मासिक साधना उपयोगी तिथियाँ

व्रत त्योहार और महत्वपूर्ण तिथियाँ

25 फरवरी - माघी पूर्णिमा
03 मार्च - रविवारी सप्तमी (शाम 06:19 से 04 मार्च सूर्योदय तक )
06 मार्च -
व्यतिपात योग (दोपहर 14:58 से 07 मार्च दिन 12:02 मिनट तक)
08 मार्च - विजया एकादशी (यह त्रि स्पृशा एकादशी है )
09 मार्च - शनि प्रदोष व्रत
10 मार्च - महा शिवरात्री (निशीथ काल मध्यरात्री 12:24 से 01:13 तक )
11 मार्च - सोमवती अमावस्या (
सूर्योदय से रात्री 1:23 तक )
11 मार्च - द्वापर युगादी तिथि
14 मार्च - षडशीति संक्रांति (पुण्यकाल शाम 4:58 से
सूर्योदय तक)
19 मार्च - होलाष्टक प्रारम्भ
20 मार्च - बुधवारी अष्टमी (
सूर्योदय से दोपहर 12:12 तक)
23 मार्च - आमलकी एकादशी
24 मार्च - प्रदोष व्रत
26 मार्च - होलिका दहन
27 मार्च - धुलेंडी , चैतन्य महाप्रभु जयंती
29 मार्च - संत तुकाराम द्वितीय
30 मार्च - छत्रपति शिवाजी जयन्ती

मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

श्री योगवासिष्ठ महारामायण - 36 (मुमुक्षु-व्यवहार प्रकरण)


बारहवाँ सर्ग
संसारप्राप्ति की अनर्थरूपता, ज्ञान का उत्तम माहात्म्य और राम में प्रश्नकर्ता के गुणों की अधिकता का वर्णन।

अन्य लोगों के प्रति भी विवेक वैराग्य की अभिवृद्धि के लिए संसारप्राप्ति की अनर्थरूपता और ज्ञान के माहात्म्य को कहने के इच्छुक श्रीवसिष्ठजी श्रीरामचन्द्रजी को प्रवृत्त करने के लिए आप में केवल विकासयुक्त बुद्धि ही नहीं है, किन्तु और भी अनेक गुण हैं तथा प्रश्नकर्ता के सम्पूर्ण लक्षण आप में घटते हैं, इस प्रकार प्रशंसा द्वारा प्रोत्साहित करते हुए बोलेः
हे रघुकुलकमलदिवाकर, आपका मन पूर्वोक्त गुणों से परिपूर्ण है और आप हमारे सामान्य हैं तथा आप प्रश्न करना जानते हैं, साधारणरूप से उक्त बात को भी विशेषरूप से आप जानते हैं, इसलिए मैं आदरपूर्वक आपको उपदेश देने के लिए उद्यत हुआ हूँ। रजोगुण और तमोगुण से रहित (रजोगुण से बुद्धि में चंचलता आती है और तमोगुण से आवरण होता है, इसलिये उक्त दोनों गुणों से शून्य होना आवश्यक है), इसलिए शुद्ध सत्त्वगुणवाले परमात्मा की ओर प्रवृत्त होने वाली बुद्धि को आत्मा में स्थापित कर अर्थात् स्वस्थ कर सुनने के लिए प्रवृत्त होइये। हे रामचन्द्रजी, जैसे समुद्र में रत्नसम्पत्ति (रत्नों से परिपूर्ण लक्ष्मी) रहती है वैसे ही प्रश्नकर्त्ता के सभी गुण आपमें विद्यमान हैं और वक्ता के (उपदेशक के) गुण मुझमें विद्यमान हैं।।1-3।। हे वत्स, जैसे चन्द्रमा के किरणों के संसर्ग से चन्द्रकान्त मणि आर्द्रता को प्राप्त होती है, वैसे ही विवेक के संसर्ग से उत्पन्न वैराग्य को आप प्राप्त हुए हैं। जैसे कमल का चारों और फैले हुए एवं कभी नष्ट न होने वाले दीर्घ तन्तुओं और सुगन्ध आदि से सम्बन्ध रहता है वैसे ही बाल्यावस्था से लेकर ही चिरकाल से शुद्ध आपका सब दिशाओं में फैले हुए एवं अविच्छिन्न शुद्ध सदगुणों से सम्बन्ध है। इसलिए हे राघव, सुनिये, मैं आपसे यह मोक्षकथा कहूँगा, क्योंकि आप ही इस कथा के योग्य पात्र हैं अर्थात् श्रवणजनित प्रकृष्ट बोध के आधार हैं। शुद्ध (शुभ्र) कुमुदिनी चन्द्रमा के बिना विकासयुक्त नहीं हो सकती अर्थात् जैसे शुद्ध कुमुदिनी चन्द्रमा में ही (चन्द्रमा के उदित होने पर ही) विकसित होती है वैसे ही यह मोक्षकथा आप में ही विकास को प्राप्त होती है।।4-6।।
इस कथा श्रवणरूप कार्य की अवधि कौन है ? ऐसी आशंका होने पर परम पदसाक्षात्कार रूप विश्रान्ति ही उसकी विश्रान्ति है, इस अभिप्रायः से कहते हैं।
जो कोई कार्य हैं और जो कोई प्रमाण, प्रमेय आदि व्यवहार हैं, वे सब कार्य और वे सब व्यवहार परब्रह्म परमात्मा के दर्शन होने पर सर्वथा शान्त हो जाते हैं।।7।।
उक्त विश्रान्ति में अविश्वास का निराकरण करते हैं।
यदि विशुद्ध चित्तवाले पुरुष को विज्ञानरूप विश्रान्ति प्राप्त न हो, तो कौन विवेकशील पुरुष इस संसार में अनेक चिन्ताओं को सहेगा अर्थात् उनका सहन न हो सकने से आपकी नाईं देहत्याग के लिए उद्यत हो जायेगा। केवल बाह्य व्यवहार ही शान्त नहीं होते, किन्तु मानसिक व्यवहार भी शान्त हो जाते हैं। जैसे हिरण्यगर्भ की आयु की समाप्ति को प्राप्त होकर हिमालय आदि कुलपर्वतों की बड़ी-बड़ी चट्टानें कल्पान्त के सूर्यों के संसर्ग से चूर्ण-चूर्ण हो जाती हैं वैसे ही परमात्मा का साक्षात्कार होन पर सम्पूर्ण मानसिक प्रवृत्तियाँ लीन हो जाती हैं।।8।।
भगवती श्रुति भी कहती है - 'भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंश्याः। क्षीयन्ते चाऽस्य कर्माणि तस्मिन दृष्टे परावरे।।' (परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार होने पर हृदय की ग्रन्थियाँ (काम आदि) टूट जाती हैं, सम्पूर्ण सन्देहें की निवृत्ति हो जाती है और सब कर्म क्षीण हो जाते हैं।)
हे श्रीरामचन्द्रजी, संसाररूपी विष के आवेश से हुई विषूचिका (हैजा) बड़ी कष्टदायिनी है, वह पवित्रतम जीव और ब्रह्म के ऐक्यज्ञानरूपी गारूड़मन्त्र से शान्त होती है। विषभक्षण से भी विषूचिका होती है और वह विषसंशोधन से शान्त हो जाती है। उक्त मन्त्ररूपी परमार्थज्ञान (जीवब्रह्मैक्यज्ञान) संतों के साथ शास्त्रचिन्तन करने से प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। इस अधिकारी जन्म में विचार करने पर अवश्य ही सम्पूर्ण दुःखों का विनाश होता है, ऐसा समझना चाहिए, इसलिए विचारवान लोगों को अनादर दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। जैसे साँप अपनी जीर्ण त्वचा का परित्याग कर सन्तापरहित और शान्त हो जाता है वैसे ही विचारवान पुरुष मानसिक व्यथाओं की पेटी के समान इस सम्पूर्ण जगत् का त्याग कर सन्तापरहित और शान्तहृदय हो जाता है। सम्यगदर्शनवान् पुरुष इस सम्पूर्ण जगत् को विनोद से इन्द्रजाल की नाईं देखता है, जिसे सम्यक ज्ञान नहीं हुआ है, उसी के लिए यह जगत् परम दुःखदायी है। यह संसारानुराग अत्यन्त विषम (क्लेशदायक) है। यह निःशंक ही संसार में आये हुए पुरुषों को साँप के समान डँसता है, तलवार के समान काटता है, भाले के समान बेधता है, रस्सी के समान जकड़ देता है – हाथ-पैर बाँध देता है, अग्नि के समान जलाता है, रात्रि के समान अन्धा बना डालता है, सिर पर गिरे हुए पत्थर के समान मूर्छित कर देता है, विचारदृष्टि को हर लेता है, मर्यादा को नष्ट कर डालता है, पुरुष को मोहरूप अन्धकूप में गिरा देता है, इस संसार में तृष्णा मनुष्य को जर्जर कर डालती है अर्थात् जैसे रस निकालने के लिए सोम रगड़कर निचोड़ा जातात है वैसे ही मनुष्यों के अंग-प्रत्यंग को शिथिल कर डालती है। बहुत क्या कहें, ऐसा कोई दुःख नहीं है, जो संसारी पुरुष को प्राप्त न हो।।7-14।। मल-मूत्र आदि के नगररूप शरीरों में (पुत्र, कलत्र आदि पोष्य जनों में) पुरुष को अनुराग से बाँधने वाली यह विषयविषूचिका दुरुच्छेद्य (अकाट्य) है। यदि इसकी चिकित्सा न की जाय, तो आगे कही जाने वाली हजारों नारकीय दुर्गतियों को प्राप्त कराती है। जहाँ जीवों को पत्थर खाने पड़ते हैं, तलवारों से उनके टुकड़े-टुकड़े किये जाते हैं, बर्फ से सदा तर रक्खे जाते हैं, अंग-प्रत्यंग कुल्हाड़े, कैंची आदि से काटे जाते हैं, चन्दन की नाईं पत्थरों पर घिसे जाते हैं, तलवार के समान तीक्षण पत्तेवाले वृक्षों के वन में दौड़ना पड़ता है, घुनों का सा व्यवहार होता है अर्थात् सर्वांग में काठ के यन्त्रों से पीड़ा पहुँचाई जाती है, तपाई गई लोहे की बड़ी-बड़ी जंजीरें से शरीर को लपेटा जाता है, काँटेदार झाड़ुओं से शरीर बुहारा जाता है (त्वचा रहित किया जाता है), जिनसे सदा आग की लपटें निकलती रहती हैं, ऐसे युद्ध में छोड़े गये बाणों की धारावाहिक दृष्टि होती है, छाया और पानी के बिना ग्रीष्मकाल बिताना पड़ता है, अतिशीत धारागृहों में लगातार झरनों की दृष्टि होती है, पहले काटे गये सिर के पुनः उगने पर फिर-फिर उसका काटना होता है, सुखपूर्वक नींद की तो वहाँ बात भी नहीं होती, मुँह को ढककर श्वास प्रश्वास रोक दिया जाता है, अंगों की निम्नता और उन्नतता से विसंष्ठुल (विषम अवयव) होने के कारण व्यवहार की अयोग्यता होती है, यह सब महासम्पत्ति की अभिवृद्धि के समान सहना पड़ता है()।।15,16।।
इस श्लोक का दूसरा अर्थ टीकाकारों ने यों किया है – पत्थर खाना, तलवार द्वारा अंगछेदन, पर्वत के शिखर से निपातन और पत्थरें की मान को हिमसेक की नाईं सहन करना पड़ता है, कुल्हाड़े और कैंची द्वारा हाथ, पैर आदि अंगें का कर्तन चन्दनलेप की भाँति सहना पड़ता है, असिपत्रवाले वृक्षों के वन में दौड़ना, घुन के समान काठ के यन्त्र में जकड़ा जाना तथा लोहे की गर्म जंजीरों से शरीर को लपेटना देहसंस्कार की नाईं सहना पड़ता है, अग्नि की ज्वाला को बरसा रहे भयानक बाणों की लगातार दृष्टि ग्रीष्मकाल में विनोद के लिए बनाये गये धारा-गृहों की वृष्टि के समान सहनी पड़ती है, शिर के कटने से हुई मृत्यु निद्रासुख के समान सहनी पड़ती है, मुँह बन्द करने से बलपूर्वक किया गया मूकीभाव स्वाभाविक मूकमुद्रा के समान सहना पड़ता है एवं अंगों की छोटाई-बड़ाई से उत्पन्न अकिंचित्करता महती सम्पत्ति की वृद्धि के समान सहनी पड़ती है।
दुःख देने के स्थान तो अनन्त हैं, उनकी तो गणना ही नहीं कही जा सकती, यह तो केवल दिङमात्र का प्रदर्शन है, यो दर्शाकर उसका उपसंहार करते हुए प्रकृत में उनके वर्णन की उपयोगिता कहते हैं।
हे राघव, नश्वर देहों, परतन्त्रापूर्ण एवं इस प्रकार की हजारों कष्टप्रद चेष्टाओं से अतीव क्लेशकारक इस संसार में अवहेलना (अनादर) नहीं करना चाहिए, आगे कही जाने वाली रीति से विचार करना चाहिए और वक्ष्यमाण रीति से ही निश्चय करना चाहिए कि शास्त्र के विचार से कल्याण होता है।।17।।
शास्त्र के विचार से कल्याण होता है, यह निश्चय कैसे हो? क्योंकि शास्त्रविचार में परायण माण्डव्य आदि की भी हजारों दुर्दशाएँ देखी गई हैं, इस शंका का परिहार करते हुए विद्या की दृष्टफलता का प्रतिपादन करते हैं।
हे रघुकुलनन्दन, ज्ञानरूपी कवच से गुप्त शरीरवाले अतएव दुःख के सर्वथा अयोग्य भी ये ध्यानपरायण महामुनि, मन्त्रजपनिरत ऋषि, यज्ञ-याग आदि करने वाले ब्राह्मण एवं जनक आदि राजा अज्ञानियों के समान मनोवृत्ति से होने वाली पूर्वोक्त अनेक प्रकार की संसारपीड़ा का अनुभव करते हुए रहते हैं, ऐसा यदि तुम्हारा ख्याल है, तो वे कैसे सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं ?।।18।।
उनकी स्थिति कैसी है ?
इस लोक में कौतुकरहित (कौतुक से विषय के दर्शन और उपभोग में उत्साह से – शून्य), विविध विकल्पों से होने वाले चित्तविक्षेपों से भी रहित, आत्मरूपी दीपक जिन्हें प्राप्त हो गया है, अतएव विशुद्ध बुद्धि वाले नरश्रेष्ठ जगत में इस प्रकार पूर्णकामरूप से स्थित हैं, जिस प्रकार कि हरि, हर और ब्रह्मा आदि देवता स्थित हैं।।19।। गुरु आदि के साथ विचार कर पदार्थ का परिशोधन होने पर पहले स्थूल आदि शरीरों में तादात्म्याध्यास से जो आत्मसादृश्य था, वह जिसका निवृत्त हो गया है, उस अधिकारी पुरुष को 'तत्त्वमसि' आदि वाक्यों के अर्थ के विचार से तत्त्व के ज्ञात होने पर, मनन द्वारा असंभावना और विपरीत भावनाशून्य बुद्धि से ब्रह्म का साक्षात्कार होने पर मोह के नष्ट होने एवं अति निविड़ भ्रम ज्ञान के विलीन होने पर यह जगत् का भ्रमण मनोविनोद (आनन्दसाधन) ही है, दुःखकारी नहीं है।।20।। हे रामचन्द्रजी, और भी सुनिये, चैतन्यमात्रस्वभाव परमार्थ वस्तु के प्रसन्न होने और हृदय में उत्कृष्ट शान्ति का आविर्भाव होने पर सम्पूर्ण बुद्धिवृत्तियों के शान्तिरसास्वादरूप होने पर अन्तःकरण ब्रह्मरसास्वादपूर्वक विषमतारहित स्वभाव को प्राप्त होता है। तब बुद्धि से तत्त्व का साक्षात्कार होने पर यह जगत् का भ्रमण आनन्दमय हो जाता है, अतः जो आनन्दसाधनता कही, वह ठीक ही है। कटे हुए वृक्ष के समान जड़ शरीर रथ है, इन्द्रियों की विषयाभिमुख प्रवृत्ति घोड़ों की गतिचातुरी है, जिससे घोड़ों का इधर उधर परिचालन किया जाता है अर्थात् लगाम प्राणप्रधान मन है ऐसे रथ आदि के प्रापण से जिसे आनन्दरूप विषयप्राप्त होते हें वह देही (आत्मा) समाधि में परमात्मा ही है। व्यवहारकाल में बुद्धि आदि के परिच्छेद से भले ही रथी सूक्ष्म हो। तत्त्व का साक्षात्कार होने पर इस प्रकार का शुद्ध, बुद्ध, आनन्दघन में विहार कर रहा हूँ, यों विशुद्ध दृष्टि से जगत् का भ्रमण रमण ही है – क्लेशकर नहीं है।।21,22।।
बारहवाँ सर्ग समाप्त
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