मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

तुम लगे रहो........ पूज्य बापू जी



समत्व योग बड़ा महत्त्वपूर्ण योग है। इस योग को समझने के लिए, इसमें प्रवेश करने के लिए धारणा, ध्यान, समाधि करो। समाधि करना अच्छा है, ध्यान करना अच्छा है, जप करना अच्छा है, सेवा करना अच्छा है लेकिन इन सबका फल यह है कि तुम विदेही की नाईं शोभा पा लो।

एक महात्मा बड़े सूक्ष्म विषय पर प्रवचन करते थे। वेदांत की गूढ़ बातें साधकों को समझाते थे। एक भक्त खोमचा लेकर साधकों की ग्राहकी भी कर लेता था और महात्मा का प्रवचन भी सुन लेता था। भक्त और साधक जब सत्संग सुनते थे तो वह भी सत्संग में एकतान हो जाता। कई महीने सत्संग सुनने के बाद एक बार वह बाबाजी के चरणों में दंडवत प्रणाम करके कहता हैः "गुरु महाराज ! मैंने वेदान्त को सुन लिया, समझ लिया कि यह (संसार) सरकने वाली चीज है। अन्वय(संबंध) और व्यतिरेक(असमानता) का सिद्धान्त मैंने जान लिया। जाग्रत का व्यतिरेक स्वप्न में हो जाता है, स्वप्न का व्यतिरेक सुषुप्ति में हो जाता है लेकिन आत्मा का तीनों अवस्थाओं में अन्वय है। दुःख है, दुःख आया तो सुख गायब का हो गया। सुख आया तो दुःख गायब हो गया। चिंता आयी तो आनंद गायब हो गया, हर्ष गायब हो गया और हर्ष आया तो चिंता गायब हो गयी किंतु इनमें आत्मा ज्यों का तयों है। यह मैं जान तो गया। बचपन आया, चला गया लेकिन बचपन का द्रष्टा रहा। जवानी आयी, चली गयी लेकिन उसको देखने वाला रहा। बुढ़ापा आया, मौत आयी परंतु मौत के बाद भी मैं रहता हूँ। मर जाने के बाद भी सुखी रहूँ – ऐसा भाव हम लोगों का होता है। यह बात आपकी मैंने गुरु महाराज ! अच्छी तरह से समझ ली, लेकिन आत्मा की मुक्तता का अनुभव मुझे नहीं हो रहा है। आत्मा मुक्त है, शरीर संसारी है। शरीर की संसार के साथ और आत्मा की परमात्मा के साथ एकता अनुभव करने की आप श्री की तरफ से जो वाणी थी, वह वाणी मैं समझ तो गया किंतु गुरु महाराज ! हे कृपानाथ ! हे प्राणिमात्र के परम मित्र, परम हितैषी गुरुवर ! मैं तो एक छोटा-सा धंधेवाला दिख रहा हूँ, खोमचे वाला, चना बेचने वाला। आपके वचन समझ तो गया हूँ लेकिन आत्मा का आनंद प्रकट नहीं हुआ।"

बाबा जी ने कहाः "कोई प्रतिबंधक प्रारब्ध, रूकावट का कोई प्रारब्ध होगा, इसीलिए तुम समझ गये फिर भी आनंद प्रकट नहीं होता है। तुम लगे रहना।"

गर्मियों के दिन थे, धूप तड़ाके की थी, लू चल रही थी। एक मोची उस गर्मी में, लू में नंगे पैर, नंगे सिर कष्ट का शिकार होता हुआ लथड़ता-लथड़ता आकर एक पेड़ के करीब बेहोश होकर गिरा। खोमचे वाले ने देखा कि गर्मी के मारे इसके प्राण सूख रहे हैं, कंठ सूख गया है। उसने उसके सिर पर हलकी-सी तेल की मालिश की। शर्बत बना कर उसके मुँह में थोड़ा-थोड़ा डाला। फिर चने वने खिलाकर उसको जरा तसल्ली दी। वह आदमी उठ खड़ा हुआ। जब वह जाने लगा तो धन्यवाद से, कृतज्ञता से उसकी आँखें भर गयीं। बार-बार उसकी आँखों से कुछ टपक रहा है। कुछ आशीर्वाद का भाव टपक रहा है। वह मोची तो चला गया लेकिन मोची के द्वारा वह अंतर्यामी परमात्मा इस पर बरस पड़ा। इसके हृदय में वह आनंद छलकने लगा। 'मोची के वेश में, खोमचेवाले के वेश में, श्रोताओं के वेश में, धनवान के वेश में और निर्धन के वेश में यह जो दिख रहा है, वह उसकी माया है लेकिन इसको जो चला रहा है वह महेश्वर है। वह सच्चिदानंद सोऽहम् है। वही मैं हूँ।' – ऐसा बोध प्रकट होने लगा। चित्त में बड़ी शांति, बड़ी निर्मलता, बड़ी आध्यात्मिक पूँजी प्रकट होने लगी। गुरु जी के पास गया। प्रणाम करके अपनी स्थिति का वर्णन करने लगा कि थोड़ी-सी सेवा करने से यह आत्मानंद प्रकट हुआ है।

बाबा ने कहा कि "निष्काम भाव से किये हुए कर्म अंतःकरण को शुद्ध करते हैं और शुद्ध हृदय में अपना मुख दिखता है। जैसे साफ आईने में अपना चेहरा दिखता है, ऐसे ही शुद्ध हृदय में अपने स्वरूप का बोध होता है। तेरा प्रतिबंधक प्रारब्ध हट गया।"

घटना घट जाय तो घड़ी भर में काम हो जात है। लगे रहें, कोई-न-कोई ऐसी घड़ी आती है जब सुने हुए उस तत्त्वज्ञान का, उसकी गरिमा का हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। ॐ... ॐ..... ॐ.....

स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 13,14 अंक 225

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