस, नसें
(स्नायु) और हड्डियों से वेष्टित और बाहर निकलने (मुक्त होने) के उपायभूत उपदेश
(शब्द) से विरहित इस शरीररूपी नगाड़े में मैं बिल्ली की तरह रहता हूँ।।11।।
छः
श्लोकों से देह का पाकड़ के वृक्ष के रूपक से निरूपण करते हैं।
शरीररूपी
पाकड़ का वृक्ष मुझे सुखकारक प्रतीत नहीं होता। यह संसाररूपी अरण्य में पैदा हुआ
है, चित्त चपल बन्दर इसमें इधर उधर कुदता फाँदता है, चिन्तारूपी मंजरी से यह फूला
हुआ है, महादुःखरूपी घुनों ने इसके चारों ओर छेद कर रक्खे हैं, तृष्णारूपी सर्पिणी
का यह घर है, कोपरूपी कौए ने इसमें घोंसला बना रक्खा है, मन्द हासरूप प्रस्फुटित
पुष्पों से यह शोभायमान है, शुभ और अशुभ (पुण्य और पाप) ये दो इसके महाफल हैं,
भुजाएँ ही इसमें लताएँ हैं, हाथ ही पुष्पों के गुच्छे हैं, यह बड़ा भला लगता है,
प्राणवायुरूप वायु से इसके सम्पूर्ण अवयवरूपी पत्ते हिल रहे हैं, सम्पूर्ण
इन्द्रियरूपी चिड़ियाँ इसमें बसेरा करती हैं, सुन्दर घुटनों से युक्त अधोभाग इसका
तना है, यह उन्नत है और यौवनकान्तिरूपी शीतल छाया से युक्त है। कामदेवरूपी यात्री
इस पर बास करता है, सिर में उगे हुए खूब लम्बे सिर के केश उसके बरोह हैं।
अहंकाररूपी गीध इसमें घोंसला बनाकर डटा है, यह भीतर से खोखला (छिद्रयुक्त) है।
विविध वासनारूपी जटाओं से चारों ओर वेष्टित होने के कारण दुश्छेद्य है,
व्यायामरूपी विस्तार से कोमलतारहित और रूक्ष भी है।।12-17।।
महामुने,
अहंकाररूपी गृहस्थ का महान् गृह यह कलेव चाहे भूमि में गिरकर बदल जाय, चाहे चिरकाल
तक स्थिर रहे, इससे मेरा क्या प्रयोजन ?।।18।। इस देहरूपी
अहंकार के घर में इन्द्रियरूपी पशु कतार बाँधकर खड़े हैं, तृष्णारूपी गृहस्वामिनी
(घर की मालकिन) बार बार इधर उधर घूम रही है, कामदेवरूपी गेरू आदि रंगने के पदार्थों
से सब अवयव रंगे गये हैं, इसलिए यह देह मुझे अभीष्ट नहीं है। पीठ की हड्डीरूपी
(रीढ़रूपी) सहतीरों के परस्पर मिलने से जिसके भीतर बहुत थोड़ा स्थान रह गया है,
आँतरूपी रज्जुओं से बँधा हुआ देहरूपी घर मुझे अभीष्ट नहीं है।।19-20।। स्नायु (नस)
रूपी रस्सियाँ जिसमें चारों ओर तनी हैं, रस, रक्तरूप जल से रचित गारे से लिपा गया,
वृद्धावस्था (केश रोम आदि को सफेद करने वाला बुढ़ापा) रूपी चूने से सफेद यह
देहरूपी घर मुझे अभीष्ट नहीं है।।21।। चित्तरूपी नौकर ने विविध चेष्टाओं द्वारा
इसकी स्थिति इतनी मजबूत कर रक्खी है कि यह गिर नहीं सकता, मिथ्या और अज्ञान इसके
आधारस्तम्भ हैं, दुःखरूपी बाल-बच्चों ने इसमें रो रोकर कुहराम मचाया है, सुख-शय्या
(सुषुप्ति) से यह मनोहर है, दुश्चेष्टारूपी दाह-व्रण से पीड़ित दासी इसमें रहती
है, ऐसा देहरूपी घर मुझे अभीष्ट नहीं है।।22,23।।
हे
मुने, यह देहरूपी गृह दोषपूर्ण विषयसमूहरूपी बर्तनों और अन्यान्य सामग्रियों से
ठसाठस भरा हुआ है और अज्ञानरूपी क्षार से जर्जर है, भला बतलाइये तो सही, यह हमारा
अभीप्सित कैसे हो सकता है ? टखने (एड़ी के ऊपर की गाँठ) रूपी
आधारकाष्ठ स्थित पिण्डलीका घुटनारूप मस्तक जिसके स्तम्भ का मस्तक है, लम्बी लम्बी
दो भुजाएँ रूपी आड़ी लकड़ियों से अत्यन्त दृढ़ यह देहरूपी घर मुझे अभीष्ट नहीं है।
ब्रह्मन, जिसमें ज्ञानेन्द्रियरूपी झरोखों के भीतर प्रज्ञारूपिणी गृहस्वामिनी
क्रीड़ा कर रही है, चिन्तारूपी अनेक पुत्रियाँ जिसमें विद्यमान हैं, ऐसा देहरूपी
घर मुझे अभीष्ट नहीं है। सिर के केशरूपी छादन (छाजन-छाने की घास-फूस) से आच्छादित,
कर्णरूपी शोभाशाली चन्द्रशालाओं से (घूर ऊपर के कमरों से) युक्त तथा लम्बी लम्बी
अँगुलीरूपी काठ के चित्रों से सुसज्जित देहरूपी घर मुझे पसन्द नहीं है।।24-27।।
जिसमें सम्पूर्ण अंगरूपी दीवारों में रोमरूपी निबिड़ (खूब घने) जौ के अंकुर उगे
हैं और पेटरूपी छिद्र है, ऐसा देहरूपी घर मुझे नहीं चाहिए।।28।। जिसमें नखरूपी
मकड़ियों के जाले तने हैं, कुत्ती की नाई भ्रमण, दीनता, कलह आदि कराने वाली क्षुधा
जिसके अन्दर शोर मचाती है, जिसमें भीषण शब्द करने वाला वायु सदा चलता रहता है,
वायु का वेग भीतर प्रवेश करने और बाहर निकलने में सदा व्यग्र रहता है और
इन्द्रियरूपी झरोखे सदा खुले हैं, इस प्रकार का देहरूपी घर मुझे अभीष्ट नहीं है।
उक्त देहरूपी घर के मुँहरूपी दरवाजे पर जिह्वारूप वानरी सदा डटी रहती है, इससे
उसकी भीषणता और बढ़ जाती है, दाँतरूप हड्डी के टुकड़े स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं, अतः
यह देहगृह मुझे अभीष्ट नहीं है।।29-31।। त्वचारूपी चूने के लेप से (पलस्तर से)
चिकना है, सम्पूर्ण सन्धियाँ इस घर के यन्त्र हैं, उनके संचार से (भ्रमण आदि से)
यह चंचल है, मनरूपी सदा रहने वाले चूहे ने इसे चारों ओर से खोदकर शिथिल और कूड़ा
आदि से पूर्ण कर रक्खा है, अतः यह देहगृह मुझे नहीं जँचता।।32।। क्षणभर में
मन्दहासरूपी दीपों की प्रभा से उज्जवल एवं आह्लाद से दैदीप्यमान और क्षणभर में
अज्ञानरूपी अन्धकार से व्याप्त यह देहरूपी गृह मुझे भला नहीं लगता। यह देह
सम्पूर्ण रोगों का घर, बुढ़ापे के कारण पड़ने वाली झुर्रियों और केशों की सफेदी का
नगर है। इसमें मानसिक क्लेशों का ही प्रधानरूप से साम्राज्य है, अतः उनसे इसकी
गहनता का कोई ठिकाना नहीं है, इसलिए यह देहरूपी घर मुझे अभीष्ट नहीं है। घोर अन्धकार
से आच्छन्न दिशारूपी झाड़ियों से युक्त भीतर से शून्य अनेक गुहाओं से पूर्ण यह
देहरूपी महाअरण्य है, इसमें इन्द्रियरूपी भालू भयप्रदर्शन करते हुए इधर उधर घूमते
रहते हैं, अतः यह देहरूप अरण्य मुझे इष्ट नहीं है।।33-35।।
.................................... क्रमशः