चौदहवाँ
सर्ग
साधुसंगम, सत् शास्त्र के अभ्यास
और अन्तःकरण की शुद्धि से बुद्धि को प्राप्त एवं शम और सन्तोष के हेतु विचार की
प्रशंसा।
पूर्वोक्त रीति
से शमनामक पहले मोक्षद्वारपाल का वर्णन कर विचार नामक दूसरे द्वारपाल का वर्णन
करनेवाले वसिष्ठजी बोलेः
हे
श्रीरामचन्द्रजी ! विषय, सन्देह, पूर्वपक्ष, सिद्धान्त और प्रयोजन का विभागपूर्वक
ज्ञान रखने वाले पुरुष को शास्त्रज्ञान से निर्मल परम पवित्र (विशुद्ध) बुद्धि से
नित्य निरन्तर आत्मा का विचार (☼) करना
चाहिए।।1।।
☼ विचार पाँच
प्रकार के हैं, अर्थ और अनर्थ के कारण का विचार, सार और असार का विचार, हेय और
उपादेय का विचार, प्रमाण के तात्पर्य का विचार एवं आत्मतत्त्वविचार। उक्त पाँच
प्रकार के विचारों में स्वाभाविक प्रवृत्ति और विषयों में अनर्थकारिता और
शास्त्रीय प्रवृत्ति एवं वैराग्य में पुरुषार्थहेतुता है, इस प्रकार अन्वय
व्यतिरेक से परीक्षणरूप प्रथम विचार है। स्त्री, पुत्र और अपनी देह में स्वभाव से,
बीज से और परिणाम से अशुचिता, विषमूत्ररूपता और अमंगलता का परीक्षणरूप और ब्रह्मलोकपर्यन्त
सम्पूर्ण सुखों में अनित्यत्व तथा दुःखमिश्रितत्व आदि का परीक्षणरूप दूसरा विचार
है। ये दोनों वैराग्य और मुमुक्षा के हेतु हैं। मुमुक्षा के अनन्तर भी मोक्षसाधन
केवल कर्म है या केवल उपासना है या वे दोनों मिलकर हैं अथवा ज्ञानसमुच्चित कर्म और
उपासना मोक्षसाधन हैं अथवा केवल ज्ञान ही मोक्ष का साधन है, इस प्रकार परीक्षणरूप तीसरा विचार है।
ज्ञान ही मोक्ष का साधन है, ऐसा मान लेने पर भी सांख्य, वैशेषिक आदि का अभिमत
ज्ञान मोक्ष का साधन है या केवल श्रौत ज्ञान ही। श्रौत ज्ञान के मोक्षसाधन होने पर
भी श्रुतियों का द्वैत में अथवा अद्वैत में, सविशेष या निर्विशेष आत्मा में या
अनात्मा में तात्पर्य है, इस प्रकार परीक्षणरूप चौथा विचार है। वह श्रवण कहलाता
है। श्रुति आदि प्रमाणों का अद्वितीय सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में तात्पर्य होने पर
भी अपनी आत्मा में परमार्थरूप से सच्चिदानन्दघनता हो सकती है या नहीं, इस विषय का
रत्नपरीक्षान्याय से अनुभवी गुरु और सतीर्थ्य आदि के संवाद से जीव, ईश्वर और
जगत्तत्व के परिशोधन से निश्चय होने तक परीक्षणरूप पाँचवाँ विचार है। उक्त पाँचों
विचारों में आदि तीन का फल साधन चतुष्टय की सम्पत्ति है और अन्तिम दो का फल क्रमशः
प्रमाण और प्रमेय में असम्भावना की निवृत्ति है। प्रथम तीन यद्यपि भाग्यवश स्वतः
भी प्राप्त हो जाते हैं, तथापि अपनी प्रतीति को दृढ़ करने के लिए फिर
गुरुशास्त्रपूर्वक उनकी प्राप्ति करनी चाहिए। अन्तिम दो तो गुरु और शास्त्र से ही
प्राप्त होते हैं, इसीलिए ऊपर श्लोक में सर्वसाधारणरूप से 'शास्त्रावबोधामलया
धिया' कहा है।
बुद्धि विचार से
सूक्ष्म तत्त्व के ग्रहण में निपुण होकर परम पद को देखती है, इसलिए विचार
संसाररूपी महारोग की औषधि है। अनन्त प्रवृत्तियों से चारों ओर से पल्लवित आकारवाला
आपत्तिरूपी वन विचाररूपी आरों से काटे जाने पर फिर उत्पन्न नहीं होता। हे
महाप्राज्ञ, बन्धुनाश आदि दुःख दूर हो और चित्त में शान्ति आये, वह मोह से व्याप्त
है अर्थात् बुद्धि में स्फुरित नहीं होता। वहाँ पर विचार ही सज्जनों का परम आश्रय
है अर्थात् उचित कर्तव्य के अनुसन्धान में हेतु है। दुःखसन्तरण के लिए विद्वानों
के पास विचार के सिवा और कोई उपाय नहीं है, सज्जनों की मति विचार से अशुभ का त्याग
कर शुभ को प्राप्त होती है। बुद्धिमानों के बल, बुद्धि, सामर्थ्य और समयोचित
स्फूर्ति, क्रिया और उसका फल ये सब विचार से ही सफल होते हैं। यह युक्त है और वह
अयुक्त है, इसके प्रकाशन मे महादीपकरूप एवं अभीष्ट वस्तु की सिद्धि करने वाले
प्रचुर विचार का अवलम्बन कर संसाररूप सागर को पार करना चाहिए। हृदयस्थित विवेकरूप
कमल को कुचल डालने वाले महामोहरूपी हाथियों को विशुद्ध विचाररूपी सिंह मार डालता
है। संसारसंतरण के उपाय से अनभिज्ञ लोग समय पाकर जो परमपद को प्राप्त हुए हैं, वह
विचाररूप प्रदीप का ही उपायप्रकाशनजन्य सर्वोत्तम फल है। हे राघव, बड़े बड़े राज्य
महती सम्पत्तियाँ भोग और अविनाशी मोक्ष ये सब विचाररूपी कल्पवृक्ष के फल है। इस
संसार में महापुरुषों की विवेक से विकसित जो मतियाँ है वे जल में फेंकी गई
तुम्बियों के समान विपत्ति में विषाद को प्राप्त नहीं होती। जो लोग विचार को
उत्पन्न करने वाली (विचारवती) बुद्धि से व्यवहार करते हैं, वे लोग अतिश्रेष्ठ फलों
के पात्र होते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। विविध दुःख मूर्खों के हृदयरूपी वन
में स्थित तथा मुमुक्षा को (मुक्ति की इच्छा के) सर्वप्रथम रोकनेवाले अविचाररूपी
करंज वृक्ष की मंजरियाँ हैं अर्थात् जैसे करंज वृक्ष वन में उगते हैं और अपने
बढ़ाव से दिशाओं को रोकते हैं वैसे ही अविचार मूर्खजनों के हृदय में वास करता है
और मोक्ष की आशा को रोक देता है। उसी अविचार का फल दुःख है। हे रघुवंशमणे, आपकी
अंजन के चूर्ण के ढेर के समान काली और मदिरा (शराब) के नशे में होने वाले चिह्नों
से भ्रम और स्खलन आदि से युक्त अविचाररूपी नींद नाश को प्राप्त हो। जैसे सूर्य
निविड़ अन्धकारों में भी निमग्न नहीं होता, किन्तु स्वयं अन्धकार का विनाश कर सदा
प्रकाशमान रहता है, वैसे ही सदविचार में तत्पर पुरुष बड़ी बड़ी आपत्तियों से युक्त
एवं अतिविस्तारयुक्त अज्ञानों में निमग्न नहीं होता। जिसके अतिनिर्मल मनरूपी तालाब
में विचाररूप कमलराशि खिल जाती है, वह हिमालय की भाँति शोभा को प्राप्त होता है।
अर्थात् शीलता, उन्नता, स्थिरता आदि गुणों से हिमालय के सदृश शोभित होता है।
हिमालय में भी निर्मल मानस सरोवर है और उसमें सदा कमल खिले रहते हैं। मूढ़ता को
प्राप्त हुए जिस पुरुष की बुद्धि विचारशून्य है, उसके लिए चन्द्रमा से वज्र उत्पन्न
होता है, जैसे मूर्खतावश बालक के लिए यक्ष (वेताल) उत्पन्न होता है। भाव यह है कि
मन का देवता चन्द्रमा है और मन चन्द्रमा की नाईं प्रकाश के योग्य है, इसलिए मन में
चांदनी के तुल्य ज्ञानजन्य सुख का ही आविर्भाव होना उचित है। जिस मूर्ख के मन में
शोक, दुःख की उत्पत्ति होती है, उसके लिए चन्द्रमा से भी वज्र उत्पन्न होता है,
जैसे की बालक की मूर्खता से वेताल उत्पन्न होता है। विवेकशून्य अधम पुरुष निरन्तर
दुःख बीजों को रखने के लिए बनाया गया अति विशाल कुसूल (कोटिला) है एवं विपत्तिरूपी
नवीन लताओं के विकास का कारण वसन्त है, ऐसे अधम पुरुष का दूर से त्याग कर देना
चाहिए। जो कोई अपने को और दूसरों को दुःख देने वाले कार्य हैं, जो कोई निषिद्ध
कार्य है और जो मानसिक पीड़ाएँ हैं, वे सब अन्धकार से वेताल की नाईं अविचार से
(अविवेक से) ही उत्पन्न होते हैं। हे रघुकुलतिलक, जिस पुरुष में विवेक नहीं है, वह
निर्जन स्थान में उगे हुए वनवृक्ष के सदृश है और पुरुषार्थ के उपयोगी सत्कर्म करने
में असमर्थ हैं, उससे सदा दूर रहना चाहिए निर्जन स्थान में उत्पन्न वृक्ष भी सज्जन
बटोहियों (पथिकों) को छाया में आश्रय देना आदि कार्यों में असमर्थ रहता है। विचारपूर्ण
अतएव आशा की अधीनता से विमुक्त अधिकारी प्राणियों का मन पूर्णचन्द्र की नाईं आत्मा
में परम विश्रामसुख को प्राप्त होता है। जैसे उदित हुई चाँदनी अत्यन्त शोभा कर
देती है और जल प्यासे प्राणी को शीतल कर देता है, वैसे ही देह में जब विवेकशीलता
उदित होती है, तब वह सबको अत्यन्त विभूषित कर देती है और शीतल कर देती है। जैसे
रात्रि में चन्द्रमा शोभित होता है अर्थात् रात्रि का असाधारण चिह्न चन्द्रमा
शोभित होता है, वैसे ही अधिकारी ब्राह्मण आदि कुल में जन्म लिए हुए पुरुष की
सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थरूप (मोक्षरूप) राजत्वप्राप्ति की सूचिका होने के कारण
पताकाभूत शुद्ध बुद्धि का विचार चँवर-सा (असाधारण राजचिह्न सा) शोभित होता है।
विचार से ही क्रमशः जीवन्मुक्त हुए जीव दसों दिशाओं को दैदीप्यमान करते हुए सूर्य
के तुल्य सुशोभित होते हैं, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है, अपने प्रकाश से सूर्य
अन्धकार का विनाश करते हैं। जैसे रात्रि में बालक को बाहर न निकलने देने के लिए
आकाश में कल्पित प्राणनाशक वेताल विचार से विनष्ट हो जाता है, वैसे ही अपने मन के
अज्ञान से कल्पित स्वरूप का विनाशक यह संसार विचारक से विलीन हो जाता है। जगत के
सभी पदार्थ अविचार न करने से ही भले लगते हैं, सत्य पदार्थ की नाईं सुन्दर लगते
हैं, वास्तव में उनका अस्तित्व नहीं है, इसीलिए वे विचार करने से पत्थर से तोड़े
गये मिट्टी के ढेले की नाईं तहस-नहस हो जाते हैं, मिथ्या प्रतीत हो जाते हैं। यह
संसाररूपी पुराना वेताल बड़ा दुःखप्रद है, पुरुष ने अपने मन में स्थित अज्ञान से
इसकी कल्पना कर रक्खी है, यह विचार करने से विलीन हो जाता है।।2-27।।
विचार का फल
केवल भय की निवृत्ति नहीं ही नहीं है, किन्तु निरतिशय आनन्द की प्राप्ति भी उसका
फल है, ऐसा कहते हैं।
ब्रह्मकैवल्य को
उत्तम फल जानो, जो कैवल्य सुखरूप है, जिसमें जगत की विषमता का तनिक भी सम्पर्क
नहीं है, जिसका कभी बाध नहीं होता और जो दूसरे के आधीन नहीं है। जैसे चन्द्रमा के
उदय से शीतता का उदय होता है, वैसे ही विचार से उत्पन्न निरतिशय आनन्द के बल से
चंचलता के कारण अज्ञान का विनाश होने पर निश्चल स्थिति से उदार आनन्दपूर्णतारूप
निष्कामता का उदय होता है। अचल स्थिति ही सर्वश्रेष्ठ है। उक्त अचल स्थिति को देने
वाली चित्त में स्थित आत्मविचाररूपी महौषधि से सिद्ध हुआ पुरुष न तो अप्राप्त
वस्तु की इच्छा करता है और न प्राप्त का त्याग करता है, कृतकृत्य हो जाता है, यह
अर्थ है।।28-30।।
यदि चित्त विचार
से उत्पन्न ज्ञान से नष्ट हो गया, तो जीवन ही नहीं रहेगा, यदि नष्ट न हुआ, तो फिर
नाना विक्षेपों को उत्पन्न करेगा, ऐसी परिस्थिति में कृतकृत्यता तो मृगतृष्णा ही
ठहरी, इस शंका पर कहते हैं।
सच्चित आनन्दघन
परब्रह्म परमात्मा में लगे हुए अतएव अत्यन्त आभासता को प्राप्त हुए (जैसे भूँजे
हुए बीज बीजाभास हो जाते हैं अर्थात् उनमें अंकुर पैदा करने की सामर्थ्य नहीं रह
जाती, वैसे ही आभासता को प्राप्त हुए) चित्त विक्षेपहेतु वासनाएँ आकाश की नाईं अति
विस्तीर्ण ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाती हैं, अतएव वह न तो विनाश को प्राप्त होता
है जिससे कि जीवन ही न रहे और न राग, द्वेष आदि वृत्तियों से फिर उदय को ही
प्राप्त होता है, जिससे कि विक्षेप हों(►)।
► अथवा
इस श्लोक का अर्थ यों करना चाहिए। परब्रह्म परमात्मा में संलग्न अतएव ब्रह्मभाव को
प्राप्त हुआ चित्त भूँजे हुए बीजों के समान न तो उगता है, जिससे कि विक्षेप का डर
हो और न अनादि वासना से दृढ़ हुआ चित्त विषयसंस्कार से विनाश को ही प्राप्त होता
है जिससे कि जीवन का असंभव हो।
क्योंकि
ब्रह्मवेत्ता पुरुष विशाल जगत को (जगत में स्थित विविध विषयों को) केवल उदासीनता
से देखता रहता है, उनमें आसक्त होकर मन नहीं लगाता केवल उदासीनता से देखता रहता
है, उनमें आसक्त होकर मन नहीं लगाता और न सत्य या पुरुषार्थ समझ कर उनका उपभोग ही
करता है और न सुषुप्ति अवस्था की तरह उपाधि की शान्ति से शान्त होता है, न स्वप्न
की नाईं मनोवासनामय पदार्थों में आसक्त होता है और न मूढ़ जनों की जाग्रत अवस्था
के सदृश बाह्य विषयों के फन्दे में फँसता है तथा नैष्कर्म्य का अवलम्बन करता है और
न कर्मों में ही उलझा रहता है। ब्रह्मज्ञ पुरुष पूर्ण सागर के समान शोभित होता है,
वह गई हुई (नष्ट हुई) वस्तु की उपेक्षा कर देता है अर्थात् उसकी प्राप्ति के लिए
यत्न नहीं करता और प्राप्त वस्तु का अनुसरण करता है, उसे क्षोभ नहीं होता और
निश्चल नहीं होता है अर्थात् स्वाभाविक व्यवहार का त्याग करता हुआ निश्चल नहीं
होता है। (समुद्र पक्ष में) समुद्र भी गये हुए लक्ष्मी, कौस्तुभमणि आदि वस्तु की
उपेक्षा करता है, प्राप्त अन्यान्य रत्नों से अपना व्यवहार करता है, उसे
मर्यादात्याग पर्यन्त क्षुब्धता नहीं होती और वह निश्चल भी नहीं होता। इस प्रकार
पूर्ण मन से युक्त इसी शरीर में अनुभव में आ रहे जीवब्रह्मैक्यरूप योगवाले
जीवन्मुक्त उदार महात्मा इस जगत में विहार करते हैं, विचरते हैं। वे धीर महात्मा
अपनी इच्छानुसार चिरकालतक इस संसार में निवास कर अन्त में देह, इन्द्रिय आदि उपाधि
का त्याग कर अपरिच्छिन्न विदेहकैवल्य को प्राप्त होते हैं। बुद्धिमान पुरुष को
आपत्ति में भी (कुटुम्ब आदि फन्दे में फँसे रहने पर भी) मैं कौन हूँ, यह संसार
किसका है ? यों संसार से छुटकारा पाने के उपाय श्रवण आदि के अनुष्ठान के साथ स्वयं
ही प्रयत्नपूर्वक विचार करना चाहिए। हे श्रीरामचन्द्रजी, राजा सफल चाहे निष्फल
अवश्य कर्तव्य सन्धि, विग्रह आदि का निश्चय विचार से ही करता है, विचार के सिवा
उसका निश्चायक दूसरा मार्ग नहीं है। जैसे रात्रि में घट, पट आदि पदार्थों का
परिज्ञान दीपक से होता है, वैसे ही पुरुषार्थप्राप्ति के हेतु वेद और
वेदान्तसिद्धान्त के सारभूत धर्म तथा ब्रह्मतत्त्व का निर्णय विचार से ही किया
जाता है। विचाररूपी सुन्दर नेत्र अन्धकार में नष्ट सा (व्यर्थ-सा) नहीं होता, अति
तेजस्वी सूर्य आदि में कुण्ठित नहीं होता एवं जो वस्तु सामने नहीं है, व्यवहित है
उसे भी देख लेता है। प्रसिद्ध नेत्र अन्धकार में नष्ट से हो जाते हैं प्रचुर
तेजवाले सूर्य आदि को नहीं देख सकते, चकाचौंध होने के कारण कुण्ठित हो जाते हैं,
एवं जो वस्तु व्यवहित है और दूर है उसे नहीं देख सकते। जो पुरुष विवेकान्ध
(विवेकरूपी नेत्रों से हीन) है वह जन्मान्ध है, उस दुर्मति के लिए सब शोक करते
हैं, जिस पुरुष को विवेक आत्मा की नाईं प्रिय है, वह दिव्यचक्षु है वह सम्पूर्ण
वस्तुओं में श्रेष्ठ है, अर्थात् वह आपत्तियों पर विजय पाता है अथवा परम पुरूषार्थ
मोक्ष को प्राप्त करता है।। 31-41।।
विचारों में भी
जो सारभूत (श्रेष्ठतम) विचार है, उसका निर्देश करते हैं।
परमात्मप्राय
(सदा परमात्मा में संलग्न) महान आनन्द की एकमात्र साधन आदरणीय विचारधारा का एक
क्षण के लिए भी परित्याग नहीं करना चाहिए। जैसे परिपाक होने के कारण अत्यन्त
माधुर्य से युक्त आम का फल महापुरुषों को भी अच्छा लगता है, वैसे ही विचार से
रमणीय पुरुष तत्त्वज्ञों को भी अच्छा लगता है, जिज्ञासुओं की तो बात ही क्या है ?
विचार से जिनकी मति अतिनिर्मल है और विचार से ही जिन्हें ज्ञानमार्ग में गमन ज्ञात
है, वे अनेक दुःखमय गर्तों में (जन्म-मरण परम्परा में) बार-बार नहीं गिरते। रोग,
विष, शस्त्र की चोट आदि सैंकड़ों दुःखों से शिथिल शरीरवाला रोगी वैसा नहीं रोता
जैसा कि अविचार से जिसने अपनी आत्मा का प्रायः हनन कर दिया है, वह मूर्ख पुरुष
विविध जन्म-मरण परम्पराओं में रोता है। कीचड़ में मेंढक बनना अच्छा है, विष्ठा का
कीड़ा होना अच्छा है और अन्धेरी गुफा में साँप होना अच्छा है, पर मनुष्य का
अविचारी होना अच्छा नहीं है। अविचार सम्पूर्ण क्लेशों का अपनी निजी घर है,
सम्पूर्ण सज्जनों द्वारा तिरस्कृत है, एवं समस्त दुर्गतियों की चरम सीमा है, इसलिए
उसका परित्याग कर देना चाहिए। महात्मा पुरुष को सदा विचारशील होना चाहिए, लोक में
यह बात प्रसिद्ध है कि अन्धकूपरूप राग द्वेष आदि में गिर रहे लोगों का विचार
अवलम्बन है। विचारपूर्वक स्वयं ही अपने आत्मा से राग, द्वेषादि प्रवाह में गिर रहे
अपने आत्मा को जबरदस्ती स्थिरकर संसाररागरूपी सागर से अपने मनरूपी मृग को उतारना
चाहिए।।42-49।।
विचार के स्वरूप
को दिखलाते हैं।
मैं कौन हूँ
(क्या देह आदि ही मैं हूँ या उनसे विलक्षण हूँ यों त्वं पदार्थ का विचार) और यह
संसारनाम का दोष मुझे कैसे प्राप्त हुआ(यह संसाररूप दोष अधिष्ठान-ब्रह्म-में कैसे
आ गया, यो तत्पदार्थ का विचार) श्रुति, मुनि आचार्य तथा साम्प्रदायिक पुरुषों
द्वारा प्रदर्शित न्याय से इस प्रकार परामर्श विचार कहलाता है। ब्रह्मा ने पत्थर का
और अविचारशील दुर्बुद्धि का हृदय दुःख के (क्लेश के) लिए ही बनाया है, (पत्थर के
पक्ष में) घन से छेदन आदि क्लेश से होनेवाले दुष्ट छेद के लिए ही बनाया है,
अन्यत्र उसका कोई भी उपयोग नहीं है, क्योंकि वह अन्धे से भी अन्धा और मोह से
अत्यंत घना है। अन्धा देखे बिना कुएँ में गिरता है, दुर्बुद्धि का मन देखकर भी
मोहवश नरक में गिरता है। (पत्थर के पक्ष में) जड़ होने से अन्धे से भी अन्धा है और
कठोर होने से मोह से भी अधिक घना है। हे श्रीरामचन्द्रजी, इस व्यवहारभूमि में सत्य
के ग्रहण और असत्य के त्याग को देख रहे विद्वानों को विचार के बिना उत्तम तत्त्व
कुछ भी प्रतीत नहीं होता। विचार से तत्त्व का ज्ञान होता है, तत्त्वज्ञान से
विश्रान्ति (मन की निश्चलता) होती है। विश्रान्ति से मन में जो शान्ति प्राप्त
होती है, वही सम्पूर्ण दुःखों का विनाश है।।50-53।।
विस्तारपूर्वक
कहे गये विचार का ही संक्षेपतः उपसंहार करते हैं-
श्रीरामजी, अतः
पृथिवी में सभी लोग स्फुट विचारदृष्टि से ही वैदिक और लौकिक कर्मों में सफलता
प्राप्त करते हैं, आत्मतत्त्व की आगे कही जाने वाली सप्तम भूमिकारूप उत्तम प्रकटता
भी विचार से ही प्राप्त करते हैं, इसलिए शम, दम आदि साधनसम्पत्ति से युक्त आपको
उक्त विचारशीलता रूचिकर हो।।54।।
चौदहवाँ सर्ग
समाप्त
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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